यह कविता निरामिष ब्लॉग की एक पोस्ट पर टिप्पणी में लिखी थी - सोचा यहाँ शेयर कर लूँ :
शब्द आइना भर ही तो होते हैं
विचारों का जिनमे बिम्ब दीखता है |
जैसे शांत झील के ठहरे जल में
सूर्योदय का प्रतिबिम्ब दीखता है |
पानी झील का छेड़ दे कोई तो
सूरज खम्बा दिखने लगता है |
शब्दों की परिभाषाओं मोड़ वैसे ही
पाठक मूल विचार बदल देता है
आईने को तोड़ देने भर से
नायक बदल नहीं जाता है |
पत्र के शब्द मोड़ देने से लेकिन
मजमून बदल दिया जाता है |
शब्द को सौंप दिए ख्याल जो अपने,
शब्द अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं |
पढने सुनने वाले पर उन्हें मरोड़े तो
शब्द कुछ भी कर नहीं पाते हैं|
शब्द आइना भर ही तो होते हैं
विचारों का जिनमे बिम्ब दीखता है |
जैसे शांत झील के ठहरे जल में
सूर्योदय का प्रतिबिम्ब दीखता है |
पानी झील का छेड़ दे कोई तो
सूरज खम्बा दिखने लगता है |
शब्दों की परिभाषाओं मोड़ वैसे ही
पाठक मूल विचार बदल देता है
आईने को तोड़ देने भर से
नायक बदल नहीं जाता है |
पत्र के शब्द मोड़ देने से लेकिन
मजमून बदल दिया जाता है |
शब्द को सौंप दिए ख्याल जो अपने,
शब्द अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं |
पढने सुनने वाले पर उन्हें मरोड़े तो
शब्द कुछ भी कर नहीं पाते हैं|