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शनिवार, 9 जनवरी 2021

Upanishad5 उपनिषद सन्देश 5

एक बार बहुत पहले द्वैत और अद्वैत पर कुछ लिखा था।  उसी श्रंखला में आगे .... 

हिन्दू चिंतकों के बहुत से पथ रहे हैं, ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी, मूर्तिपूजक ,और भी अनेक राहें उपलब्ध हैं।  

दो विचारप्रवाह हैं, दो धाराएं बहती हैं।  द्वैत को मानने वाले कहते हैं - मैं जीव तुम ईश्वर।  सदा ही पृथक, मैं पूजक तुम पूज्य, मैं पथिक तुम ध्येय, आदि।  लेकिन अद्वैत वादी कहते हैं, कोई पृथक हैं ही नहीं।  मैं ही तुम हूँ और तुम ही मैं, जब एक हो जाएं तब मोक्ष।  या तो मैं न रहूँ - तुम ही तुम हो, और वह न हो तो "अहं  ब्रह्मास्मि" का नाद। इस ही संदर्भ में वेदान्त से पांच कथाएं कहूँगी 

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१ राजा जनक की कथा 
राजा जनक अत्यधिक सम्माननीय महापुरुष हुए।  एक बार शत्रु का आक्रमण हुआ, युद्ध हुआ और राजा जनक की पराजय हुई।  शत्रु भी सिद्धांतों को मानने वाला हुआ , सो राजा को प्राण दंड न देकर देश निकाला दिया गया।  राजा जनक चल पड़े। वे घायल थे, भूखे प्यासे थके हुए चलते रहे, भिक्षा मांगते तो प्रजा जन डरते कि नए राजा क्रोधित होंगे, तो उन्हें किसी ने कुछ न दिया। 

राजा चलते रहे और पड़ोसी राज्य जा पहुंचे। वहां एक अन्नक्षेत्र था जहां खिचड़ी रुपी भोजन भिक्षुकों को दिया जा रहा था।  राजा कतार में खड़े रहे, लेकिन जब तक उनकी बारी आई, भोजन ख़त्म हो चुका थे।   भोजन परोसने वाले ने कहा - भोजन नहीं है लेकिन उनकी स्थिति देख  कर उसने किसी तरह बर्तन के तले से एक दोने में  खिचड़ी उन्हें दी. जब वे उसे खाते, एक पक्षी ने उनके हाथ से दोना गिरा दिया और खिचड़ी मिटटी में मिल गयी।  जनक जी का मन हाहाकार करने लगा और वे चीत्कार करते भूमि पर गिर पड़े।   उसी समय संतरी भागता हुआ उनके कक्ष में आया और उन्हें जगाया।  उनकी निद्रा और स्वप्न टूट गया।  संत्री पूछने लगा क्या हुआ तो वे बोले "वह सच या ये सच?" सिर्फ यही कहते रहे ....  

संत्री भागा गया और रानी माँ को बुला लाया - उन्हें भी राजा यही कहते रहे "वो सच या ये सच?" ... 

वैद्य , रानी सब पूछते रहे क्या हुआ, क्या हुआ।  लेकिन राजा यही कहते रहे "वह सच या ये सच?" सबको लगने लगा राजा जी को कुछ हो गया है , उनके बारे में कथाएं चल पड़ीं। 

एक दिन अष्टावक्र जी ने यह सुना और वहां आए - उन्होंने राजा से वार्ता की।  राजा फिर बोले "वह सच या ये सच?"
अष्टावक्र जी तो सर्वज्ञ रहे, तो वे जान गए राजा के भीतर क्या चल रहा है।  उन्होंने पूछा "राजन - क्या वह सब यहां दीखता है - शत्रु,पराजय , भिक्षा, खिचड़ी, अन्नक्षेत्र, भूख, थकान ?" राजा ने कहा - नहीं 

अष्टावक्र जी ने अब पूछा "वहां भी तुम ही थे न?" राजा ने कहा - हाँ मैं ही था।  

"तब क्या वहां यह सब था?  दरबार,मंत्रीगण, संत्री, रानी .. यह सब वहां था??" .... राजा ने कहा - नहीं 

अब अष्टावक्र बोले - इसलिए राजन - न वो सच , न ये सच।  सिर्फ तुम ही सच।  

बस वही एक है अद्वैत - कुछ सच नहीं - सिर्फ "मैं" ...... जो "मैं" मैं अनुभव करती हूँ , वही "मैं"  हर जीव अनुभव करता है।  बस वही एक है।  एक ही अद्वैत।  सिर्फ "मैं"

अहं ब्रह्मास्मि ही है अद्वैत का उद्बोधन  ......