शहीद ऊधम सिंह जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानियों में से एक हैं । जलियाँ वाला बाग़ में गोलियां दागने का जो आदेश Brigadier General Reginald Dyer ने दिया था, उस आदेश को ऊपर से approve करने वाले Michael O'Dwyer, का वध करने के बाद इन्हें 31 जुलाई 1940 को फांसी दे दी गयी थी ।
इनका जन्म 26 दिसंबर 1899 को हुआ था । इनका नाम शेर सिंह रखा गया था । माता और पिता दोनों ही के देहावसान के बाद शेर सिंह, और इनके बड़े भाई मुक्त सिंह जी अमृतसर की केंद्रीय खालसा अनाथालय में दाखिल हुए और वहीँ पले बढे । वहां इनके नए नाम रखे गए । शेर सिंह उधम सिंह हो गए, और मुक्त सिंह साधू सिंह बन गए । 1917 में साधू सिंह जी भी गुज़र गए, और उधम सिंह जी अपनी पढ़ाई मेट्रिक तक पूरी कर के 1919 में अनाथालय से बाहर आये ।
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग़ का भयंकर हादसा तो हम सब को याद है ही ।
इस दिन अपने नेताओं को रोव्लेट एक्ट के विषय में सुनने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग ( बच्चे बूढ़े, महिलाएं और जवान ) शांतिपूर्ण सभा के लिए जलियांवाला बाग़ में एकत्रित हुए थे । उधम सिंह और अनाथालय के उनके अन्य मित्र यहाँ पीने का पानी बाँट रहे थे ।
कुछ ही देर बाद सिपाही राइफले, खुखरी आदि से लैस यहाँ आये । साथ ही सेना की गाड़ियाँ भी थीं जो मशीन गनों से लैस थीं । बाग़ का प्रवेश द्वार छोटा था, सो गाड़ियाँ बाहर ही रुकी रही थीं । ब्रिगेडियर जनरल Reginald Dyer कमांड में था । शाम 5:15 पर सेना की टुकड़ी ने प्रवेश कर लिया था । एकत्रित भीड़ को हटने की कोई चेतावनी नहीं दी गयी । जनरल डायर ने अपने सैनिकों को गोली चलाने का हुक्म दिया, और दस मिनट तक निहत्थे लोगों पर गोलियों की बारिश होती रही । प्रवेश द्वार पर तो सैनिक थे, तो कोई बाहर नहीं भाग सकता था । कुछ लोगों ने दीवार कूद कर भागने का प्रयास किया, तो कुछ जान बचाने के लिए कुँए में कूद गए - जिनके ऊपर और लोग भी कूदे - तो बचने की संभावनाएं तो हम समझ ही सकते हैं की क्या रही होंगी । वहां स्मृति पटल पर लिखा है कि 120 लाशें तो सिर्फ कुँए में से ही निकाली गयी थीं ।
यह जानना जरूरी है की बाग़ में तो कमांड ब्रिगेडियर जनरल Reginald Dyer के पास थी, किन्तु ऊपर से उन्हें उनकी इस कार्यवाही के लिए अनुमोदित किया था Michael O'Dwyer ने, जिनका वध बाद में ऊधम सिंह जी ने किया था । उन्होंने इस बारे में पूछी जाने पर की उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह उत्तर दिया था : "to teach the Indians a lesson, to make a wide impression and to strike terror throughout Punjab"
इस घटना ने उधम सिंह जी के जीवन को पूरी तरह बदल दिया । उन्होंने अंग्रेजों से, और खास तौर पर Michael O'Dwyer से बदला लेने की कसम उठाई । वे राजनीति में उतारे, और क्रांतिकारी बन गए । उन्होंने अपना नाम भी बदल कर राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रखा - यह दर्शाने के लिए की वे तीनों धर्मों से अलग, तीनों धर्मों के फोलोएर हैं , लेकिन पहले आज़ादी के सेनानी हैं । अपने जीवन में उन्होंने और भी कई नाम इस्तेमाल किये, जिनमे से कुछ नाम हैं - शेर सिंह, उधम सिंह, उधान सिंह, उदे सिंह, उदय सिंह, फ्रैंक ब्राज़ील।
वे एक साधारण दिखने वाला जीवन जीते हुए छिपे तौर पर आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहे । 30 August 1927 को इन्हें आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया । इनके पास से पुलिस ने हथियार, और ग़दर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार "ग़दर इ गूँज" की प्रतियाँ बरामद कीं, और इन्हें 5 साल की कठोर कारावास की सजा हुई । 23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाया गया, तब भी उधम सिंह जेल में ही थे । इन्हें जेल से 23 ओक्टोबर 1931 को रिहा किया गया । किन्तु अपने गाँव में भी इन्हें पुलिस द्वारा लगातार परेशान किया जाता रहा । इन्होने वहां पेंटर का काम भी किया । 3 साल तक ये पंजाब में अपने साधारण जीवन के साथ गुप्त रूप से क्रान्ति के भाग भी बने रहे, और लन्दन जा कर माइकल डॉवर के वध की योजना भी बनाते रहे । 1933 में ये अपने गाँव गए, और वहां से गुप्त रूप से कश्मीर चले गए । पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर ये कश्मीर से जर्मनी चले गए । 1934 में ये लन्दन पहुंचे , और कमर्शियल रोड के पास रहने लगे ।
वे एक साधारण दिखने वाला जीवन जीते हुए छिपे तौर पर आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहे । 30 August 1927 को इन्हें आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया । इनके पास से पुलिस ने हथियार, और ग़दर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार "ग़दर इ गूँज" की प्रतियाँ बरामद कीं, और इन्हें 5 साल की कठोर कारावास की सजा हुई । 23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाया गया, तब भी उधम सिंह जेल में ही थे । इन्हें जेल से 23 ओक्टोबर 1931 को रिहा किया गया । किन्तु अपने गाँव में भी इन्हें पुलिस द्वारा लगातार परेशान किया जाता रहा । इन्होने वहां पेंटर का काम भी किया । 3 साल तक ये पंजाब में अपने साधारण जीवन के साथ गुप्त रूप से क्रान्ति के भाग भी बने रहे, और लन्दन जा कर माइकल डॉवर के वध की योजना भी बनाते रहे । 1933 में ये अपने गाँव गए, और वहां से गुप्त रूप से कश्मीर चले गए । पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर ये कश्मीर से जर्मनी चले गए । 1934 में ये लन्दन पहुंचे , और कमर्शियल रोड के पास रहने लगे ।
इन्होने अपनी कार, रिवोल्वर और बारूद आदि खरीद तो लिए, परन्तु वे अपने शत्रु का वध ऐसे समय पर करना चाहते थे जिससे यह ज्यादा से ज्यादा दुनिया की नज़र में आये, जिससे स्वाधीनता संग्राम की खबर अधिक फैले ।
13 मार्च 1940 को ईस्ट इंडिया असोसिएशन और सेन्ट्रल एशियन सोसाइटी की बैठक 10 Caxton Hall में आयोजित थी । वहां Michael O'Dwyer. भी बैठक को संबोधित करने वाले थे । उधम सिंह ने एक किताब को काट कर रिवोल्वर छिपाने के लिए तैयार किया, और इसमें अपने भरी हुई रिवोल्वर छिपा कर वहां आये । बैठक के बाद जब सभा उठने लगी, तो माइकल डॉवर, Zetland से बात करने मंच की और बढे, तब उधम सिंह जी ने अपने रिवोल्वर निकल कर उन पर गोलियां चला दीं । दो गोलियां निशाने पर लगीं, और वहीँ स्पोट दात हुई । उधम सिंह जी Zetland पर भी गोलियां चलाएँ, अपर उन्हें सिर्फ मामूली चोट ही आई । Luis Dane को एक ही गोली लगी, परन्तु गंभीर चोट आने से वे भूमि पर गिर पड़े । Lord Lamington का दांया हाथ जख्मी हुआ । उधम सिंह जी का वहां से भागने का कोई इरादा नहीं था । उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दी, और बाद में बताया की यह उन्होंने सोच समझ कर जलियांवाला बाग़ में हुए हत्याकांड और भारत माता के अपमान का बदला लेने केलिए किया है । उनकी रिवोल्वर, चाकू, डाइरी और एक गोली अब भी स्कोट लैंड यार्ड के म्युज़िअम में हैं । उन्होंने इस बात पर खेद जताया की वे सिर्फ एक ही शत्रु का वध पाए क्योंकि उनके निशाने पर अन्य दो भी थे ।
भारत में उनके इस कार्य की मिली जुली प्रतिक्रिया रही । कोंग्रेस संचालित प्रेस ने उनके कार्य की भर्त्सना की । गांधी जी और नेहरु जी ने भी उस वक्त इस हिंसा भर्त्सना की , लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रधानमन्त्री नेहरु ने उधम सिंह जी को राष्ट्रभक्त कह कर उन्हें प्रणाम भी किया । सुभाष चन्द्र बोस जी ने उस समय खुले दिल से उधम सिंह जी के कार्य का समर्थन किया । स्वतंत्र अखबारों ने उनके कार्य का समर्थन किया, और उन्हें नाज़ी कहे जाने का विरोध करते हुए लिखा की शायद आगे इतिहासकार जानेंगे की भारत में ब्रिटिश राज को ख़त्म करने वाले नाज़ी नहीं, बल्कि खुद अंग्रेजों की बरती क्रूरताएं थीं । कानपुर की एक आमसभा में एक वक्ता ने कहा की आखिर अब जलियांवाला बाग़ का दर्द कम हो सका है । भारत में मिली जुली प्रतिक्रिया रही, किन्तु यूरोप की प्रेस में अधिकतर छिपे शब्दों में उनका समर्थन ही किया गया । यूरोप के पत्रकारों को जलियांवाला बाग़ की भयानक घटना भूली नहीं थी, और यह इन रिपोर्टों में झलकता दिखा । कुछ प्रेस में छपी लाइनें :
** Times of London : "The Freedom Fighter" ... and his action as "an expression of the pent-up fury of the downtrodden Indian People"
** Bergeret, Rome : Courageous
** Berliner Borsen Zeitung "The torch of the Indian freedom",
** German radio : "The cry of tormented people spoke with shots".
and
"Like the elephants, the Indians never forgive their enemies. They strike them down even after 20 years".
** Times of London : "The Freedom Fighter" ... and his action as "an expression of the pent-up fury of the downtrodden Indian People"
** Bergeret, Rome : Courageous
** Berliner Borsen Zeitung "The torch of the Indian freedom",
** German radio : "The cry of tormented people spoke with shots".
and
"Like the elephants, the Indians never forgive their enemies. They strike them down even after 20 years".
तब ब्रिटेन खुद ही यूरोप में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा था, और उधम सिंह जी के लिए पनपे समर्थन से उनकी भारत से आने वाली आपूर्ति पर इस मानसिकता का बहुत असर पडा । इस अँगरेज़ विरोधी भावना ने Quit India Movement की शुरुआत करने का माहौल मजबूत बनाया और 1942 में यह movement चली जिसके फल स्वरुप आखिर 1947 में हम आज़ाद हुए ।
1 अप्रैल 1940 को इन पर मुकदमा शुरू हुआ । कोर्ट में मुक़दमे के दौरान उन्होंने अपना नाम ""Ram Mohammad Singh Azad" बताया । 31 जुलाई 1940 को इन्हें Pentonville Prison में फांसी दे दी गयी । इन्हें दूसरे कैदियों की ही तरह वहीँ जेल में दफना दिया गया । जुलाई 1974 में सुल्तानपुर लोधी के MLA साधू सिंह जी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से कहा की वे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से उधम सिंह जी के पार्थिव शरीर के अवशेष भारत मंगवाएं । साधू सिंह जी खुद ब्रिटेन जा कर इन्हें लेकर आये, और इन्हें एक शहीद का सम्मान दिया गया । इनके लौटने के समय हवाई अड्डे पर शंकर दयाल शर्मा जी और जेल सिंह जी मौजूद थे । बाद में इनके जन्म स्थान - सुनाम पंजाब में इनका पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया और इनकी अस्थियों का विसर्जन गंगा जी में हुआ ।
वीर स्वतंत्रता सेनानी को नमन ।
इस लेख में लिखी जानकारी इन्टरनेट से ली गयी है। जहां तक मेरी जानकारी है, ये जानकारियाँ सही हैं .लेकिन यह एक प्रामाणिक जीवनी नहीं बल्कि मेरी तरफ से मेरे आदर्श व्यक्तित्व को एक निजी श्रद्धांजलि है। सन्दर्भ : विकिपीडिया और अन्य अंतरजाल स्रोत ।