हमने पहले ज्योतिर्लिंगों के विषय में पढ़ा। इनके अतिरिक्त भी शिव आराधना में बहुत से तीर्थ सुविख्यात हैं। आज हम नंदिकेश्वर और अत्रीश्वर तीर्थ स्थलों पर चर्चा करते हैं।
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नंदिकेश्वर :
कर्णकी नामक शहर में एक ब्राह्मण रहते थे । वह अपने दो पुत्रों को अपनी पत्नी को सौंप कर वाराणसी की यात्रा को गए और वहां से उनकी मृत्यु की ही खबर आई। ब्राह्मणी ने बड़े यत्न से पुत्रों का लालन पालन किया और उनके विवाह किये। ब्राह्मणी वृद्धा हो चुकी थीं किन्तु शरीर के अति शिथिल हो जाने पर भी उनके प्राण न छूटते थे। एक दिन उनके बड़े पुत्र ने सप्रेम पूछा कि माँ आपकी क्या इच्छा है जो अधूरी है ? तब माँ ने कहा कि पुत्र मैं वाराणसी जाना चाहती थी किन्तु जा न सकी। माता ने पुत्रों से वचन लिया कि उनका अस्थि विसर्जन वाराणसी में ही किया जाए और शांत मन से विदा हुईं।
अंतिम संस्कार के बाद बेटा "सुवधि" माँ की अस्थियां ले वाराणसी को चला। राह में वह एक ब्राह्मण के घर रुका। सुवधि ने देखा कि जब ब्राह्ण गाय को दुहने आया तो बछड़ा माँ को न छोड़ता था। तब ब्राह्मण ने एक लकड़ी से मार कर बछड़े को दूर किया और गौ को दूहा। ब्राह्मण के जाने के बाद सुवधि ने देखा कि शुभ्र गाय अपने बछड़े से बोली कि तुझे मारने से मैं बहुत क्रोधित हूँ और कल मैं इस ब्राह्मण के पुत्र को मार दूँगी।
अगले दिन ब्राह्मण का बेटा आया तो गाय ने अपने सींगों से उसे मार डाला। लेकिन यह ब्रह्महत्या हुई। इससे गाय का रंग तुरंत सफ़ेद से काला हो गया। सुवदि हैरान थे। उन्होंने देखा कि गाय बाहर चली और वे उसके पीछे गए। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने देखा कि गाय जाकर नदी में डुबकी लगा कर निकली और फिर से धवल हो गयी थी। इसका अर्थ इस जगह ब्रह्महत्या का पाप भी धुल गया था। ब्राह्मण अचरज करते लौटने लगे तो एक स्त्री प्रकट हुईं और उनसे प्रश्न किया कि कहाँ जाते हो। जब सुवधि ने वाराणसी की बात कही तो स्त्री ने कहा मैं ही गंगा हूँ और यह बहुत सशक्त तीर्थ है। तुम अपने माँ की अस्थियां यहीं विसर्जित करो।
सुवधि ने यही किया और तुरंत अपनी माँ को आकाश में प्रकट देखा। वे बहुत प्रसन्न थीं और बोलीं कि अच्छा हुआ तुमने यह किया। अब मैं स्वर्ग जा रही हूँ। यहां एक कन्या ऋषिका ने शिव जी की तपस्या की थी जिसके प्रभाव से यह स्थल अति पवित्र तीर्थ हुआ है। और वे अंतर्ध्यान हुईं।
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अत्रीश्वर तीर्थ
कमद नामक वन में सौ वर्षों तक वर्ष न होने से भयंकर सूख पड़ा था। इसके लिए अत्रि मुनि और उनकी पत्नी अनुसूया ने कठोर तप किया। कई वर्षों के तप के बाद अत्रि जी की समाधि टूटी। उन्हें प्यास महसूस हुई और अनुसूया जी पति के लिए जल लेने गयीं। तब उनके सम्मुख गंगा जी प्रकट हुईं और कहा कि वे प्रसन्न हैं।तब सती अनुसूया जी ने उन्हें वहीँ सरोवर में रहने को कहा। फिर उस सरोवर का जल वे पति के लिए लेकर गयीं। अमृतमय जल पीने पर अत्रि जी पत्नी सहित वहां आये और उन दोनों के तप के पुण्य प्रभाव से गंगा जी उसी सरोवर में वहां बस गयीं।
उधर शिव जी ने प्रकट होकर अनुसूया जी से वरदान मांगने को कहा। अनुसूया जी ने शिव जी को सदा वहां बसने को कहा। इस वजह से यहाँ शिव जी का निवास है और यह पुण्यभूमि है।