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गीता

DISCLAIMER :

I am not able to implement all this in real life. I am a student of the Geeta, and just as normal a human being with as normal circumstances as most of the readers here (not all - saome readers may be very high level ideal persons). I am just trying to read / understand / share the Geeta's message NOT claiming to be a person with the high ideal characteristics intended in the Geeta. I am not a hippocrite, and I do know that I have my limitations and weaknesses. I know many atheist persons who present the verses of the vedas perfectly. Please do not associate me with the perfection of the Geeta (or hippocricy ) just because I am trying to share the nectar I received from it) Krishna says elsewhere in the geeta that four types of persons try to get into this study - and only the highest category are the "gyaani" category. I am not one of them.


मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ की मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

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यह गीता शृंखला , और रामायण कविता मेरे दूसरे ब्लॉग " आराधना " पर भी उपलब्ध है

1.1 धृतराष्ट्र उवाच :
धर्म क्षेत्रे कुरु कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किं कुर्वत संजयः 

1.2 संजय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत
1.3 पश्यैतां पाण्डुपुत्राणां आचार्य महतीं चमूं।
व्यूढां द्रुपद पुत्रेण तव शिष्येण धीमता 

2.1 संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाचमधुसूदनः 

2.2 श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन 

2.3 क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वैयुपपद्यते।
क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तपः।।
2.4 अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन  
2.5 गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके
हत्वार्थ कामान्स्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान 

2.6 न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेमः यदि वा नो जयेयुः

यानेव हत्वा न जिजीविषाम -
स्ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः 

2.7 कार्पण्यदोषोपहत्स्वभावः
पृच्छामि त्वाम् धर्मसम्मूढचेताः

यच्छ्श्रेयोस्यान्निश्चितम्ब्रूहितन्मे
शिष्यस्ते अहं शाधिमांत्वाम्प्रपन्नं 

2.8 न हि प्रपश्यामि ममापनुद्यात
यच्छ्होकमुच्छोषणमिन्द्रियाणां

अवाप्यभूमावसपत्नंरिद्धं
राज्यं सुराणामपिचाधिपत्यं 

2.9 and 2.10 संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं , गुडाकेशः परन्तप 

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत 

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच
 
2.11 श्री भगवानुवाच्
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादान्श्चभाषसे 

गतासूनगतासून्श्च नानुशोचन्ति पण्डिताः 

2.12 and 2.13
नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव नभविष्यामः सर्वे वयमतः परम् 

देहिनोSअस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा 
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति 
2.14 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः

आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत  

2.15 यं हि न व्यथ्यन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् 

सं दुःख सुखं धीरं सोSमृतत्वायकल्पते 

2.16 and 2.17 नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः

उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः

2.18 and 2.19 अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। 
अनाशिनोS प्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।