नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
श्री सुभाष चन्द्र जी के बारे में कौन नहीं जानता ?
जानकारी विकिपीडिया हिंदी से साभार।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, श्री सुभाषचन्द्र बोस "नेताजी" नाम से भी जाने जाते हैं | इनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में मशहूर वकील जानकीनाथ बोस और उनकी पत्नी प्रभावती की नौवीं संतान और पाँचवें बेटे के रूप में हुआ था हुआ था । 18 अगस्त, 1945 को नेताजी लापता हो गए | कुछ लोग इसे इनकी मृत्यु की तिथि मानते हैं,किन्तु यह विवादित है | द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, जापान के सहयोग से नेताजी ने "आज़ाद हिन्द फौज" का गठन किया | उनके द्वारा दिया गया "जय हिन्द" का नारा, आज भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।
१९४४ में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना तक कहा जाता हैं कि अगर 1947 में नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत का विभाजन न हुआ होता।
कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखा, और उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार,भारत वापस आने पर वे गाँधी जी से मिले, जिन्होंने उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। फिर सुभाषबाबू कोलकाता आए और दासबाबू से मिले।
तब असहयोग आंदोलन चल रहा था, और दासबाबू इस का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। सुभाषबाबू भी इस आंदोलन में सहभागी हो गए । 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, स्वराज पार्टी ने कोलकाता महापालिका का चुनाव लड़ा, और जीता भी । दासबाबू कोलकाता के महापौर बने , और सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बने । सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
तब असहयोग आंदोलन चल रहा था, और दासबाबू इस का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। सुभाषबाबू भी इस आंदोलन में सहभागी हो गए । 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, स्वराज पार्टी ने कोलकाता महापालिका का चुनाव लड़ा, और जीता भी । दासबाबू कोलकाता के महापौर बने , और सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बने । सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की।1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर जब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए तब कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था । साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा था । पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष थे और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की थी ।
1928 में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी तब पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। वे अंग्रेजों से डोमिनियन स्टेटस माँगना चाहते थे । सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। यह तय हुआ कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए, और यदि एक साल में अंग्रेज़ सरकार यह मॉंग पूरी न करे, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। ऐसा ही हुआ भी, मांग पूरी नहीं की गयी । 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ जहां तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।
26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व करते हुए नेताजी पुलिस के लाठीचार्ज में घायल हुए, और गिरफ्तार हुए । सुभाषबाबू के जेल में रहते गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया । कुछ कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा नहीं दिया। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजीअंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड दे। लेकिन गाँधीजी वचन तोडने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तरिकों से बहुत नाराज हो गए थे ।
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू बहुत रोये और शव का अंत्यसंस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह माना कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया। सुभाषबाबू ने देशबंधू चित्तरंजन दास की मृत्यू की खबर मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी। कारागृह में सुभाषबाबू को तपेदिक हो गया। रिहा करने के लिए शर्त रखी गयी कि वे इलाज के लिए यूरोप चले जाए। लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त नहीं मानी । परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी कि शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाषबाबू की कारागृह में मौत हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा किया। सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।
26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व करते हुए नेताजी पुलिस के लाठीचार्ज में घायल हुए, और गिरफ्तार हुए । सुभाषबाबू के जेल में रहते गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया । कुछ कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा नहीं दिया। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजीअंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड दे। लेकिन गाँधीजी वचन तोडने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तरिकों से बहुत नाराज हो गए थे ।
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू बहुत रोये और शव का अंत्यसंस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह माना कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया। सुभाषबाबू ने देशबंधू चित्तरंजन दास की मृत्यू की खबर मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी। कारागृह में सुभाषबाबू को तपेदिक हो गया। रिहा करने के लिए शर्त रखी गयी कि वे इलाज के लिए यूरोप चले जाए। लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त नहीं मानी । परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी कि शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाषबाबू की कारागृह में मौत हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा किया। सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।
यूरोप में सुभाषबाबू ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए भी अपना कार्य जारी रखा। वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए थे । सुभाषबाबू के यूरोप में रहते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले । बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से भी मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने "पटेल-बोस" विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की थी । बाद में विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया। विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत पर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ति गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट की ।
1934 में सुभाषबाबू को अपने पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली, तब वे हवाई जहाज से कराची होकर कोलकाता लौटे। कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मौत हो चुकी है । कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हे गिरफ्तार किया और कई दिन जेल में रखकर, वापस यूरोप भेज दिया।
1934 में सुभाषबाबू को अपने पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली, तब वे हवाई जहाज से कराची होकर कोलकाता लौटे। कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मौत हो चुकी है । कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हे गिरफ्तार किया और कई दिन जेल में रखकर, वापस यूरोप भेज दिया।
1938 में कांग्रेस का ५१वा वार्षिक अधिवेशण हरिपुरा में तय हुआ था। इस अधिवेशण से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया था । अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी बनाई । 1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया थातब सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने, चीनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया था ।
युरोप में द्वितीय विश्वयुद्धके बादल छाए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने , जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए प. सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकूर, प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर, बहुत सालो के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव हुए ।
सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए। मगर चुनाव के साथ बात खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने इसे अपनी हार बताकर, अपने साथियों से कहा कि अगर वें सुभाषबाबू से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ रहे। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर, 29 अप्रैल, 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया। 3 मई, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।
द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम को तीव्र करने के लिए, जनजागृति शुरू की। अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहितफॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपवास शुरू किया। सरकार ने उन्हे रिहा तो कर दिया, मगर उन्हे उनके ही घर में नजरकैद रखा। 16 जनवरी, 1941 को वे पुलिस को चकमा देकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर, फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार की मदद से सुभाषबाबू काबुल की ओर निकल पडे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह सफर पूरा किया। काबुल उन्होने रूसी , जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।
बर्लिन में सुभाषबाबू रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान वे नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। 29 मई, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया। कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था, जिस में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से बात की जिसके फलस्वरूप हिटलर ने "माईन काम्फ" की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
सुभाषबाबू को पता चल गया कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलनेवाला । इसलिए 8 मार्च, 1943 को वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर, मादागास्कर के किनारे तक आये । वहां से वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनडुब्बी के दौरान, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग तक लाई।
पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस नेभारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंपा ।
जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। नेताजी ने जापान की संसदडायट के सामने भाषण किया। 21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में "अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद" (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक मदद करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।"
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने "चलो दिल्ली" का नारा दिया। फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का "शहीद" और "स्वराज" द्वीप नामकरण किया। फौजो ने इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पीछे हटना पडा। जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। लेकिन नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मील चल कर जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श बनाया ।
6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना का उद्येश्य बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । इस प्रकार, नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी ने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया । 18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये। 23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी, कि 18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी। नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किये । दोनो बार यही नतीजा निकला, कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन, इन दोनो आयोगो ने ताइवान देश की सरकार से तो बात ही नहीं की। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। कई जगहों पर नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है।
18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
आज 18 अगस्त के दिन सुभाष बाबु को शत सहस्र नमन , वंदन ।
जबरदस्त लेख| बहुत सी जानकारियाँ पहली बार मिलीं|
जवाब देंहटाएंसिर्फ नाम के नहीं, सचमुच के नेताजी थे सुभाष चन्द्र बोस|
जन जन के ह्रदय में नेतृत्व की सच्ची मिसाल रहे नेताजी को शत शत नमन|
sarthak jankari prapt hui
जवाब देंहटाएंनेताजी का उत्कृष्ट जीवनवृत, देशप्रेम का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप!! अवदान ही अवदान!! सादर नमन!!
जवाब देंहटाएंनेताजी को शत-शत नमन!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर जानकारीपूर्ण प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंनेता जी के व्यक्तित्त्व से अच्छा परिचय कराया है आपने.
आपका आभार शिल्पा बहिन.
नेता जी को शत शत नमन.
नेताओं से भरे इस देश में भी नेताजी एक ही हुए हैं। उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि!
जवाब देंहटाएंएक वो नेता थे.... एक आज के नेता हैं!
जवाब देंहटाएंआपके संकलन को नमन...
आशीष ढ़पोरशंख
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द टूरिस्ट!!!
netaji ke janmdin par unhe naman
जवाब देंहटाएंएक वो नेता थे. एक आज के नेता हैं!आपके संकलन को नमन.नेता जी को शत शत नमन.
जवाब देंहटाएंनेताजी के बारे में जानकारी देने के लिये आभार। बहुत अच्छा लिखा आपने।
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