पिछली पोस्ट में हम ने टेलीफोन पर बात की। इस बार हम अपने घर पर रखे टीवी पर पिक्चर कैसे बनती है और चलती फिरती दिखती है इस पर एक नज़र डालते हैं।
बिलकुल पुराने टीवी पर चलते हैं। जब एशियन गेम्स के समय मैं छोटी सी थी तब हमारे शहर में नया नया टीवी आया था। हमारे घर में तो खैर बहुत बाद में आया लेकिन टीवी तो आ गया थे - जान गए थे कि एक डब्बा होता है जिसमे फ़िल्मी गाने सुनाई नहीं बल्कि दिखाई देते हैं - फिल्मे भी दिखती हैं चलती फिरती। बड़ी चकित होती थी मैं , और सोचती थी ये लोग कैसे इतने सारे डब्बों में एक साथ एक जैसे स्टेप्स पर नाचते गाते बोलते दिखते हैं ? आइये देखें यह कैसे होता है।
यह कंप्यूटर मॉनिटर भी एक स्क्रीन है, जिसपर आप ये अक्षर पढ़ रहे हैं। नीचे यह इमेज देखिये।
पुरानी टेक्नोलोजी के टीवी CRT पर चलते थे, और तब के कम्प्यूटर स्क्रीन भी। ऐसा ही कुछ अभी भी अस्पताल के मोनिटर्स या हमारे ओफ़िसेज़ के पुराने कम्प्यूटर्स में दीखता है। आपने ज़रूर ध्यान दिया होगा कि उन टीवी स्क्रीन्स के पीछे एक काफी गहरा डब्बा होता था। जो टीवी चलते हुए गर्म भी काफी हो जाता था। यह डब्बा CRT है - cathode ray terminal .
इस डब्बे के भीतर बहुत ज्यादा वोल्टेज का (+) और (-) टर्मिनल है (जैसा आप रिमोट कंट्रोल्स में प्रयुक्त होने वाले पेंसिल सेल में देखते हैं ) . इनमे से (+) को अनोड और (-) को कथोड कहते हैं /
टीवी के भीतर का (+) हमारे टीवी का आगे का जो कांच का स्क्रीन है (जिस पर हम पिक्चर्स देख पाते हैं ) वहां कनेक्टेड है और (-) सबसे पीछे की ओर। यह ठीक किसी टोर्च के पीछे की और लगी इलेक्ट्रिक प्लेट और आगे लगी नन्ही बल्ब की तरह है। जब हम टोर्च का बटन दबाते हैं तो पीछे से आगे का सर्किट पूर्ण होता है जिससे बिजली दौड़ने लगती है और बल्ब चमकता है। लेकिन टोर्च से समरूपता यहीं ख़त्म हो जाती है। इसके आगे टोर्च जैसा कुछ नहीं होता।
पहली बात तो यह कि टोर्च के भीतर बिजली तारों में दौड़ती है लेकिन टीवी की ट्यूब में पूरा vaccuum है। जैसा कि हम जानते ही हैं - करंट तब ही दौड़ सकता है जब उसे तार या कोई और मेटल आदि कंडक्टर मिले। लेकिन vaccuum या रिक्तता में बिजली नहीं दौड़ सकती। फिर ? :)
फिर यह कि टीवी के कथोड को हीटर से गर्म करते हैं जिससे इलेक्ट्रोन गर्मी के मारे बेचारे निकल भागते हैं। इसे thermal emmission कहते हैं। ये जो इलेक्ट्रोन र्म कथोड से बाहर आये वे स्कुल से घर की छुट्टी पर निकले बच्चों की तरह फ्री हैं - ये वहीँ इकट्ठे रहेंगे यदि इन्हें कोई न बुलाये।
आपको याद होगा कि मैंने पहले ही कहा था कि टीवी का कांच का स्क्रीन (+) से जुड़ा हुआ है। और कथोड (जिससे इलेक्ट्रोन निकले हैं) वह (-) से जुड़ा हुआ है। तो ये स्कूल से छूटे बच्चों जैसे इलेक्त्रोन जैसे बच्चे स्कूल से दूर घर की और खिंचाव महसूस करते हैं वैसे ही ये इलेक्ट्रोन भी खुद निगेटिव हैं तो ये (-) कथोड से दूर (+) अनोड , यानी कि टीवी स्क्रीन की और दौड़ने लगते हैं।
यह इस चित्र में देखिये :
यह जो पूरा बंद ट्यूब दिख रहा है यह कांच का ट्यूब समझ लीजिये जिसके भीतर की हवा खींच कर vaccuum बना दिया गया है। सबसे पीछे जो भीतर लाल रंग का अरेंजमेंट है वहां हीटर और काथोड हैं। हीटर से गर्म हो कर जो इलेक्ट्रोन बाहर आये हैं वे नीले रंग में दिख रहे हैं। ये इलेक्ट्रोन किरणों की तरह सीधी रेखा में स्क्रीन (अनोड ) की तरह जाएँ इसके लिए उन्हें फोकस करना है - जिसके लिए एक्सिलरेटिंग और फ़ोकसिंग अनोड मदद करते हैं।
यह इलेक्ट्रोंन किरणें बहुत हाई वोल्टेज से खिंचती हुई अनोद (स्क्रीन) की तरफ दौड़ रही हैं।
इसके आगे लगी हैं हॉरिजॉन्टल डिफ्लेक्टिंग प्लेट्स । इन हॉरिजॉन्टल डिफ्लेक्टिंग प्लेट्स मे वोल्टेज क्रमशः कम से अधिक होता रहता है जिससे ये इलेक्ट्रोन किरणें कभी उलटे हाथ को और कभी सीधे हाथ को खिंचाव महसूस करती हैं - लगातार इस खिंचाव के प्रभाव से दिशा बदलती हैं। ये बहुत तेज़ हैं और दायीं बायीं और घूम तो जाती हैं लेकिन आगे बढती जाती है। इस कारण ये उलटे हाथ से सीधे हाथ की तरफ बहुत तेजी से स्क्रीन को कवर करती हैं। इससे कुछ कम गति से वेर्टिकल डिफ्लेक्टिंग प्लेट्स लगातार किरणों को ऊपर से नीचे की तरफ दौडाती रहती हैं । तो किरणें स्क्रीन पर एक जगह न पड़ कर, लगातार, उलटे हाथ से सीधे की तरफ और साथ ही ऊपर से नीचे की तरफ बढती रहती हैं। कुछ ऐसे :
रास्टर स्केन की गति के अनुसार हमें यह पहले से पता है कि समय के किस बिंदु पर बीम स्क्रीन के किस स्थान पर गिरेगी। उस बिंदु पर सफ़ेद रंग देखना हो, तो अधिकतम पोजिटिव वोल्टेज , पूरा काला बिंदु देखना हो तो पूरा निगेटिव वोल्टेज , और बीच का कोई ग्रे शेड देखना हो तो उस हिसाब का वोल्टेज ग्रिड को देते हैं।
जैसे ऊपर की टीवी पिक्चर में पहली दो तिरछी रेखाओं में ग्रे रंग है, …… तीसरी रेखा में पहला तिहाई भाग ग्रे फिर काला बिंदु। ……. फिर ७-८ ग्रे बिंदु ……. फिर से एक काला बिंदु और। …… फिर एक तिहाई भाग फिर से ग्रे है।
हमारे भारत में स्क्रीन पर ६२५ हॉरिजॉन्टल रेखाएं हैं, और हॉरिजॉन्टल वर्टिकल अनुपात ४:३ का है। HDTV में यह अनुपात १६:९ का होता है। अमेरिका में पहले रेखाएं ५२५ होती थीं, भारत जापान आदि में ६२५। अर्थात भारत में एक रास्टर स्क्रीन में (६२५) x (६२५ x ३ / ४ ) अलग अलग बिंदु हैं -जिनमे से हर एक बिंदु को काला सफ़ेद या ग्रे देखा जा सकता है, उस समय ग्रिड को अलग अलग वोल्टेज दे कर।
आपके इलेक्ट्रोनिक केमरा में इससे ठीक उलटी प्रक्रिया होती है। रास्टर स्कैन तो वही होता है - लेकिन पड़ती हुई रौशनी के अनुसार स्क्रीन पर लगा फोटो सेंसिटिव पदार्थ अलग अलग वोल्टेज पैदा करता है - जो बाद में टीवी की ग्रिड को उसी क्रम में दिए जाते हैं।
अब बहुत हुआ - आगे रंग और चलती फिरती तस्वीरों की तकनीक अगली पोस्ट में। अभी बताऊंगी तो आप बोर हो जायेंगे।
फिर मिलते हैं :)
बिलकुल पुराने टीवी पर चलते हैं। जब एशियन गेम्स के समय मैं छोटी सी थी तब हमारे शहर में नया नया टीवी आया था। हमारे घर में तो खैर बहुत बाद में आया लेकिन टीवी तो आ गया थे - जान गए थे कि एक डब्बा होता है जिसमे फ़िल्मी गाने सुनाई नहीं बल्कि दिखाई देते हैं - फिल्मे भी दिखती हैं चलती फिरती। बड़ी चकित होती थी मैं , और सोचती थी ये लोग कैसे इतने सारे डब्बों में एक साथ एक जैसे स्टेप्स पर नाचते गाते बोलते दिखते हैं ? आइये देखें यह कैसे होता है।
यह कंप्यूटर मॉनिटर भी एक स्क्रीन है, जिसपर आप ये अक्षर पढ़ रहे हैं। नीचे यह इमेज देखिये।
यहाँ दो टीवी दिख रहे हैं। पहले में रंगीन पट्टियाँ हैं और दुसरे में एक काला सफ़ेद मुस्कुराता चेहरा। आपने शायद कभी यह सोचा हो कि टीवी पर यह बनते कैसे हैं ? इसी पर आज की यह पोस्ट होगी : * पहले ब्लेक एंड वाइट पर चित्र कैसे बनता है .
अगले भाग में फिर कलर टीवी और फिर यह कि ये चित्र चलते फिरते कैसे दिखते हैं।
हिंदी की कई टर्म्स मुझे नहीं आती हैं, हिंदी की गलतियाँ माफ़ हों। :) पहले आपको CRT के बारे में बताती हूँ। इंट्रेस्टिंग है - मुझे लगता है आप बोर नहीं होंगे। :)
इस डब्बे के भीतर बहुत ज्यादा वोल्टेज का (+) और (-) टर्मिनल है (जैसा आप रिमोट कंट्रोल्स में प्रयुक्त होने वाले पेंसिल सेल में देखते हैं ) . इनमे से (+) को अनोड और (-) को कथोड कहते हैं /
टीवी के भीतर का (+) हमारे टीवी का आगे का जो कांच का स्क्रीन है (जिस पर हम पिक्चर्स देख पाते हैं ) वहां कनेक्टेड है और (-) सबसे पीछे की ओर। यह ठीक किसी टोर्च के पीछे की और लगी इलेक्ट्रिक प्लेट और आगे लगी नन्ही बल्ब की तरह है। जब हम टोर्च का बटन दबाते हैं तो पीछे से आगे का सर्किट पूर्ण होता है जिससे बिजली दौड़ने लगती है और बल्ब चमकता है। लेकिन टोर्च से समरूपता यहीं ख़त्म हो जाती है। इसके आगे टोर्च जैसा कुछ नहीं होता।
पहली बात तो यह कि टोर्च के भीतर बिजली तारों में दौड़ती है लेकिन टीवी की ट्यूब में पूरा vaccuum है। जैसा कि हम जानते ही हैं - करंट तब ही दौड़ सकता है जब उसे तार या कोई और मेटल आदि कंडक्टर मिले। लेकिन vaccuum या रिक्तता में बिजली नहीं दौड़ सकती। फिर ? :)
फिर यह कि टीवी के कथोड को हीटर से गर्म करते हैं जिससे इलेक्ट्रोन गर्मी के मारे बेचारे निकल भागते हैं। इसे thermal emmission कहते हैं। ये जो इलेक्ट्रोन र्म कथोड से बाहर आये वे स्कुल से घर की छुट्टी पर निकले बच्चों की तरह फ्री हैं - ये वहीँ इकट्ठे रहेंगे यदि इन्हें कोई न बुलाये।
आपको याद होगा कि मैंने पहले ही कहा था कि टीवी का कांच का स्क्रीन (+) से जुड़ा हुआ है। और कथोड (जिससे इलेक्ट्रोन निकले हैं) वह (-) से जुड़ा हुआ है। तो ये स्कूल से छूटे बच्चों जैसे इलेक्त्रोन जैसे बच्चे स्कूल से दूर घर की और खिंचाव महसूस करते हैं वैसे ही ये इलेक्ट्रोन भी खुद निगेटिव हैं तो ये (-) कथोड से दूर (+) अनोड , यानी कि टीवी स्क्रीन की और दौड़ने लगते हैं।
यह इस चित्र में देखिये :
यह जो पूरा बंद ट्यूब दिख रहा है यह कांच का ट्यूब समझ लीजिये जिसके भीतर की हवा खींच कर vaccuum बना दिया गया है। सबसे पीछे जो भीतर लाल रंग का अरेंजमेंट है वहां हीटर और काथोड हैं। हीटर से गर्म हो कर जो इलेक्ट्रोन बाहर आये हैं वे नीले रंग में दिख रहे हैं। ये इलेक्ट्रोन किरणों की तरह सीधी रेखा में स्क्रीन (अनोड ) की तरह जाएँ इसके लिए उन्हें फोकस करना है - जिसके लिए एक्सिलरेटिंग और फ़ोकसिंग अनोड मदद करते हैं।
यह इलेक्ट्रोंन किरणें बहुत हाई वोल्टेज से खिंचती हुई अनोद (स्क्रीन) की तरफ दौड़ रही हैं।
इसके आगे लगी हैं हॉरिजॉन्टल डिफ्लेक्टिंग प्लेट्स । इन हॉरिजॉन्टल डिफ्लेक्टिंग प्लेट्स मे वोल्टेज क्रमशः कम से अधिक होता रहता है जिससे ये इलेक्ट्रोन किरणें कभी उलटे हाथ को और कभी सीधे हाथ को खिंचाव महसूस करती हैं - लगातार इस खिंचाव के प्रभाव से दिशा बदलती हैं। ये बहुत तेज़ हैं और दायीं बायीं और घूम तो जाती हैं लेकिन आगे बढती जाती है। इस कारण ये उलटे हाथ से सीधे हाथ की तरफ बहुत तेजी से स्क्रीन को कवर करती हैं। इससे कुछ कम गति से वेर्टिकल डिफ्लेक्टिंग प्लेट्स लगातार किरणों को ऊपर से नीचे की तरफ दौडाती रहती हैं । तो किरणें स्क्रीन पर एक जगह न पड़ कर, लगातार, उलटे हाथ से सीधे की तरफ और साथ ही ऊपर से नीचे की तरफ बढती रहती हैं। कुछ ऐसे :
इस तरह से बड़ी तेज़ी से पूरी स्क्रीन किरणों द्वारा स्केन होती है - जिसे रास्टर सकेन कहते हैं।
स्क्रीन के कांच की भीतरी तरफ एक फोटो सेंसिटिव मटेरियल पुते हुए है , जो तेज़ गति से आते इलेक्ट्रोन की ऊर्जा सोख कर चमकता है। जिस बिंदु पर उस वक्त किरण पड़ रही है सिर्फ वही बिंदु चमकता है, लेकिन यह इतनी तेज़ी से रिपीट होता रहता है लगातार, कि हमारी आँखें भ्रम में पड़ जाती हैं, कि पूरी स्क्रीन लगातार चमक रही है। यदि आपने कभी किसीके फोटो तेज़ स्पीड शटर वाले केमरा से टीवी के आगे खींचे हों , तो आप देखेंगे कि उसमे स्क्रीन का कुछ ही भाग रोशन है - क्योंकि जितनी देर केमरा का शटर खुला था , उतनी देर में सिर्फ उतने ही भाग को किरणों ने स्कैन किया। इसे ऐसे समझिये कि जैसे छत पर घूमता पंखा हमें ऐसे आभास देता है कि पूरे सर्कल में पंखा लगातार मौजूद है , असल में तो पंखे के ब्लेड्स एक समय में एक ही जगह हैं - किन्तु तेज़ी से घूम रहे होने से आँखों को निरंतरता का भ्रम होता है। कभी रात को अँधेरे में लाइट बंद कर के टीवी की रौशनी में पंखे का घूमना देखिये - कुछ अलग स्पीड दिखेगी।
अब यह होने से तो पूरी स्क्रीन बराबर चमकनी चाहिए न ? फिर ? चित्र कैसे बनेगा ?
फिर से CRT का चित्र देखिये। कथोड के आगे एक ग्रिड है। इस ग्रिड में तस्वीर के अनुसार वोल्टेज कम ज्यादा करने से इलेक्ट्रोन बीम की गति कम ज्यादा होती है। जितनी कम गति उतनी कम ऊर्जा - उतनी कम चमक स्क्रीन पर - इसके लिये ग्रिड को थोडा निगेटिव वोल्टेज देंगे जिससे इलेक्ट्रोन बीम की गति कम हो। इससे उलट - यदि ज्यादा चमक चाहिए तो गति बढाने के लिए ग्रिड को अधिक पोजिटिव वोल्टेज दिया जाएगा।
रास्टर स्केन की गति के अनुसार हमें यह पहले से पता है कि समय के किस बिंदु पर बीम स्क्रीन के किस स्थान पर गिरेगी। उस बिंदु पर सफ़ेद रंग देखना हो, तो अधिकतम पोजिटिव वोल्टेज , पूरा काला बिंदु देखना हो तो पूरा निगेटिव वोल्टेज , और बीच का कोई ग्रे शेड देखना हो तो उस हिसाब का वोल्टेज ग्रिड को देते हैं।
जैसे ऊपर की टीवी पिक्चर में पहली दो तिरछी रेखाओं में ग्रे रंग है, …… तीसरी रेखा में पहला तिहाई भाग ग्रे फिर काला बिंदु। ……. फिर ७-८ ग्रे बिंदु ……. फिर से एक काला बिंदु और। …… फिर एक तिहाई भाग फिर से ग्रे है।
हमारे भारत में स्क्रीन पर ६२५ हॉरिजॉन्टल रेखाएं हैं, और हॉरिजॉन्टल वर्टिकल अनुपात ४:३ का है। HDTV में यह अनुपात १६:९ का होता है। अमेरिका में पहले रेखाएं ५२५ होती थीं, भारत जापान आदि में ६२५। अर्थात भारत में एक रास्टर स्क्रीन में (६२५) x (६२५ x ३ / ४ ) अलग अलग बिंदु हैं -जिनमे से हर एक बिंदु को काला सफ़ेद या ग्रे देखा जा सकता है, उस समय ग्रिड को अलग अलग वोल्टेज दे कर।
आपके इलेक्ट्रोनिक केमरा में इससे ठीक उलटी प्रक्रिया होती है। रास्टर स्कैन तो वही होता है - लेकिन पड़ती हुई रौशनी के अनुसार स्क्रीन पर लगा फोटो सेंसिटिव पदार्थ अलग अलग वोल्टेज पैदा करता है - जो बाद में टीवी की ग्रिड को उसी क्रम में दिए जाते हैं।
अब बहुत हुआ - आगे रंग और चलती फिरती तस्वीरों की तकनीक अगली पोस्ट में। अभी बताऊंगी तो आप बोर हो जायेंगे।
फिर मिलते हैं :)