कठ उपनिषद, हिन्दू धर्म के प्रमुख ११ उपनिषद् संदेशों में एक है। बालक नचिकेता ने यमराज से जो शिक्षा पायी उस ज्ञान की यह कथा है।
उद्दालक जी ने महान यज्ञ किया, जिसमे अपना सब कुछ दान करना होता है। किन्तु वे मोहवश प्रिय दुधारू गायें न दान कर, बूढी जर्जर गायों का दान कर रहे थे। यह देख नचिकेता को लगा की यह पिताजी को पुण्य नहीं, बल्कि पाप दिशा में भेज रहा है। नचिकेता बार बार पूछने लगा कि मैं आपका अत्यंत प्रिय हूँ - तो आप मुझे किसे दान देंगे ? चिढ कर पिता ने कह दिया कि मैं तुम्हे यमराज को देता हूँ। बुद्धिमान नचिकेता पिता की आज्ञा मान कर तुरंत यमराज की तरफ चल पड़ा।
जब नचिकेता वहां पहुंचा तो यमराज वहां न थे, और बालक बिना कुछ भी खाये पिए ३ दिन उनका रास्ता देखता रहा। जब यमराज लौटे तो उन्हें यह देख बड़ा दुःख हुआ कि यह ब्राह्मण बालक मेरे घर ३ दिन से भूखा प्यासा है। उन्होंने अतिथि ब्राह्मण के अपने घर भूखे रहने के कारण बड़ी ग्लानि अनुभव की। उन्होंने नचिकेता को प्रणाम कर स्वागत किया और ३ वरदान मांगने को कहा। इन्ही प्रश्नों के उत्तर इस उपनषद का सन्देश हैं।
प्रथम वरदान के रूप में नचिकेता यह माँगता है कि मेरे पिता जी का क्रोध और उद्विग्नता दूर हो, जो यमराज सहर्ष प्रदान करते हैं।
दूसरा वरदान : नचिकेता ने कहा स्वर्ग में मृत्यु और वृद्धावस्था का कोई भय नहीं है। इस स्वर्ग को प्राप्त होने की साधन अग्नि की विद्या और रहस्य मुझे समझाइये। यमराज ने इस उत्तम विद्या को नचिकेता को प्रदान किया। उन्होंने विश्व के कारण रूप अग्नि यज्ञ की विधि, विद्या, आदि सब उस बालक को समझाया। फिर यमराज ने उसे पूछा कि क्या तुम इस विद्या और विधि को अच्छी प्रकार समझ गए हो ? तब बालक ने ठीक जैसे यमराज ने कहा था, सारा ज्ञान ऐसे ही कह सुनाया। यह देख यमराज बालक की कुशाग्र बुद्धि पर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी तरफ से यह वरदान दिया कि अब से यह अग्नि नचिकेता अग्नि कहलाएगी।
तीसरे और अंतिम वरदान में बालक ने प्रश्न किया कि मृत्यु के बाद क्या होता है यह मुझे समझाइए। कई जन कहते हैं कि मृत्यु के बाद हम रहते हैं,और कई कहते हैं कि नहीं रहते। सत्य क्या है मुझे समझाइये। यमराज ने बालक को इस प्रश्न से हटाने का प्रयास किया और कहा कि यह तो देवताओं के भी ज्ञान सीमा से बाहर का ज्ञान है, इसे छोड़ो और जो कुछ चाहो मांग लो। जितना लंबा जीवन चाहो, दीर्घजीवी संतान, धन, राज्य, संपत्ति, अद्वितीय सुंदर स्त्रियां सब मांग लो लेकिन यह वरदान बदल दो। लेकिन नचिकेता किसी प्रलोभन में न आया और विनम्रता से बोला - हे यमदेव, आप ही ने कहा कि यह ज्ञान अद्वितीय है और देवताओं को भी दुर्लभ है। तब मैं आपसे बेहतर गुरु कहाँ पाऊंगा ? आप मुझे यही वरदान दीजिये। बहुत प्रयास पर भी बालक को अडिग देख यमराज अति प्रसन्न हुए और कहा, हे बालक, तुमने बड़े से बड़े प्रलोभन में न आकर ज्ञान की दृढ़ इच्छा पर अपना मन स्थिर रखा। मूर्ख लोग अज्ञान में भटक जाते हैं लेकिन तुम अपने लक्ष्य की मार्ग पर अडिग हो, और मैं तुम्हारे जैसा पात्र पा कर अति प्रसन्न हूँ, और मैं तुम्हे यह गूढ़ ज्ञान देता हूँ।
आत्मा के बारे में शिक्षा चाहने वाले, और इस ज्ञान को देने और समझा पाने वाले भी दुर्लभ है। यह ज्ञान सिर्फ सद्गुरु द्वारा ही मिलेगा, विचार, तर्क आदि से नहीं। तुम जैसा शिष्य पाकर मैं प्रसन्न हूँ, तुमने मेरे द्वारा दिखाई अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति , अति उच्च धार्मिक कर्मों के फल स्वरूप पाया जाने वाला स्वर्ग, कर्मों की उच्चता से प्राप्त होने वाली ख्याति, यह सब ऐ बुद्धिमान नचिकेता, मेरे दिखाने पर तुमने यह सब देख लिया और देख कर भी इसे जाने दिया है, त्याग दिया है। तुम इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सब प्रकार सुपात्र हो।
आत्मचिंतन और कठिनता से मिलने वाले परमात्मा को पाकर जीव सुख दुःख से पार हो कर परम आनंद स्रोत को पा लेता है। नचिकेता पूछता है - सही गलत के, कर्म अकर्म के और भूत भविष्य के ऊपर आप क्या देखते हैं ?
यमराज कहते हैं - वह जिसे वेद प्रमाणित करते हैं और तप घोषित करते हैं, जिसके लिए लोग ब्रह्मचर्य का जीवन बिताते हैं - वह है - अक्षर "ॐ" ... चिरस्थायी अमर आत्मा है "ॐ"। यही परम् उद्देश्य है, यही परम् लक्ष्य है। इस एक "ॐ" मनुष्य का सबसे श्रेष्ठ सहारा है - इससे व्यक्ति ब्रह्म प्राप्ति कर सकता है।
ज्ञानरूप आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न यह किसीसे जन्मी है, न ही इससे कोई जन्म लेता है। यह शाश्वत है। शरीर के मारे जाने या मर जाने पर यह नहीं मरती। जो समझते हैं की यह मारता है या मारा जाता है, वे दोनों ही नहीं जानते हैं। आत्मा छोटे से भी छोटी और महान से भी महान है, यह प्रत्येक जीव के हृदय में वास करती है ।
एक रथ के बारे में विचार करें तो जैसे, रथ का स्वामी आत्मा है। इन्द्रियाँ रथ के अश्व हैं और इन्द्रियों के विषय वे मार्ग जिन पर घोड़े रथ को ले जा रहे हैं। मन लगाम और बुद्धि सारथी है। जिस रथ के अश्व सारथी के नियंत्रण में हैं वह रथी सुख पूर्वक अच्छे रास्ते पर रमण करती है, और जो घोड़े सारथी के नियंत्रण में नहीं, वह रथ पथ से हट जाता है और रथी उस राह पर जाता है। आत्मा मन और बुद्धि से जुड़ कर भोक्ता बन जाती है। जो आत्मा मन से अलिप्त है वह रथ के मार्ग से प्रभावित नहीं होती, लेकिन जब लिप्त हो जाती है तो अश्वों के ही मार्ग पर भटक जाती है और जन्म मरण के मार्गों पर भटकता रहता है। जो अलिप्त है वह इस सब से छूट जाता है और लक्ष्य तक पहुँच जाता है। वह परम् लक्ष्य है - परम् ब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का परम् धाम।
इन्द्रियों के विषय इन्द्रियों से बलवान हैं, उनसे बलवान है मन, उससे बलवान है बुद्धि। बुद्धि से श्रेष्ठ है महान आत्मा उससे बड़ी है भगवान की माया, अव्यक्त प्रकृति। इस सब से श्रेष्ठ है परमेश्वर। उससे महान कुछ भी नहीं , वह परम लक्ष्य है। आत्मा सब जीवों में है, लेकिन सब पर प्रकट नहीं होती। सिर्फ उन महान ऋषि मुनि जो सूक्ष्म तत्व को जानते हैं, सिर्फ वे भगवान के आश्रय से अपने भीतर स्थित आत्मा को देख पाते हैं।
व्यक्ति को चाहिए कि वह इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में, बुद्धि को महान आत्मा में और आत्मा को परमात्मा में शांत करे।
उठो - अपने वरदानों को समझो। उस्तरे से भी तेज धार इस ज्ञान पर तुम चलो और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।
जो इस ज्ञान को सुनेगा, समझेगा और दूसरों को समझाएगा, वह महान हो जाएगा। जो इसे ब्राह्मणो को, और मृत्यु पर आयोजित समारोह में समझाएगा, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा।
इस आत्मा का निवास भीतर है और इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं। इसलिए इन्द्रियों द्वारा आत्मा को नहीं जाना जा सकता है। लेकिन बुद्धिमान जिज्ञासु व्यक्ति ने अपनी दृष्टि भीतर को मोड़ दे तो उस द्वारा आत्मा के दर्शन किये जा सकते हैं । ज्ञानी आत्मा को विवेक से समझ कर अस्थिर अस्थायी संसार में अलिप्त हो जाता है। आत्मा द्वारा ही सब कुछ अनुभव किया जाता है, इससे कुछ भी छिपा नहीं। परमात्मा की वजह से व्यक्ति जागते सोचते सब कुछ अनुभव करता है - शोक का कोई कारण नहीं है। परमात्मा सब पर शासन करते हैं, जो व्यक्ति उन परमात्मा को भीतर जान ले वह फिर कहीं नहीं भागता।
प्राचीन काल में परमात्मा जल से ब्रह्मा के रूप में प्रकट थे। वे अपने संकल्प से सब जीवों के हृदय में वास करते हैं। देव माता अदिति सब जीवों के साथ जन्मी है और उनके हृदय में रहती है। जातिवेदा अग्नि जो आग की छड़ों में वैसे ही छिपी है जैसे गर्भवती स्त्री अपने गर्भ में संतान को छुपाए हुए रहती है। यही अग्नि परमेश्वर रूप है। सूर्य जहाँ से आते है और जहां विश्राम करते हैं, यही परमेश्वर हैं।
जो इस लोक में है वह सब उस लोक में भी है, और जो वहां है वह यहां भी है। जो इन में भिन्नता देखे वह भटकता रहता है। इसमें कोई विविधता नहीं - जो इसे विविधता में देखे वह भटक जाता है। भूत वर्तमान और भविष्य को नियंत्रित करने वाला परमात्मा मनुष्य के हृदय निवास करता है। वह हमेशा था, है, और रहेगा। वह अमर और सदा रहने वाला है। जैसे वर्षा कहीं भी हो, पानी नीचे को बह आखिर एक ही स्थान पहुंचता है - ऐसे ही अन्ततः हर व्यक्ति अंततः परम ब्रह्म में विलीन होता है ।
शरीर एक ११ द्वारों वाला शहर है। व्यक्ति इस में लिप्त नहीं हो तब ही परम धाम पहुंचता है। परमात्मा हर जीव के साथ उसके मन में निवास करता है जैसे दो पक्षी एक डाल पर बैठे हैं। जीवात्मा वह पक्षी है जो फल खा रही है, और परमात्मा वह पक्षी है जो इस पक्षी को फल खाते देख रहा है।
एक ही वायु , जो सारे संसार में अपना निराकार अस्तित्व रखती है, वह जिसमे प्रवेश लेती है उसका आकार ले लेती है। ऐसे ही आत्मा भी अलग अलग आकार लेती है। सूर्य सकल विश्व की आँख है - और आँख अपने स्वारा देखे गए दृश्यों से दूषित नहीं होती। ऐसे ही परमात्मा सब में है लेकिन लिप्त नहीं होता। जो ज्ञानी अपने भीतर के परमात्मा को निरंतर देखते हैं वे उसके प्रकाश से प्रकाशित हैं। उस परमात्मा के लोक में सूर्य नहीं चमकते, क्योंकि ये सब उस प्रकाश से ही तो प्रकाशित होते हैं।
यह प्राचीन पीपल का पेड़ है जिसकी जड़ें ऊपर और टहनियां नीचे को हैं। सब इसी मूल पर टिके हैं। सब कुछ परम् में ही जन्मता है , उसी में चेष्टा करता है, उस में स्थापित है। इसी परमात्मा के भय से इंद्र, वायु सूर्य अपने अपने निर्धारित कर्म करते हैं ।जो व्यक्ति इस शरीर में रहते हुए परमात्मा को देख लेता है वह मुक्त हो जाता। है जैसे साफ़ शीशे में वस्तुएं दिखती हैं, मैले शीशे में नहीं,ऐसे ही शुद्ध बुद्धि मन ही परमात्मा का दर्शन कर सकता है ।
इन्द्रियाँ प्रकृति में विहार करती हैं. शांत परमात्मा में नहीं पहुंचती हैं। परमात्मा बिना किसी प्रकृति का है, वह मनुष्य की दृष्टि की सीमा से बाहर है - उसे मानवीय आँखों से नहीं देखा जा सकता। उसे सिर्फ चिंतन, ज्ञान, कर्म और भक्ति से देखा जा सकता है। सब चेष्टाओं को त्याग कर इन्द्रियों के दृढ़ और संतुलित नियंत्रण से परमेश्वर पर ध्यान स्थित होता है - यही योग है। परमात्मा को मन वाणी या दृष्टि से नहीं पाया जाता - उसके अस्तित्व को स्वीकारने उसकी उत्कट अभिलाषा रखने पर ही उसे पाया जा सकता है। गांठें काट कर नश्वर जीव अमर हो जाता है। हृदय से सर के शिखर को जाने वाली एक नाड़ी "सूक्ष्मणा" मनुष्य को उच्च दिशाओं में ले जाती है, और अन्य सब नाड़ियाँ नीचे के लोकों में ले जाती हैं। परमेश्वर को शरीर से अलग सही रूप में पवित्र और अमर रूप में जानो।
तब नचिकेता यमराज के वचन सुन बरम ज्ञान को प्राप्त हुआ। इस उपनिषद को सुन और समझ सकने वाला व्यक्ति भी परम् लक्ष्य को प्राप्त होगा।
ॐ शान्ति शान्ति शान्ति ॐ
उद्दालक जी ने महान यज्ञ किया, जिसमे अपना सब कुछ दान करना होता है। किन्तु वे मोहवश प्रिय दुधारू गायें न दान कर, बूढी जर्जर गायों का दान कर रहे थे। यह देख नचिकेता को लगा की यह पिताजी को पुण्य नहीं, बल्कि पाप दिशा में भेज रहा है। नचिकेता बार बार पूछने लगा कि मैं आपका अत्यंत प्रिय हूँ - तो आप मुझे किसे दान देंगे ? चिढ कर पिता ने कह दिया कि मैं तुम्हे यमराज को देता हूँ। बुद्धिमान नचिकेता पिता की आज्ञा मान कर तुरंत यमराज की तरफ चल पड़ा।
जब नचिकेता वहां पहुंचा तो यमराज वहां न थे, और बालक बिना कुछ भी खाये पिए ३ दिन उनका रास्ता देखता रहा। जब यमराज लौटे तो उन्हें यह देख बड़ा दुःख हुआ कि यह ब्राह्मण बालक मेरे घर ३ दिन से भूखा प्यासा है। उन्होंने अतिथि ब्राह्मण के अपने घर भूखे रहने के कारण बड़ी ग्लानि अनुभव की। उन्होंने नचिकेता को प्रणाम कर स्वागत किया और ३ वरदान मांगने को कहा। इन्ही प्रश्नों के उत्तर इस उपनषद का सन्देश हैं।
प्रथम वरदान के रूप में नचिकेता यह माँगता है कि मेरे पिता जी का क्रोध और उद्विग्नता दूर हो, जो यमराज सहर्ष प्रदान करते हैं।
दूसरा वरदान : नचिकेता ने कहा स्वर्ग में मृत्यु और वृद्धावस्था का कोई भय नहीं है। इस स्वर्ग को प्राप्त होने की साधन अग्नि की विद्या और रहस्य मुझे समझाइये। यमराज ने इस उत्तम विद्या को नचिकेता को प्रदान किया। उन्होंने विश्व के कारण रूप अग्नि यज्ञ की विधि, विद्या, आदि सब उस बालक को समझाया। फिर यमराज ने उसे पूछा कि क्या तुम इस विद्या और विधि को अच्छी प्रकार समझ गए हो ? तब बालक ने ठीक जैसे यमराज ने कहा था, सारा ज्ञान ऐसे ही कह सुनाया। यह देख यमराज बालक की कुशाग्र बुद्धि पर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी तरफ से यह वरदान दिया कि अब से यह अग्नि नचिकेता अग्नि कहलाएगी।
तीसरे और अंतिम वरदान में बालक ने प्रश्न किया कि मृत्यु के बाद क्या होता है यह मुझे समझाइए। कई जन कहते हैं कि मृत्यु के बाद हम रहते हैं,और कई कहते हैं कि नहीं रहते। सत्य क्या है मुझे समझाइये। यमराज ने बालक को इस प्रश्न से हटाने का प्रयास किया और कहा कि यह तो देवताओं के भी ज्ञान सीमा से बाहर का ज्ञान है, इसे छोड़ो और जो कुछ चाहो मांग लो। जितना लंबा जीवन चाहो, दीर्घजीवी संतान, धन, राज्य, संपत्ति, अद्वितीय सुंदर स्त्रियां सब मांग लो लेकिन यह वरदान बदल दो। लेकिन नचिकेता किसी प्रलोभन में न आया और विनम्रता से बोला - हे यमदेव, आप ही ने कहा कि यह ज्ञान अद्वितीय है और देवताओं को भी दुर्लभ है। तब मैं आपसे बेहतर गुरु कहाँ पाऊंगा ? आप मुझे यही वरदान दीजिये। बहुत प्रयास पर भी बालक को अडिग देख यमराज अति प्रसन्न हुए और कहा, हे बालक, तुमने बड़े से बड़े प्रलोभन में न आकर ज्ञान की दृढ़ इच्छा पर अपना मन स्थिर रखा। मूर्ख लोग अज्ञान में भटक जाते हैं लेकिन तुम अपने लक्ष्य की मार्ग पर अडिग हो, और मैं तुम्हारे जैसा पात्र पा कर अति प्रसन्न हूँ, और मैं तुम्हे यह गूढ़ ज्ञान देता हूँ।
आत्मा के बारे में शिक्षा चाहने वाले, और इस ज्ञान को देने और समझा पाने वाले भी दुर्लभ है। यह ज्ञान सिर्फ सद्गुरु द्वारा ही मिलेगा, विचार, तर्क आदि से नहीं। तुम जैसा शिष्य पाकर मैं प्रसन्न हूँ, तुमने मेरे द्वारा दिखाई अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति , अति उच्च धार्मिक कर्मों के फल स्वरूप पाया जाने वाला स्वर्ग, कर्मों की उच्चता से प्राप्त होने वाली ख्याति, यह सब ऐ बुद्धिमान नचिकेता, मेरे दिखाने पर तुमने यह सब देख लिया और देख कर भी इसे जाने दिया है, त्याग दिया है। तुम इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सब प्रकार सुपात्र हो।
आत्मचिंतन और कठिनता से मिलने वाले परमात्मा को पाकर जीव सुख दुःख से पार हो कर परम आनंद स्रोत को पा लेता है। नचिकेता पूछता है - सही गलत के, कर्म अकर्म के और भूत भविष्य के ऊपर आप क्या देखते हैं ?
यमराज कहते हैं - वह जिसे वेद प्रमाणित करते हैं और तप घोषित करते हैं, जिसके लिए लोग ब्रह्मचर्य का जीवन बिताते हैं - वह है - अक्षर "ॐ" ... चिरस्थायी अमर आत्मा है "ॐ"। यही परम् उद्देश्य है, यही परम् लक्ष्य है। इस एक "ॐ" मनुष्य का सबसे श्रेष्ठ सहारा है - इससे व्यक्ति ब्रह्म प्राप्ति कर सकता है।
ज्ञानरूप आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न यह किसीसे जन्मी है, न ही इससे कोई जन्म लेता है। यह शाश्वत है। शरीर के मारे जाने या मर जाने पर यह नहीं मरती। जो समझते हैं की यह मारता है या मारा जाता है, वे दोनों ही नहीं जानते हैं। आत्मा छोटे से भी छोटी और महान से भी महान है, यह प्रत्येक जीव के हृदय में वास करती है ।
एक रथ के बारे में विचार करें तो जैसे, रथ का स्वामी आत्मा है। इन्द्रियाँ रथ के अश्व हैं और इन्द्रियों के विषय वे मार्ग जिन पर घोड़े रथ को ले जा रहे हैं। मन लगाम और बुद्धि सारथी है। जिस रथ के अश्व सारथी के नियंत्रण में हैं वह रथी सुख पूर्वक अच्छे रास्ते पर रमण करती है, और जो घोड़े सारथी के नियंत्रण में नहीं, वह रथ पथ से हट जाता है और रथी उस राह पर जाता है। आत्मा मन और बुद्धि से जुड़ कर भोक्ता बन जाती है। जो आत्मा मन से अलिप्त है वह रथ के मार्ग से प्रभावित नहीं होती, लेकिन जब लिप्त हो जाती है तो अश्वों के ही मार्ग पर भटक जाती है और जन्म मरण के मार्गों पर भटकता रहता है। जो अलिप्त है वह इस सब से छूट जाता है और लक्ष्य तक पहुँच जाता है। वह परम् लक्ष्य है - परम् ब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का परम् धाम।
इन्द्रियों के विषय इन्द्रियों से बलवान हैं, उनसे बलवान है मन, उससे बलवान है बुद्धि। बुद्धि से श्रेष्ठ है महान आत्मा उससे बड़ी है भगवान की माया, अव्यक्त प्रकृति। इस सब से श्रेष्ठ है परमेश्वर। उससे महान कुछ भी नहीं , वह परम लक्ष्य है। आत्मा सब जीवों में है, लेकिन सब पर प्रकट नहीं होती। सिर्फ उन महान ऋषि मुनि जो सूक्ष्म तत्व को जानते हैं, सिर्फ वे भगवान के आश्रय से अपने भीतर स्थित आत्मा को देख पाते हैं।
व्यक्ति को चाहिए कि वह इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में, बुद्धि को महान आत्मा में और आत्मा को परमात्मा में शांत करे।
उठो - अपने वरदानों को समझो। उस्तरे से भी तेज धार इस ज्ञान पर तुम चलो और अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।
जो इस ज्ञान को सुनेगा, समझेगा और दूसरों को समझाएगा, वह महान हो जाएगा। जो इसे ब्राह्मणो को, और मृत्यु पर आयोजित समारोह में समझाएगा, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा।
इस आत्मा का निवास भीतर है और इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं। इसलिए इन्द्रियों द्वारा आत्मा को नहीं जाना जा सकता है। लेकिन बुद्धिमान जिज्ञासु व्यक्ति ने अपनी दृष्टि भीतर को मोड़ दे तो उस द्वारा आत्मा के दर्शन किये जा सकते हैं । ज्ञानी आत्मा को विवेक से समझ कर अस्थिर अस्थायी संसार में अलिप्त हो जाता है। आत्मा द्वारा ही सब कुछ अनुभव किया जाता है, इससे कुछ भी छिपा नहीं। परमात्मा की वजह से व्यक्ति जागते सोचते सब कुछ अनुभव करता है - शोक का कोई कारण नहीं है। परमात्मा सब पर शासन करते हैं, जो व्यक्ति उन परमात्मा को भीतर जान ले वह फिर कहीं नहीं भागता।
प्राचीन काल में परमात्मा जल से ब्रह्मा के रूप में प्रकट थे। वे अपने संकल्प से सब जीवों के हृदय में वास करते हैं। देव माता अदिति सब जीवों के साथ जन्मी है और उनके हृदय में रहती है। जातिवेदा अग्नि जो आग की छड़ों में वैसे ही छिपी है जैसे गर्भवती स्त्री अपने गर्भ में संतान को छुपाए हुए रहती है। यही अग्नि परमेश्वर रूप है। सूर्य जहाँ से आते है और जहां विश्राम करते हैं, यही परमेश्वर हैं।
जो इस लोक में है वह सब उस लोक में भी है, और जो वहां है वह यहां भी है। जो इन में भिन्नता देखे वह भटकता रहता है। इसमें कोई विविधता नहीं - जो इसे विविधता में देखे वह भटक जाता है। भूत वर्तमान और भविष्य को नियंत्रित करने वाला परमात्मा मनुष्य के हृदय निवास करता है। वह हमेशा था, है, और रहेगा। वह अमर और सदा रहने वाला है। जैसे वर्षा कहीं भी हो, पानी नीचे को बह आखिर एक ही स्थान पहुंचता है - ऐसे ही अन्ततः हर व्यक्ति अंततः परम ब्रह्म में विलीन होता है ।
शरीर एक ११ द्वारों वाला शहर है। व्यक्ति इस में लिप्त नहीं हो तब ही परम धाम पहुंचता है। परमात्मा हर जीव के साथ उसके मन में निवास करता है जैसे दो पक्षी एक डाल पर बैठे हैं। जीवात्मा वह पक्षी है जो फल खा रही है, और परमात्मा वह पक्षी है जो इस पक्षी को फल खाते देख रहा है।
एक ही वायु , जो सारे संसार में अपना निराकार अस्तित्व रखती है, वह जिसमे प्रवेश लेती है उसका आकार ले लेती है। ऐसे ही आत्मा भी अलग अलग आकार लेती है। सूर्य सकल विश्व की आँख है - और आँख अपने स्वारा देखे गए दृश्यों से दूषित नहीं होती। ऐसे ही परमात्मा सब में है लेकिन लिप्त नहीं होता। जो ज्ञानी अपने भीतर के परमात्मा को निरंतर देखते हैं वे उसके प्रकाश से प्रकाशित हैं। उस परमात्मा के लोक में सूर्य नहीं चमकते, क्योंकि ये सब उस प्रकाश से ही तो प्रकाशित होते हैं।
यह प्राचीन पीपल का पेड़ है जिसकी जड़ें ऊपर और टहनियां नीचे को हैं। सब इसी मूल पर टिके हैं। सब कुछ परम् में ही जन्मता है , उसी में चेष्टा करता है, उस में स्थापित है। इसी परमात्मा के भय से इंद्र, वायु सूर्य अपने अपने निर्धारित कर्म करते हैं ।जो व्यक्ति इस शरीर में रहते हुए परमात्मा को देख लेता है वह मुक्त हो जाता। है जैसे साफ़ शीशे में वस्तुएं दिखती हैं, मैले शीशे में नहीं,ऐसे ही शुद्ध बुद्धि मन ही परमात्मा का दर्शन कर सकता है ।
इन्द्रियाँ प्रकृति में विहार करती हैं. शांत परमात्मा में नहीं पहुंचती हैं। परमात्मा बिना किसी प्रकृति का है, वह मनुष्य की दृष्टि की सीमा से बाहर है - उसे मानवीय आँखों से नहीं देखा जा सकता। उसे सिर्फ चिंतन, ज्ञान, कर्म और भक्ति से देखा जा सकता है। सब चेष्टाओं को त्याग कर इन्द्रियों के दृढ़ और संतुलित नियंत्रण से परमेश्वर पर ध्यान स्थित होता है - यही योग है। परमात्मा को मन वाणी या दृष्टि से नहीं पाया जाता - उसके अस्तित्व को स्वीकारने उसकी उत्कट अभिलाषा रखने पर ही उसे पाया जा सकता है। गांठें काट कर नश्वर जीव अमर हो जाता है। हृदय से सर के शिखर को जाने वाली एक नाड़ी "सूक्ष्मणा" मनुष्य को उच्च दिशाओं में ले जाती है, और अन्य सब नाड़ियाँ नीचे के लोकों में ले जाती हैं। परमेश्वर को शरीर से अलग सही रूप में पवित्र और अमर रूप में जानो।
तब नचिकेता यमराज के वचन सुन बरम ज्ञान को प्राप्त हुआ। इस उपनिषद को सुन और समझ सकने वाला व्यक्ति भी परम् लक्ष्य को प्राप्त होगा।
ॐ शान्ति शान्ति शान्ति ॐ