आज रचना जी के ब्लॉग "बिना लाग लपेट के…" पर यह लेख पढ़ा : "ईश्वर - हिन्दू धर्म "। इसमें रचना जी ने हिन्दू धर्म में अवतारों के तत्कालीन सामाजिक बिहेवियर और उसपर हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा होने वाली आलोचना और उसके लिए धार्मिक सम्मति पर लिखा है । इस पर टिप्पणी लिखने लगी , तो वह टिप्पणी पूरी पोस्ट ही बन गयी - इसलिए वहां लिंक दे कर यहाँ पोस्ट के रूप में पब्लिश कर रही हूँ ।
इससे पहले भी मैं इसी "हिन्दू धर्म में अवतारों" की आलोचना , उनकी "मानवीय गलतियों" की आलोचना आदि पर , इस ब्लॉग पर , यहाँ लिखा था , लिंक क्लिक कर आप फिर से पढ़ सकते हैं ।
---------------------
-त्रुटी सुधार
यह हिन्दू धर्म की "खासियत" या "तारीफ़" की बात नहीं है की हम अपने आराध्यों की आलोचना करते हैं, बल्कि यह हमारी कमी है, कि हमने इसे इतना common बना लिया कि अब यह हमें normal लगने लगा है । एक रेपिस्ट के लिए रेप करना "normal" है, एक चोर के लिए चोरी करना "normal" है, एक डाकू के लिए डाका डालना भी normal है । इसका अर्थ यह नहीं है कि यह सब सच ही में नोर्मल है । .............. और इसी तरह से आराध्यों की आलोचना भी normal नहीं है, और "हिन्दू" या कोई भी समाज / धर्म इसे सही नहीं ही मानते हैं / ठहरा रहे हैं ।
हम ऐसा इसलिए समझने लगे हैं, कि हमें अपने धर्म के बारे में सही जानकारी ही नहीं है ।
अवतारों की आलोचना करने का अधिकार हमें "हिन्दू धर्म" नहीं देता - यह हमारा धर्म के बारे में अज्ञान है जो हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा धर्म हमें इन अवतारों के बारे में "क्रिटिकल" होने का अधिकार देता है । तीन उद्धरण दे रही हूँ अपनी बात रखने के लिए ।
-------------
१. रामायण में बाली राम से प्रश्न करता है कि आपने मुझ पर छुप कर वार क्यों किया - अर्थात आलोचना । राम उत्तर देते हैं कि मेरे निर्णय के कारण मैं जानता हूँ - तुम्हे प्रश्न करने का अधिकार ही नहीं है । अर्थात - जिसे मारा गया - उसे तक भी आलोचना का अधिकार नहीं है , हमारी और आपकी तो खैर बात ही छोड़ दीजिये ।
--------------
२. गीता में कृष्ण कहते हैं कि
(४.६ से ४.९ 4.6 to 4.9 )
"सब जीवों का प्राणदाता, अजन्मा, ईश्वर हो कर भी , मैं , अपनी प्रकृति को अपने अधीन कर (धर्मरक्षा के लिए और अधर्म के नाश के लिए ) प्रकट होता हूं । जो मुझे और मेरे अवतरण को दिव्य जानते हैं, वे मुझे प्राप्त करते हैं"
( ४.१४ 4.14)
"मैं अपने कर्म में लिप्त नहीं होता - इसलिए कर्मफल में नहीं बंधता । और जो ज्ञानीजन इस बात को समझते हैं वे भी कर्म से नहीं बंधते "
****(आपके शब्दों में "कर्मों की आलोचना" - यह भी कर्म फल ही होता है , और यह ज्ञानीजन नहीं करते)****
(९ .९ से ९ . ११ 9.9 to 9.11 )
" मैं सब कर्मों को करते हुए भी उनमे आसक्ति नहीं रखता, तो कर्म मुझे नहीं बाँध सकते । जो "मूर्ख" इस बात को नहीं समझते, वे मूर्ख , मानव रूप में विचरण करते हुए मुझ "दिव्य" को नहीं पहचानते और मेरी आलोचना करते हैं । वे मोहित हुए (माया से, अपने अज्ञान को ज्ञान समझ कर के मोह में विमूढ़ / बेसुध हुए ) इन "राक्षसी" और "नास्तिकता की" बातों की ओर आकर्षित होते हैं, और मुक्ति की संभावनाओं से दूर होते जाते हैं ।
---------------
३. रामचरित मानस में जब शिव जी सती जी को राम जी की लीलाएं सुनाते हैं तो सती जी इस "मानव अवतार" के "परमेश्वर" होने पर अविश्वास करती हैं, राम जी की मानवी लीलाओं की "आलोचना" करते हुए प्रश्न करती हैं , कि "ऐसे मूर्ख मानव संवेदनाओं में बहने वाले को आप परमेश्वर कहते हैं ?" तब शिव जी उन्हें बहुत समझाते हैं, कि यह सब लीला है और प्रभु की "आलोचना" करना महापाप है ।
साम का अर्थ है समझाइश : हमें समझाया गया कि हमारे आराध्य "imperfect" हैं, उन्होंने तो बहुत सी "मानवीय भूलें" की हैं, वे आराधना के योग्य हैं ही नहीं ।
मैं यह सब कह कर सिर्फ इतना समझाने का प्रयास कर रही हूँ कि हिन्दू धर्म हमें कदापि अपने आराध्यों की आलोचना करने की स्वतन्त्रता नहीं देता, यह हमें झूठी पट्टी पढ़ाई गयी है , समय आ गया है की अपनी आँखों पर बंधी पट्टी को हम उतार फेंकें ।
इससे पहले भी मैं इसी "हिन्दू धर्म में अवतारों" की आलोचना , उनकी "मानवीय गलतियों" की आलोचना आदि पर , इस ब्लॉग पर , यहाँ लिखा था , लिंक क्लिक कर आप फिर से पढ़ सकते हैं ।
---------------------
-त्रुटी सुधार
पूरे लेख में "आलोचना" शब्द से अर्थ "निंदा की मंशा से की गयी आलोचना " पढ़ा जाए । यह सुधार आदरणीय सुज्ञ जी के दिए कमेन्ट और "आलोचना" और "निंदा" में फर्क के सन्दर्भ में है ।
"
------------------------------
यह हिन्दू धर्म की "खासियत" या "तारीफ़" की बात नहीं है की हम अपने आराध्यों की आलोचना करते हैं, बल्कि यह हमारी कमी है, कि हमने इसे इतना common बना लिया कि अब यह हमें normal लगने लगा है । एक रेपिस्ट के लिए रेप करना "normal" है, एक चोर के लिए चोरी करना "normal" है, एक डाकू के लिए डाका डालना भी normal है । इसका अर्थ यह नहीं है कि यह सब सच ही में नोर्मल है । .............. और इसी तरह से आराध्यों की आलोचना भी normal नहीं है, और "हिन्दू" या कोई भी समाज / धर्म इसे सही नहीं ही मानते हैं / ठहरा रहे हैं ।
हम ऐसा इसलिए समझने लगे हैं, कि हमें अपने धर्म के बारे में सही जानकारी ही नहीं है ।
जानकारी कैसे हो ? एक तरीका था कि हम धर्मग्रन्थ पढ़ कर जानते - लेकिन हमने तो अपने ग्रन्थ भी नहीं पढ़े (जिससे हम जान पाते) कि हमारा धर्म क्या कहता है (समय कहाँ है हमारे पास यह सब पोथियाँ पढने के लिए ???) । और दूसरा तरीका था धर्म गुरुओं से आम इंसान धर्म के बारे में जान पाता । वह भी नहीं हुआ , क्योंकि गुरुओं से सीखना तो खैर आज के modern ज़माने में हमें अपनी तौहीन ही लगती है, और सच्चे गुरु भी इस कलियुग में मिलना बड़ा कठिन है :( :( ....... तो उस दिशा से भी हम कभी नहीं जान पाए कि "क्या हमें अधिकार है भी या नहीं यह "आलोचना" करने का ।"
अवतारों की आलोचना करने का अधिकार हमें "हिन्दू धर्म" नहीं देता - यह हमारा धर्म के बारे में अज्ञान है जो हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा धर्म हमें इन अवतारों के बारे में "क्रिटिकल" होने का अधिकार देता है । तीन उद्धरण दे रही हूँ अपनी बात रखने के लिए ।
-------------
१. रामायण में बाली राम से प्रश्न करता है कि आपने मुझ पर छुप कर वार क्यों किया - अर्थात आलोचना । राम उत्तर देते हैं कि मेरे निर्णय के कारण मैं जानता हूँ - तुम्हे प्रश्न करने का अधिकार ही नहीं है । अर्थात - जिसे मारा गया - उसे तक भी आलोचना का अधिकार नहीं है , हमारी और आपकी तो खैर बात ही छोड़ दीजिये ।
--------------
२. गीता में कृष्ण कहते हैं कि
(४.६ से ४.९ 4.6 to 4.9 )
"सब जीवों का प्राणदाता, अजन्मा, ईश्वर हो कर भी , मैं , अपनी प्रकृति को अपने अधीन कर (धर्मरक्षा के लिए और अधर्म के नाश के लिए ) प्रकट होता हूं । जो मुझे और मेरे अवतरण को दिव्य जानते हैं, वे मुझे प्राप्त करते हैं"
( ४.१४ 4.14)
"मैं अपने कर्म में लिप्त नहीं होता - इसलिए कर्मफल में नहीं बंधता । और जो ज्ञानीजन इस बात को समझते हैं वे भी कर्म से नहीं बंधते "
****(आपके शब्दों में "कर्मों की आलोचना" - यह भी कर्म फल ही होता है , और यह ज्ञानीजन नहीं करते)****
(९ .९ से ९ . ११ 9.9 to 9.11 )
" मैं सब कर्मों को करते हुए भी उनमे आसक्ति नहीं रखता, तो कर्म मुझे नहीं बाँध सकते । जो "मूर्ख" इस बात को नहीं समझते, वे मूर्ख , मानव रूप में विचरण करते हुए मुझ "दिव्य" को नहीं पहचानते और मेरी आलोचना करते हैं । वे मोहित हुए (माया से, अपने अज्ञान को ज्ञान समझ कर के मोह में विमूढ़ / बेसुध हुए ) इन "राक्षसी" और "नास्तिकता की" बातों की ओर आकर्षित होते हैं, और मुक्ति की संभावनाओं से दूर होते जाते हैं ।
---------------
३. रामचरित मानस में जब शिव जी सती जी को राम जी की लीलाएं सुनाते हैं तो सती जी इस "मानव अवतार" के "परमेश्वर" होने पर अविश्वास करती हैं, राम जी की मानवी लीलाओं की "आलोचना" करते हुए प्रश्न करती हैं , कि "ऐसे मूर्ख मानव संवेदनाओं में बहने वाले को आप परमेश्वर कहते हैं ?" तब शिव जी उन्हें बहुत समझाते हैं, कि यह सब लीला है और प्रभु की "आलोचना" करना महापाप है ।
किन्तु सती जी को समाधान नहीं होता और वे अपनी "आलोचना" पर मन ही मन अडिग रहती हैं । इस पर एक बहुत लंबा वर्णन है जिसके अंत में शिव द्वारा मानस रूप से सती जी का त्याग होता है, और आखिर सती जी भी मानव संवेदनाओं की ही लीला रचते हुए (जिन संवेदनाओं की उन्होंने राम जी में आलोचना की थी) अपने पिता की यज्ञशाला में आत्मदाह कर लेती हैं ।
-----------------
-----------------
यह तीनों वर्णन कहने का मतलब है कि "धर्म" आपको , या मुझे , या किसीको भी , ईश्वर की / अवतारों की , "आलोचना" करने आ अधिकार नहीं देता । यह तो पिछले ६-७ शताब्दियों में विदेशी धर्मों के विदेशी प्रचारकों (और बाद में विदेशी प्रचारकों और देशी धर्मान्तरित अव्लम्बियो, जो भूल चुके थे कि उनके पुरखों को कैसे धर्मान्तरित किया गया था ) की फैलाई हुई सीख है जो हिन्दुओं को इस भ्रान्ति में डाल रही है कि "तुम अपने आराध्यों की "आलोचना" करने को स्वतंत्र हो ।"
क्योंकि उस पराधीन कालखंड में (पहले मुग़ल और फिर ब्रिटिश राज्य के कालखंड ) यह "आलोचना" राज करने वालों "शक्तिवंतों" की ओर से आती थी , विरोध करने का अर्थ मृत्युदंड था । इसलिए यह सदियों तक सुनते सुनते जनमानस के मन में "acceptable" हो गयी ।
क्योंकि उस पराधीन कालखंड में (पहले मुग़ल और फिर ब्रिटिश राज्य के कालखंड ) यह "आलोचना" राज करने वालों "शक्तिवंतों" की ओर से आती थी , विरोध करने का अर्थ मृत्युदंड था । इसलिए यह सदियों तक सुनते सुनते जनमानस के मन में "acceptable" हो गयी ।
माता पिता भी सत्य बताते हुए डरते , कि आखिर बच्चे तो बच्चे होते हैं, उन्हें सत्य कहा , तो वे बाहर कह देंगे, और मारे जायेंगे । तो वे बच्चों को "बड़ा" होने पर बताने के लिए बात को टाले रखते । लेकिन विडम्बना यह है कि , बच्चे बड़े होने तक उनकी विचारधाराएं पक जाती है, उनके मन में "आलोचना" पक्की बैठ जाती है । यही हमारे धर्म के साथ हुआ ।
फिर देश में सरकार बनी जो हमें "secularism" की पट्टी पढ़ाती रही, इतिहास की पुस्तकों से वह सब क्रूरताएं छिपाई रखी गयीं कि किस तरह "हिन्दू" को जबरन धर्म के बारे में भ्रमित किया गया । इसलिए हम यही समझ रहे हैं कि यह "आलोचना" सही है, बल्कि इससे भी आगे बढ़ कर यह समझ रहे हैं कि हिन्दू धर्म की सीख ही है कि आराध्यों की आलोचना करो । जबकि यह अर्धसत्य है, जो झूठ से भी अधिक खतरनाक होता है ।
-------------
"साम" "दाम" "दंड" "भेद" ये चार तरीके होते हैं मनुष्य को उसके विश्वासों से डिगाने के लिए । इस "धर्म निंदा और धर्मांतरण" के सिलसिले में, जब हिन्दू "गुलाम" थे और "दुसरे धर्मों वाले" हमारे राजा थे, इन चारों नीतियों को ऐसे इस्तेमाल किया गया ।
फिर देश में सरकार बनी जो हमें "secularism" की पट्टी पढ़ाती रही, इतिहास की पुस्तकों से वह सब क्रूरताएं छिपाई रखी गयीं कि किस तरह "हिन्दू" को जबरन धर्म के बारे में भ्रमित किया गया । इसलिए हम यही समझ रहे हैं कि यह "आलोचना" सही है, बल्कि इससे भी आगे बढ़ कर यह समझ रहे हैं कि हिन्दू धर्म की सीख ही है कि आराध्यों की आलोचना करो । जबकि यह अर्धसत्य है, जो झूठ से भी अधिक खतरनाक होता है ।
-------------
"साम" "दाम" "दंड" "भेद" ये चार तरीके होते हैं मनुष्य को उसके विश्वासों से डिगाने के लिए । इस "धर्म निंदा और धर्मांतरण" के सिलसिले में, जब हिन्दू "गुलाम" थे और "दुसरे धर्मों वाले" हमारे राजा थे, इन चारों नीतियों को ऐसे इस्तेमाल किया गया ।
साम का अर्थ है समझाइश : हमें समझाया गया कि हमारे आराध्य "imperfect" हैं, उन्होंने तो बहुत सी "मानवीय भूलें" की हैं, वे आराधना के योग्य हैं ही नहीं ।
दाम का अर्थ है : जो गरीब / दरिद्र थे - उन्हें धन के बल पर / पैसे दे कर / जमीन दे कर आदि धर्मान्तरित किया गया ।
दंड अर्थ है - सजा के डर से (टार्चर)
दंड अर्थ है - सजा के डर से (टार्चर)
( गूगल इमेजेस में "gurudwara mahtiana sahab" डाल कर सर्च कीजिये । कुछ अंदाज़ होगा की धर्म परिवर्तन स्वीकार न करने पर किस तरह माओं के आगे उनके दुधमुंहे बच्चों को काटा गया - पहले एक हाथ , फिर दूसरा हाथ , फिर एक पैर ..... :( । देखिएगा , कैसे साधू को लकड़ियों में बाँध कर उनके शरीर को आरी से दो भागों में काटा गया, पानी / तेल के बड़े बर्तन में खडा कर के आग पर उबाला गया , कैसे सर की चमड़ी बालों सहित खींच कर उखाड़ ली गयी , आदि…। इसी सब से हिन्दू धर्म और समाज की रक्षा के लिए सिख गुरुओं ने "सिख" बनाए ।
पंजाब के हर "हिन्दू" परिवार का एक बेटा मोना (हिन्दू) होता तो दूजा बेटा सिख । लेकिन आगे औरंगजेब ने दसवें सिख गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी, के सभी सुपुत्रों को मरवा दिया , तो गुरु परम्परा आगे न बढ़ सकी और हमें यह सिखा दिया गया कि "सरदार" के "मूर्ख" होने पर चुटकुले बनाए , सुनाएं, और उनकी हंसी उडाये - जिससे उनका मनोबल भी टूटे और हमसे "भेद:" भी हो ।:(
भेद का अर्थ है जनसँख्या के एक समूह को यह समझाना कि दूसरा समूह तुम्हारा शत्रु है, तुम्हारा शोषण कर रहा है । या इसके -उलट की वह समूह मूर्ख है, तुमसे नीचा है । नफरत की ऐसी बेल बोई गयी कि "हिन्दू" भूल ही गया कि वह क्या था । वह स्त्री और पुरुष, उच्च वर्ग और निम्न वर्ग, सिख और हिन्दू , मद्रासी और हिंदी, जाति आदि में विभाजित हो कर "धर्म आलोचक" बन गया ।
"
पंजाब के हर "हिन्दू" परिवार का एक बेटा मोना (हिन्दू) होता तो दूजा बेटा सिख । लेकिन आगे औरंगजेब ने दसवें सिख गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी, के सभी सुपुत्रों को मरवा दिया , तो गुरु परम्परा आगे न बढ़ सकी और हमें यह सिखा दिया गया कि "सरदार" के "मूर्ख" होने पर चुटकुले बनाए , सुनाएं, और उनकी हंसी उडाये - जिससे उनका मनोबल भी टूटे और हमसे "भेद:" भी हो ।:(
भेद का अर्थ है जनसँख्या के एक समूह को यह समझाना कि दूसरा समूह तुम्हारा शत्रु है, तुम्हारा शोषण कर रहा है । या इसके -उलट की वह समूह मूर्ख है, तुमसे नीचा है । नफरत की ऐसी बेल बोई गयी कि "हिन्दू" भूल ही गया कि वह क्या था । वह स्त्री और पुरुष, उच्च वर्ग और निम्न वर्ग, सिख और हिन्दू , मद्रासी और हिंदी, जाति आदि में विभाजित हो कर "धर्म आलोचक" बन गया ।
"
मैं यह सब कह कर सिर्फ इतना समझाने का प्रयास कर रही हूँ कि हिन्दू धर्म हमें कदापि अपने आराध्यों की आलोचना करने की स्वतन्त्रता नहीं देता, यह हमें झूठी पट्टी पढ़ाई गयी है , समय आ गया है की अपनी आँखों पर बंधी पट्टी को हम उतार फेंकें ।
सार्थक ढंग से विस्तार पूर्वक सबकुछ कहती पोस्ट ..... प्रशंसनीय ही नहीं,माननीय
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंआभार आदरेया -
शिल्पा जी तो हमारे धर्म की और आराध्यों की प्रशंसा तो आप चारों तरफ सुन ही रही हैं ना चारों भजन कीर्तन और आरतियों में यही तो हो रहा।क्या ये लोग सभी शास्त्रों का अध्ययन कर ही ऐसा कर रहे हैं?अंग्रेज और मुगल यदि सफल हो जाते तो हर कोई हिंदू आज अपने धर्म और भगवान की आलोचना कर रहा होता लेकिन इनका प्रतिशत कितना है?और शिल्पा जी पट्टी पढाना उसे कहते है कि अपने धर्म या भगवानों के बारे में सवाल न उठाओ जो जैसा है बस मानते जाओ और उसकी महानता के गीत गाते जाओ।ऐसा करने वाला धर्म जड होकर रह जाता है।क्या आप चाहती हैं कि हम इन बातों पर आज के जमाने में गर्व करते रहें कि कैसे हमारे ऋषि मुनि मंत्र पढते ही गायब हो जाते थे कोई समुद्र को पी जाता था तो कोई सूर्य को निगल जाता था?धर्म के नाम पर जिन वर्गों का शोषण किया गया उनका तो आलोचना करना बनता भी है चाहे वो स्त्री हो या दलित।
जवाब देंहटाएंआपको तो खुश होना चाहिए कि हमारे धर्म में सवाल उठाने और तर्क वितर्क की परंपरा रही है तभी तो विभिन्न दर्शन यहाँ तक कि नास्तिक दर्शन भी पनप सके।हाँ ये जरूर मानता हूँ कि केवल आलोचना करने के लिए धर्म की आलोचना नहीं होनी चाहिए।
राजन जी - आप इस पोस्ट में जो मुद्दा था, उस बात को समझे ही नहीं ।
हटाएं1. मैं किस्सों कहानियों पर अंधविश्वास करने को नहीं कह रही - मैं अध्ययन करने को कह रही हूँ ।
2. @@ धर्म के नाम पर जिन वर्गों का शोषण किया गया ......
--- कुरीतियों की , शोषण की , दमन की आलोचना होनी ही चाहिए - मैं भी करती हूँ । मैं सती प्रथा की भी विरोधी हूँ, जातिगत भेदभाव की भी, छुआ छूत की भी और दहेज़ की भी विरोधी हूँ ।
3. लेकिन आराध्यों की आलोचना ? राम की, कृष्ण की , सीता की , राधा की , शिव की , सती की आलोचना ? अपने ही धर्मावलम्बियों द्वारा ? नहीं - मुझे यह उचित नहीं लगता , और हमारे (या किसी भी दुसरे) धर्म में इसकी अनुमति है भी नहीं - जैसा कि माहौल बनाया जा रहा है ।
4. मैंने आज तक कोई क्रिस्चियन नहीं देखा जो जीज़स के जन्म पर प्रश्न उठाये या माता मरियम के बिनब्याही माँ होने पर प्रश्न करे, या यह कहे कि वे "वर्जिन" नहीं थीं । लेकिन द्रौपदी के नित कुमारी होने पर प्रश्न करते अनेक हिन्दू देखे हैं मैंने ।
5. मैंने कोई मुसलमान नहीं देखा जो मुहम्मद जी की बातों पर प्रश्न करे , इसका प्रमाण मांगे । लेकिन अनेकानेक हिन्दू देखे हैं जो राम सेतु के दिव्य होने के प्रमाण मांगते हैं ।
क्यों ? क्योंकि हम भ्रमित होते जा रहे हैं प्रोपागांडा से । क्योंकि हम यह मान बैठे हैं कि हमारा धर्म हमें अधिकार देता है उच्च्श्रन्खल होने का । स्वतन्त्रता का अर्थ उछ्श्रन्खलता नहीं होता राजन जी ।
@@ चारों भजन कीर्तन और आरतियों में यही तो हो रहा - कहाँ सुन रहे हैं आप भजन और कीर्तन ? मंदिरों और उत्सवों के अलावा ?
@धर्म के नाम पर जिन वर्गों का शोषण किया गया उनका तो आलोचना करना बनता भी है चाहे वो स्त्री हो या दलित।
हटाएंराजन जी,
धर्म के नाम पर किन्ही लालची अभिमानी धर्माभासियों ने शोषण किया तो उसका प्रतिशोध ईश्वर आलोचना सीधा धर्म आलोचना व धर्मग्रंथ आलोचना से लिया जायगा? कोई अगर धर्म को गलत तरीके से प्रस्तुत करे तो दोषी वह प्रस्तोता होता है, ईश्वर या धर्म नहीं!!
शिल्पा जी,ये क्या बात हुई कि किसी और धर्म में सवाल उठाने की इजाजत नहीं तो हम भी न उठाएँ।क्या हमारी बुद्धि और विवेक के कोई मायने नहीं?और फिर हमारा धर्म किसी एक किताब या गुरु महात्मा आदि के कण्ट्रॉल में नहीं है।यह बहुत व्यापक है।और धर्म पर सवाल करने का अधिकार धर्म नहीं देता लोग देते है जिनकी वजह से माहौल थोडा खुला है कि हम प्रश्न कर सकते हैं जो बात पसंद न आए उसे मानने से इंकार कर सकते है।हमें न कठमुल्लों के फतवों का डर है न वेटिकन सिटी से निकले बाध्यकारी आदेशों की परवाह ।हाँ ये जरूर मानता हूँ कि कुछ गलत लोग इस आजादी का गलत फायदा उठाते हैं पर उच्छृंखलता तो कहीं भी हो सकती है।जगरातों में देर रात माईक पर जोर जोर से चीखना,सडकों पर कावडियों का उत्पात या धर्मस्थलों पर दानपात्रों में पैसा डालने को मजबूर करने को आप क्या कहेंगी?उन्हें लगता है हम भगवान के नाम पर ऐसा कर रहे हैं तो कोई गलत नहीं मानेगा।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसुज्ञ जी,अब यही तो बात है,धर्म के नाम पर यदि कुछ लोगों के साथ गलत होता रहा तो धर्म के जानकारों को समय रहते गलतफहमियों को दूर करना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं।अब आप कहते हैं धर्म की या ईश्वर की आलोचना न करें।लेकिन जरा मुझे बताएँ कि यदि मुझे शंबूक वध के बारे में बात करनी है तो मैं ये सवाल कैसे उठाऊँ?और जाहिर है ऐसा करते हुए राम अपने आप दोषी हो जाते हैं।मैं अपना दृष्टिकोण तटस्थ रखने का प्रयास करुँगा तो वह एक नाटक से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा ।हाँ ये हो सकता है जो हमें इस बारे बताया गया सच इससे अलग हो लेकिन वह भी सामने तभी आएगा न जब कोई सवाल उठाएगा?फिर भी मानता हूँ कि बहुत से लोग है जो खुद को अलग दिखाने भर के लिए बिना वजह ही धर्म और ईश्वर की आलोचना करते है और हाँ निंदा और आलोचना में फर्क तो होता है।लेकिन हम इनकी वजह से इतना क्यों परेशान हैं?वैसे मैं एक बात आपसे जानना चाहूँगा कि जब हम धर्म पर सवाल ही नहीं उठाते थे तब तो समाज में धर्म के नाम पर बहुत कुछ गलत हो ही रहा था।लेकिन आज अगर कुछ लोग आलोचना कर भी रहे हैं तो ऐसा क्या विशेष नुकसान हिंदू धर्म को हुआ है ?और जिन धर्मों में सवाल नहीं उठाए जाते तो क्या वहाँ सब ठीक है?
हटाएं@@शिल्पा जी,ये क्या बात हुई कि किसी और धर्म में सवाल उठाने की इजाजत नहीं तो हम भी न उठाएँ।
हटाएंआपसे किसने कहा कि प्रश्न उठाने की इजाज़त नहीं है हमारे धर्म में ?????
मैंने "प्रश्न उठाने" की नहीं , बल्कि "निंदा और आलोचना" की बात की है : राम को कृष्ण को स्त्रियों का शोषक कहने आदि बातों की बात की है । प्रश्न करने और निंदा करने में बहुत फर्क होता है राजन जी ।
@@क्या हमारी बुद्धि और विवेक के कोई मायने नहीं?
- बिलकुल है । आपको पूरा अधिकार है कि आप अपनी बुद्धि और विवेक को प्रयुक्त करें, प्रश्न करें और सत्य को खोजें । उपनिषद् भरे पड़े हैं प्रश्नों और उत्तरों से । आपने कभी पढने का प्रयास किया ??? मैं विवेक को "निंदा" में न लगा कर खोज में लगाने की बात कर रही हूँ ।
@@ और फिर हमारा धर्म किसी एक किताब या गुरु महात्मा आदि के कण्ट्रॉल में नहीं है।यह बहुत व्यापक है।
बिलकुल सच बात है । फिर आपने किसी गुरु या महात्मा आदि के अप्कर्मों से पूरे धर्म को प्रश्नित करने का प्रयास क्यों किया पिछली टिपण्णी में ???? मैंने तो ऊपर कहा ही है कि कलियुग में वैसे भी सद्गुरु मिलना ही बड़ा दुर्लभ है ।
@@ और धर्म पर सवाल करने का अधिकार धर्म नहीं देता लोग देते है
ग़लतफ़हमी है आपकी । धर्म "के विषय में प्रश्न" उठाने का अधिकार सबको है, किन्तु दिव्य अवतारों की निंदा का अधिकार कोई किसीको नहीं दे ही नहीं सकता, क्योंकि यह अधिकार किसी के पास है ही नहीं किसी को देने के लिए ।
धर्म मानव योनि के साथ ही अन्तर्निहित है - इस पर प्रश्न हो ही नहीं सकते । इसके विषय में हो सकते हैं, इस पर नहीं हो सकते ।
यही तो मैं कह रही हूँ - कि यह "निंदा करना" इतना common हो चला है कि हम इसे normal और acceptable समझने लगे हैं । किस धर्म ग्रन्थ या स्रोत से आपको यह जानकारी मिली है कि आपको अवतारों की निंदा का अधिकार है ???? तनिक मुझे reference तो बताइये ????? आपने कहा अनेक ग्रन्थ हैं हिन्दू धर्म के - कोई एक ही उन अनेकों में से मुझे बताइये जो आपको निंदा का अधिकार देता हो ? प्रश्न का अधिकार हमेशा , निंदा का कभी नहीं ।
@@ जिनकी वजह से माहौल थोडा खुला है कि हम प्रश्न कर सकते हैं जो बात पसंद न आए उसे मानने से इंकार कर सकते है। हमें न कठमुल्लों के फतवों का डर है न वेटिकन सिटी से निकले बाध्यकारी आदेशों की परवाह ।
बिलकुल आपको अधिकार है कि आप प्रश्न करें, मानें या न मानें । निंदा का अधिकार आपको नहीं है ।
@@ जगरातों में देर रात माईक पर जोर जोर से चीखना,सडकों पर कावडियों का उत्पात या धर्मस्थलों पर दानपात्रों में पैसा डालने को मजबूर करने को आप क्या कहेंगी?उन्हें लगता है हम भगवान के नाम पर ऐसा कर रहे हैं तो कोई गलत नहीं मानेगा।
....... इसे मैं धर्म नहीं धर्मान्धता कहती हूँ ।
शिल्पा जी,आप पिछली एक दो पोस्ट में तीन चार बार धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने को कह चुकी हैं लेकिन मैं दावे से कह सकता हूँ कि यदि आप भी हमारे सभी ग्रंथों का अध्ययन कर लें तो कोई एक तरीका तय नहीं कर पाएँगी कि क्या सही है क्या नहीं क्योंकि इनमें बहुत विरोधाभास है।इसलिए मैंने कहा कि हमें अपने विवेक से ही फैसला करना होगा।और मैं क्या अध्ययन करूँ पड़ोस में माता का जागरण चल रहा है मैं उन्हे माईक का प्रयोग न करने को समझाता हूँ तो वो भी कहेंगे जाओ पहले शास्त्रों का अध्ययन कर आओ कि कहाँ माईक का इस्तेमाल करने से मना किया है?आप सीधे उन्हे ही अधययन करने की सलाह दें तो कोई क्यों विरोध करेगा?और मैंने कहा किसी गुरु महात्मा के कण्ट्रोल में धर्म नहीं है ये नहीं कहा कि ये धर्म का हिस्सा ही नहीं है।धर्म अवतार भगवान सब इंसान की सोच है इनमें कमियाँ होंगी ही।वैसे ये थोड़ा अजीब है मैं ऊपर कुछ चमत्कार की बात करता हूँ तो आप उसे अंधविश्वास बताती हैं पर रामसेतू पर प्रश्न करना गलत मानती हैं और अवतारों की परिकल्पना को सही मानती हैं जिनका जीवन चमत्कारों से भरा पड़ा है।
हटाएंशिल्पा जी,आप पिछली एक दो पोस्ट में तीन चार बार धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने को कह चुकी हैं लेकिन मैं दावे से कह सकता हूँ कि यदि आप भी हमारे सभी ग्रंथों का अध्ययन कर लें तो कोई एक तरीका तय नहीं कर पाएँगी कि क्या सही है क्या नहीं क्योंकि इनमें बहुत विरोधाभास है।इसलिए मैंने कहा कि हमें अपने विवेक से ही फैसला करना होगा।और मैं क्या अध्ययन करूँ पड़ोस में माता का जागरण चल रहा है मैं उन्हे माईक का प्रयोग न करने को समझाता हूँ तो वो भी कहेंगे जाओ पहले शास्त्रों का अध्ययन कर आओ कि कहाँ माईक का इस्तेमाल करने से मना किया है?आप सीधे उन्हे ही अधययन करने की सलाह दें तो कोई क्यों विरोध करेगा?और मैंने कहा किसी गुरु महात्मा के कण्ट्रोल में धर्म नहीं है ये नहीं कहा कि ये धर्म का हिस्सा ही नहीं है।धर्म अवतार भगवान सब इंसान की सोच है इनमें कमियाँ होंगी ही।वैसे ये थोड़ा अजीब है मैं ऊपर कुछ चमत्कार की बात करता हूँ तो आप उसे अंधविश्वास बताती हैं पर रामसेतू पर प्रश्न करना गलत मानती हैं और अवतारों की परिकल्पना को सही मानती हैं जिनका जीवन चमत्कारों से भरा पड़ा है।
हटाएं@अब यही तो बात है,धर्म के नाम पर यदि कुछ लोगों के साथ गलत होता रहा तो धर्म के जानकारों को समय रहते गलतफहमियों को दूर करना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
हटाएंराजन जी,
मान्यता में अंतर व विकार निरंतर आते ही रहते है.कहते भी है 'जब जब धर्म में हानि होती है,पुनरुत्थान के लिए मैं जन्म लेता हूँ' इस से यह बात तो साफ होती ही है कि समयानुसार विकार पैदा होते रहते है.लेकिन ऐसा नहीं है कि जब भी मान्यता में छोटे बडे विकार का उद्भव हो धर्म के जानकार,मर्म को पहचाने वाले,गीतार्थ ज्ञानी उपलब्ध ही हो जो समय रहते विकार की पहचान कर गलतफहमियों को दूर कर दे.फिर भी ऐसा नहीँ है कि कुछ हुआ ही नहीं,संत पैदा होते ही है और सुधार भी होते रहते है.
@अब आप कहते हैं धर्म की या ईश्वर की आलोचना न करें।लेकिन जरा मुझे बताएँ कि यदि मुझे शंबूक वध के बारे में बात करनी है तो मैं ये सवाल कैसे उठाऊँ?और जाहिर है ऐसा करते हुए राम अपने आप दोषी हो जाते हैं।
राजन जी,
किसी भी कर्म के न्याय अन्याय पर निर्णय देने से पूर्व उस कर्म के कर्ता का पक्ष जानना अपेक्षित होता है, बिना यथार्थ जाने, सवाल उठाने के बहाने निर्णय ही दे दिया जाता है कि 'राम अपने आप दोषी हो जाते हैं'आपने ही अभियोग लगाया,दूसरा पक्ष अनसुना कर दिया,और दोष का निर्णय भी दे दिया? जानता हूँ राम सफाई देने के लिए नहीं आने वाले,लेकिन उनका न आना, सारा दोष उन्ही पर ढोलने के लिए पर्याप्त कारण नहीं है. यह न्याय संगत भी नहीं है जबकि यहाँ बहुत से पक्ष विद्यमान है.
@मैं अपना दृष्टिकोण तटस्थ रखने का प्रयास करुँगा तो वह एक नाटक से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा ।
राजन जी,
जी नहीं, ऐसी दशा मेँ जब साक्ष्य,यथार्थ,स्पष्टीकरण उपलब्ध न हो, दृष्टिकोण को तटस्थ रखना नाटक नहीं न्यायोचित है
@लेकिन हम इनकी वजह से इतना क्यों परेशान हैं?वैसे मैं एक बात आपसे जानना चाहूँगा कि जब हम धर्म पर सवाल ही नहीं उठाते थे तब तो समाज में धर्म के नाम पर बहुत कुछ गलत हो ही रहा था।लेकिन आज अगर कुछ लोग आलोचना कर भी रहे हैं तो ऐसा क्या विशेष नुकसान हिंदू धर्म को हुआ है ?और जिन धर्मों में सवाल नहीं उठाए जाते तो क्या वहाँ सब ठीक है?
राजन जी,
परेशान इसलिए है कि राईभर के असम्बद्ध विकार दर्शा कर पूरे धर्म और ईश्वर पर पहाड सम सवाल उठाए जाते है और इन्हें निंदित कर इनके मूल पर प्रहार किया जाता है, साथ ही यह साफ है कि यह निंदाकर्म, धर्म को समाप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है.धर्म जीवन से निसृत हो जाय तो नैतिकता अनैतिकता का तकाज़ा ही खत्म. क्योंकि हिंदु दर्शन मेँ नैतिकता अनैतिकता की यथार्थ समीक्षा और स्वरूप मौजूद है इसलिए टार्गेट भी हिंदु धर्म है. हिंदु धर्म का अभी भी उल्लेखनीय नुक्सान नहीं हुआ तो यह उसके अपने शाश्वत रहने के गुणों के कारण है,बाकि धर्मनिंदको ने तो कोई कसर नहीँ छोडी. परेशान इसलिए है कि सवाल खडे करने के बहाने इसी तरह निंदा चलती रही, थोपी गई बदनामी के कारण यथार्थ धर्म से विरक्तता बढती गई तो जीवन-मूल्यों का महान प्रस्तावक और अनुशासक हमारे जीवन से तिरोहित हो जाएगा.
जब धर्म पर सवाल ही नहीं उठाए जाते थे और समाज में धर्म के नाम पर बहुत कुछ गलत हो ही रहा था। तो इसका दोष उस समय की मानव बुद्धि को दीजिए जिन्होंने विकार के परिणामो को जानने समझने मेँ चुक की.या उस समय के उन जानकारो को दीजिए जिन्होंने जानते बूझते भी विकारों की उपेक्षा की. उन धर्माभासी पाखण्डियोँ को दीजिए जिन्होने अपने तुच्छ स्वार्थ खातिर विकार युक्त प्रस्थापनाएँ की,परम्पराएँ डाली.और अंत मेँ उन कायरों को भी दीजिए जिन्होने कुरीतियों पर भी सवाल नहीं उठाए!!!! लेकिन इन सभी के अपराधों का दोष धर्म और ईश्वर पर क्यों???
इसलिए समस्या सवालों से नहीं है,उन सवालों में छिपी मंशाओँ से है.
शिल्पा जी आपको संबोधित मेरी एक टिप्पणी दिखाई नहीं दे रही?
हटाएंराजन जी - आपकी कोई भी टिपण्णी स्पैम में या मोडरेशन में नहीं है ।
हटाएं@ शम्बूक वध पर प्रश्न -
हटाएंआप प्रश्न करना यदि जिज्ञासा और खोजने की अभिलाषा से कर रहे हैं - तो आपको उत्तर मिलने के कई कई स्रोत हैं - जहां आपको अपने प्रश्न के उत्तर मिल जायेंगे । लेकिन यदि आपके प्रश्न का उद्देश्य निंदा ही है - तो ही वह निंदा होगी । और यदि आप पहले से मान कर चल रहे हैं कि यह राम की निंदा है राजन जी - तो अर्थ ही यही है कि आप राम के दोषी होने का अपने मन में निर्णय ले ही चुके हैं - यह जिज्ञासा है ही नहीं । जिज्ञासा का सिर्फ आवरण है ।
मैं ऊपर ३ या ४ बार लिख आइ हूँ कि हिन्दू धर्म में कहीं भी प्रश्न पूछने की / जिज्ञासा करने की / खोज करने की / ..... मनाही नहीं है । उपनिषद प्रश्नों से भरे हैं - एक नाम शायद आपने सुना हो - नाम ही है "प्रश्नोपनिषद"
यदि आप जिज्ञासा के परदे में निंदा करना चाहते हैं - तो यह गलत है ।
मैं कई जगह कई अवसरों पपर कहती आई हूँ कि जो कर्म किया जा रहा है उसका उद्देश्य क्या है और उसका असर क्या होगा ये दो अलग बातें है । कर्म को सतो / रजो / या तमो गुणी उसके उद्देश्य बनाते हैं , और निंदा को आप यदि सदोद्देश्य दर्शाना चाहें तो यह आपका निर्णय है ।
@@@
हटाएंसुज्ञ भैया ,
आप हर बात को , जो मैं कहना चाहती हूँ , मुझसे कहीं बेहतर कह रहे हैं । समझ नहीं पा रही कि किन शब्दों में आपका आभार प्रकट करून ।
raajan ji - try reading at least one for a start ? may be the Geeta ?
हटाएंपर जिस तरह देश में आलोचना को ही सेकुलर माना गया है ऐसे ही देवी देवताओ की आलोचना को ही भक्ति माना जाता है आजकल
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (2-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
thanks
हटाएंशिल्पा जी आपने सही विषय उठाया है, इस पर गम्भीर चिंतन होना ही चाहिए। आपकी बात सही है कि इन्ही कारणों से अतिवादियों द्वारा निंदा की हद तक आलोचना की जाती है, किन्तु यह भी इतना ही सच है कि हिन्दु धर्म जड़ व मूढ़ मानसिकता नहीं देता। वैदिक काल से ही धर्म-चर्चाएं सिद्धांत-चर्चाएं इस बात के प्रमाण है। लगभग सारे धर्म ग्रंथ ऐसे शंका युक्त प्रश्नो और उसके समाधान के स्वरूप में ही गुंथित है। संशय के समाधानों के लिए यहाँ पर्याप्त अवसर है। चर्चा, आलोचना, समीक्षा धर्म सभाओं के लक्षण हुआ करते थे। मैं आलोचना और निंदा में अन्तर मानता हूँ। दोष का संशय पैदा होने पर आलोचना होती है और निदान होने पर शमित हो जाती है। वक्रता से जड़ता पूर्वक दोष न होते हुए भी दोष का आरोपण करना निंदा है।
जवाब देंहटाएं1-राम ने बाली से कहा कि "तुम्हे प्रश्न करने का अधिकार ही नहीं है ।" वस्तुतः उसका आशय यह होता है कि एक अनैतिक को दूसरों की नैतिकता पर प्रश्न खडे करने का क्या अधिकार हो सकता है।
2-कृष्ण भी कर्मो पर उठने वाले प्रश्नो पर स्पष्ठिकरण के उद्देश्य से ही जोडते है कि मैं लिप्त नहीं होता या मैं आसक्ति नहीं रखता।
तथापि मैं आपकी इस बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि आराध्यों की तुच्छ और वक्र बुद्धि लगा कर आलोचना नहीं की जानी चाहिए।
वस्तुतः यह निंदाकर्म दो तरह के स्वार्थी तत्वों द्वारा होता है एक तो वामपंथ और कुटिल नास्तिक और दूसरे विधर्मी। वामपंथ और कुटिल नास्तिक ईश्वर और धर्म शास्त्रों की निंदा अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के कुटिल स्वार्थ के लिए करते है। और विधर्मी यह निंदाकर्म अपनी मान्यता को मननीय व अनुकरणीय दर्शाने मात्र के लिए करते है।
(कुटिल नास्तिक मैने इसलिए लिखा कि नास्तिकों की दो श्रेणी है। पहले, अपने स्वार्थ व अपने पाखण्ड को स्थापित करने के लिए ईश्वर और धर्म का प्रतिकार करने वाले 'कुटिल नास्तिक' व दूसरे, तर्कसंगतता के अभाव में ईश्वर व धर्म को न मानने वाले सहज नास्तिक) सहज नास्तिक कभी भी ईश्वर आलोचना या धर्मग्रंथ आलोचना में सलग्न नहीं होते।
आपका बहुत बहुत आभार सुज्ञ भैया :) , आपने मुझसे बेहतर कहा , जो मैं चाहती थी ।
हटाएंआपकी बात सही है - निंदा, और आलोचना , में बहुत फर्क है । मैं उस निंदा की मानसिकता की ही बात कर रही हूँ , जो आलोचना के लबादे में ढका हुआ निंदा का छिपा रूप होता है । और हमारी इस तार्किकता को दुरुपयुक्त कर लोग हम पर ही हमले करते हैं । :(
हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता ही है उसका बहुत उदार होना -इसकी गरिमा इसी में है कि इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाए!
जवाब देंहटाएंजो हिन्दू धर्म की आलोचनाओं से डरते हैं उन्होंने भी इसके मूलस्थ भाव को नहीं समझा है क्योकि उनका भी अध्ययन व्यापक नहीं है!
मिश्र जी मैं आपका सम्मान करती हूँ, लेकिन यहाँ आपका विरोध ही करूंगी । आप पोस्ट की भावना को नहीं समझ रहे । बात आलोचना से डरने की नहीं हो रही - बात हो रही है, अध्ययन के बिना कुछ भी कह दे कर अपने आप को बड़ा विद्वान् विदुषी मान लेने की जो आदत बन है हिन्दू समाज में उसकी ।
हटाएंडरने की बात इसमें इसलिए नहीं कि सत्य को किसी का डर हो ही नहीं सकता - यह संभव ही नहीं ।
@@ हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता ही है उसका बहुत उदार होना
किस ग्रन्थ में लिखा हा यह सर ? ग़लतफ़हमी है यह । और यह ग़लतफ़हमी बड़े सिस्तामेतिक ढंग से हमारे मानस में बिठाई गयी है कि "हिन्दू धर्म" उदार है - यही मैंने पोस्ट में कहा कि यह सदियों की परतंत्रता से उपजी मेंटल कंडिशनिंग से हम ऐसा मान बैठे हैं । कृष्ण ने अर्जुन से युद्ध में कहा कि यदि तू अपने धर्म से च्युत हुआ तो तेरा अत्यधिक पतन हो जाएगा । लोक और परलोक , दोनों खो देगा ।
अर्थात नारायण के परम सखा के लिए भी धर्म च्युत होने पर उदारता नहीं है - तो आज के इन अध्ययन्हीन निंदकों की तो खैर बात ही और है ।
@@ -इसकी गरिमा इसी में है कि इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाए!
धर्म की गरिमा को इतना सीमित समझते हैं आप ?? धर्म की गरिमा विराट है - इसे आपकी परिभाषाओं की सीमाओं में मत बाँधने के प्रयास मत कीजिये । धर्म को बांधा नहीं जा सकता । माँ यशोदा ने भी प्रयास किया था कान्हा को बाँधने का - वह प्रेम और समर्पण और भक्ति और ज्ञान से ही बंध सकता है । हमारे बनाए मानदंडों से नहीं । सागर को गागर में भरने का प्रयास jaisaa है धर्म की गरिमा को अपनी शर्तों से बाँधने का प्रयास ।
@@ जो हिन्दू धर्म की आलोचनाओं से डरते हैं उन्होंने भी इसके मूलस्थ भाव को नहीं समझा है क्योकि उनका भी अध्ययन व्यापक नहीं है!
- गलतफमी है आपकी कि मैं आलोचना से डरने की बात कर रही हूँ । मैं धर्म को बचाने के प्रयास नहीं कर रही , आलोचक को अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने से रोकने का प्रयास कर रही हूँ ।
खरबूजा छुरी पर गिरे छुरी खरबूजे पर - नुक्सान खरबूजे का ही होता है । कोइ आग्नि की गर्मी को परीक्षित करने के लिए अग्नि में अपने हाथ डाले, तो परिक्षा करने से अग्नि का कुछ नहीं बिगड़ता । हाथ उसीके जलते हैं ।
हिन्दू धर्म अगर उदार है तो यह उसका अपना गुण है, और वह दूसरों से इसी तरह की उदारता की अपेक्षा भी करता है। यह उदारता इसलिए नहीं कि विधर्मियों के उत्पात को एकांगी सहनशीलता और उदार भाव से सम्मान, समभाव ही देना।
हटाएंहिन्दू धर्म की आलोचनाओं का डर नहीं अगर उसी मूलस्थ भाव को संरक्षित रखना है तो निंदा का प्रतिकार होना ही चाहिए।
धर्मों की इन्ही न ठीक से समझी गयी बातों से कट्टरता उपजती,फैलती है -जबकि हिन्दू धर्म में कट्टरता कहीं नहीं है -विश्व में भारत ही वह भाव भूमि है जहाँ अनीश्वरवादी चिंतन तक का पुष्पन पल्लवन हुआ -सनातन धर्म चिंतन/दर्शन से जैन और बुद्ध दर्शन के भी विचार पनपे -कहीं पृथक से नहीं आये -वेदान्त के कर्मकांडों को उपनिषदीय चिंतन ने तिरोहित किया -आज हिन्दू वह भी है जो किसी ईश्वर के वजूद को नहीं मानता और वह भी जो चौबीसों घंटे पूजापाठ में रत रहता है . हिन्दू होना विनम्र होना है किसी की भी पूजा पद्धति की खिल्ली न उड़ाना एक श्रेष्ठ हिन्दू का गुण है -शराब पियें या न पियें आप हिन्दू हैं ,मंदिर जाएँ या न जाएँ आप हिन्दू हैं ,मांस खायें न खायें आप हिन्दू हैं ,भगवान् को गाली दें या स्तुति करें आप हिन्दू हैं -इतना सृजनशील और संभावनाओं से भरा और कोई धर्म विश्व में दूसरा नहीं है -आप सभी से अनुरोध है इसे कट्टरता का जामा न पहनाएं -कोई मेरा सम्मान करे या न करे मैं हिन्दू ही रहूँगा ! मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है ...मुझे दुःख होता अगर मैं हिन्दू न हुआ होता और तब मुझे ईश्वर को मानने पर विवश होना पड़ता :-)
जवाब देंहटाएंआदरणीय अरविन्द मिश्रा जी,
हटाएंमात्र इस पहली पंक्ति "धर्मों की इन्ही न ठीक से समझी गयी बातों से कट्टरता उपजती,फैलती है" से किंचित भी सहमत न होते हुए बाकि आपकी सभी बातों से पूर्णतया सहमत!!
भला धर्मनिंदा अथवा आलोचना के प्रतिकार से क्यों उपजेगी,फैल जाएगी कट्टरता? आपके कहे अनुसार यदि सभी तरह की परस्पर विरोधी विपरित विचारधाओं का हिन्दु धर्म में सम्मानजनक स्थान है तो सिद्धांतो पर दृढ प्रतिज्ञ (आपके शब्दों में कट्टरता)हिंदुओं ने क्या बिगाडा है, उनका भी सम्मान जनक स्थान होना चाहिए। हिन्दु विनम्र उदार है तो उनका भी गौरवशाली महत्वपूर्ण स्थान बनता ही है।
(यहाँ कट्टरता से मेरा अभिप्राय: मात्र दृढ धर्मिता है। हिंसक अथवा हिंसाप्रेरक कट्टरता का मैं किंचित भी समर्थक नहीं, न उनका उदार भाव से हिंदु धर्म में समावेश चाहता हूँ)
आस्तिक नास्तिक, ईश्वरवादी अनीश्वरवादी, चिंतनवादी पूजापाठी, शराब पिए न पिए, मंदिर जाएँ या न जाएँ, मांस खायें न खायें, बेशक सभी हिन्दु है और रहेंगे। इन सभी परस्पर विरोधी जोडों में भी जिस किसी के पक्ष में "सदाचार" व "अहिंसा" होगी वे सैद्धांतिक हिन्दु माने जाने चाहिए, क्योंकि स्वनिंदा या परनिंदा सदाचार नहीं है, और "अहिंसा परमो धर्म:" एक मूल सिद्धांत है।
@@मिश्र सर ,
हटाएं------------------------
१ @धर्मों की इन्ही न ठीक से समझी गयी बातों से कट्टरता उपजती,फैलती है -
कट्टरता इससेफैलती है ? निंदा का विरोध करने से ??? and it is fine to criticize indiscriminately and throw insults at the rama i love ??
यदि कोई मेरे निरपराध पिता पर चोर होने का, स्त्रियों का शोषक होने का दोषारोपण करे , तो मैं चुप रह जाऊं अपने आप को "उदार " और "अकट्टर" साबित करने के लिए ??? सब मेरे पिता की पर कीचड उड़ाते रहे , और मैं चुप रहूँ यह साबित करने के लिए कि "मैं तो बहुत उदार हूँ , गरिमामय हूँ" ??? यह उदारता की परिभाषा है ? आप चुप और उदार बने रहेंगे यदि कोई आपके पिता जी के बारे में ऐसी "निंदा" करे क्योंकि आप "उदार" हैं ?
निंदा करना ठीक / तार्किक / अकट्टर है ----- और निंदा का विरोध करना कट्टरता, मूर्खता और अतार्किकता ??????
राम मेरे पिता भी हैं , सखा भी हैं, - मेरे सब कुछ वही हैं - और मैं लोगों के उन पर कीचड उछालने का विरोध करून तो मैं कट्टर ? क्या यही परिभाषा है आपकी कट्टरता की और उदारता की ?? - आश्चर्य होता है मुझे ।
------------------------
२. @@ ........ श्रेष्ठ हिन्दू का गुण है
जी - यह श्रेष्ठ हिन्दू के गुण हैं ? सच में हैं ? कौनसे ग्रन्थ में यह परिभाषा है श्रेष्ठ हिन्दू की ?
राजन जी ने कहा कि ग्रन्थ इतने अधिक हैं कि मैं कन्फ्यूज़ हो जाऊंगी । लेकिन मैं कहती हूँ कि किसी भी ग्रन्थ को पढ़ें | कन्फ्यूज़न नहीं होगा - क्योंकि ये परस्पर विरोधी नहीं हैं । give me any reference from any hindu granth which says it is a part of hinduism to blame rama and krishna etc for partiality / characterlessness / exploitation of women .... etc etc etc ......
-----------------------
३. @@ भगवान् को गाली दें या स्तुति करें आप हिन्दू हैं -
??? तो कृष्ण झूठ बोल रहे हैं जब वे कहते हैं कि जो मूर्ख मुझे साधारण मानव मात्र मान कर उन्हें मानव तराजुओं से तौल उनकी खिल्ली उड़ाते हैं , और ऐसे लोग निरंतर नीचे की ओर उतरते चले जाते हैं (ऊपर सन्दर्भ दिया है पोस्ट में)
कृष्ण कहते हैं (राम भी, शिव भी .....) कि जो को मुझे जिस भाव से भजे उसे मैं उसी भाव से मिलता हूँ । तो यह "निंदा करने" और "जजमेंटल" होने वाले यही चाहते हैं क्या , कि जब वे इश्वर से मिले तो वे उन्हें इसी "निंदा के भाव" से मिलें जिस भाव से ये उन्हें भज रहे हैं ? ये सब एकदम परफेक्ट हैं क्या - जो इनमे इतना आत्मविश्वास है कि जब प्रभु "निंदक" रूप में मिलेंगे तो इनमे कोई खोट मिलेगी ही नहीं जिस पर प्रभु जजमेंटल हो सकें ?
जीज़स ने कहा था कि पहला पत्थर वह फेंके जिसने जीवन में कभी कोई गलती न की हो ..... क्या ये सब "निंदक" इस केटेगरी में आते हैं ?
continued....
continued ..
हटाएं-----------------------
४. @@ इतना सृजनशील और संभावनाओं से भरा और कोई धर्म विश्व में दूसरा नहीं है
निस्संदेह । इस बात से मैं 100% सहमत हूँ ।
-----------------------
५. @@ आप सभी से अनुरोध है इसे कट्टरता का जामा न पहनाएं
यदि अपने पिता की अनुचित निंदा का विरोध करने को आप कट्टरता का नाम देने पर अड़े हैं - तो ठीक है - मैं इसे स्वीकार करती हूँ ।
in MY OPINION this attitude of labeling any and every person opposing criticism of the avtaaraas as "कट्टर" is in itself the supreme "कट्टरता" of the opposite kind .....
आप सभी से जो मुझे अतार्किक / कट्टर / और अनुदार कह रहे हैं ---- आप सभी से सिर्फ यह पूछती हूँ की आप यही उदारता दिखाएँगे यदि मैं आपके पिता या आपकी माँ की ऐसी ही निंदा करू जैसी आप मेरे परम पिता की करने पर उदारता के बहाने अड़े हुए हैं ????
मेरे इस प्रश्न का उत्तर दीजिएगा - फिर उस उत्तर के बाद ही मुझे उदारता का पाठ पढ़ाइयेगा ।
------------------------
६. @@ -कोई मेरा सम्मान करे या न करे मैं हिन्दू ही रहूँगा ! मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है ...मुझे दुःख होता अगर मैं हिन्दू न हुआ होता और तब मुझे ईश्वर को मानने पर विवश होना पड़ता :-)
आपके इश्वर के न मानने से मुझे कोई परेशानी नहीं है । अनेकों बार कह चुकी हैं - मेरे सबसे अच्छे मित्रगणों में कई लोग नास्तिक हैं - कट्टर नास्तिक कहना चाहिए , क्योंकि वे अतार्किक नास्तिक हैं । i am opposing "nindaa" and not opposing "disbelieving" in whatever faith others may have .
unfortunately, there is a tendency in this platform to label others who oppose our own views as some or the other name we feel would hit them in the worst way............... since the blog world has a perception that i would NOT feel good if i am called as "kattar , ataarkik and anudaar" these labels are thrown at me, JUST BECAUSE I DARE TO OPPOSE the trend in the blog-world to ceaselessly throw insults at my faith.
PLEASE REMEMBER
इश्वर को न मानने (नास्तिक होने) और धर्म विरोधी होने में बहुत अंतर होता है ।
.
जवाब देंहटाएं.
.
@ वामपंथी और कुटिल नास्तिक ईश्वर और धर्म शास्त्रों की निंदा अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के कुटिल स्वार्थ के लिए करते है। कुटिल नास्तिक मैने इसलिए लिखा कि नास्तिकों की दो श्रेणी है। पहले, अपने स्वार्थ व अपने पाखण्ड को स्थापित करने के लिए ईश्वर और धर्म का प्रतिकार करने वाले 'कुटिल नास्तिक' व दूसरे, तर्कसंगतता के अभाव में ईश्वर व धर्म को न मानने वाले सहज नास्तिक ।
बहुत आनंद आया पढ़कर, सुज्ञ जी को इसीलिये महामना कहता हूँ मैं... :)
पर कोई भी नास्तिक पाखंड व स्वार्थ पर चोट करने के लिये ही ईश्वर व धर्म जैसी अवधारणाओं पर सवाल उठाता है ।
@ शिल्पा जी,
आप कह रही हैं कि 'हिन्दू धर्म हमें कदापि अपने आराध्यों की आलोचना करने की स्वतन्त्रता नहीं देता, यह हमें झूठी पट्टी पढ़ाई गयी है , समय आ गया है की अपनी आँखों पर बंधी पट्टी को हम उतार फेंकें ।'
यहाँ एक बड़ी अजीब सी व उलजलूल तार्किकी गढ़ रही हैं आप, हिन्दू अवतारों को किसी प्रकार की आलोचना से परे बता कर, क्योंकि वह आपके आराध्य हैं, आप स्वयं ही निरपेक्ष होकर सोचें तो आप समझ भी जायेंगी कि आप यह क्यों कर रही हैं... कुछ इसी तरह की चर्चा इ-मेल पर अपने एक मित्र से कर रहा था तो इसी तरह के व्यवहार पर वह बोले कि " अपनी आस्तिकता, अपने विश्वास-आस्था व इस सबके साथ निज के अनुकूलन पर आंच आते देखते ही कुछ लोग सचेत हो उठते हैं। यह सहज भी है, व्यक्ति को अपनी वैयक्तिकता और व्यक्तिगत पहचान के आधारों पर जब चोट पहुंचती दिखती है तो वह इन्हें अपने संपूर्ण अस्तित्व पर ही खतरा समझता है, उसे अपना अस्तित्व ही खतरे में नज़र आने लगता है और वह भरसक, येन-केन प्रकारेण इसका प्रतिकार करने की कोशिशे करता है। यह उसका अधिकार भी है। इसीलिए वह अपनी इसी ऊलजलूली में कैसी भी तार्किकी गढ़ सकता है, अनुकूलित तर्क प्रणाली को काम में ले सकता है, और कई तरह के कई आनुभाविक भ्रमों की रचना और अभिव्यक्ति कर सकता है " तो जो कुछ भी आप यहाँ लिख रही है वह एक सहज प्रतिक्रिया है...
पर अंत में मैं यह जरूर कहूंगा कि इंसान होने के नाते उजाले पर सबका हक है, अपने संशयों को न दबाये, अपनी आंखों कानों को खुला रखे व जीव विकासवाद और प्राचीन समाज के क्रमिक विकास के अध्ययन और निष्कर्षों को आत्मसात करने की काबिलियत रखे तो किसी भी इंसान के लिये इस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि धर्म-अध्तात्म-ईश्वर-अवतार-आस्था-समर्पण आदि आदि का यह घटाघोप रचा भी इंसान ने ही है और इसे पोषित भी इंसान ही करता है !
...
@बहुत आनंद आया पढ़कर, सुज्ञ जी को इसीलिये महामना कहता हूँ मैं... :)
हटाएंपर कोई भी नास्तिक पाखंड व स्वार्थ पर चोट करने के लिये ही ईश्वर व धर्म जैसी अवधारणाओं पर सवाल उठाता है ।
प्रवीण शाह ज़नाब,
आपको तो आनन्द मात्र इन तीन पंक्तियों से आया, मुझे तो आपके शिल्पा जी को सम्बोधित तार्किकी के अनुकूल प्रतिकूल सौदेश्य सापेक्षता के आपके पूरे कमेंट में आया है। इसीलिये मैं आपको साहब या ज़नाब कहता हूँ…… :)
कुटिल नास्तिको का निंदा पाखण्ड इसी से उजागर हो जाता है जब पाखंड व स्वार्थ पर चोट करने के लिये, पाखण्डी व स्वार्थियों से भिडने की जगह, सीधे ईश्वर निंदा व धर्म आलोचना पर कूद पदते है। इसी से साबित होता है कि इनके लिए पाखंड व स्वार्थ तो निंदा शुरू करने का सूत्र भर है जिसे पकड कर पट से ईश्वर और धर्म पर दोषारोपण और उन्हें भांडना शुरू करने से मतलब होता है। और उलट उन पाखण्डियों और स्वार्थियों को सबकी आक्रोश भरी नजर से दूर कर देते है फिर लोगों को निर्मल बाबा तो याद नहीं रहता और सभी पिल पडते है हिन्दु धर्म पर्। धर्म का आभास देने वाले धर्माभासी पाखण्डियों की तरफ शोषण की सूई करके अपना उल्लू सीधा करने के पाखण्ड को अब ज्यादा समय छुपाया नहीं जा सकता।
आपके मित्र ने जो तार्किकता गढ़ी है उसमें 'आस्तिकता' की जगह 'वाम-नास्तिकता' शब्द भर रखने से सबकुछ काला-सफेद स्पष्ट हो जाता है्………
" अपनी वाम-नास्तिकता, अपनी विचारधारा, अपने विश्वास-आस्था व इस सबके साथ निज के अनुकूलन पर आंच आते देखते ही कुछ लोग सचेत हो उठते हैं। यह सहज भी है, व्यक्ति को अपनी वैचारिक और व्यक्तिगत पहचान के आधारों पर जब चोट पहुंचती दिखती है तो वह इन्हें अपने और अपनी विचारधारा के संपूर्ण अस्तित्व पर ही खतरा समझता है, उसे अपना अस्तित्व ही खतरे में नज़र आने लगता है और वह भरसक, येन-केन प्रकारेण इसका प्रतिकार करने की कोशिशे करता है। यह उसका अधिकार भी है। इसीलिए वह अपनी इसी ऊलजलूली में कैसी भी तार्किकी गढ़ सकता है, अनुकूलित तर्क प्रणाली को काम में ले सकता है, और कई तरह के कई आनुभाविक भ्रमों की रचना और अभिव्यक्ति कर सकता है "
@@ sugya ji - aabhaar
हटाएं@@ praveen ji
1. @@ यहाँ एक बड़ी अजीब सी व उलजलूल तार्किकी गढ़ रही हैं आप, हिन्दू अवतारों को किसी प्रकार की आलोचना से परे बता कर, क्योंकि वह आपके आराध्य हैं,
नहीं ।
मैं उन्हें (मेरे आराध्य होने से ) आलोचना से परे मेरे लिए नहीं कह रही हूँ - मैं यह कह रही हूँ कि "यदि" कोई उनकी आराधना कर रहा है , तो इसका साफ़ अर्थ है कि वह उन्हें आराध्य और अवतार मान रहा है । नहीं मानता है तो आराधना का दिखावा क्यों ?
मैं पूछ रही हूँ कि
१) यदि आप उसे इश्वर "नहीं मानते" - तो आप उससे "प्रार्थना कर" अपने लिए सुख सुविधाएं धन खुशिया क्यों मांगते हैं ???
२) यदि आप उसी इश्वर "मानते" हैं - तो फिर उसके मानव लीलाओं पर, उसके चरित्र पर और उसके निर्णयों पर निंदा क्यों करते हैं ?
यह तो वह बात है कि "you cant't eat your cake and have it too" .....
अ) या तो उसे मानव मान लीजिये (महामानव ही सही , लेकिन मानव) - और फिर उसके बारे में जजमेंटल होने से पहले यह सोचिये कि उसने अपने समय्खंड के सामाजिक मूल्यों के अनुसार कितने शुभ कार्य संपन्न किये और कितनी "गलतियाँ" कीं ? एक "मनुष्यमात्र" से आप यह अपेक्षा क्यों रखते हैं कि वह इतना अधिक परफेक्ट हो की न ही सिर्फ अपने समय्खंड की सामाजिक मान्यताओं को पूरा करे , बल्कि उससे भी आगे जाकर आपके समय्खंड की मान्यताओं के भी अनुसार आचरण करे ? यदि वह मानव भर है तो उससे अमानवीय अपेक्षाएं (बल्कि अपेक्षा भी नहीं , मांग) क्यों की जा रही है ?
ब) और यदि वह ईश्वर है तो उसकी लीलाओं पर प्रश्न क्यों ???
------------------
@@ आप स्वयं ही निरपेक्ष होकर सोचें तो आप समझ भी जायेंगी कि आप यह क्यों कर रही हैं...
लेकिन प्रवीण जी - मैं निरपेक्ष हूँ नहीं - ऐसा दिखावा क्यों करून ??
आप तो निरपेक्ष होते मुझे कभी नहीं दीखते - आप अपनी नास्तिकता अपर पूरी कट्टरता से अडिग रहते हैं - तो मुझे निरपेक्ष होने को क्यों कहते हैं ?
-------------------
@@ कुछ इसी तरह की चर्चा इ-मेल पर अपने एक मित्र से ..............वह एक सहज प्रतिक्रिया है...
हो सकता है, नहीं भी हो सकता है । मैं जिस चर्चा के बारे में पूरी तरह से नहीं जानती उसके बारे में सही निर्णय नहीं ले सकती ।
-------------------
@@ पर अंत में मैं यह जरूर कहूंगा कि इंसान होने के नाते उजाले पर सबका हक है, अपने संशयों को न दबाये, अपनी आंखों कानों को खुला रखे व जीव विकासवाद और प्राचीन समाज के क्रमिक विकास के अध्ययन और निष्कर्षों को आत्मसात करने की काबिलियत रखे तो किसी भी इंसान के लिये इस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल नहीं है कि धर्म-अध्तात्म-ईश्वर-अवतार-आस्था-समर्पण आदि आदि का यह घटाघोप रचा भी इंसान ने ही है और इसे पोषित भी इंसान ही करता है !
:)
आपकी कट्टरता यह वाली हैं :)
वैसे भी मैंने संशय पर कहीं भी आपत्ति नहीं की है । ऊपर आदरणीय मिश्र जी को दिए उत्तर में और राजन जी को दिए उत्तर में मैं लगातार यही कह रही हूँ कि जिज्ञासा के मनोभाव और निंदा के मनोभाव में बहु अंतर है ।
"प्रश्नोपनिषद" नाम ही से आप समझ सकते हैं कि , प्रश्न होंगे और चर्चाएँ भी ।
संशय के समाधान लिए पूछना और निर्णय लेकर निंदा करना - इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर होता है ।
गीता में क्रष्ण कहते हैं " प्रश्न और परिप्रश्न करो .... लेकिन जान्ने के लिए ।
भाव महत्वपूर्ण है और तय करता है कि कर्म किस ओर उन्मुख होगा ।
@@ moreover praveen ji - are you not the same person who opposes us when we oppose the blind killings of goats in the name of religion for another religion?
हटाएंyour "nirpekshata" seems to be very one sided i must say - critical mode when talking of hindu beliefs and sentiments and very defensive mode when talking of other faiths ?
double standards do NOT suit a person who says in his introduction that "main to kaale ko kaala aur safed ko safed kahoonga" - please reconsider your own motives and analyse them ?
no offense please
:)
.
हटाएं.
.
शिल्पा जी,
मेरा स्टैंड निरपेक्ष ही रहा है... किनारे पर खड़ा हो सब देखने वाला... यह एक सत्य है कि धर्म और आस्था के मामले में निरपेक्ष भी कोई तभी हो पाता है जब वह धर्म-अध्यात्म-ईश्वर-अवतार-आस्था-समर्पण आदि आदि के घटाघोप के परे देख पा रहा हो...
जब आप कहती हैं कि 'your "nirpekshata" seems to be very one sided i must say - critical mode when talking of hindu beliefs and sentiments and very defensive mode when talking of other faiths ?' तो मैं आपसे सिर्फ यही कहूँगा कि आप काफी बाद में ब्लॉगवुड में आई हैं यदि आपने 'स्वच्छ संदेश', 'हमारी अंजुमन', 'वेद कुरआन', 'एहसास की परतें' व जनाब मुहम्मद उमर कैरानवी के ब्लॉग पर मुझ द्वारा की गयी टीपें देखीं होती तो आप कभी यह नहीं कहती...
किनारे पर खड़ा होने से ही मुझे आपके मानक दोहरे नजर आते हैं जैसे कि अपने आराध्यों के लिये तो आप यह स्थापना दे रही हैं कि किसी हिंदू को भी उनके किये धरे को आंकने का अधिकार नहीं है... पर किसी दूसरे धर्म की परंपराओं पर आप उनके त्यौहार के दिन ही प्रश्नचिन्ह लगा देती हैं...
बहुत हो गया, आइये जानें हिन्दू या मुसलमान होने से पहले 'इंसान' होने का लाभ (Benefits of Becoming a Good Human Being First)
...
शिल्पा जी,
हटाएंइसमें प्रवीण शाह साहब का कोई दोष नहीं है, वे स्वयं निरपेक्षता को उसी स्वरूप में जानते है. अब देखो न उन्हें इस बात का खेद नहीं कि उन्होंने सर्वथा ईश्वर धर्म और धर्मग्रंथ की निंदाए की, लेकिन दूसरे धर्म के त्यौहार के दिन ही उनकी कुरीतियों पर प्रकाश डालने वालों के प्रति आज भी रंज है, द्वेष है. इनकी निरपेक्षता मानकों की अवधारणा यह है कि दूसरे धर्म की कुरीतियाँ भी परम्पराएँ लगती है और इस धर्म का ईश्वर ईगो-मसाज का लोभी और धर्मशास्त्र कूडा-करकट. इन्हें 'आराध्यों की निंदा' और 'कुरीतियों पर आवाज उठाने' के कार्य एक समान मानक के लगते है. ये वाले लोग आस्था भी रखे तो पाखण्ड, और वे वाले लोग कुप्रथा को महिमामंडित करे तो भी उनकी परम्परा!!! इस ईश-आस्था का तो मखौल उडाएंगे पर उस कुप्रथा पर किसी ने चूं तक की तो आहत होकर पीडा से कराह उठते है. कहते है हम पाखण्ड और स्वार्थ पर आवाज उठाते है लेकिन वे स्वयं नहीं जानते उनके पाखण्ड और स्वार्थ के निहितार्थ ही अलग अलग है.
शिल्पा जी,आप काफी बाद में ब्लॉगवुड में आई, लेकिन मैं लगभग उसी काल मेँ ब्लॉगवुड में आया जब 'अंतिम अवतार', 'स्वच्छ संदेश','हमारी अंजुमन', 'वेद कुरआन', 'एहसास की परतें' आदि ब्लॉग परधर्म निंदा की सारी हदें पार कर रहे थे. पूरा ब्लॉगजगत इनके कृत्यों से प्रतडित हो चुका था और आक्रोशित था. उस चरम पर अगर शाहजी ने उदार विरोध दर्शाया तो कोई बडी बात नहीं,यह उस समय की ब्लॉगरीय मजबूरी थी. उसी अवधि में जब समस्त ब्लॉग जगत ने इनके ब्लॉग बाहिष्कार का मन बनाया तो ऐसे ब्लॉगर के समर्थन में प्रवीण शाह जी आगे आए. इनकी निरपेक्षता मॉडल की अवधारणा ही ऐसी है,वे करे तो क्या करें.
वे अहिंसा के उद्देश्य से शाकाहार का समर्थन कर सकते थे, शाकाहार के लिए तो उन्हें कोई नहीं कहता कि आप किसी पाखण्ड का समर्थन कर रहे है. लेकिन आपने सामने से बढ चढ कर माँसाहार का न केवल समर्थन किया बल्कि उनके फेवर के लिए तर्कों बे-तर्कों की श्ंखला मुहेया करते रहे. जब मांसाहार प्रचारकों द्वारा सैन्य के आहार मामलो में भ्रम फैलाने जैसे लेख आए तो सैनिक पृष्ठ्भूमि होने के उपराँत भी उन लेखों को प्रोतसाहित करते.कुल मिलाकर उन्हें स्वयं ज्ञात नहीं यह निरपेक्षता का किनारा किस मोड का है. बस इस किनारे का धरातल समतल है, रेत ही रेत, अब वृक्ष क्या घास तक यहाँ नहीं उगती, इन्हें चिंता है सामने नदी का प्रवाह समतल क्यों नहीं बहता, उबड-खाबड क्यों बहती है,लहरें उँची नीची क्यों है.
@@ सुज्ञ भैया
हटाएं-आभार मैं उस समय की बातों से परिचित नहीं - हूँ आप सच कह रहे हैं - मैं इस ब्लॉग जगत में नयी होने की वजह से पुरानी बातें नहीं जानती और यदि वे बातें इस तरह की हैं तो अच्छा ही है किमैं तब यहाँ नहीं थी - इस तरह के माहौल से मैं बहुत असहज होती हूँ । आभार आपका यह सब बताने के लिए :)
@@ प्रवीण जी
हटाएंपहली बात तो यह कि यह पोस्ट "शिल्पा मेहता" या "प्रवीण शाह" के कट्टर या निरपेक्ष होने पर थी ही नहीं - यह ईश निंदा के मेरे विरोध पर थी । लेकिन इस ब्लॉग जगत की यह परम्परा ही बन गयी है कि हम मुद्दे पर बात न करना चाह कर दूसरों के व्यक्तित्व पर हर बात को मोड़ देते हैं। मुद्दा परे हो जाता है, लेखक (यहाँ मैं) को हराना (यहाँ मुझे कट्टर साबित करना) प्राथमिक हो जाता है । फिर लेखिका आपकी बात के जवाब में आपको कुछ कहे, फिर आप उसे - और बात घूम जाए , मुदा वही पडा रह जाए । दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपने आप को / अपने अहम् को , हर मुद्दे से ऊपर मानते हैं ।
अब आपकी बातों के उत्तर (यह सब मैं यहाँ कहना नहीं चाहती - लेकिन क्योंकि आपने मेरे और अपने बारे में बहुत कुछ कहा - तो मजबूरी है कि मैं उत्तर दूं) :
------------------------------
१. @ मेरा स्टैंड निरपेक्ष ही रहा है... किनारे पर खड़ा हो सब देखने वाला... यह एक सत्य है कि धर्म और आस्था के मामले में निरपेक्ष भी कोई तभी हो पाता है जब वह धर्म-अध्यात्म-ईश्वर-अवतार-आस्था-समर्पण आदि आदि के घटाघोप के परे देख पा रहा हो...
........ दूसरों के बारे में मैं नहीं जानती लेकिन कम से कम मुझे तो आप कभी भी निरपेक्ष नहीं लगे ।
आपकी आस्था इस "विश्वास" में है कि "इश्वर जैसी कोई शक्ति होती ही नहीं"
और आप अपनी इस आस्था पर जितने कट्टर हैं उतने तो तथाकथित धार्मिक भी अपनी आस्था पर नहीं हैं । कम से कम खुद को "हिन्दू" कहने वाले "धार्मिक" तो नहीं ही हैं - नहीं तो यह पोस्ट लिखने के आवश्यकता ही नहीं पड़ती । :( । आप हर इश्वर सम्बंधित मनन /चिंतन / चर्चा में अपनी इस दृढ़ आस्था को प्रकट भी करते हैं और उसे सपोर्ट करने के लिए दूसरों की आस्था को कटघरे में खडा भी करते हैं । एक बार नहीं - बार बार , लगातार ।
@ -हाँ यदि आप "निरपेक्ष" शब्द से हिन्दू और मुसलमान आस्थाओं के प्रति निरपेक्षता की बात कर रहे थे - तो - यह आपके कह्ने से नहीं होगा । यह तो व्यक्ति खुद अपने ही बारे में घोषणा नहीं कर सकता कि वह निरपेक्ष है या नहीं - यह उसे observe करने वाले दर्शक ही तय कर सकते हैं । और कम से कम "मुझे" तो आप हमारी सरकार के नेताओं की ही तरह बड़े "पक्षपाती धर्म निरपेक्ष" लगते हैं , जो बात तो करते हैं सर्व धर्म समानता की, लेकिन बैंक लोन स्कीम्स धर्म सम्बंधित बनाते हैं ।
जब मैं पशु ह्त्या की कुरीति पर बात करती हूँ, तो आप मुझे कटघरे में खड़ा करते हैं । और राम निंदा के विरोध में बोलने पर आप कहते हैं कि यह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की बात है ।
मैंने इस पोस्ट में कहीं भी किसी भी हिन्दू या मुस्लिम परम्परा की बात तक नहीं की है । मैंने राम की निंदा का विरोध किया है , किसी "हिन्दू कुरीति" का समर्थन नहीं किया है । आप इसके लिए मुझे दोहरे मानक वाला कह रहे हैं - तो मैं आपसे कहीं से भी एक भी ऐसा स्थान कोट करने का आग्रह करती हूँ जहाँ एक भी सन्दर्भ में मैंने आदरणीय मुहम्मद साहब या आदरणीय जीज़स क्राइस्ट के बारे में कोई भी निन्दात्मक बात कही हो ?
continued.....
continued
हटाएं@ किनारे पर खड़ा होने से ही मुझे आपके मानक दोहरे नजर आते हैं
हो सकता है नज़र आते हो ? हो सकता है मेरे मानक दोहरे हों , हो सकता है न भी हों ?? मैंने कभी दावा नहीं किया कि मैं निरपेक्ष हूँ । निरपेक्ष रह्ने का "प्रयास" हमेशा करती हूँ - लेकिन मैं कोई राम तो हूँ नहीं , जो मैं गलतियाँ ही न करून ।
हाँ , इतना तो पूरे विश्वास से कह सकती हूँ कि दूसरे धर्मों के सम्मानित व्यक्तियों /पैगम्बरों / ईश्पुत्रों आदि के चरित्रों पर मैं निन्दात्मक बातें नहीं कहती । कम से कम अभी तक तो नहीं । (आगे जीवन में अध्ययन करने के बाद यदि मुझे लगा कि जिन्हें मैं सम्माननीय समझती थी वे भीतर से कुछ और थे - तो शायद प्रश्न उठाऊं भी । हिन्दू साधुओं पर भी, और दुसरे धर्मों के नेताओं पर भी । लेकिन अवतारों पर नहीं । लेकिन अब तक तो मैं इतनी गूढ़ ज्ञानी नहीं हुई हूँ कि ऐसा कुछ करूँ ।)
-------------------------------
@जैसे कि अपने आराध्यों के लिये तो आप यह स्थापना दे रही हैं कि किसी हिंदू को भी उनके किये धरे को आंकने का अधिकार नहीं है... पर किसी दूसरे धर्म की परंपराओं पर आप उनके त्यौहार के दिन ही प्रश्नचिन्ह लगा देती हैं...
प्रवीण जी - मैं बार बार कहती हूँ कि रीतियों / परम्पराओं का विरोध , और आराध्यों की निंदा दो अलग विषय होते हैं । इस पोस्ट में मैंने किसी "हिन्दू परम्परा" का समर्थन नहीं किया है ।तो आप उस परम्परा के विरोध को यहाँ क्यों उठा रहे हैं ?
आप मुझे बताइये, यदि आप किसी हिन्दू स्त्री को सती बना कर जीवित जलाया जाते देखेंगे - तो उसका विरोध उसी समय करेंगे और इसे रोकने का प्रयास करेंगे , या उस वक्त उस "त्यौहार" (या कहें कि पतिव्रत "परम्परा") को "मन जाने देकर" , अगले दिन उस पर अपनी महान संवेदनाओं का प्रदर्शन करती एक पोस्ट लिखेंगे ? मेरे लिए उन बकरों का जीवन बचाना भावनाओं से अधिक महत्वपूर्ण है , आपके लिए उनके जीवन से अधिक भावनाएं महत्वपूर्ण हैं । आपके लिए निरपेक्षता की परिभाषा है मानव मात्र की धार्मिक संवेदनाएं और मेरे लिए अहिंसा सबसे बड़ा मुद्दा है ।
यदि आप सच में निरपेक्ष हैं, तो अपने नज़रिए को और मेरे नज़रिए को भी निरपेक्ष हो कर देखिये - अपने नज़रिए को ऊपर क्यों मान रहे हैं ?
हाँ - मैंने परम्परा प्रश्न चिन्ह -लगाया , लेकिन मैंने ईशनिंदा कभी नहीं की ।
हिन्दू रीतियों/ परम्पराओं पर भी मैं प्रश्न उठाती हूँ । दीपावली पर प्रदूषण के विरुद्ध मैं भी बोलती हूँ । जगराते के नाम पर माइक लगा कर दूसरों की नींद खराब करने की मैं भी निंदा करती हूँ । (लेकिन क्या "आप" अजान के लाउडस्पीकर के विरुद्ध बोलते हैं ? नहीं ? तो फिर जगराते के लाउडस्पीकर के विरुद्ध बोलना निरपेक्षता नहीं हो सकती । if you do - you can oppose this too. )लेकिन मैं , देवी-देवताओं , अवतारों पर प्रश्न नहीं उठाती, नहीं उठाऊंगी । और यदि आप राम की निंदा का समर्थन कर रहे हैं तो आप पैगम्बर जी के जीवन के कई प्रश्नों पर प्रश्न उठाने वालों के भी समर्थन में खड़े होते हैं क्या "निरपेक्षता" के नाम पर ?
जब मैंने (आपके शब्दों में) त्यौहार (बकरीद) पर पशु ह्त्या पर प्रश्न - तो उस पोस्ट में कोई भी शब्द दिखा दीजिये जो किसी भी पैगम्बर की निंदा में था .... एक भी शब्द । मैं बिना हिचक माफ़ी मांगूंगी यदि ऐसा हुआ हो, क्योंकि मैं उनके प्रति निन्दात्मक हो ही नही सकती । i am not at a high enough level to do that....
.
हटाएं.
.
सुज्ञ जी पूछते हैं...
'इनकी निरपेक्षता मॉडल की अवधारणा ही ऐसी है,वे करे तो क्या करें. वे अहिंसा के उद्देश्य से शाकाहार का समर्थन कर सकते थे, शाकाहार के लिए तो उन्हें कोई नहीं कहता कि आप किसी पाखण्ड का समर्थन कर रहे है. लेकिन आपने सामने से बढ चढ कर माँसाहार का न केवल समर्थन किया बल्कि उनके फेवर के लिए तर्कों बे-तर्कों की श्ंखला मुहेया करते रहे. जब मांसाहार प्रचारकों द्वारा सैन्य के आहार मामलो में भ्रम फैलाने जैसे लेख आए तो सैनिक पृष्ठ्भूमि होने के उपराँत भी उन लेखों को प्रोतसाहित करते.कुल मिलाकर उन्हें स्वयं ज्ञात नहीं यह निरपेक्षता का किनारा किस मोड का है.'
मैं आहार को धर्म से जोड़ कर नहीं देखना चाहता... मुझे लगता है कि सुज्ञ जी (शायद किसी आक्रामक शाकाहारी धर्म-पंथ का होने के कारण) शाकाहार को लेकर कुछ ज्यादा ही आक्रामक हैं व ऊँचा नैतिक धरातल कब्जाये (धर्म ग्रंथों को उद्धरित करते हुऐ) रहते हैं... जबकि आहार चयन को लेकर मेरी समझ में ऐसा नहीं होना चाहिये.. अब देखिये न वे लिख रहे हैं कि...(यहाँ कट्टरता से मेरा अभिप्राय: मात्र दृढ धर्मिता है। हिंसक अथवा हिंसाप्रेरक कट्टरता का मैं किंचित भी समर्थक नहीं, न उनका उदार भाव से हिंदु धर्म में समावेश चाहता हूँ) आस्तिक नास्तिक, ईश्वरवादी अनीश्वरवादी, चिंतनवादी पूजापाठी, शराब पिए न पिए, मंदिर जाएँ या न जाएँ, मांस खायें न खायें, बेशक सभी हिन्दु है और रहेंगे। इन सभी परस्पर विरोधी जोडों में भी जिस किसी के पक्ष में "सदाचार" व "अहिंसा" होगी वे सैद्धांतिक हिन्दु माने जाने चाहिए, क्योंकि स्वनिंदा या परनिंदा सदाचार नहीं है, और "अहिंसा परमो धर्म:" एक मूल सिद्धांत है।
ईसाइयों, पारसियों, बौद्धों व मुस्लिमों की बात छोड़िये... वह हिन्दुओं में जो भी मांसाहारी हैं उन्हें सैद्धान्तिक तौर पर भी हिन्दू नहीं मानना चाहते... मैं एक शैव इलाके से आता हूँ, जहाँ अधिकतर लोग माँस भी लेते हैं आहार में, हमारे यहाँ ब्राह्मण भी मांसाहारी हैं तो क्या वे हिन्दू नहीं... क्या नेपाल हिन्दू बाहुल्य राष्ट्र नहीं... क्या पशुपतिनाथ हिन्दू मंदिर नहीं ?
...
:)
हटाएंप्रवीण शाह ज़नाब,
चलो आपने पूरी टिप से शाकाहार को उद्धरित किया बाकी सभी मुद्दे तो ठीक है. कोई बात नहीं,लगे हाथ शाकाहार पर मेरा मंतव्य व दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाएगा.(विषयांतर के लिए शिल्पाजी क्षमा करें)
@मैं आहार को धर्म से जोड़ कर नहीं देखना चाहता...
प्रवीण शाह ज़नाब,
आहार को मैं भी धर्म से जोडकर नहीँ देखता, मैँ क्या हम ('निरामिष' एक सामूहिक ब्लॉग है) धर्म से जोडकर नहीँ देखते. हाँ अहिंसा से जोडकर अवश्य देखते है और अहिंसा किसी भी धर्म की बपौती नहीं है, धर्मग्रँथो में उसका उल्लेख होते हुए भी वह समग्र मानवता की अवधारणा है. निरामिष पर धर्म ग्रँथों संदर्भ तभी उपस्थित हुए जब धर्म ग्रँथों पर हिंसाचारी, माँसाहारी होने के आरोप लगे तब उन मिथ्या प्रचार का निवारण जरूरी था इसलिए यह सभी संदर्भ प्रकाश में आए.इतना ही नहीं अहिंसा को प्रमोट करते अन्य धर्मों के संदर्भ भी सहिष्णुता से लिए गए है. अहिंसा को जो भी ग्रंथ प्रोत्साहित करते है हमारे लिए मूल्यवान है चाहे वे ग्रंथ धर्मग्रंथ हो साहित्यकारों के ग्रंथ हो या फिर प्रसिद्ध व्यक्तियों के कोटेशन. ऐसे उद्धरण स्तुत्य भाव से प्रकाशित करते है. नैतिकता पर कोई भी कब्जा नहीं जमा सकता, प्रत्येक आत्मा ऊँची नैतिकता का बढ-चढ कर पालन करने के लिए स्वतँत्र है. अहिंसक बने रहना कठिन भी है और अपने आप मेँ उच्च नैतिकता भी है.और इस मानवीय गुण के कारण प्रशँसनीय है. अहिंसको की वंदना स्तुति भी की जाय तो श्रेयस्कर है.
आपने मुझे जिस 'आक्रामक शाकाहारी धर्म-पंथ' में आरूढ माना, वह अगर 'आक्रमक'है तो वह अहिंसक और नैतिक दोनो नहीं हो सकता. ऐसे किसी पँथ के साथ मेरे सम्बंध होने के आरोप को मै खारिज़ करता हूँ.
मेरी उपरोक्त टिप्पणी में आपके समर्थन की बात करते हुए मैंने धर्म से जोडकर नहीं बल्कि "अहिंसा के उद्देश्य से शाकाहार" साफ साफ लिखा है.हम धर्म जाति प्रांत या देश की धारणा अनुसार समर्थन नहीं मांगते, हम केवल और केवल अहिंसा की धारणा का वास्ता देकर समर्थन मांगते है.
@जबकि आहार चयन को लेकर मेरी समझ में ऐसा नहीं होना चाहिये..
प्रवीण शाह ज़नाब,
कईं मूलभूत अधिकार होते हुए भी हर अधिकार के साथ कर्तव्य पालन जुडा ही होता है और प्रत्येक मूलभूत अधिकार के साथ नैतिकता की दरकार रहती ही है.जिस प्रकार आप अपनी जीविका चयन तो कर सकते है किंतु उसके वैधानिक होने और नीतियुक्त होने की दरकार है उसी तरह आप आहार चयन में स्वतंत्र है लेकिन एक नैतिकता युक्त आहार की दरकार होनी चाहिए.
@ वह हिन्दुओं में जो भी मांसाहारी हैं उन्हें सैद्धान्तिक तौर पर भी हिन्दू नहीं मानना चाहते...
प्रवीण शाह ज़नाब,
देखिए, मैने साफ रेखांकित किया है-"मांस खायें न खायें, बेशक सभी हिन्दु है और रहेंगे।" आगे उल्लेख करते मैंने कहा है हिंदुओं में एक मूल सिद्धांत है -"अहिंसा परमो धर्म:" अब जो हिंदु काल,भौगोलिक,अथवा अन्य विवशता भरे कारणों से इस सिद्धाँत का पालन नहीं कर पा रहे, स्वयं को भी सैद्धांतिक कैसे कह पाएँगे? अतः "हिंदु है" पर्याप्त है. बाकि भले शोषण के बहाने हिंसा करे, अन्याय के बहाने हिंसा करे, किसी भी तरह शिकार करे या चाहे धर्म के बहाने हिंसा करे, हिंसको को मैँ हिंदु नहीं मानता. यह मेरा व्यक्तिगत अभिप्राय है और मेरा बस चले तो हिंसाचारियों को मैं भारतीय तक न मानूँ.क्योँकि अहिंसा भारतीय संस्कृति की महान परम्परा है.
शायद ही कोई समुदाय (धर्म) होगा जिसमें कमी ना निकले, लेकिन उसमें सुधारने की हिम्मत होनी चाहिए। सुधार करने की हिम्मत सिर्फ़ हिन्दू समुदाय में ही है। जिसे अन्य धर्म की कमियाँ पता करनी हो तो वो "सत्यार्थ प्रकाश" नामक अनमोल ग्रन्थ पढ़ सकता है। मैंने यह पुस्तक और गीता कई बार पढ़ी है।
जवाब देंहटाएंji - i am planning to read it soon
हटाएंवार्ता रोचक हो चली है। भारतीय परंपरा में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता महत्वपूर्ण है, दुर्भाग्य से बहुत सी धार्मिक, राजनीतिक विचारधाराओं में यह प्रावधान देखने को नहीं मिलता है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हर कोई किसी कि आस्था को हरदम आहत करता रहे। जिस देश में देशद्रोहियों, हत्यारों, और आतंकवादियों तक के लिए मानवाधिकार का परचम उठाने वाले लोग मौजूद हैं वहाँ एक धर्म-विशेष को संगठित रूप से नियमित निशाना बनाना कोई अच्छा चिन्ह नहीं है। जाने-अनजाने हर ओर से निगलेक्ट रह जाने वाला मुद्दा उठाने के लिए साधुवाद!
जवाब देंहटाएंthanks smart indian ji
हटाएंईश्वर कल्याणकारी मार्ग दिखाता है। धर्म सही होता है और महापुरूष उसके अनुकूल आचरण करके दिखाते हैं। इसके लिए वे कष्ट का जीवन जीते हैं और बलिदान देते हैं। ईश्वर की वाणी और महापुरूषों का आचरण निर्दोष होता है।
जवाब देंहटाएंउनके सैकड़ों हज़ारों वर्ष बाद जब उसे लिखा जाता है तो कवि उसमें साहित्य सुलभ कल्पना और अलंकारों का समावेश कर देते हैं। बाद में हर तरह के मनुष्य होते हैं। कुछ के लिए सत्य के बजाय स्वार्थ प्रधान हो जाता है। ये साहित्य में क्षेपक करते हैं। कला, विज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में नए प्रयोग होने से भी कुछ परिवर्तन होते चले जाते हैं।
जो ईश्वर, धर्म और महापुरूषों को उनके मूल स्वरूप में पहचानते हैं वे उनकी आलोचना नहीं करते। जो आलोचना करते हैं वे ईश्वर, धर्म और महापुरूषों को उनके मूल स्वरूप में नहीं पहचानते।
that is true - but unfortunately, i have seen a very insulting post on the shivlinga on your own blog respected jamaal ji
हटाएंअगर आपने हमारे किसी ब्लॉग पर ऐसी कोई पोस्ट देखी है तो कृप्या आप सूचित करें। अगर उस पोस्ट का मक़सद शिव जी का अपमान करना होगा तो उसे तुरंत हटा दिया जाएगा। हमसे ज़्यादा शिव जी का सम्मान करने वाला यहां ब्लॉग जगत में दूसरा कोई नहीं है। जब कभी हमने दूसरे की आपत्तिजनक पोस्ट देखी तो हमेशा उसका ख़ुद भी विरोध किया और दूसरों से भी करवाया। हो सकता है कि आपको समझने में कुछ ग़लतफ़हमी हो रही हो।
हटाएंबताईये कि वह कौन सी पोस्ट है और आपको उसमें हमारी ओर से कौन सी बात अपमानजनक लग रही है ?
हम आपके आभारी रहेंगे !
हमारे लिए भी आपकी यह पोस्ट आश्चर्य पैदा कर रही है। अभी थोड़े दिन पहले आप स्वयं वैदिक यज्ञों और मंदिरों में पशुबलि की आलोचना कर रही थीं और ऐसा करने वालों से उसे छोड़ने की अपील भी कर रही थीं।
क्या हिन्दू धर्मग्रंथ आपको ऐसी आलोचना और अपील करने का अधिकार देते हैं ?
उस पोस्ट को आपने स्वयं ही "एक हिन्दू भाई ने लिखा" से शुरू कर पोस्ट किया है । इस पर श्याम गुप्ता जी समीक्षासिंह जी की आपत्तियां भी , कि इसे आप हटा लीजिये, आपने मना कर दिया । तो अब मेरे कहने से आप भला क्यों इसे हटाएंगे ? instead - a discussion will start here about that post - which i do not want on my blog ...
हटाएंमैं यहाँ इस पोस्ट का लिंक न तो खुद दूँगी, न ही यदि आपने दिया तो प्रकाशित करूंगी । आप भी जानते हैं और मैं भी , कि किस पोस्ट की बात कर रही हूँ मैं - आप चाहें तो उसे अभी ही हटा लीजिये - लिंक की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी ।
हिन्दू धर्म के अनुयायियों से यह अपील इसीलिए की , क्योंकि वे तो "उदारता" और "अकट्टरता" के जोश में यह सब लिखते हैं, लेकिन उनकी लिखी बात को
"हिन्दू भाई ऐसा सोचते हैं"
का जामा पहना कर पेश किया जाता है । इस पोस्ट पर आई मिश्र जी की टिपण्णी का भी एक भाग आपने "अरविन्द मिश्र जी कहते हैं" कह कर पोस्ट लगाईं है ।
@@ हमारे लिए भी आपकी यह पोस्ट आश्चर्य पैदा कर रही है। अभी थोड़े दिन पहले आप स्वयं वैदिक यज्ञों और मंदिरों में पशुबलि की आलोचना कर रही थीं और ऐसा करने वालों से उसे छोड़ने की अपील भी कर रही थीं।
हटाएंक्या हिन्दू धर्मग्रंथ आपको ऐसी आलोचना और अपील करने का अधिकार देते हैं ?
----
- हाँ - देते हैं ।
और हाँ , अपने ही धर्म को समझने के लिए मुझे आपकी सलाह की आवश्यकता नहीं - मेरे पास अपने स्रोत हैं | आभार ।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस पोस्ट से मात्र यही सँदेश प्रकट होता है कि "हिंदुओं को अपने इष्ट व आराध्यों की आलोचना नहीं करना चाहिए"
जवाब देंहटाएंमुझे आश्चर्य होता है कि 'अपने ही आराध्यों के सम्मान रक्षण' से असहिष्णुता,अनुदारता,कट्टरता कैसे फैल सकती है? इसमें एक ही पक्ष है तो पक्षपात जैसा क्या है? धर्मों के रगड़ों झगड़ों जैसा क्या है?
अथवा फिर भय खाना ही हमारी नियति बन चुकी है.
क्या सद्वाणी और सद्व्यवहार की सीख देने भर से ही किसी की भावनाएँ भडक उठेगी?
काठ मार गया है मेरी बुद्धि को.....सहज उडान की बात छोडो, पँख फडफडाना भी भयग्रस्त है.
कुछ तो है जो होना चाहिए था हमारे पास, शायद शांति की एवज़ में वह गिरवी पडा है किसी के पास. इसीलिए सद्चिंतन भी साम्प्रदायिक दुर्भाव का अपराध है.
यदि कोई किसी और धर्म के सम्मानित नामों पर कुछ भी निंदाजनक कहे , तो सब उस कहने वाले को धर्म निरपेक्षता का पाठ पढ़ाते हैं । ..... लेकिन हिन्दू आराध्यों पर सबको निंदाजनक बातें , न सिर्फ कहनी हैं, बल्कि किसी ने इस निंदा का विरोध करने का साहस किया, तो उस पर बौध्हिक दबाव डाला जा रहा है कि उस ने ऐसा करने का साहस कैसे कर लिया ??
जवाब देंहटाएंमुझे
"अनुदार , कट्टर, अतार्किक" आदि आदि उपाधियाँ नवाजी जा रही हैं ।
क्यों ?
क्योंकि मैंने साहस कैसे किया हिन्दू अवतारों की निंदा के औचित्य पर प्रश्न करने का ????
इस ब्लॉग जगत के बड़े बड़े कर्णधारों की धर्म निरपेक्षता भी देख ली - बहुत सही समय पर जान पायी , कि जितनी छद्म धर्म निरपेक्ष हमारी सरकार है, उतना ही छद्म धर्म निरपेक्ष यह ब्लॉग जगत भी है ।
आप सभी का आभार ।
आदरणीय सुज्ञ जी का विशेष आभार । उन्होंने न सिर्फ इस पोस्ट के ध्येय को समझा , बल्कि मुझ पर जो निजी आक्षेप लगाए गए, उन्होंने उन आक्षेपों के उत्तर भी दिए, क्योंकि शायद वे समझ पा रहे थे कि इसकी आवश्यकता है ।
जो ज्ञानीजन (विद्वान् और विदुशियाँ दोनों ही) इस चर्चा को पढ़ कर मंद मंद मुस्कुराते रहे और यहाँ चल रही चर्चा का तमाशा देख कर चुप चाप प्रसन्न होते रहे कि देखो क्या मजा आ रहा है - उन सभी महात्माओं को भी मेरा प्रणाम - उन्हें भी आभार ।
संशयात्मा विनश्यति, कभी गुनाहों का देवता में यह पंक्तियाँ पढ़ी थीं, एक बार अपने एक मित्र से सवाल भी उठाया था कि कृष्ण गीता में क्यों इतने बोल्डली मैं शब्द का प्रयोग करते हैं क्या इससे उनका अहंकार नहीं झलकता। उसने बहुत सुंदर उत्तर दिया कि वो क्रियेटर हैं उन्होंने संसार बनाया है वे इसका सच हमारे सामने रखते हैं। अपने प्वाइंट आफ व्यू को रखना बहुत साहस की बात है और जो इसके लिए अनुदारता शब्द का प्रयोग करते हैं वे स्वयं में अनुदार हैं। वैसे मेरा मानना है कि आलोचना से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तर्कहीन बातें स्वयं खारिज हो जाती है। एक बार मथुरा गया था वहाँ पैम्फलेट पढ़ा, उसमें लिखा था कि युग प्रवर्तक श्रीकृष्ण का परिचय देना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है तो कोई अगर सूरज की तरफ थूके तो उसका हश्र तो सबको पता ही है।
जवाब देंहटाएंआपका आभार !
हटाएंइतनी भारी - भरकम बहस पढने से रह गयी ...
जवाब देंहटाएंविद्वान् विदुषियों के तर्क को एक और रख कर सीधी सच्ची बात हमारे मन की , हमारे लिए हिन्दू होना ऐसा है जैसे कि अपने माता -पिता की संतान , लाख शिकायतें हो सकती है , मगर श्रद्धा और सम्मान कम नहीं हो सकता .
और यदि कोई दूसरा व्यक्ति (मेरे धर्म का हो या विधर्मी) मेरे माता पिता को जाने बिना या जानकर भी अपशब्द कहेगा , तो उसका वाजिब जवाब देना आवश्यक होगा !
आभार आपका !!
हटाएंabhar aur dsadhuwad is post ke liye
जवाब देंहटाएंpranam.
thanks sanjay ji
हटाएंधर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो !
जवाब देंहटाएंमुझे गर्व है की मैं एक हिन्दू हूँ ........
mujhe bhi - lekin isee tarah nindaayein chalti rahin - to aage jaakar ?
हटाएंबहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो तर्क से परे रखी जा सकती हैं, वहाँ विश्वास ही एकमात्र कसौटी है। अपने धर्म पर, अपने ईष्ट पर विश्वास करना कहाँ से गलत हो सकता है? और अगर किसी की नजर में वो विश्वास नुकसानदायक है भी तो किसके लिये? विश्वास करने वाले के लिये ही न? फ़िर भी लोग हम जैसों के उद्धार के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं, देखकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएं"gurudwara mahtiana sahab" के दर्शन दो तीन बार किये हैं, मेरी पोस्टिंग वहाँ से कुछ दूर पर ही थी। जो खुद वहाँ न जा सकते हों, वो गूगल images पर सर्च करके अंदाजा लगा सकते हैं कि कट्टरता, अनुदारता और अतार्किकता क्या होती है।
on the other hand - if "vISHWAS" is damaging people - what is these so called scientific people'd AVISHWAS doing ???
हटाएंwhat are the achievements of the so called nonbeliever nations in regards to human development (mind - i am not aking about financial and economic status - i am talking of humanity)
हमारा धर्म क्या कोई भी धर्म अपने आराध्यों की आलोचना का अधिकार नहीं देता है फिर भी लोग अपने आराध्यों की आलोचना करते रहते हैं ! दरअसल यह उनकी कमअक्ली के कारण होता है क्योंकि उनके मन में उठने वाली जिज्ञासाओं का समाधान वो सही तरीके से ढूढ पाने में असफल रहते हैं और इसके कारण अपने हि आराध्यों की आलोचना करने लगते हैं !
जवाब देंहटाएंmaybe ....
हटाएंदेखती हूँ कि जो बुद्धिमान बद्धिजीवी , अपने आप को रैशनल और "नास्तिक" या "संशयवादी" कहने वाले वाले विद्वान और विदुशियाँ किसी "हिन्दू" कुरीति आदि पर खूब स्यापा मचाते हैं :
जवाब देंहटाएंवे सब ही नाइजीरिया में 289 स्कूली बच्चियों के इस्लाम के विरुद्ध जाकर पढ़ाई चुनने के गुनाह के कारण हुए अपहरण और उनके इस्लाम को "स्वीकार करने" की खबर पर चुप्पी साधे हैं । मेरे फेसबुक फ्रेंड सिर्क्ल में भी और ब्लॉग सर्कल में भी । कहीं कोई आलोचना नहीं , कोई प्रश्न , कोई चर्चा नहीं ।
क्यों? हिन्दू "अपराध" तो अपराध "स्वयम सिद्ध" न भी हों तो आप सब को खूब चुभते हैं । फिर इस दीखते हुए अपराध पर आप डर से चुप हैं या आप भी "सेक्युलर" हो गये हैं ?
दुर्भाग्य से यह सच है कि धार्मिक दमन के विरोध का हल्ला भारत या अमेरिका जैसे देश में/के बारे में खूब मचाया जाता है जबकि क्यूबा, चीन या सऊदी अरब के बारे में ऐसी किसी कमी का कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं होता दिखता है। निष्पक्षता की परिभाषा इतनी कठिन तो नहीं होनी चाहिए थी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही व्यवहारिक पोस्ट है। हर काल के लिए समसामयिक है। पोस्ट आई हुई टिप्पणी पोस्ट को और अधिक महत्वपूर्ण बना देती है। एक विशाल चर्चा जो हर किसी को पढ़नी समझनी चाहिए।
जवाब देंहटाएं