बहुत समय पहले सह्याद्रि पर्वतों पर, डाकिनी के वनों में, भीम नामक असुर अपनी माता कर्कटी / कैकटी के संग रहता था। वह बहुत क्रूर था और सब तरफ उसका भय व्याप्त था। किन्तु उसे अपने विषय में एक प्रश्न हमेशा सताता था - कि उसके पिता का नाम क्या है। आखिर एक दिन भीम ने अपनी माता से इस विषय में प्रश्न किया।
उसकी माता ने बताया कि वह लंकेश्वर के छोटे भाई कुम्भकर्ण का पुत्र है। विवाह के बाद कुम्भकर्ण ने वचन दिया था कि वे उन्हें लंका ले जाएंगे किन्तु ऐसा होता, इससे पहले ही युद्ध में श्री विष्णु के अवतार राम ने उनका वध कर दिया। इसीलिए हम यहां वन में रहते हैं। यह सुन कर भीम बहुत क्रोधित हुआ और उसने ब्रह्मा जी की तपस्या की ठानी।
नारायण से बदला लेने के लिए भीम ने ब्रह्मा जी को पाने के लिए कड़ी तपस्या की और आखिर वे उसके सामने प्रकट हुए। भीम ने वरदान लिया कि वह अनंत शक्तिवन्त हो और श्रीहरि भी उसे न मार सकें। इस वरदान तो वह और भी क्रूर हो गया और सब तरफ त्राहि त्राहि मचाने लगा। इंद्र को हराकर स्वर्गाधिपति होने के बाद उसने कामरूपेश्वर शिवभक्त राजा सुदक्षिण को भी बंदी बना लिया।
ऋषि मुनियों और साधुओं पर अत्याचार होते देख देवगण ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी उन्हें शिव जी के पास ले कर गए। उनकी प्रार्थना पर शिव जी ने कहा कि मैं जानता हूँ कि भीम के अत्याचार बहुत बढ़ गए हैं, और मेरे परम भक्त कामरूपेश्वर राजा सुदक्षिण भी उसीकी कैद में हैं। मैं शीघ्र ही इस असुर का संहार करूंगा। यह सुन कर देवगण प्रसन्न मन से लौट गए।
इधर भीम के बंदी गृह में सुदक्षिण पार्थिव शिवलिंग बना कर उसकी आराधना करने लगे। जब यह बात आततायी को पता चली तो वह क्रुद्ध होकर वहीँ आ गया। उसने राजा सुदक्षिण से कहा कि वे शिवलिंग की नहीं उस (भीम) की आराधना करें। कामरूपेश्वर ने मना कर दिये तो क्रोध में उसने अपनी तलवार से शिवलिंग को तोड़ने का प्रयास किया। किन्तु तलवार शिवलिंग को छू पाती इससे पहले ही उसमे से श्री शंकर महादेव प्रकट हुए। उनकी हुंकार भर से ही वह असुर वहीँ भस्म हो गया।
कहते हैं शिव जी के पसीने से भीमरति नदी बनी। सभी संत देव आदि ने आकर शिव जी की प्रार्थना की और उन्हें वहीँ रहने की आग्रह किया। तब शिव जी वहां ज्योतिर्लिंग रूप में निवास करने लगे।
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