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रविवार, 21 जुलाई 2013

श्रीमद्भगवद्गीता २. १५

इस श्रंखला की पिछली पोस्ट में हमने इस श्लोक पर बात की ।

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||

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1.1 , 1.2 , 1.3

उस पोस्ट पर एक चर्चा चली जिसमे महाभारत युद्ध में दोनों ही पक्षों का अधर्म पथ पर होने की बात हुई । इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर रही हूँ । सिर्फ यह कह रही हूँ कि इस श्रंखला में मैं महाभारत ग्रन्थ पर नहीं बल्कि गीता पर बात कर रही हूँ । गीता महाभारत युद्ध के दौरान पुनः कही गयी है लेकिन यह महाभारत का हिस्सा नहीं । 

श्री कृष्ण (आगे गीता में) अर्जुन से कहते हैं कि यह गीता ज्ञान मैंने पहले सूर्य देव को दिया था जिन्होंने अपने पुत्र को दिया और परम्परा से वह ज्ञान आगे बढ़ा - लेकिन समय के साथ यह लुप्तप्रायः हो चला है इसलिए मैं आज इसे फिर से तुझे कह रहा हूँ ।

कृपया गीता की चर्चा पर बने रहे । महाभारत की (औचित्य और अनौचित्य ) चर्चा उसी महाभारत श्रंखला पर रहे तो बेहतर रहेगा । जब हम केमिस्ट्री की क्लास में बैठते हैं तो फिजिक्स की बात नहीं करते । लेकिन जीवन मूल्य सिखाने वाली गीता पर हम जज और ज्यूरी बन कर अपने निर्णय देने लगते हैं ।
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अब अगला श्लोक :
यं हि न व्यथ्यन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् |
सं दुःख सुखं धीरं सोSमृतत्वायकल्पते ||

भावार्थ: 
जिसे ये सब व्यथित नहीं करते और जो इन सब (शारीरिक या मानसिक) परिस्थितियों में सम रहता है (और अपना निश्चित कर्म करता रहता है) वह पुरुष श्रेष्ठ है, और मुक्त है ।  
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गीता का दूसरा अध्याय पूरी गीता का summarization सा लगता है मुझे  । पहले दस श्लोकों में अर्जुन की व्यथा  थी । वह अपने रिश्ते नातेदारों को देख आकर विचलित हो जाता है और युद्ध को छोड़ देने की बातें कहता है । अब कृष्ण उसे समझा रहे हैं ।

पिछले श्लोक में कृष्ण ने कहा कि जैसे हमारी इन्द्रियां (sense of touch etc) हमें (हमारे शरीर को भिन्न शारीरिक परिस्थितियों में ) सर्दी और गर्मी का अनुभव कराती हैं , उसी तरह हे कुन्तीनन्दन, हमारे मन को भी सुख और दुःख का अनुभव होता है (भिन्न मानसिक परिस्थितियों में) । जैसे सर्दी और गर्मी (ऋतुएँ ) आती जाती रहती हैं और स्थायी नहीं हैं उसी तरह हे अर्जुन ये सुख दुःख के अनुभव भी आते जाते हैं और स्थायी नहीं हैं । (अपने मन से) इन्हें (जैसे शरीर गर्मी और सर्दी को सहन करता है) सहन कर ।

इस श्लोक में कृष्ण कह रहे हैं कि  जिस किसी मनुष्य को ये सब स्थितियां डावांडोल नहीं कर सकें वही मनुष्य मनुष्यों में श्रेष्ठ है और मोक्ष में है । आगे जाकर कहीं मुक्ति नहीं - अभी इसी जीवन में यदि कोई दुःख सुख से अनछुआ है तो अभी की ही स्थिति अमृतमय मुक्ति है ।

अब यह दोनों श्लोक सिर्फ महाभारत के सम्बन्ध में नहीं है  । दुःख और सुख को समान मान कर कर्म करने वाले ही सच में कर्तव्य कर्म कर सकते हैं । जो दुःख सुख से चलायमान होंगे वे कटु कर्तव्य कर ही नहीं सकते । क्योंकि वे तो दुःख से बचने और सुख की ओर जाने वाली ही राह चुनेंगे । ध्यान देने की बात है कि यहाँ कहीं भी युधिष्ठिर या दुर्योधन के सही गलत होने पर कुछ नहीं कहा गया है । बल्कि व्यक्ति के निजी कर्त्तव्य की बात कही जा रही है  ।

एक योद्धा जो युद्ध भूमि में आ चुका है, जिसके रण कौशल के भरोसे उसके राजा युद्ध में उतरे हैं - वह अब पीठ दिखा कर भागना चाहता है क्योंकि विरोध में उसके अपने खड़े हैं ।

कृष्ण कह रहे हैं कि अपने निजी दुःख सुख को आने जाने वाला (ऋतुओं की तरह परिवर्तन शील) मान ले, और अपना (योद्धा का - अर्जुन का नहीं, पुत्र का नहीं, शिष्य का नहीं) कर्म कर । जो व्यक्ति अपने निजी दुःख सुख को परे कर कर्म कर सके वही मानवों में श्रेष्ठ होता है।

यह सब कृष्ण कब कह रहे हैं  ? कई लोग कहते हैं कि कृष्ण यदि अर्जुन को न समझाते , तो युद्ध रुक जाता , कई कई लोग न मरते। लेकिन वे भूल जाते हैं कि कृष्ण ने युद्ध से पहले तक बहुत समझाया था किन्तु अर्जुन तब अपने क्रोध (द्रौपदी का अपमान , वनवास का अपमान, आदि आदि) से क्रुद्ध हुआ युद्ध को उद्धत था। तब क्या अर्जुन नहीं जानता था कि युद्ध में कौन सामने होंगे ? भीष्म और द्रोण तो द्यूत क्रीडा के समय ही उसे अपना पक्ष बता चुके थे, और सारे पांडव जानते थे कि वे कौरवों के साथ खड़े दिखेंगे । फ़िर अब नया क्या हुआ ?

जो लोग हज़ारों प्राणों के खोने की बातें करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि वे खुद अपने देश के शत्रु देश के शुरू हो चुके युद्ध के दौरान मुख्य सेनानायक/ जनरल / सेनाध्यक्ष .... के अर्जुन की तरह "अहिंसावादी" बन कर संन्यास ले कर युद्ध भूमि छोड़ देने को क्या कहेंगे ? वे यह भी भूल जाते हैं कि हर आतंकवादी घटना के बाद वे खुद युद्ध छेड़ने की गुहार लगाते हैं - यह भूल कर की युद्ध में कितनी "हिंसा" होगी और कितने "निर्दोष सैनिक" मारे जायेंगे। कितनी औरतें विधवा होंगी, और कितने बच्चे अनाथ हो जायेंगे  ।

यह सब "अर्जुन को कृष्ण न लड़वाते तो हिंसा रूकती" कहने वाले लोग वे ही हैं जो कुछ महीने पहले दामिनी के गुनाहगारों को सड़क पर जंगली से जंगली सजाओं की वकालत कर रहे थे। क्या वे कहेंगे कि जज की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को यदि कटघरे में खड़ा बलात्कारी अपना गुरु या परिवारजन दिखे (या शक्तिशाली राजपुत्र दिखे) तब जज को "अहिंसावादी" बन कर पीछे हट जाना चाहिए ? ............. लेकिन यह रक्त का उबाल राजपुत्र दुर्योधन के अनेकानेक स्त्रियों के शोषण पर उबाल नहीं खाता , क्योंकि वह सब तो "पुरानी बात" है  । दुर्योधन की नज़र न सिर्फ अपनी भाभी (राजपरिवार की बहू )पर ही पड़ी बल्कि यदि आपको याद हो तो पांडवों के वनवास के दौरान एक और राजकन्या के साथ उसने यही किया था । जब राज कन्या के साथ  का यह  होता था तो जन साधारण की तो सोच ही सकते हैं  ।

लेकिन नहीं -  ये सब   भूल कर ये "ज्ञानीजन" अचानक "अहिंसावाद" पर चल देते हैं और गीता कह कर अर्जुन को प्रेरित करने के लिए कृष्ण को "अपराधी" घोषित कर देते हैं । वे यह भी भूल जाते हैं कि अक्सर साधारण स्थितियों में अहिंसा की बात करने वालों को वे मूर्ख / डरपोक / आदि आदि  ... घोषित करते हैं ।

लेकिन जब गीता की बात होती है तब अचानक सब न्यायप्रियता और वीरता "अहिंसावाद" की ओट  में छुप जाती है  । तब उन्हें अचानक लगने लगता है कि यदि बलात्कारियों के साथ अपने पितामह / गुरु / भाई दिखें तब न्याय की रक्षा को भूल कर युद्ध से पीठ दिखा देना "भला और सही रास्ता " हो जाता है  ।

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यदि हमें गीता समझनी है तो अपने आप को महाभारत के मायाजाल से निकाल कर इसे देखना होगा  । गीता जीवन पथ प्रदर्शिका है - यह महाभारत या अर्जुन तक सीमित नहीं है  । कृपया काँटों में उलझे रह कर गुलाब से मुंह न मोडें - इसे समझने के प्रयास करें ।

गीता की असल शुरुआत मुझे लगती है २.११ से । कई विद्वान् ऐसा मानते हैं तो कई नहीं मानते । यह मेरा अपना विचार था की यहाँ से श्री भगवान् का कथन शुरू होता है और पहले बैकग्राउंड है - और पहली बार मुझे श्रीविनोबा भावे जी का version  श्री अनुराग शर्मा जी की आवाज़ में सुनते हुए यह पता चला कि यह और भी लोग मानते हैं  । और यहाँ से कृष्ण का गीत आता है । पूरी महाभारत में न उलझें - इस पर आयें । दुसरे अध्याय के ग्यारहवे श्लोक से जो पोस्ट  लिखी हैं उनके भावार्थ फिर से पेस्ट कर रही हूँ  (ऊपर पूरी पोस्ट्स के लिंक भी हैं ।) :  :

11 श्री भगवान् ने कहा - तू न सोचने योग्य बातों पर इतना सोचा रहा है, और पंडिताई की भाषा प्रयुक्त करता है | किन्तु जो सच ही में पंडित हो - वह तो जिनके प्राण चले गए, या जिनके नहीं भी गए, उन दोनों के ही लिए शोक नहीं करते |

12 (श्री कृष्ण आगे अर्जुन से बोले - )
निश्चित ही पूर्व में ऐसा कोई काल नहीं था जब तू नहीं था, या मैं नहीं था या ये सब राजागण नहीं थे । न ही आगे ऐसा कोई काल होगा जब हम सब नहीं होंगे ।


13 जैसे शरीर में रहने वाला आत्मा अपरिवर्तित ही रह कर लगातार बदलते हुए शरीर में वास करता है (शरीर बालक से जवान होता है, फिर बूढा भी परन्तु उसके भीतर रहने वाला व्यक्ति वही रहता है ) उसी तरह मृत्यु के समय भी वही आत्मा एक से दूसरे शरीर में पुनर्वास कर लेता है | जो यह जानते हैं , वे मोहित नहीं होते ।

14 इन्द्रिय अनुभूति (और मन की भी ) - गर्मी, सर्दी,सुख और दुःख की अनुभूति कराती हैं । जैसे ये मौसम के असर आने जाने वाले हैं, स्थायी नहीं, वैसे ही सुख दुःख भी आने जाने वाले हैं । हे भारत, इनसे प्रभावित हुए बिना इन्हें सहन करना (अनुभव करते हुए भी उपेक्षा करना) सीख । 

15 जिसे ये सब व्यथित नहीं करते और जो इन सब (शारीरिक या मानसिक) परिस्थितियों में सम रहता है (और अपना निश्चित कर्म करता रहता है) वह पुरुष श्रेष्ठ है और मुक्त है ।  

इन श्लोकों में जीवन का ज्ञान है - अपने मानस में इन्हें कृपया सिर्फ पांडव कौरव युद्ध के सन्दर्भ भर तक सीमित न रखें  ।

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जारी 

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disclaimer:
कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।