कैलाश पर्वत पर पार्वती माता के कक्ष के द्वार की रक्षा भी शिवजी के ही गण करते थे। लेकिन शिव जी किसी भी समय आएं उनके गण उन्हें भीतर जाने से न रोकते थे और इस कारण पार्वती जी असहज महसूस करती थीं। उनकी सहेलियों को भी यह अच्छा न लगता था और वे माता को समझातीं कि उनकी द्वारसेवा को उनका अपना गण होना चाहिए। तब एक दिन माँ ने मिटटी से (कहीं कहा गया है कि अपनी उबटन से) एक सुंदर बालक की मूरत गढ़ी और उसमें प्राण प्रवाहित कर दिए। बालक ने प्रणाम किया और पूछा - "हे माते - मेरे लिए क्या आज्ञा है ?"उमा जी ने पुत्र को गणेश नाम दिया और एक दण्ड प्रदान करते हुए कहा कि तुम द्वार की रक्षा करो और किसी को भी भीतर न आने देना। बालक द्वार की रक्षा करने लगा और माता जी स्नान को चली गयीं।
इधर शिव जी आये और हमेशा की तरह भीतर जाने लगे। बालक गणेश ने उन्हें रोक कर कहा कि आप भीतर नहीं जा सकते क्योंकि मेरी माता की आज्ञा नहीं है। इस पर शिव जी हँसे और बालक से बोले कि यह मेरी पत्नी का कक्ष है और मैं कभी भी भीतर जा सकता हूँ। मैं शिव हूँ और इस कैलाश का अधिपति हूँ। किन्तु गणेश ने कहा कि मैं सिर्फ अपनी माता को जानता हूँ , शिव कौन हैं यह मुझे नहीं मालूम। आप भीतर नहीं जा सकते हैं। शिव जी थोड़े क्षुब्ध हुए और अपने गणों को इस उद्दंड बालक को राह से हटाने को कहा। गणों ने प्रयास किया किन्तु गणेश ने उनकी दण्ड से पिटाई कर दी :) इस पर भी शिव जी भीतर जाने लगे तो गणेश ने उन्हें भी डंडा लेकर मार दिया।
अब देवतागण और ब्रह्मा विष्णु जी भी वहां आये किन्तु ब्रह्मा जी जब बालक को समझाने गए तो बालक ने उन्हें भी मारना शुरू कर दिया , वे वापस आ गए। देवताओं और शिवगणों ने बालक पर हमले किये किन्तु बालक के आगे सब हार गए। उधर शक्ति माता भी इस युद्ध को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर देख रही थीं और पुत्र को अस्त्र शस्त्र प्रदान करती जा रही थीं।
इधर विष्णु जी ने शिव जी से कहा कि यह कोई साधारण बालक नहीं लगता इसे चाल से हराना होगा। तब विष्णु जी ने गणेश पर हमला किया और जब गणेश उनसे युद्ध कर रहे थे तब पीछे से शिव जी ने त्रिशूल से उनका सर काट दिया। त्रिशूल से कटा सर कहीं दूर खो गया और बालक का धड़ मृत होकर गिर पड़ा।
इस प्रकार धोखे से अपने पुत्र की मृत्यु होती देख माता कुपित हुईं और उन्होंने करोड़ों शक्तियां भेज दीं जो देवताओं को खाने लगीं और चहुँ ओर विध्वंस करने लगीं। देवता घबरा गए और माता को मनाने के लिए ब्रह्मा विष्णु महेश्वर से विनती की। किन्तु माता ने कहा कि जब तक मेरा पुत्र पुनर्जीवन न किया जायेगा तब तक मैं शांत नहीं होउंगी। तब शिव जी ने सेवकों को कहा कि आप जाइए और जो पहला जीव दिखे उसका सर लेकर आइये। संयोग से पहला प्राणी एक हाथी मिला और वे लोग उसका सर काट कर ले आये। शिव जी ने सर जोड़ कर बालक को पुनर्जीवित किया किन्तु माता ने कहा कि बालक इससे अधिक का अधिकारी है। तब गणेश "गणपति" (गणों के अधिपति) नियुक्त हुए और साथ ही यह निश्चय हुआ कि वे प्रथम पूज्य होंगे। कोई भी शुभ कार्य उनकी पूजा से ही आरम्भ हो सकेगा।
परिवार सुखपूर्वक कैलाश पर रहता था। एक बार कार्तिकेय और गणेश में पहले किसका विवाह हो इस पर बहस छिड़ गयी। इसकी पूरी कथा इस भाग में है (लिंक)
इधर शिव जी आये और हमेशा की तरह भीतर जाने लगे। बालक गणेश ने उन्हें रोक कर कहा कि आप भीतर नहीं जा सकते क्योंकि मेरी माता की आज्ञा नहीं है। इस पर शिव जी हँसे और बालक से बोले कि यह मेरी पत्नी का कक्ष है और मैं कभी भी भीतर जा सकता हूँ। मैं शिव हूँ और इस कैलाश का अधिपति हूँ। किन्तु गणेश ने कहा कि मैं सिर्फ अपनी माता को जानता हूँ , शिव कौन हैं यह मुझे नहीं मालूम। आप भीतर नहीं जा सकते हैं। शिव जी थोड़े क्षुब्ध हुए और अपने गणों को इस उद्दंड बालक को राह से हटाने को कहा। गणों ने प्रयास किया किन्तु गणेश ने उनकी दण्ड से पिटाई कर दी :) इस पर भी शिव जी भीतर जाने लगे तो गणेश ने उन्हें भी डंडा लेकर मार दिया।
अब देवतागण और ब्रह्मा विष्णु जी भी वहां आये किन्तु ब्रह्मा जी जब बालक को समझाने गए तो बालक ने उन्हें भी मारना शुरू कर दिया , वे वापस आ गए। देवताओं और शिवगणों ने बालक पर हमले किये किन्तु बालक के आगे सब हार गए। उधर शक्ति माता भी इस युद्ध को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर देख रही थीं और पुत्र को अस्त्र शस्त्र प्रदान करती जा रही थीं।
इधर विष्णु जी ने शिव जी से कहा कि यह कोई साधारण बालक नहीं लगता इसे चाल से हराना होगा। तब विष्णु जी ने गणेश पर हमला किया और जब गणेश उनसे युद्ध कर रहे थे तब पीछे से शिव जी ने त्रिशूल से उनका सर काट दिया। त्रिशूल से कटा सर कहीं दूर खो गया और बालक का धड़ मृत होकर गिर पड़ा।
इस प्रकार धोखे से अपने पुत्र की मृत्यु होती देख माता कुपित हुईं और उन्होंने करोड़ों शक्तियां भेज दीं जो देवताओं को खाने लगीं और चहुँ ओर विध्वंस करने लगीं। देवता घबरा गए और माता को मनाने के लिए ब्रह्मा विष्णु महेश्वर से विनती की। किन्तु माता ने कहा कि जब तक मेरा पुत्र पुनर्जीवन न किया जायेगा तब तक मैं शांत नहीं होउंगी। तब शिव जी ने सेवकों को कहा कि आप जाइए और जो पहला जीव दिखे उसका सर लेकर आइये। संयोग से पहला प्राणी एक हाथी मिला और वे लोग उसका सर काट कर ले आये। शिव जी ने सर जोड़ कर बालक को पुनर्जीवित किया किन्तु माता ने कहा कि बालक इससे अधिक का अधिकारी है। तब गणेश "गणपति" (गणों के अधिपति) नियुक्त हुए और साथ ही यह निश्चय हुआ कि वे प्रथम पूज्य होंगे। कोई भी शुभ कार्य उनकी पूजा से ही आरम्भ हो सकेगा।
परिवार सुखपूर्वक कैलाश पर रहता था। एक बार कार्तिकेय और गणेश में पहले किसका विवाह हो इस पर बहस छिड़ गयी। इसकी पूरी कथा इस भाग में है (लिंक)
जारी ………
Aap ke lekh kafi ache hai.
जवाब देंहटाएंKya aap MeriRai. com ke liye kuch likhna pasand karengi?
Hum abhi abhi launch hue hai aur kai lekhako, blogger, kaviyo se baat kar rahe hai.
जी। आभार। लेकिन अगस्त से दिसम्बर तक मैं करीब करीब ब्लॉग सन्यास पर होती हूँ :)
हटाएंआनंद दायक कथा चाहे जितनी बार पढ़ो.....
जवाब देंहटाएंहाँ जी। बिलकुल :)
हटाएंबहुत अच्छी कथा ..हमेशा बच्चों को सुनाते हुए कई प्रश्नों का सामना करना पड़ता है .... प्राण कैसे फ़ूँकते हैं ? और रास्ते में किसी मनुष्य का सिर नहीं मिला ?
जवाब देंहटाएंसही कहा :)
हटाएंसीही बात है
हटाएंसीही
जवाब देंहटाएंशुभ लाभ ।Seetamni. blogspot. in
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