भाग 1 , 2
पिछला भाग
"वास्तविकता" और "सत्य" एक ही नहीं हैं - वास्तविकता होते हुए भी सीमित वास्तविकता परम सत्य से बहुत लघु है । सत्यों का परम सत्य ब्राह्मण है । उसी एक से अनेकता हुई - पंचतत्त्व (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) और इनसे बहुरंगी संसार निर्मित हुआ । किन्तु वह सिर्फ इतना ही नहीं है । ये सब हैं - और चिर हैं - और उसी एक से प्रकट और में उसी एक में विलीन होते रहते हैं ।(विलीन होने का अर्थ विनष्ट होना नहीं, अप्रकट होना है)
एक शिष्य गुरु से पूछता है और ब्राह्मण के विषय में प्रश्न करता है । उसे परिभाषित करने के उपरांत गुरु उसी से समझाने को कहते हैं । तब शिष्य शुरुआत में कहता है "अन्न" (matter) ही सब है , जिससे सब कुछ बना है । किन्तु सिर्फ पदार्थ ही तो जीवन के हर रूप को नहीं समझा सकता न ? फिर वह कहता है -"प्राण" (life) ही सर्व है । किन्तु फिर से - जीवन के हर रूप में एक सा बोध तो नहीं होता (चल जीवों का और अचल पेड़ पौधों का बोध स्तर अलग है ) ? फिर कहता है "मनस" (consciousness) ही सर्वस्व है । फिर से प्रश्न उठता है - कि पशुओं का बोध स्तर और मानव का एक ही है क्या ? फिर कहता है बुद्धियुक्त मन "विज्ञान" (intellectual consciousness) ही ब्राह्मण है । सिर्फ मानव ही अपने वैज्ञानिक बुद्धियुक्त मन के कारण अपने आप को अपने से ऊपर उठा सकता है । लकिन यह भी तो द्वैत्पूर्ण है ? तो आखिर शिष्य आत्मिक मुक्ति और आनंद पर आता है । तो वास्तविकता है सत्य, ज्ञान और अनंतता। आनंद भी परम सत्य का समीप अनुमान भर ही है । अन्न , जीवन, मानस , बुद्धियुक्त बोध मन , ये सब सीढियां है - जो सत्य के निकट जाती हैं ।
एक प्रजनन कोशिका में इतनी संसूचना होती है की वह पदार्थ को शिशु शरीर के आकार में ढाल लेती है - और हर भ्रूण अपनी ही प्रजाति के शारीरिक रूप में ही आकार लेता है - जिसमे प्राणों का प्राकट्य होता है । ठीक उसी तरह से वैदिक मान्यता है कि पदार्थ इस रूप में विकसित हुए कि जीवन का प्राकट्य हो सके - तो यह इसलिए हुआ कि बोध पहले से था और वही पदार्थ को प्रेरित करता रहा उस रूप में आने के लिए । यह जो वैज्ञानिक अवधारणा है कि संसार सिर्फ पदार्थों के एक तरह से स्व-विकसित होने से बना, इससे यह प्रतीत होता है कि पदार्थ के आकस्मिक गठजोड़ से जीवन उत्पन्न हुआ, और वैदिक अवधारणा यह है कि यह हुआ तो ऐसे ही, किन्तु आकस्मिक नहीं था - यह तो होना नियत ही था , क्योंकि जीवन अपने प्राकट्य के लिए पदार्थ को उस रूप में आने के लिए प्रेरित कर रहा था ।
बोध भीतरी परत है, बुद्धि सत्त्व है । जिसपर रजस और तमस की परतें हैं । एक ओर तो अहंकार का प्रकटन होता है - जिससे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ होती हैं । ब्राह्मण परम सत्य हैं, इश्वर और संसार द्वैत रूप में बोध और पदार्थ को दर्शाते हैं । संसार की रचना दिव्य मन की इच्छा मात्र से हुई है, और इच्छा मात्र से ही इसका पुनः पुनः निर्माण और विलय होता रहता है । इश्वर की दिव्य इच्छा से यह ब्रह्माण्ड हिरण्य गर्भ के रूप में (अव्यक्त से) व्यक्त हुआ । यह अभिव्यक्ति कोई बाहर से आई या थोपी हुई नहीं है, बल्कि यह समाहित ही है । परम सत्य को न तो अभिव्यक्ति की आवश्यकता है,न ही वह इस प्रतीत होती हुई अभिव्यक्ति तक सीमित ही है । यह सिर्फ मन की मौज है । संसार हर बार, हर सृष्टि में, इसी रूप में होगा यह भी आवश्यक नहीं - क्योंकि यह भी तो उस ब्रह्म की रचनात्मकता पर सीमा बाँधने जैसा ही है ।
... जारी ...
पिछला भाग
.... संसार की रचना कोई "अचानक" साकार होने जैसी घटना नहीं, बल्कि प्राकृतिक और समयक्रम में हुआ विकास है । ...... evolution theory से इसमें एक बुनियादी फर्क है । वह फर्क यह है कि evolution विज्ञान कहता है की निर्जीव तत्त्वों के अलग अलग गठजोड़ों से धीरे धीरे जीवन "उत्पन्न" हुआ, यह आकस्मिक था । .... इसके विपरीत वैदिक मान्यता यह है की तत्त्वों में जीवन उत्पन्न नहीं हुआ , बल्कि पहले से था और अब सिर्फ अप्रकट से "प्रकट" हुआ । ---- उत्पन्न नहीं, सिर्फ प्रकट । ----- ऋग्वेद में "उत्पन्न" होना, "प्रकट" होना और "जन्म" लेना पृथक घटनाएं हैं । इसी प्रकार से,जब प्रलय के बाद जीवन "समाप्त" हो जाता है, तब भी वह "समाप्त" नहीं, सिर्फ "अप्रकट" होता है ...
अब आगे ..
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वेदों में संहिताएं, ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद् हैं । संहिताएं देवताओं की स्तुतियाँ आदि कहती हैं, इनमे यज्ञादि में कहे जाने वाले मन्त्र आदि संकलित हैं । ब्रह्मचारी शिष्य अपने पठन काल में इन स्तुतिगीतों को सीखते हैं । ब्राह्मण इन यज्ञ कर्म कांडों के महत्व के बारे में बताते हैं - जिन उपदेशों के अनुरूप पारिवारिक गृहस्थ अपने दैनिक जीवन के धर्माधीन कर्म, और यज्ञकर्म, करें । वानप्रस्थ जन आरण्यकों के उपदेशों पर मनन चिंतन करें और संन्यास को प्राप्त हों । सन्यासी जन, जो मोह माया से परे हो चुके होते हैं, वे उपनिषदों के दार्शनिक सूत्रों के चिंतन, मनन और कथन में अपना समय लगाते हैं । उपनिषद् कोई पूर्व निष्पन्न किताबें नहीं थीं जो सन्यासी पढ़ते हों , बल्कि जब संन्यास सच में घटित हो जाता - तब ये उनके आत्म में स्वतः प्रकट होते, स्वानुभव से आये, सत्य परिचय हैं ।
यहाँ पहुँच कर रूचि अब उद्देश्य उन्मुख की अपेक्षा व्यक्तिपरक और आतंरिक उन्मुख हो जाती है । यात्रा बाहर की जगह अब भीतर की और अग्रसर होती है । उपनिषदों में सिर्फ सूखे कर्मकांड वादिता की समालोचना दिखती है । यज्ञकर्म सिर्फ उच्च लोकों की और ले जायेंगे - जहां से इन सत्कर्मों का सुखमय फल भोगने के बाद यहीं धरा पर इस जीवन में लौटना होगा । स्तुतियों की जगह अब प्रश्न ले लेते हैं । सत्य की खोज - वह कौन / क्या है जिसे जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाए ? इससे अधिक कुछ है ? कुछ नहीं है ? सनातन सत्य की प्राप्ति कैसे हो ? जब सब कुछ इश्वर का ही है - तो फिर यही सब उन्हें ही भेंट करने का क्या अर्थ ? ............. सोम आहुतियों की जगह अब "स्व" आहुति की बात उभरती है । यज्ञ की आहुति के समय कहा जाने वाला शब्द "स्वाहा" अब "स्व + आहुति" या स्वत्व हनन का अर्थ ले लेता है । जीवन के तीन कालखंड अब सोम आहुतियों का स्थान ले लेते हैं । मेध अब पुरुषमेध या सर्व मेध हैं : अपने आप को इश्वर को सौंपना, अपना ही स्व आहूत कर देना । बृहद आरण्यक उपनिषद् में अश्वमेध यज्ञ की व्याख्या इस तरह से है कि यजमान सारे ब्रह्माण्ड को त्याग दे - सिर्फ वचन से नहीं - मन से । प्रार्थना यज्ञ और त्याग, अब निमित्त भर हैं सत्य की खोज के लिए । ये अपने भीतर से पूर्ण परम संसार में प्रविष्ट होने के मार्ग के प्रवेशद्वार की तरह हैं ।
वैदिक दृष्टा जाती बंधनों से बंधे हुए नहीं हैं । सत्यकाम जाबाल - जिन्होंने अपने पिता का नाम बताने में असमर्थता कही - उन्हें भी दीक्षित किया गया । "तत् त्वं असि" इतने सामान्य से शब्द आभासित होते हैं - कि इन्हें पढ़ने के बाद भी इनमे समाहित ज्ञान मुट्ठी से फिसल जाता है । उपनिषद् वेदों का जिक्र अक्सर सम्मान के साथ करते हैं - किन्तु सिर्फ स्तुतियों तक सीमित नहीं रहते । ये वेदों की शिक्षाओं का सदुपयोग करते हुए भी याज्ञवल्क्य और शांडिल्य जैसे आत्मसाक्षातकारियों के स्वानुभव का परिचय देते हैं । गुरुकुल से लौटे श्वेतकेतु बेझिझक स्वीकार करतेहैं - कि वैदिक शिक्षा पूरी सीख लेने के बाद भी उन्हें वह ज्ञान नहीं मिला है जिससे हर जानने योग्य हर वस्तु जान ली जाती है ।
उपनिषदों के अग्रणी ऋषियों के आगे प्रश्न हैं - संसार के मूल में क्या / कौन है ? किसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है ? मूलभूत एक सत्य क्या है ? यह माना गया कि, यदि मानव ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है तो उसके भीतर ब्रह्म ने ही अपने आप को पहचाना है - यह सिर्फ साक्षात्कार / परिचय है उस "स्व" से जो पहले से था - लेकिन ज्ञात नहीं था । "अहम् ब्रह्मास्मि" का उद्घोष - बिना इस स्वानुभूति के सिर्फ अहंकार है, और स्वानुभूति के बाद निर्विवादित सत्य ।
वैदिक दृष्टा जाती बंधनों से बंधे हुए नहीं हैं । सत्यकाम जाबाल - जिन्होंने अपने पिता का नाम बताने में असमर्थता कही - उन्हें भी दीक्षित किया गया । "तत् त्वं असि" इतने सामान्य से शब्द आभासित होते हैं - कि इन्हें पढ़ने के बाद भी इनमे समाहित ज्ञान मुट्ठी से फिसल जाता है । उपनिषद् वेदों का जिक्र अक्सर सम्मान के साथ करते हैं - किन्तु सिर्फ स्तुतियों तक सीमित नहीं रहते । ये वेदों की शिक्षाओं का सदुपयोग करते हुए भी याज्ञवल्क्य और शांडिल्य जैसे आत्मसाक्षातकारियों के स्वानुभव का परिचय देते हैं । गुरुकुल से लौटे श्वेतकेतु बेझिझक स्वीकार करतेहैं - कि वैदिक शिक्षा पूरी सीख लेने के बाद भी उन्हें वह ज्ञान नहीं मिला है जिससे हर जानने योग्य हर वस्तु जान ली जाती है ।
उपनिषदों के अग्रणी ऋषियों के आगे प्रश्न हैं - संसार के मूल में क्या / कौन है ? किसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है ? मूलभूत एक सत्य क्या है ? यह माना गया कि, यदि मानव ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है तो उसके भीतर ब्रह्म ने ही अपने आप को पहचाना है - यह सिर्फ साक्षात्कार / परिचय है उस "स्व" से जो पहले से था - लेकिन ज्ञात नहीं था । "अहम् ब्रह्मास्मि" का उद्घोष - बिना इस स्वानुभूति के सिर्फ अहंकार है, और स्वानुभूति के बाद निर्विवादित सत्य ।
"वास्तविकता" और "सत्य" एक ही नहीं हैं - वास्तविकता होते हुए भी सीमित वास्तविकता परम सत्य से बहुत लघु है । सत्यों का परम सत्य ब्राह्मण है । उसी एक से अनेकता हुई - पंचतत्त्व (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) और इनसे बहुरंगी संसार निर्मित हुआ । किन्तु वह सिर्फ इतना ही नहीं है । ये सब हैं - और चिर हैं - और उसी एक से प्रकट और में उसी एक में विलीन होते रहते हैं ।(विलीन होने का अर्थ विनष्ट होना नहीं, अप्रकट होना है)
एक शिष्य गुरु से पूछता है और ब्राह्मण के विषय में प्रश्न करता है । उसे परिभाषित करने के उपरांत गुरु उसी से समझाने को कहते हैं । तब शिष्य शुरुआत में कहता है "अन्न" (matter) ही सब है , जिससे सब कुछ बना है । किन्तु सिर्फ पदार्थ ही तो जीवन के हर रूप को नहीं समझा सकता न ? फिर वह कहता है -"प्राण" (life) ही सर्व है । किन्तु फिर से - जीवन के हर रूप में एक सा बोध तो नहीं होता (चल जीवों का और अचल पेड़ पौधों का बोध स्तर अलग है ) ? फिर कहता है "मनस" (consciousness) ही सर्वस्व है । फिर से प्रश्न उठता है - कि पशुओं का बोध स्तर और मानव का एक ही है क्या ? फिर कहता है बुद्धियुक्त मन "विज्ञान" (intellectual consciousness) ही ब्राह्मण है । सिर्फ मानव ही अपने वैज्ञानिक बुद्धियुक्त मन के कारण अपने आप को अपने से ऊपर उठा सकता है । लकिन यह भी तो द्वैत्पूर्ण है ? तो आखिर शिष्य आत्मिक मुक्ति और आनंद पर आता है । तो वास्तविकता है सत्य, ज्ञान और अनंतता। आनंद भी परम सत्य का समीप अनुमान भर ही है । अन्न , जीवन, मानस , बुद्धियुक्त बोध मन , ये सब सीढियां है - जो सत्य के निकट जाती हैं ।
एक प्रजनन कोशिका में इतनी संसूचना होती है की वह पदार्थ को शिशु शरीर के आकार में ढाल लेती है - और हर भ्रूण अपनी ही प्रजाति के शारीरिक रूप में ही आकार लेता है - जिसमे प्राणों का प्राकट्य होता है । ठीक उसी तरह से वैदिक मान्यता है कि पदार्थ इस रूप में विकसित हुए कि जीवन का प्राकट्य हो सके - तो यह इसलिए हुआ कि बोध पहले से था और वही पदार्थ को प्रेरित करता रहा उस रूप में आने के लिए । यह जो वैज्ञानिक अवधारणा है कि संसार सिर्फ पदार्थों के एक तरह से स्व-विकसित होने से बना, इससे यह प्रतीत होता है कि पदार्थ के आकस्मिक गठजोड़ से जीवन उत्पन्न हुआ, और वैदिक अवधारणा यह है कि यह हुआ तो ऐसे ही, किन्तु आकस्मिक नहीं था - यह तो होना नियत ही था , क्योंकि जीवन अपने प्राकट्य के लिए पदार्थ को उस रूप में आने के लिए प्रेरित कर रहा था ।
बोध भीतरी परत है, बुद्धि सत्त्व है । जिसपर रजस और तमस की परतें हैं । एक ओर तो अहंकार का प्रकटन होता है - जिससे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ होती हैं । ब्राह्मण परम सत्य हैं, इश्वर और संसार द्वैत रूप में बोध और पदार्थ को दर्शाते हैं । संसार की रचना दिव्य मन की इच्छा मात्र से हुई है, और इच्छा मात्र से ही इसका पुनः पुनः निर्माण और विलय होता रहता है । इश्वर की दिव्य इच्छा से यह ब्रह्माण्ड हिरण्य गर्भ के रूप में (अव्यक्त से) व्यक्त हुआ । यह अभिव्यक्ति कोई बाहर से आई या थोपी हुई नहीं है, बल्कि यह समाहित ही है । परम सत्य को न तो अभिव्यक्ति की आवश्यकता है,न ही वह इस प्रतीत होती हुई अभिव्यक्ति तक सीमित ही है । यह सिर्फ मन की मौज है । संसार हर बार, हर सृष्टि में, इसी रूप में होगा यह भी आवश्यक नहीं - क्योंकि यह भी तो उस ब्रह्म की रचनात्मकता पर सीमा बाँधने जैसा ही है ।
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