पिछले कई वर्षों से लगता है कि हम एक समाज के रूप में लगातार नीचे को उतरते जा रहे हैं । या शायद यह हो कि हम हमेशा से इसी स्थिति में थे, लेकिन अब समझ में आने लगा है ? पिछले महीने दिल्ली में वीर ज्योति के साथ हुए वहशीपन ने सारे देश को झकझोर दिया - लेकिन - क्या सचमुच ? क्या सचमुच ही ? नहीं - शायद सब को नहीं - सिर्फ उन्हें झकझोरा जो खुद पहले से संवेदनशील थे लेकिन बातों को नज़रंदाज़ करते आ रहे थे जीवन की आपाधापी में । जो या तो संवेदना शून्य थे, या फिर उपदेशक टाइप के थे, अपने विचारों को सर्वोपरि मानने वाले थे , वे तो अपनी ही बात कहते नज़र आये , खुले या छिपे ढंग से यही कहते नज़र आये जो वे सदियों से कह रहे हैं -
कि
"जिसकी लाठी उसकी भैंस"
दुखद है, कि जब ऐसी कोई घटना होती है, तब सभ्य समाज को एक दूजे का दर्द कम करने के प्रयास करने चाहिए, इस प्रकार की घटनाओं और प्रवृत्तियों को रोकने के उपाय सोचने और करने चाहिए । किन्तु हर ऐसी मुश्किल घडी में अधिकाँश नेतागिरी करने के शौक़ीन लोग किसी के जलते घर पर अपने स्वार्थ की रोटियां ही सेंकते दीखते हैं ।
"देखा ?- मैंने तो पहले ही कहा था "
"देखा ?- पुरुष ऐसे ही होते हैं"
"देखा ?- पश्चिमी संस्कृति से लड़कियां बिगड़ रही हैं - इसलिए यह हो रहा है"
"देखा ?- हमारी अपनी ही संस्कृति इतनी गिरी हुई है - इसलिए हमारे यहाँ यह होता है "
"देखा ?- यह" और "देखा ?- वह " .....
कई दिशाओं से यही छुपा ढंका सन्देश आया - लड़कियां कमज़ोर हैं, वे लक्ष्य हैं । पुरुष के लिए "स्वाभाविक" है स्त्री को इस दृष्टि से देखना और भोगना, और यह स्त्री की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने "स्त्रीत्व" की रक्षा करे। या तो सहम कर दब छिप कर, या शेरनी की तरह आक्रमण कर कर । यह कहते हुए उन्होंने उन सभी सद्पुरुषों और सदस्त्रियों का अपमान किया जो इस मनःस्थिति को गलत कहते हैं, जो इसका विरोध करते हैं । उन्होंने सम्पूर्ण पुरुष वर्ग को सम्पूर्ण स्त्री वर्ग से काट देने के वही प्रयास किये, जो वे सदियों से करते आये थे ।
दूसरी ओर दंड के डर से अपराध को रोकने के सुहाव हैं -
"फांसी दे दो"
"उनके साथ वही हो जो उन्होंने उस बच्ची के साथ किये"
"बन्दूक रखो और गोली मार दो"
"कराटे सिखा दो"
जितने भी सुझाव दिए गए हैं - संस्कृति के बारे में / या लड़कियों को चारदीवारी में बंदी बना रखने के / या सजा के बारे में / या बचाव के बारे में / या आक्रमण के बारे में , मुझे नहीं लगता कि इनमे से कोई भी कारगर हो सकता है । वह इसलिए की ये सभी उपाय संतुलन के विरुद्ध हैं, और यदि एक पात्र में पानी है, तो उसका स्तर यदि सब जगह बराबर नहीं रखने के प्रयास होते रहेंगे, तो हलचल होती ही रहेगा, क्योंकि पानी संतुलन में ही रह सकता है । स्त्री और पुरुष को इस तरफ या उस तरफ, ऊंचा या नीचा, यदि किसी भी तरह के भेद रखने को SOLUTION माना गया, तो वह कभी कारगर हो ही नहीं सकता ।
हमें जड़ से विवेचना करनी होगी, अपने अपने रंगीन चश्मे उतार कर । न तो मुझे वे सुझाव कारगर लग रहे हैं जो तथाकथित भारतीय संस्कृति को सब पापों से बचने के रामबाण उपाय की तरह सुझाते हैं, न ही वे जो तंत्र को पूरी तरह तोड़ कर जंगली जीवन की और लौटने की बात करते हैं । ......... न ही हर घटना पर सिर्फ कीबोर्ड खटका कर दो पोस्ट और दस कमेन्ट लिखने से कुछ होगा । .........और सबसे महत्वपूर्ण - कुछ भी नहीं करने से भी कुछ नहीं होगा ।
हमें कुछ तो करना ही होगा, और सिर्फ जो मन में आये वह कर देने भर से भी कुछ नहीं होगा, नहीं - करने से पहले हम में से जो भी सच में कुछ आउटपुट चाहते हैं - हमें एक मंच पर चर्चा कर के कोई प्लान बनानी होगी । कहते हैं न - FAILING TO PLAN IS PLANNING TO FAIL ... और स्थिति आज यह है कि हम सिर्फ "कर" रहे हैं, बल्कि कर भी नहीं रहे, सिर्फ कह रहे हैं, न कोई योजना है हमारे पास, न कुछ करने की इच्छा । यदि कुछ अचीव करना है - तो कर्म करने से पहले प्लान तो करना ही पड़ेगा । हम सब देश / विदेश के अलग अलग स्थानों पर हैं । तो एक जगह मिल कर तो बात नहीं कर सकते । इसलिए ब्लॉग पर चर्चा करना चाहती हूँ ।
आज की नयी झकझोरने वाली घटना - जो पुंछ सेक्टर की सीमा पर हुई - वह भी हमें झकझोरती है - लेकिन कितने दिन ? क्या यह पहली बार हुआ ? पिछली बार हमने कित्त्ने दिन याद रखा जो इस बार रखेंगे ? हम दामिनी को महीने भर में परे कर देते हैं और शहीदों को दो दिन में । हम अपने अपने ब्लॉग पर / फेसबुक पर एक पोस्ट लिख देते हैं और हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती है । कुछ वैसे ही जैसे आजकल डॉक्टर कहते हैं - क्रोध आ रहा है तो उसे दबाओ नहीं - उससे तो ब्लड प्रेशर बढेगा - ऐसा करो - तकिये को मार पीट कर अपना क्रोध उतार लो । तो हम भी कीबोर्ड को मार पीट कर अपना क्रोध निकल रहे हैं क्या ?
मैं नहीं मानती कि - हिन्दू धर्म के अनुसार चलने से / मुस्लिम धर्म के अनुसार चलने से / भारतीय संस्कृति (?) को उपाय मान लेने से / भारतीय संस्कृति (?) को अपराधी दर्शा देने से / बन्दूक की गोली से / निरामिष भोजन से या ऐसे ही अनेक घिसे पिटे उपायों से कुछ होगा । हमें कुछ नया ही सोचना होगा , और खुले मन से शुरुआत करनी होगी । कई बार पढ़ा है कि THERE IS NO FOOL LIKE THE FOOL WHO DOES THE SAME THING OVER AND OVER AGAIN EXPECTING TO SEE CHANGED RESULTS - जब आप वही करेंगे जो आपने कल किया था - तो वही परिणाम मिलेगा जो कल मिला था । बदलाव कैसे आएगा ?
गिरिजेश जी ने जनहित याचिका पर बहुत परिश्रम किया, और पूरी लगन से बहुत अच्छे सुझाव भी भेजे । मैं उनकी पहल का स्वागत और समर्ह्तन करती हूँ, मेरा तो दिमाग ही कुंद हो चुका था - कुछ करने को समझ ही नहीं आ रहा था । वह एक ऐसा कदम था जो अब तक कम से कम मुझे तो नहीं ही सूझा था ।
यह तो हम सभी को दिख रहा है कि कई दिशाओं में सब कुछ गड़बड़ ही चल रहा है हमारे यहाँ । और हम सभी अपने सुझाव अपने ब्लॉग पर लिखते हैं , क्यों ? तालियाँ मिलने के लिए ? ये सुझाव किसे दे रहे हैं हम ? एक दुसरे को ? क्या ऐसे हवा में पत्थर की तरह सुझाव उछाल देने से स्थितियां बदल जायेंगी ? मैं इस बारे में लगातार सोच रही हूँ, कि हम सब - हम ब्लोगर्स ही कम से कम - कुछ सोच कर एकजुट हो कर क्या कोई पहल कर सकते हैं ?
कुछ बातें मन में हैं जो लिखनी हैं - लेकिन इतना उलझा है सब मन में, इतने सारे नाज़ुक धागे टूट गए 16 दिसंबर को,कि विचार पिरोये ही नहीं जा रहे ।
न मुझे नेताओं की बात करनी है, न धर्मगुरुओं की, न पुरुषों की, न स्त्रियों की, न सेना के वीर शहीदों की, न सरकार में बैठे "कठोर शब्दों में निंदा" कर के अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करने वालों की ।
मुझे बात करनी है कि , साफ़ दिख रहा है कि हमारा तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा । क्या हम सब के लिए यह सोचने का समय नहीं आ गया कि पूरे सिस्टम को ही फिर से देखें और समझें - कि , जो लोकतंत्र अमेरिका में काम कर रहा है - क्या वह हमारे देश में काम कर रहा है ? यदि नहीं, तो क्या मूल भूत अंतर हैं हमारी मानसिकताओं में ? या यह कि वे क्या सही कर रहे हैं और हम क्या गलत कर रहे हैं कि यह काम नहीं कर रहा ? क्या हम कुछ कर सकते हैं ?
मैं एक एक कर के दुनिया में जारी अलग अलग प्रशासन विधियों पर बात करना चाहूंगी और एक्स्प्लोर करना चाहूंगी कि हमारे देश के लिए क्या इस लोकतंत्र से बेहतर कुछ उपाय हो सकता है ? अभी तो मुझे लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ लगता है, किन्तु शायद दूसरी शासन विधियों के कुछ गुणों से इस तंत्र को हाइब्रिडाईज करने की आवश्यकता है ?
पोस्ट्स के नीचे कमेंट्स में मैं अभी तक दोनों और से आये BIASED सुझावों पर बात करूंगी और बताऊंगी कि क्यों मेरे नज़रिए से वे कारगर नहीं हो सकते । फांसी की सजा / केमिकल केस्त्रेशन/ और कोई न्रशंस दंड पर मैं इस श्रंखला की पूरी पोस्ट डेडीकेट करूंगी, कि क्यों मुझे वह कारगर नहीं लगता ।
मेरा ब्लॉग कोई ख़ास पढ़ा नहीं जाता । मैं इस में अपने किसी भी ऐसे ब्लोगर साथी से मदद चाहूंगी जिनका ब्लॉग अधिक लोकप्रिय हो, जिस पर लिखने से बातें अधिक लोगों तक पहुंचें, और जो मेरी यह चर्चा अपने ब्लॉग पर जारी रख सकें , या मुझे अपने ब्लॉग पर यह चर्चा करने की अनुमति दे सकें । यदि आपमें से कोई इसके लिए मुझे सहयोग देंगे तो मैं आभारी होउंगी । यह पोस्ट श्रंखला यहीं चलेगी, रेत के महल पर, सिर्फ आपके ब्लॉग से मुझे इन पोस्ट की लिनक्स का समर्थन चाहिए होगा, या यदि आप उचित समझें तो मेरी इस श्रंखला की पोस्ट्स को को link के साथ अपने यहाँ कॉपी पेस्ट कर दें, अपने यहाँ टिप्पणियां लेते हुए उन टिप्स में आये सारगर्भित सुझाव यहाँ लिख दें ? या फिर वहां से टिप्पणियों के लिए यहाँ का लिंक दे दें ...
इस के लिए यदि आप मुझे यह सहयोग देंगे तो मैं आभारी होउंगी । नहीं भी देंगे तो आप यहाँ चर्चा में भाग लें तो आभारी होउंगी ।
लेकिन मैं आपके जो भी पुराने अजेंडे होंगे ( हिंदुत्व / संस्कृति / निरामिष भोजन / नारीवाद / पुरुष वाद / आदि आदि )- उन पर पहले से चले आ रहे सुझावों का (यह अपनाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा की तरह के सुझाव ) समर्थन नहीं करूंगी, इस बात के साथ यदि आप मुझे बिना इस तरह की पूर्व शर्तों के प्लेटफोर्म दे सकेंगे तो मैं आभारी रहूंगी ।
कि
"जिसकी लाठी उसकी भैंस"
दुखद है, कि जब ऐसी कोई घटना होती है, तब सभ्य समाज को एक दूजे का दर्द कम करने के प्रयास करने चाहिए, इस प्रकार की घटनाओं और प्रवृत्तियों को रोकने के उपाय सोचने और करने चाहिए । किन्तु हर ऐसी मुश्किल घडी में अधिकाँश नेतागिरी करने के शौक़ीन लोग किसी के जलते घर पर अपने स्वार्थ की रोटियां ही सेंकते दीखते हैं ।
"देखा ?- मैंने तो पहले ही कहा था "
"देखा ?- पुरुष ऐसे ही होते हैं"
"देखा ?- पश्चिमी संस्कृति से लड़कियां बिगड़ रही हैं - इसलिए यह हो रहा है"
"देखा ?- हमारी अपनी ही संस्कृति इतनी गिरी हुई है - इसलिए हमारे यहाँ यह होता है "
"देखा ?- यह" और "देखा ?- वह " .....
कई दिशाओं से यही छुपा ढंका सन्देश आया - लड़कियां कमज़ोर हैं, वे लक्ष्य हैं । पुरुष के लिए "स्वाभाविक" है स्त्री को इस दृष्टि से देखना और भोगना, और यह स्त्री की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने "स्त्रीत्व" की रक्षा करे। या तो सहम कर दब छिप कर, या शेरनी की तरह आक्रमण कर कर । यह कहते हुए उन्होंने उन सभी सद्पुरुषों और सदस्त्रियों का अपमान किया जो इस मनःस्थिति को गलत कहते हैं, जो इसका विरोध करते हैं । उन्होंने सम्पूर्ण पुरुष वर्ग को सम्पूर्ण स्त्री वर्ग से काट देने के वही प्रयास किये, जो वे सदियों से करते आये थे ।
"फांसी दे दो"
"उनके साथ वही हो जो उन्होंने उस बच्ची के साथ किये"
"बन्दूक रखो और गोली मार दो"
"कराटे सिखा दो"
जितने भी सुझाव दिए गए हैं - संस्कृति के बारे में / या लड़कियों को चारदीवारी में बंदी बना रखने के / या सजा के बारे में / या बचाव के बारे में / या आक्रमण के बारे में , मुझे नहीं लगता कि इनमे से कोई भी कारगर हो सकता है । वह इसलिए की ये सभी उपाय संतुलन के विरुद्ध हैं, और यदि एक पात्र में पानी है, तो उसका स्तर यदि सब जगह बराबर नहीं रखने के प्रयास होते रहेंगे, तो हलचल होती ही रहेगा, क्योंकि पानी संतुलन में ही रह सकता है । स्त्री और पुरुष को इस तरफ या उस तरफ, ऊंचा या नीचा, यदि किसी भी तरह के भेद रखने को SOLUTION माना गया, तो वह कभी कारगर हो ही नहीं सकता ।
हमें जड़ से विवेचना करनी होगी, अपने अपने रंगीन चश्मे उतार कर । न तो मुझे वे सुझाव कारगर लग रहे हैं जो तथाकथित भारतीय संस्कृति को सब पापों से बचने के रामबाण उपाय की तरह सुझाते हैं, न ही वे जो तंत्र को पूरी तरह तोड़ कर जंगली जीवन की और लौटने की बात करते हैं । ......... न ही हर घटना पर सिर्फ कीबोर्ड खटका कर दो पोस्ट और दस कमेन्ट लिखने से कुछ होगा । .........और सबसे महत्वपूर्ण - कुछ भी नहीं करने से भी कुछ नहीं होगा ।
हमें कुछ तो करना ही होगा, और सिर्फ जो मन में आये वह कर देने भर से भी कुछ नहीं होगा, नहीं - करने से पहले हम में से जो भी सच में कुछ आउटपुट चाहते हैं - हमें एक मंच पर चर्चा कर के कोई प्लान बनानी होगी । कहते हैं न - FAILING TO PLAN IS PLANNING TO FAIL ... और स्थिति आज यह है कि हम सिर्फ "कर" रहे हैं, बल्कि कर भी नहीं रहे, सिर्फ कह रहे हैं, न कोई योजना है हमारे पास, न कुछ करने की इच्छा । यदि कुछ अचीव करना है - तो कर्म करने से पहले प्लान तो करना ही पड़ेगा । हम सब देश / विदेश के अलग अलग स्थानों पर हैं । तो एक जगह मिल कर तो बात नहीं कर सकते । इसलिए ब्लॉग पर चर्चा करना चाहती हूँ ।
आज की नयी झकझोरने वाली घटना - जो पुंछ सेक्टर की सीमा पर हुई - वह भी हमें झकझोरती है - लेकिन कितने दिन ? क्या यह पहली बार हुआ ? पिछली बार हमने कित्त्ने दिन याद रखा जो इस बार रखेंगे ? हम दामिनी को महीने भर में परे कर देते हैं और शहीदों को दो दिन में । हम अपने अपने ब्लॉग पर / फेसबुक पर एक पोस्ट लिख देते हैं और हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती है । कुछ वैसे ही जैसे आजकल डॉक्टर कहते हैं - क्रोध आ रहा है तो उसे दबाओ नहीं - उससे तो ब्लड प्रेशर बढेगा - ऐसा करो - तकिये को मार पीट कर अपना क्रोध उतार लो । तो हम भी कीबोर्ड को मार पीट कर अपना क्रोध निकल रहे हैं क्या ?
मैं नहीं मानती कि - हिन्दू धर्म के अनुसार चलने से / मुस्लिम धर्म के अनुसार चलने से / भारतीय संस्कृति (?) को उपाय मान लेने से / भारतीय संस्कृति (?) को अपराधी दर्शा देने से / बन्दूक की गोली से / निरामिष भोजन से या ऐसे ही अनेक घिसे पिटे उपायों से कुछ होगा । हमें कुछ नया ही सोचना होगा , और खुले मन से शुरुआत करनी होगी । कई बार पढ़ा है कि THERE IS NO FOOL LIKE THE FOOL WHO DOES THE SAME THING OVER AND OVER AGAIN EXPECTING TO SEE CHANGED RESULTS - जब आप वही करेंगे जो आपने कल किया था - तो वही परिणाम मिलेगा जो कल मिला था । बदलाव कैसे आएगा ?
गिरिजेश जी ने जनहित याचिका पर बहुत परिश्रम किया, और पूरी लगन से बहुत अच्छे सुझाव भी भेजे । मैं उनकी पहल का स्वागत और समर्ह्तन करती हूँ, मेरा तो दिमाग ही कुंद हो चुका था - कुछ करने को समझ ही नहीं आ रहा था । वह एक ऐसा कदम था जो अब तक कम से कम मुझे तो नहीं ही सूझा था ।
यह तो हम सभी को दिख रहा है कि कई दिशाओं में सब कुछ गड़बड़ ही चल रहा है हमारे यहाँ । और हम सभी अपने सुझाव अपने ब्लॉग पर लिखते हैं , क्यों ? तालियाँ मिलने के लिए ? ये सुझाव किसे दे रहे हैं हम ? एक दुसरे को ? क्या ऐसे हवा में पत्थर की तरह सुझाव उछाल देने से स्थितियां बदल जायेंगी ? मैं इस बारे में लगातार सोच रही हूँ, कि हम सब - हम ब्लोगर्स ही कम से कम - कुछ सोच कर एकजुट हो कर क्या कोई पहल कर सकते हैं ?
कुछ बातें मन में हैं जो लिखनी हैं - लेकिन इतना उलझा है सब मन में, इतने सारे नाज़ुक धागे टूट गए 16 दिसंबर को,कि विचार पिरोये ही नहीं जा रहे ।
न मुझे नेताओं की बात करनी है, न धर्मगुरुओं की, न पुरुषों की, न स्त्रियों की, न सेना के वीर शहीदों की, न सरकार में बैठे "कठोर शब्दों में निंदा" कर के अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करने वालों की ।
मुझे बात करनी है कि , साफ़ दिख रहा है कि हमारा तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा । क्या हम सब के लिए यह सोचने का समय नहीं आ गया कि पूरे सिस्टम को ही फिर से देखें और समझें - कि , जो लोकतंत्र अमेरिका में काम कर रहा है - क्या वह हमारे देश में काम कर रहा है ? यदि नहीं, तो क्या मूल भूत अंतर हैं हमारी मानसिकताओं में ? या यह कि वे क्या सही कर रहे हैं और हम क्या गलत कर रहे हैं कि यह काम नहीं कर रहा ? क्या हम कुछ कर सकते हैं ?
मैं एक एक कर के दुनिया में जारी अलग अलग प्रशासन विधियों पर बात करना चाहूंगी और एक्स्प्लोर करना चाहूंगी कि हमारे देश के लिए क्या इस लोकतंत्र से बेहतर कुछ उपाय हो सकता है ? अभी तो मुझे लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ लगता है, किन्तु शायद दूसरी शासन विधियों के कुछ गुणों से इस तंत्र को हाइब्रिडाईज करने की आवश्यकता है ?
पोस्ट्स के नीचे कमेंट्स में मैं अभी तक दोनों और से आये BIASED सुझावों पर बात करूंगी और बताऊंगी कि क्यों मेरे नज़रिए से वे कारगर नहीं हो सकते । फांसी की सजा / केमिकल केस्त्रेशन/ और कोई न्रशंस दंड पर मैं इस श्रंखला की पूरी पोस्ट डेडीकेट करूंगी, कि क्यों मुझे वह कारगर नहीं लगता ।
मेरा ब्लॉग कोई ख़ास पढ़ा नहीं जाता । मैं इस में अपने किसी भी ऐसे ब्लोगर साथी से मदद चाहूंगी जिनका ब्लॉग अधिक लोकप्रिय हो, जिस पर लिखने से बातें अधिक लोगों तक पहुंचें, और जो मेरी यह चर्चा अपने ब्लॉग पर जारी रख सकें , या मुझे अपने ब्लॉग पर यह चर्चा करने की अनुमति दे सकें । यदि आपमें से कोई इसके लिए मुझे सहयोग देंगे तो मैं आभारी होउंगी । यह पोस्ट श्रंखला यहीं चलेगी, रेत के महल पर, सिर्फ आपके ब्लॉग से मुझे इन पोस्ट की लिनक्स का समर्थन चाहिए होगा, या यदि आप उचित समझें तो मेरी इस श्रंखला की पोस्ट्स को को link के साथ अपने यहाँ कॉपी पेस्ट कर दें, अपने यहाँ टिप्पणियां लेते हुए उन टिप्स में आये सारगर्भित सुझाव यहाँ लिख दें ? या फिर वहां से टिप्पणियों के लिए यहाँ का लिंक दे दें ...
इस के लिए यदि आप मुझे यह सहयोग देंगे तो मैं आभारी होउंगी । नहीं भी देंगे तो आप यहाँ चर्चा में भाग लें तो आभारी होउंगी ।
लेकिन मैं आपके जो भी पुराने अजेंडे होंगे ( हिंदुत्व / संस्कृति / निरामिष भोजन / नारीवाद / पुरुष वाद / आदि आदि )- उन पर पहले से चले आ रहे सुझावों का (यह अपनाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा की तरह के सुझाव ) समर्थन नहीं करूंगी, इस बात के साथ यदि आप मुझे बिना इस तरह की पूर्व शर्तों के प्लेटफोर्म दे सकेंगे तो मैं आभारी रहूंगी ।
लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था है और उसका नाम है, "बेहतर लोकतन्त्र"। लोक को परिपक्व होना पड़ेगा और तंत्र को सक्षम
जवाब देंहटाएंऊपर मैंने लिखा है " हमारे देश के लिए क्या "इस" लोकतंत्र से बेहतर कुछ उपाय हो सकता है ? अभी तो मुझे लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ लगता है, किन्तु शायद दूसरी शासन विधियों के कुछ गुणों से इस तंत्र को हाइब्रिडाईज करने की आवश्यकता है ?"
हटाएंआपने कहा "लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था है और उसका नाम है, "बेहतर लोकतन्त्र"। लोक को परिपक्व होना पड़ेगा और तंत्र को सक्षम"
मैं मानती हूँ कि विकल्प बेहतर लोकतंत्र है - हाइब्रिडाईज़ से यही अर्थ था - पर यह कैसे होगा ? लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा ही न ? इसी दिशा में यह प्रयास है । बिना कोई प्रयास किये, योजनाबद्ध कर्म किये, यह होगा कैसे ?
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 12/01/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंaapka aabhar yashoda ji ...
हटाएंसमाज परिवर्तन की लहर अपने अंदर से ही पहल करने से आएगी ... जब समाज बदलेगा बहुत सी बाते अपने आप आकार ले लेंगी ... नियम क़ानून कायदे दंड सभी व्यवस्थाएं अपने आप उप्जेंगी ...
जवाब देंहटाएंपर अपने अंदर का परिवर्तन लाठी के बल पे नहीं होगा ... समाज के स्तर पर ही संभव है ...
जो भी प्रक्रिया अभी चल रही है उसे चलने दें ... दो मांगे हो रही अहिं उन्हें होने दें .. पूरी भी होने एन .. पर अपने घर, मोहल्ले ओर गाँव, कसबे के स्तर पर परिवर्तन लाने देने का प्रयास करना होगा ...
जी, जब भीतर से बदलाव आएगा और जब समाज बदलेगा तब कुछ होगा । .... यही भ्रष्टाचार की मुहीम के समय कहा गया - "मैं" नहीं करूंगा । यह होगा कैसे - अपने आप ?
हटाएंजो भीतर से बदलाव की बात कह रहे हैं , वे तो ऐसे अपराध कर नहीं रहे, और जो ये अपराध कर रहे हैं, क्या आपको लगता है कि ब्लॉग पोस्ट लिखने से वे भीतर से बदलने वाले हैं ? वे हमारी पोस्ट पढ़ते हैं ? नहीं, सामाजिक बदलाव अपने आप नहीं आने वाले, प्रयास किये बिना कुछ नहीं होगा । लोकतंत्र का अर्थ है हमारा अपना तंत्र, इसके ढीलेपन को कसना हमारी ही ज़िम्मेदारी है । सिर्फ सरकार क्या "नहीं" कर रही लिखने भर से कुछ नहीं होगा, हमें (जो विचार कर सकते हैं, जो बदलाव चाहते हैं) कुछ कर्म भी तो करना होगा न इस दिशा में ?
लिखने भर से कि मन मोहन जी ने यह नहीं किया और खुर्शीद जी ने वह नहीं किया, या लड़कियों को बराबरी का दर्ज़ा मिलना चाहिए, लिखने भर से क्या होगा ? ये पोस्ट्स न मनमोहन जी पढ़ रहे हैं, न लड़कियों को दर्ज़ा न देने की सोच रखने वाले । हम सभी लिख रहे हैं एक ही बात, एक दुसरे की लिखी पोस्ट सराह भी रहे हैं, किन्तु कर कुछ नहीं रहे ।
शिल्पा जी, आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत सी बातें स्पष्ट होती हैं बहुत गहरा चिंतन-मनन आप ने किया है, मुझे लगता है हम अपने स्तर पर जो भी जागरूकता समाज में ला सकते हैं, लानी चाहिए, ब्लॉग पर लिखकर या अख़बारों में, पत्र-पत्रिकाओं में, और आजकल तो सोशल साइट्स आन्दोलन का माध्यम बन गए हैं, उनके माध्यम से अपनी बात रख सकते हैं. आज इस तरह की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं, इसके लिए शराब, ड्रग्स और दूसरे मादक पदार्थ जो बच्चों तक को आसानी से मिल जाते हैं, बंद करने होंगे जिनके सेवन से मानव मानव ही नहीं रह जाता..व्यवस्था में जो खामियां हैं उनको दूर करने के प्रयास सरकार भी कर रही है हमें उसका भी स्वागत करना चाहिए.
जवाब देंहटाएंआप बिलकुल ठीक कह रही हैं अनीता जी , मादक पदार्थ पूरी तरह से बंद हों ऐसा कुछ किया जाना चाहिए चाहिए । और हाँ - सरकार बहुत कुछ कर रही है, मानती हूँ, लेकिन इससे कहीं अधिक कर सकती है जो और अच्छा होता ।
हटाएंहिंदुत्व / संस्कृति / नारीवाद / पुरुष वाद / तो ठीक है किन्तु इस वर्तमान समस्या के लिए 'निरामिष भोजन' का सुझाव आपने कहाँ देख लिया? क्योंकि निरामिष भोजन को न्यूनाधिक मात्र क्रूर मनोवृति और चिंतन से दूर रहने के उपाय तक ही सीमित रखा जाता है।
जवाब देंहटाएंअब ऐसे भी नहीं और वैसे भी नहीं, भीतर से नहीं, बाहर से नहीं लिखने से नहीं ब्लॉग पोस्ट से नहीं, की-बोर्ड खटखटाने से नहीं तब तो सुझाव की दुविधा और भी बढ़ जाती है।
आदरणीय सुज्ञ जी - निरामिष भोजन की बात करने वाले कई लोग हैं - जो कहते हैं कि खाना ऐसा होने से ये क्रूर प्रवृत्तियाँ बढती हैं (इस बात पर मैं चर्चा नहीं कर रही कि ऐसा होता है या नहीं, मैं सिर्फ यह कह रही हूँ की यह सुझाव न दिया जाए )।
हटाएंनिरामिष भोजन की बातें सिर्फ निरामिष ब्लॉग ही नहीं करता, और भी कई जगह ये बातें होती हैं ।
हाँ, आपके यहाँ यह 'निरामिष भोजन का सुझाव' नहीं आया है , न मैंने ऐसा कहा है ऊपर । तो इसे आप निजी तौर पर न लें ।
हाँ - दुविधा भी है और राह कठिन भी है - और कर्म मुश्किल भी ।
हटाएंमैं अपने प्रयास कर रही हूँ, आपको उचित लगें तो आपका स्वागत है मेरे साथ आयें और सुझाव दें, आपको अनुचित लगे तो साथ न दें - किसी पर कोई दबाव नहीं है ।
आप पोस्ट लिखना चाहें, तो अवश्य लिखें, मैंने भी लिखी पोस्ट्स इस पर, किन्तु यह जानती हूँ कि मेरे उस पोस्ट को लिखने से जमीनी स्थिति नहीं बदली, न "मुझे" लगता है कि पोस्ट लिखने भर से बदलेगी । आप असहमत हो सकते हैं, आपको पूरा अधिकार है । मुझे निजी तौर पर लगता है कि इससे आगे कुछ करना होगा । क्या करना होगा - वही चर्चा का विषय है ।
नहीं, नहीं, शिल्पा जी, निजी तौर पर नहीं लिया गया। यह तो मात्र पूछा था कि वर्तमान गम्भीर समस्या से निजात के लिए निरामिष भोजन का सुझाव देने वाले ज्ञानी है कौन? क्योंकि ऐसा करने वाले एक अच्छे कार्य को अतिश्योक्ति बनाकर महत्वहीन कर देते है। उचित लगे तो बताईगा यह बात कहाँ कही गई, मैं वहाँ जाकर विषय और अपना मन्तव्य स्पष्ट कर सकुं।
हटाएंआपकी चिंता और प्रयास, आपके चिंतन से उचित ही है। पर मैं इस बात से सहमत नहीं कि लेखन से कुछ भी नहीं बदलता। मेरा पूरा विश्वास है कि लेखन से लोक-विचारों में अद्भुत परिवर्तन आता है। साहित्य दिशा और दशा बदलते देखे गए है। लोगों की विचारधाओं में बदलाव इन लेखन पठन से सम्भव हो पाता है।
भले ब्लॉग या अन्य साहित्य आदि नैतिक पतनगामियों द्वारा सीधा नहीं पढ़ा जाता। लेकिन अकसर सामान्य-जन शिक्षित, उच्चवर्ग, प्रगतिशील समुदाय का अनुकरण करता दृष्टिगोचर होता है। वे सुधरे हुओं को देखकर वही प्रशंसा पाने के लिए उन्ही के समान व्यवहार करता है। कभी कभी मात्र दिखावे का अंधानुकरण होता है पर प्रधानता से सज्जनो को देखकर लोग सज्जन व्यवहार करने को उत्साहित होते है। नैतिक-मूल्यों और सात्विक जीवन का प्रसार, शिक्षित, प्रगतिशील उच्चवर्ग में एक फेशन के समान हो, महत्व का महिमावर्धन हो, सज्जनता का सम्मान देखा जाय, सदाचारों को प्रशंसा कीर्ती मिले तो निश्चित ही उनका अनुकरण सामान्य जन द्वारा पहले नकल की तरह किन्तु अन्ततः उपयोगी गुणों की तरह स्वीकार कर लिया जाता है। इसलिए लेखन समाज में साईलेंट तरीके से अच्छे विचारों के प्रसारण का मुख्य माध्यम है।
न - वे अतिशयोक्ति नहीं कर रहे - उन्हें निजी तौर पर सच में ऐसा विश्वास है कि सतोगुणी भोजन से सब निगेटिव ट्रेट्स चले जायंगे ।
हटाएंऔर मैं सिर्फ ब्लोग्स की बात नहीं कर रही थी, न ही कभी ब्लोग्स तक सीमित बात करती हूँ । ऊपर दिए सुझाव हमारे नेताओं से भी आये हैं और धर्म गुरुओं से भी - और हम सब यह सब देख ही रहे हैं ।
निरामिष की बात कहने वालों में एक तो लाविना ही हैं जिनके बारे में मैं आपसे पहले कहती रही हूँ ।
वैसे मैं बहुत कम ही ब्लॉग पढ़ती हूँ, लेकिन उन दिनों अधिक पढ़ रही थी । ब्लोग्स पर भी यहाँ वहां उन दिनों तो इस तरह के सुझाव दिखे की सामिष भोजन से ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं - किसने कहा और कहाँ कहा यह तो याद नहीं । उन दिनों काफी सारे ब्लॉग पढ़ती रही जब यह सब बहुत चर्चा में रहा, दामिनी अस्पताल में और युवा सड़कों पर थे । किसने कहाँ क्या लिखा याद नहीं - पर पढ़ा दो तीन जगह था ।
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शिल्पा जी,
आदरणीय अनुराग जी ने एकदम सही कहा कि 'लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था है और उसका नाम है, "बेहतर लोकतन्त्र"। लोक को परिपक्व होना पड़ेगा और तंत्र को सक्षम'...
मैं अपनी ओर से सिर्फ यही जोड़ना चाहता हूँ कि किसी भी 'लोक' (समाज) को वही तंत्र मिलता है जिसका वह हकदार होता है, तंत्र कहीं बाहर से नहीं उतरता, वह लोक में/से ही जनमता-पनपता है... यही समझ लीजिये कि आज का हमारा लोक साल दो साल में किसी एक मामले पर अपना गुस्सा/विरोध कुछ इसी तरह दिखा अपनी आत्मा की ड्राईक्लीनिंग कर फिर से अपनी जिंदगी पहले जैसी ही गुजारने में खुश है...
आप पूछती हैं कि 'साफ़ दिख रहा है कि हमारा तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा । क्या हम सब के लिए यह सोचने का समय नहीं आ गया कि पूरे सिस्टम को ही फिर से देखें और समझें - कि , जो लोकतंत्र अमेरिका में काम कर रहा है - क्या वह हमारे देश में काम कर रहा है ? यदि नहीं, तो क्या मूल भूत अंतर हैं हमारी मानसिकताओं में ? या यह कि वे क्या सही कर रहे हैं और हम क्या गलत कर रहे हैं कि यह काम नहीं कर रहा ? क्या हम कुछ कर सकते हैं ?'
मेरा जवाब होगा कि हम कुछ खास नहीं कर सकते, क्योंकि भले ही हैं हम एक लोकतंत्र पर हमारी सोच, हमारी मानसिकता लोकतांत्रिक नहीं है... हम केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं... जो तंत्र हमें मिला है शायद हम उस के भी पात्र नहीं... हम अपने इन कर्मों से उस स्थित को प्राप्त करेंगे जब इस तंत्र का स्वयमेव नाश होगा, इसमें कुछ समय लगेगा, शायद ४०-५० साल और... फिर हो सकता है कुछ नया सृजित हो... :(
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@आदरणीय अनुराग जी ने एकदम सही कहा कि 'लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था है और उसका नाम है, "बेहतर लोकतन्त्र"। लोक को परिपक्व होना पड़ेगा और तंत्र को सक्षम'...
हटाएंमैं भी सहमत हूँ , आदरणीय अनुराग जी अक्सर "एकदम सही" ही कहते हैं ।
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@ मैं अपनी ओर से सिर्फ यही जोड़ना चाहता हूँ कि किसी भी 'लोक' (समाज) को वही तंत्र मिलता है जिसका वह हकदार होता है, तंत्र कहीं बाहर से नहीं उतरता, वह लोक में/से ही जनमता-पनपता है... यही समझ लीजिये कि आज का हमारा लोक साल दो साल में किसी एक मामले पर अपना गुस्सा/विरोध कुछ इसी तरह दिखा अपनी आत्मा की ड्राईक्लीनिंग कर फिर से अपनी जिंदगी पहले जैसी ही गुजारने में खुश है...
:(
शायद ऐसा ही है, लेकिन यह समय समय पर होने वाली ड्राय क्लीनिंग सामयिक गन्दगी की सफाई भले ही कर दे, किन्तु गहरे में बसी कीच इससे साफ़ नहीं हो रही, क्योंकि यह सिर्फ ऊपरी सफाई हो रही होती है ।
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@ भले ही हैं हम एक लोकतंत्र पर हमारी सोच, हमारी मानसिकता लोकतांत्रिक नहीं है...
मुझे भी यही लगता है ।
और इसका ठीकरा हम अपने राजनीतिज्ञों के मत्थे मढ़ते हैं जबकी इसके ज़िम्मेदार हम खुद हैं ।
हम खुद राजनीति में उतरना नहीं चाहते कि - काजल की कोठरी है, हमें blacken नहीं होना ।
और यदि कोई "भला आदमी" राजनीति में जाने के प्रयास करे तो हम उसे हतोत्साहित करने के लिए उसे "बुरा आदमी" साबित करने का हर प्रयास करते हैं ।
हम लोग जिस " अतीत के झूठे गौरवगान" में मस्त रहते हैं आप ही के शब्दों में, उस अतीत को हम जानने के कोई प्रयास नहीं करते । हमारे लिए राजनीति में आने का अर्थ सिर्फ और सिर्फ "सत्ता मिलने की भूख" है, "सेवा करने की प्यास" नहीं ।
और यह मैं सिर्फ राजनेताओं के लिए "नहीं" कह रही , मैं हम नागरिकों के लिए कह रही हूँ जो हर राजनेता को यही लेबल देना चाहते हैं । and i would like to add here that apart from "praising OR demeaning" an imaginary glorious past we do not even KNOW ABOUT or TRY TO READ ABOUT, our other favorite "time pass" is: throwing the accumulated mud in our minds at the west, criticizing an imaginary dirt in the "western culture" which is clearly performing better than ours as on today, where people are more self disciplined, caring, cultured, helpful , safe, and happy, where girls DON'T NEED to cover themselves from head to foot and be confined to the house to escape assault, simply because their GOOD CULTURE teaches them to treat her as a human being with dignity, not as a body which is a sex toy / servant / or a breading machine....
there are two ways to win in life: to raise oneself, or to pull others down ...
we are unfortunately engaging in the second option, and in the process we have to stay down to ensure that we can pull others down....
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@ हम केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं...
- इतना गुस्सा ?? हाँ कई बिन्दुओं से मैं सहमत हूँ ।
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@ जो तंत्र हमें मिला है शायद हम उस के भी पात्र नहीं... हम अपने इन कर्मों से उस स्थित को प्राप्त करेंगे जब इस तंत्र का स्वयमेव नाश होगा, इसमें कुछ समय लगेगा, शायद ४०-५० साल और... फिर हो सकता है कुछ नया सृजित हो... :(
we got democracy because it was "in vogue"at the time we got independence, it is a system for matured societies, who have struggled for democracy. while we had struggled for freedom from the Britishers and deserved independence, the concept of "democracy" had not yet matured in our minds, and it still has not done so,
we were NOT ready for it at the time we got it . and if we pluck unripened fruits from trees and eat them - it is NOT the fruits' fault if we feel a bitter sour taste in our mouths... शायद आप सही हों - लेकिन कर्म तो करने होंगे न ? स्वयमेव होगा ओस्च कर हाथ पर हाथ धरे बैठना उचित है क्या ?
praveen ji -
हटाएंjust saw that you have shared this link on your blog - i am grateful for the help thanks
@ हम केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं...
हटाएंप्रवीण जी,
आपने तो सारी दुनियाभर की बुराईयों से अपने समाज को चित्रित कर दिया, सुधार के लिए आत्मावलोकन जरूरी है लेकिन मिथ्या दोषारोपण कोई जरूरी नहीं है समाज सुधार के लिए। जैसे 'अतीत के झूठे गौरवगान' हमारे समाज और संस्कृति का अतीत सर्वथा झूठा नहीं है, और इतिहास के कईं गौरवमय पल है जिनका गौरव लेना झूठ नहीं है। धन/संपत्ति संग्रहण के विरुद्ध सन्तोष की अवधारणाएं विद्यमान और प्रवर्तमान भी है। हर बात में तार्किक और वैज्ञानिक हो जाना अन्तिम समाधान नहीं है। हां, रूढ़िवाद, जातिवाद और पोंगापंथ समाज में अवश्य है लेकिन यह हमारी संस्कृति और समाज में आया विकार है्। यह हमारे समाज का सिद्धांत या पहचान नहीं है।
फिर भी चलो यह विकृतियाँ न्यूनाधिक हमारे समाज में विद्यमान है। बीमारी तो है किन्तु हमेशा बीमारी का उल्लेख करना या बीमारी बीमारी गाना समस्या का समाधान नहीं है। गौरव गान से कुछ नहीं मिलना तो निश्चित ही हीनता बोध से भी कुछ नहीं उपजना।
किन्तु मेरा मानना है कि नैतिक जीवन मूल्यों का गौरव-गान हो, महिमामण्डन हो, सदाचारों की श्रेष्ठता स्थापित हो, उन्हें उत्तम व्यवहार के उच्च दर्जे के रूप में देखा जाए, कर्तव्यनिष्ठा के प्रति आस्था में अभिवृद्धि से समाज में साकात्मक परिवर्तन सम्भव है
सुज्ञ जी - आभार । आपने बिलकुल सही कहा - हमारे अतीत में बहुत कुछ है जिस पर हम गौरव कर सकते हैं, लेकिन आज की बुराइयों को सुधारने के लिए उन्हें देखना और विश्लेषण करना भी आवश्यक है । इतने संतुलित तरीके से आपने यह कहा - आभारी हूँ ।
हटाएंआप सभी के कहने से अब मुझे कुछ विश्वास हो रहा है कि यह "लिखना मिथ्या ही नहीं है, इससे कुछ सकारात्मक सुधार आएगा", नहीं तो मुझे यह लग रहा था कि इस से कुछ होने वाला नहीं । इस प्रेरणा से मैं अधिक ऊर्जा के साथ काम करूंगी इस दिशा में ।
फिर एक बार आभार
respected praveen ji - u have said on the next post that i did not clarify mey asahamati here - so i am posting my answer there, and copying it here too
हटाएं@@@@ तो आप ने असहमति तो जताई पर इसका कारण नहीं दिया... मैं बहुत छोटा था तब, एक कांड हुआ था संजय-गीता चोपड़ा के साथ, ................... इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते नजर आयेंगे हम लोग...
इश्वर न करे ऐसा हो - लेकिन काफी संभावना है कि ऐसा हो - क्योंकि सुधार पल भर में नहीं आते । और यह किसी के भी साथ हो सकता है - अगली बार पीड़ित हम में से कोई भी या हमारे परिवार में से कोई भी हो सकते हैं । बलात्कार सिर्फ एक लड़की को ही नहीं, उसके सम्पूर्ण परिवार को तोड़ देता है - तो सबसे पहले तो हमें अपनी यह मानसिकता बदलनी होगी (सबकी नहीं - कई लोगों की) कि यह "पुरुषों" द्वारा "स्त्रियों" पर होने वाला शोषण मात्र है - नहीं - डायरेक्ट विक्टिम भले ही स्त्री हो - किन्तु टारगेट इसका पूरा मानव समाज है । इसीलिए आत्म अवलोकन की आवश्यकता है, इसलिए यह शोध करने की आवश्यकता है ।
मैं आपसे असहमत इसलिए हूँ कि जहां 100 साल पहले भी बलात्कार होते थे (निश्चित तौर पर होते ही होंगे - हम गुलाम थे और आज के अधिकार नहीं थे हमारे पास) - लेकिन यह बात सुर्खियाँ नहीं बनती थी । यह क्रूरता बहुत आसानी से दबा दी जाती थी ।
आजादी के बाद भी - ये घटनाएं जारी हैं ही । क्या यह अचानक होने लगा ? - नहीं - यह होता आया - लेकिन "मर्ज़" छुपा हुआ रखा जाता था । यदि घाव को छुपा कर रखा जाए न प्रवीण जी - तो वह ठीक नहीं हो सकता ।
समाज में बलात्कार हुई लड़की को और उसके परिवार को दोष देने की और अधमरा कर देने की जो मनःस्थिति बनी हुई थी - वह कम हो रही है - और अब कम से कम शिकायतें तो की जा रही हैं । क्या यह शुभ संकेत नहीं ? ....... जब साल दर साल "घटनाएं" बढ़ने की बात हम सुनते हैं - तो हमें समझना होगा कि "घटनाएं"नहीं बढ़ रहीं - उनकी रिपोर्टिंग बढ़ रही है । घाव उघाड़ने की प्रक्रिया तो आरम्भ हो ही गयी है - और जब सदियों से सड़ता हुआ घाव खुलेगा तो वीभत्स भले ही दिखे, हताशा भले ही हो देख कर - किन्तु यह होगा शुभ ही - क्योंकि इलाज संभव होगा । उस घाव की सफाई होगी तो बहुत दर्द भी होगा - और हमें यह दर्द सहना होगा - there is no escaping it .... यह पहला कदम है - एक दिन में कुछ नहीं होता , कुछ नहीं बदलता । @@ हम केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, भ्रष्ट, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं... no - we are not all that bad . at any given point of time , about 99% people are neutral who want to live peacefully - the stronger side in the remaining 1% determine where the society moves to - and the majority of the people are always ready to change for the positive. Unfortunately praveen ji - the good work and achievements never make newspaper headlines, so we mostly view only the negatives and see those highlighted, but the truth is, we are not such a bad society as you feel, the situation is NOT SO HOPELESS....
मैं दिल से यह मानती हूँ कि यह जो प्रतिशोधात्मक कार्यवाहियों की मांगे चल रही हैं - ये उचित परिणाम नहीं दे सकतीं - क्योंकि ये मांगे खुद ही आपराधिक हैं । कुछ वहशी दरिन्दे अपराधियों के कारण हम अपने आप को उन्ही के स्तर तक गिरा दें और एक जंगली समाज बन जाएँ ?
हमें मंथन करना ही होगा - और मंथन में विष भी निकलेगा - और उसे पीने के लिए शिव भी हमें ही होना होगा ।
सिर्फ "कुछ नहीं हो सकता"कह देने से कुछ नहीं होगा - बल्कि कहूं कि कुछ नहीं "ही" होगा - क्योंकि हमारा लक्ष्य ही "कुछ नहीं" होगा । मैं मानती हूँ कि कुछ होगा - बहुत कुछ होगा - किन्तु समय लगेगा इस बदलाव को आने में - अपने अपने हिस्से का विषपान करने को तैयार रहना होगा हम सब को ।
जवाब देंहटाएंजस्टिस वर्मा को मिले, भाँति-भाँति के मेल ।
रेपिस्टों की सजा पर, दी दादी भी ठेल ।
दी दादी भी ठेल, कत्तई मत अजमाना ।
सही सजा है किन्तु, जमाना मारे ताना ।
जो भी औरत मर्द, रेप सम करे अधर्मा ।
चेंज करा के सेक्स, सजा दो जस्टिस वर्मा ।।
abhar aapka ravikar ji
हटाएंA healthy thought provoking discussion-issues raised are of common concern! Such writings indeed make a change in mind set of the people.But let us keep on bugging! But let us identify and eradicate the negative elemants amongst us who owing to their own prejudices divert the attention from the original issues!
जवाब देंहटाएंthanks sir, everyone here seems to be convinced that writing on blogs WILL HELP to change the ground situation, may be i was wrong about that....
हटाएंthere always are and were negative elements, and always will be. they cannot be eradicated, we have to concentrate our energies at our goals and not get diverted, instead of wasting energies trying to eradicate the negatives - which is just not possible...
बेहतर लोकतंत्र ही एकमात्र उपाय है। बेहतर लोकतंत्र के सबसे जरूरी कदम है..चुनाव सुधार। भ्रष्टाचार, बलात्कार या ऐसे ही किसी दूसरे गंभीर मसले पर आंदोलन करने से बेहतर है एक देश व्यापी आंदोलन जो सिर्फ एक और एक मुद्दे पर हो..चुनाव सुधार। चुनाव सुधार के लिए सुझाव मांगे जांय। जो संसदीय व्यवस्था हमारे यहाँ है उस पर भी पुनर्विचार। जन प्रतिनिधि होने के लिए अनिवार्य योग्यता..संघ लोक सेवा आयोग से भी कठिन परीक्षा का निर्धारण। बेदाग जीवन की शर्त। योग्य जन प्रतिनिधि होंगे तो तंत्र बेहतर हो ही जायेगा। तंत्र बेहतर होगा तो जन-जन को सुधरना ही पड़ेगा। यह एक लम्बी प्रक्रिया है..कोई जादू की छड़ी काम नहीं करेगी।
जवाब देंहटाएंजहाँ विचार आमंत्रित हों वहाँ टिप्पणी पर मॉडरेशन मुझे तो अच्छा नहीं लग रहा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा तरीका है, चुनाव सुधार ... यह कैसे करना होगा - इस पर एक study हो सकती है शायद ...
हटाएं@ अनिवार्य योग्यता - हमने देखा ही है कि डॉक्टर / इंजिनियर होते हुए भी कुछ लोगों की सोच कितनी संकुचित है । सिर्फ योग्यता के आलावा भी कुछ परिमाण होने होंगे ।
@मोडरेशन -
उल्टा मुझे तो यह लगता है कि अनुशासन की सबसे पहली स्टेप यही होनी चाहिए ब्लॉग लिखने वालों के लिए । यदि हम अपने ब्लॉग पर भी अनुशासन नहीं रख पायेंगे तो पूरी व्यवस्था में क्या कर पायेंगे ? यह एक सार्वजनिक मंच है, और हमारे ब्लॉग पर जो शब्द हैं उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी हमारी भी है । तो मोडरेशन तो मेरे विचार में हर ब्लॉग मालिक लो उपयोग में लाना चाहिए । मोडरेशन न रखने का सुझाव ऐसा ही है जैसे हम कहें की डेमोक्रसी में पुलिस का क्या काम है, सेंसर की क्या आवश्यकता है । जबकि इनके बिना तो जनतंत्र हो ही नहीं सकता ।
यह पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा। आप अपनी बात कहती रहिये। बात का असर होगा जरूर।
जवाब देंहटाएंआभार -
हटाएं- जी मैं अपनी बात कहती रहूंगी । सभी कह रहे हैं यहाँ कि लिखने / कहने का असर होगा - तो लिखूंगी तो अवश्य ।
अपने समय कुप्रबंधन के चलते मैं सक्रिय भाग न भी ले सका तब भी चर्चा का इंतज़ार रहेगा, लिखती रहिये।
जवाब देंहटाएंसमस्या तो है कि मनमोहन सिंह जी या शिंदे जी शायद ही ब्लॉग पढ़ते हों..वैसे भी हिंदी के ब्लॉग इन महानुभावों के लिए पढ़ने की श्रेणी में आते नहीं होंगे....खबरों के मुताबिक चिंदबरम साहब कह ही चुके हैं कि हिंदी उन्हें आती नहीं इसलिए वो प्रधानमंत्री पद के कमजोर दावेदार हैं....तो आपने समस्या खड़ी कर दी है।
जवाब देंहटाएंदूसरी बात है भोजन के निरामिष होने की या न होने की तो इस बात पर सब एकमत हैं कि जैसा खाओ अन्न वैसा बने तन और मन...पर इसपर भी कहा गया है कि मन जैसा चाहता है तन वैसा बनता है...यानि खाने आदि को दोष देना बेकार है...
रह गया सजा को लेकर तरह-तरह का सुझाव ...तो वर्मा आयोग को साठ हजार सुझाव मिल चुके हैं..
एक बात औऱ है कि लोग कठोरतम सजा की मांग कर रहे हैं...यानि मौत की...इसके दो पक्ष हैं महिला आयोग कहता है कि इससे बलात्कार के बाद हत्या की घटनाएं बढ़ जाएंगी....तो दूसरी तरफ विरोधी कह रहे हैं कि अगर किसी की झूठी शिकायत हो तो?
यानि इतने सारे सवाल आपस में ही गुत्थमगुत्था हैं, पर लोग इसे अलग अलग नजरिए से देख रहे हैं.औऱ अलग अलग राय दे रह हैं..दरअसल हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं...उसे हम जानते भी हैं परंतु शब्द नहीं दे पा रहे ..