यह पोस्ट भी एक पुराने प्रयास का विस्तार ही है - इस सिलसिले की और पोस्ट्स की कड़ियाँ इस लेख के अंत में हैं ।
अब आगे बढती हूँ । इस भाग में श्रीमद भागवद गीता की कुछ श्लोकों की बात करूंगी, जो "क्रोध" पर हैं । क्रोध पर गीता में भी कई जगह चर्चा हुई है । पोस्ट अधिक लम्बी हो जाने के कारण मूल श्लोक पोस्ट में नीचे दे रही हूँ - यहाँ सिर्फ अनुवाद ही लिख रही हूँ ।
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सोलहवे अध्याय के चौथे और सातवे श्लोक में आसुरी गुणों का विस्तार करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं :
दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।
दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।
-- और --
आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति (क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए) - इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है
दर्प में डूबे घमंडी (असुर प्रवृत्ति के) लोग, अक्सर स्वयं को सारे शास्त्र ज्ञान, सामाजिक मान्यताओं, अच्छे / बुरे के बारे में धर्म पुस्तकों में दिए दिशानिर्देशों आदि से ऊपर मानते हैं। जैसे हिरण्यकश्यप कहता था "मैं जो कहूं - वही सत्य है और मेरी ही पूजा करना ही धर्म है।"
वे लोग शास्त्र पढने / जानने /सुनने से इनकार करते हैं - क्योंकि उन्हें विश्वास होता है की उनका ज्ञान पहले से ही परिपूर्ण है - शास्त्र पढना पढ़ाना दकियानूसी / फुरसती लोगों का काम है । और - इस अज्ञान के वश, सही ज्ञान के अभाव में, वे अपने अहंकार की दिखाई हर मिथ्या अवधारणा को ब्रह्मवाक्य मान लेते हैं । जब दूसरे उनसे राजी नहीं होते (हो ही नहीं सकते) तो उन्हें क्रोध आता है । क्रोध से व्यवहार में कठोरता आती है - यह कठोरता मौखिक भाषा में भी दृश्य होती है - और उनके आस पास के लोगों को इस कठोरता का कई बार शारीरिक खामियाजा भी उठाना पड़ता है । ये सब (कृष्ण कह रहे है ) आसुरी स्वभाव के लक्षण हैं ।
निस्संदेह - उस आसुरी सम्पदा से परिपूर्ण व्यक्ति को यह आसुरी नहीं, बल्कि दैवी संपदा प्रतीत होती है -। इसके अतिरिक्त, उसके पास जो चाटुकार और स्वार्थ सिद्धि के लिए जुड़े हुए संगी रहते हैं वे उनके अहंकार और क्रोध को ईंधन देते रहते हैं । (क्योंकि सच बोलने वालों को तो वे पहले ही अपने आप से दूर कर चुके होते हैं । स्वार्थी और लोलुप किस्म के लोग / मोहवश उनसे दूर न जा पाने वाले / भय वश उनका विरोध न कर पाने वाले ही उनके आस पास होते हैं ) यह मानव शास्त्रों की परिभाषाओं को पूरी तरह नकार देने में एक क्षण भी नहीं झिझकते । इनमे शुद्धि है ही नहीं, तब आचरण श्रेष्ठ होने की संभावना कैसे होगी ? ये सत्य भाषण की दुहाई देते हुए अपने ही मिथ्या कटु विचारों और मान्यताओं को "सत्य" कह कह कर स्थापित करने के दुष्प्रयासों में जुटे रहते हैं । इन प्रयासों की असफलता से स्वयं को तो दुःख देते ही हैं - अपने प्रयासों के कारण आस पास के व्यक्तियों के लिए भी नरक का निर्माण करते रहते हैं ।
इसके ठीक पहले के तीन श्लोक दैवी सम्पदा के गुणों की बात करते हैं - जो हैं -
भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान , इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता (1)
मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव (2)
तेज , क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं (3)
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शास्त्रों में पांच विकार बताये गए हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार । ये सब विकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, और एक दूसरे का पोषण करते हैं ।
श्रीमद भागवद गीता के तीसरे अध्याय के 36वे श्लोक में अर्जुन श्री कृष्ण से पूछते हैं कि :
व्यक्ति किस कारण न चाहते हुए भी, बलात लगाए हुए की तरह, पाप करता है ?
तब 37वे श्लोक में कृष्ण उसे बताते हैं कि :
रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ।
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श्रीमद भागवद गीता के दूसरे अध्याय के 62 और 63 वे श्लोक भी विषय, कामना और क्रोध की बात करते हैं ।
किन्ही भी विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति (मोह?) हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना (और लोभ भी - क्योंकि जो कामना धर्म के अनुरूप न हो, और पूरी होने की जिद हो - वह लोभ ही है ) उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।
मुझे लगता है कि , वह निरंतर विचार का विषय भले ही कोई असल वस्तु हो ( जैसे मुझे घर चाहिए, ऊंची तनख्वाह चाहिए ) या कोई abstract वस्तु ( जैसे मुझे respect चाहिए, recognition चाहिए, लोग मेरे follower हों, मेरा कहा सब स्वीकारें आदि ), या विचारधाराएं ही क्यों न हों - आसक्ति सब ही पैदा करते हैं |
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गीता जी के पांचवे अध्याय के 10वे और 26वे श्लोक में भी श्रीकृष्ण कहते हैं :
जो पुरुष आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता
और
और
काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है
जाहिर है - क्रोध में आकर किये गए कर्म में मैं तो होगा ही - आसक्ति भी होगी - तो निष्पाप और निर्लिप्त कर्म की तो कोई संभावना ही नहीं है ।
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अनुराग जी ने दो प्रश्न किये - क्या क्रोध कभी विनाशकारी न हुआ होने का कोई उदाहरण है ? क्या क्रोध न होने से विनाश ट़ाला जा सकने के कोई उदाहरण हैं ?
मुझे तो ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आता जहाँ क्रोध विनाशकारी नहीं रहा हो । हाँ, ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ क्रोध न होता तो विनाश को टाला जा सकता था। अधिकतर मौकों पर तो क्रोध कहानी के "नायक /नायिका" वाले पात्रों को नहीं, बल्कि "खलनायक / खलनायिका " के पात्र को ही आया | यदि नायक नायिका का भी क्रोध रहा हो, तब भी उसका परिणाम विनाशकारी ही हुआ | [ जैसे शूर्पनखा का (राम/लक्ष्मण के ना करने से सीता पर आया) क्रोध, रावण का (बहन की बेईज्ज़ती पर) क्रोध, दुर्योधन का (भाभी के हंसी उड़ाने पर) क्रोध, ध्रितराष्ट्र का अपनी ही बेबसी पर क्रोध ।]
कोई शायद माता भवानी, या शिव, या राम, या कृष्ण, के "कल्याणकारी क्रोध" की बात उठाएं - तो मैं पहले ही कहना चाहती हूँ - जो कुछ इन के द्वारा किया गया बताया जाता है - उनमे से कुछ भी"क्रोध" युक्त हो कर नहीं किया गया, बल्कि लोक कल्याण के लिए "कर्त्तव्य धर्म " के लिए अक्रोधित रहते हुए किया गया | अपराधी से आखरी वक्त भी माफ़ी मांगे जाने पर माफ़ी देने की बात की गयी | वैष्णो देवी माता जी ने तो भैरव को मारना जब तक हुआ - टाला ही । सर काट देने के बाद भी उसके माफ़ी मांगने पर उसकी पूजा के बिना अपने दर्शन अधूरे माने जाने का वरदान दिया |
कल्याणकारी क्रोध जैसी कोई चीज़ नहीं होती ।
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सुज्ञ जी ने कहा -
"सत्य है। क्रोध एक दुर्गुण ही है इसीलिए पाप है। क्रोध इतनी सहज आमान्य प्रवृति भी नहीं कि उसे नियंत्रित या दमित न किया जा सके। सात्विक या सार्थक क्रोध जैसी कोई बात नहीं होती, बस यह दुर्गुण अपने अहंकारवश न्यायसंगतता का आधार ढ़ूंढता है।"
मैं पूरी तरह सहमत हूँ । क्रोधित व्यक्ति खुद ही अपने आप को जीत नहीं पाता - तो पाप पर कैसे जीतेगा ? कल्याण किसका और कैसे करेगा ?
और यह भी सुज्ञ जी ने कहा " मुझे लगता है मन्यु को परिभाषित करने के लिए यह आसान हो सकता है कि एक क्रोधाभासी भाव जिसमें कायरता (विवशता, परवशता परिणामो का भय आदि) और अविवेक नहीं होता 'मन्यु' कहलाता है। "
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सुज्ञ जी ने कहा -
"सत्य है। क्रोध एक दुर्गुण ही है इसीलिए पाप है। क्रोध इतनी सहज आमान्य प्रवृति भी नहीं कि उसे नियंत्रित या दमित न किया जा सके। सात्विक या सार्थक क्रोध जैसी कोई बात नहीं होती, बस यह दुर्गुण अपने अहंकारवश न्यायसंगतता का आधार ढ़ूंढता है।"
मैं पूरी तरह सहमत हूँ । क्रोधित व्यक्ति खुद ही अपने आप को जीत नहीं पाता - तो पाप पर कैसे जीतेगा ? कल्याण किसका और कैसे करेगा ?
और यह भी सुज्ञ जी ने कहा " मुझे लगता है मन्यु को परिभाषित करने के लिए यह आसान हो सकता है कि एक क्रोधाभासी भाव जिसमें कायरता (विवशता, परवशता परिणामो का भय आदि) और अविवेक नहीं होता 'मन्यु' कहलाता है। "
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इस आलेख श्रुंखला से मुझे दो बातें स्पष्ट हुईं - एक तो यह की - सात्विक क्रोध जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं । दूसरी बात यह की "सहना" का अर्थ दुखी महसूस करते हुए दुखद स्थिति को खींचते चले जाना नहीं । बल्कि इतनी विशालता है कि व्यक्ति पर छोटी मोटी बातें असर ही न कर सकें । यदि अन्याय हो रहा है - स्वयं पर, या आस पास, या समाज में - तो उसका क्रोध रहित विरोध और प्रतिकार - निर्लिप्त रहते हुए - मन्यु है - क्रोध नहीं ।
आलेख श्रुंखला के आखिरी भाग में एक बहुत ही उपयुक्त सारिणी है - जिसमे क्रोध और मन्यु का बिन्दुवार तुलनात्मक अध्ययन है । इस अध्ययन के अधिकतर बिंदु काफी आसानी से समझ में आते हैं । क्रोध - स्वार्थ वश आया एक क्षणिक उबाल जैसा आवेश है - जिस से मनुष्य अशिष्ट हो कर, झुंझला कर, मूर्खतापूर्ण व्यवहार करता है । किन्तु मन्यु स्वार्थ नहीं, परमार्थ में उपजता है, इसमें स्थायित्व है, विवेकपूर्ण कर्म है । क्रोध में हार जीत की भावना ही प्रमुख है - जबकि मन्यु में कर्तव्यभाव की प्रधानता है । "सुख दुखे समे कृत्वा - लाभालाभौ जयाजयौ " के साथ कर्तव्य कर्म होता है मन्यु ।
गीता में श्री कृष्ण धर्म (कर्त्तव्य) के लिए साक्षी और निमित्त मात्र हो कर युद्ध करने को कहते हैं | क्रोध / बदला / द्वेष आदि के लिए नहीं | महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले - जब कृष्ण हस्तिनापुर जाने वाले थे शान्ति सन्देश लेकर - तब सिर्फ युधिष्ठिर ही सहमत थे उनसे, उनके प्रयास करने के इरादे से । बाकी चारों भाई और द्रौपदी नाराज़ थे | द्रुपद, शिखंडी और धृष्टद्युम्न भी सहमत नहीं थे । ये सब "क्रोध" के वश युद्ध को तत्पर थे । भीम कह रहे थे मेरी प्रतिज्ञा का क्या होगा ? द्रौपदी कहती थीं की मेरे खुले केशों का क्या होगा | किन्तु कृष्ण ने कहा था कि तुम्हारी प्रतिज्ञा की कीमत पर यदि शान्ति मिले - तो समझना, शान्ति बड़ी सस्ती मिली | द्रौपदी से कहा कि क्या तुम्हारे सुन्दर केशों में इतनी शक्ति है की वे उन अगणित लाशों का वजन उठा सकें जो इस युद्ध में गिरेंगी ? अर्जुन और भीम का क्रोध लाचारी से उत्पन्न हुआ था | फिर युद्ध शुरू होने के बाद ये ही अर्जुन प्रिय जनों के प्राणों के खोने से डर कर कायरता को प्राप्त हुए - क्योंकि वे मन्यु के साथ नहीं, बल्कि क्रोध के उबाल से युद्ध में उतरे थे | तब कृष्ण ने उन्हें क्रोध नहीं, कर्तव्य भाव से युद्ध की प्रेरणा दी | क्रोध नासमझी से उपजा हो सकता है, लाचारी से भी और कायरता से भी । क्रोध के उपजने की जड़ में अहंकार / काम / क्रोध / लोभ / मोह कुछ भी हो सकता है ।
मेरे विचार में superiority complex या inferiority complex भी क्रोध के कारक हो सकते हैं ।
Superiority complex अर्थात झूठी श्रेष्ठता के अवधारणा ( अहंकार ?) की वजह से, इससे ग्रसित व्यक्ति अपने विचारों को दूसरो के विचारों से श्रेष्ठ मान कर अपनी विचारधारा को सारे समाज पर थोपने का प्रयास करेगा - और स्वाभाविक ही है की इसमें सफल नहीं होगा | न इस जनतंत्र के समय में, न पुराने राजतंत्र के समय में (राजा और मंत्रियों के अलावा बाकी नागरिक जन तब भी बराबर माने जाते होंगे | न राम राज्य में, न रावण राज्य में | जो सच ही में श्रेष्ठ हों, उनकी बात और है - क्योंकि उनकी बातें लोग follow करते हैं - जैसे - सुभाषचंद्र बोस जी | मैं सच्ची superiority की नहीं, false सुपेरिओरिटी काम्प्लेक्स की बात कर रही हूँ | इस असफलता से जनित पराजय, निराशा और कुंठा से फिर क्रोध आएगा |
Inferiority complex अर्थात हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति अपने ही मन में यह माने बैठा होगा की मैं हीन हूँ, दूसरों से कमतर हूँ | तब - दूसरे उसे भले ही नीचा न दिखा रहे हों, उसका अपमान न कर रहे हों, तब भी उसे बारम्बार यह भ्रान्ति होती रहेगी की वह बारम्बार अपमानित किया जा रहा है | इससे जन्म लेगी कुंठा और कुंठा से जन्म लेगा क्रोध |
आदरणीय सुज्ञ जी के दोनों आलेख क्रोध के जन्म से उसके परिणाम तक, और उस पर नियंत्रण आने के तरीकों पर चर्चा करते हैं । यह बात वहीँ से उद्धृत कर रही हूँ "जब आपका अहं स्वयं को स्वाभिमानी कहकर करवट बदलने लगे, सावधान होकर मौन मंथन स्वीकार कर लेना श्रेयस्कर हो सकता है।" यह बहुत ही सूक्ष्म बात पकड़ी है उन्होंने - अक्सर हम अहंकार को स्वाभिमान समझ कर उसे बढाते जाते हैं, जैसे कोई सांप को आस्तीन में पाले । यही सांप बड़ा होकर अपना विष हमारे भीतर घोल देता है ।
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम "भले"या "निरहंकारी" बनने/ कहलाने के लिए अंधे हो जाएँ । सुज्ञ जी के ही शब्दों में : "किसी की निंदा करना बुरा है। किन्तु, भले और बुरे में सम्यक भेद करना उससे भी कहीं अधिक उत्तम है । .... जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है। विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोडना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है।"
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किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि हम "भले"या "निरहंकारी" बनने/ कहलाने के लिए अंधे हो जाएँ । सुज्ञ जी के ही शब्दों में : "किसी की निंदा करना बुरा है। किन्तु, भले और बुरे में सम्यक भेद करना उससे भी कहीं अधिक उत्तम है । .... जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है। विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोडना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है।"
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सम्बंधित कड़ियाँ
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1. क्रोध का ज्वालामुखी (रेत के महल)
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श्रीमद भगवद गीता के मूल श्लोक :
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दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् । 16.4 ।
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प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते । 16.7।
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अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः । 3.36।
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काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् । 3.37।
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ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥(2.62)
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (2.63)
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ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥(5.10)
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कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥(5.26)
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1. क्रोध का ज्वालामुखी (रेत के महल)
2. आलू और गुस्सा (रेत के महल)
3. क्रोध और पश्चाताप (रेत के महल)
4. जब आँखों में धूल पडी हो (रेत के महल)
5. क्रोध (सुज्ञ ब्लॉग)
6. क्रोध नियंत्रण (सुज्ञ ब्लॉग)
7. क्रोध पाप का मूल है ...,(बर्ग वार्ता)
8. मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग (बर्ग वार्ता)
9. क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है - सारांश (बर्ग वार्ता)
10. नीर क्षीर विवेक (सुज्ञ ब्लॉग)
9. क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है - सारांश (बर्ग वार्ता)
10. नीर क्षीर विवेक (सुज्ञ ब्लॉग)
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श्रीमद भगवद गीता के मूल श्लोक :
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दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् । 16.4 ।
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प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते । 16.7।
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अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः । 3.36।
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काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् । 3.37।
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ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥(2.62)
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (2.63)
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ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥(5.10)
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कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥(5.26)
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