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सोमवार, 28 जनवरी 2013

लाला लाजपत राय




पंजाब केसरी के बारे में हम सब ही जानते हैं । 28 जनवरी को जन्मे लालाजी एक लेखक और अडिग नेता थे । कोंग्रेस के नरम रवैये के साथ सहमत न रहने से, लालाजी ने कोंग्रेस के "गरम दल" का निर्माण किया, जो "लाल बाल पाल" समूह भी कहलाया ( गरम दल में लाला लाजपत राय के साथ बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे)

साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में पुलिस लाठीचार्ज से ये बुरी तरह घायल हुए और 17 नवम्बर 1928 को इन्होने देह त्याग कर दिया

सादर श्रद्धांजलि - यह शब्द वह व्यक्त नहीं कर सकता जो इन महान देशभक्तों के लिए मेरे मन में है, लेकिन बेहतर शब्द न होने से सिर्फ सादर श्रद्धांजलि ही कह सकती हूँ ।

लिंक 1
लिंक 2
लिंक 3

बुधवार, 23 जनवरी 2013

चित्र के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न

नीचे दिए चित्र के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न हैं - ज़रा हाँ या ना में उत्तर दीजिये आप अपने कारण भी लिखना चाहें तो लिखें - यह सिर्फ एक जोक था - सिर्फ हाँ या न में लिखे की कंडीशन नहीं है 

वैसे - जो उत्तर सबसे पहले आपके मन में आएगा वह शायद "हाँ"  ही होगा

फिर आप सोचेंगे - इतना सिम्पल होता तो मैं यह क्यों पूछती - फिर आप शायद थोडा सोच कर उसका उत्तर "ना" कहेंगे -

और थोडा सोचें तो शायद फिर से हां


1. is the sun present in the above picture ?

2. was the sun above the horizon when this picture was clicked ?

3 while clicking this was i seeing the sun ?

4.was the sun in the sky when i took this photo ?

5. is it sunrise or sunset (well yes or no ans is not possible - so two q)
          5a. is it sunrise ?
                       5b is it sunset ?

आदि आदि ।

सोचिये - उत्तर बाद में बताऊंगी :)

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24/1/13

अब उत्तर लिखे जाएँ ? यदि आप आज पहली बार यह पोस्ट पढ़ रहे हैं, तो इससे आगे आज न पढ़िए - कल पढ़ लीजियेगा । सोच देखिये, आप क्या उतर सोचते हैं ?

चलिए शुरू करते हैं

पहला जवाब तो सभी प्रश्नों का हाँ ही आएगा । लेकिन, क्योंकि यहाँ पहले ही पहेली सी बात हुई है, इसलिए हम सब उल्टा सोचना चाह रहे हैं - लेकिन नॉर्मली इस चित्र का इनमे से पहला जवाब "हाँ" ही है ।
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1. is the sun present in the above picture ?
Ans  1. of course it is present .
या ? शायद नहीं ?
Ans 2. ध्यान से सोचा जाए - तो सूर्य किसी भी चित्र में प्रेजेंट हो सकता है क्या ? सूर्य जी महाराज तो एक ही हैं, चित्र में तो दूर - वे तो धरती तक पर नहीं हैं । चित्र में उनकी सिर्फ इमेज है - स्वयं वे नहीं :)
तो थोडा सोचने के बाद उत्तर "नहीं" है
Ans 3. एक ग्रुप फोटो में हम कहते हैं - ये महात्मा गांधी हैं - तो बोलचाल की भाषा में नायक का चित्र ही नायक कहलाता है । जैसे हम अपने ड्राइंग रूम में लगे केलेंडर को राम जी कह कर शीश नवाते हैं - नहीं ? और इस चित्र के नायक तो सूर्य जी ही हैं - नहीं ?
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2. was the sun above the horizon when this picture was clicked ?

Ans  1. of course it was - दिख रहा है न क्षितिज से ऊपर???
Ans 2. ध्यान से - आपने light  के reflection और refraction के बारे में सुना होगा न ? refraction वह होता है जिसके कारण ग्लास में रखा चम्मच हमें पानी की सतह से नीचे और ऊपर अलग कोण पर मुड़ा हुआ लगता है, जबकि हम जानते हैं कि वह सीधा है, मुड़ा हुआ नहीं है । अलग अलग माध्यम में रौशनी की गति अलग होती है - तो प्रतीत होता है की रौशनी आ कहीं और से रही है - जबकि असल में वह कहीं और से आ रही है - किरणें मुड़ी हुई लगती हैं । .......... तो, जब हम सूर्योदय या सूर्यास्त देखते हैं, तब दरअसल सूरज हमारी आँख की सीध में होते नहीं हैं । वे हमारी आँखों की सीध की उस रेखा से नीच जा चुके होते हैं जो हमें धरती और सूर्य के मिलने की रेखा दिखती है - लेकिन क्योंकि सूर्य की किरणें खाली अंतरिक्ष और हमारे वायुमंडल से हो कर हम तक पहुँचती हैं - तो वे जैसे जैसे वायुमंडल की ऊपरी परतों से धरती के निकट को आती हैं, हवा गाढ़ी होती चली जाती है। और रौशनी की गति लगातार बदलती है । तो किरनें सीढ़ी रेखा में नहीं, बल्कि घूमती हुई हमारी आँख तक पहुँचती हैं और सूर्य को हम अपने नज़र से उस घुमाव की दिशा को सीधी दिशा समझते हुए अपने असली जगह से बहुत ऊपर देखते हैं । असल में क्षितिज से नीचे होते हैं सूर्य जी :) चित्र देखिये

Ans 3. अब फिर एक बार सोचिये । आपमें से अधिकतर लोग दुसरे उत्तर को पहले से जानते थे . लेकिन आगे इससे सोचिये ?
यदि सूर्य जी "क्षितिज" से ऊपर प्रतीत होते हुए भी उससे नीचे हैं, तो फिर "क्षितिज" तो खुद ही एक कल्पित जोड़ रेखा है जहां धरती और आसमान मिलते नहीं , बल्कि मिलते से "प्रतीत होते हैं" । तो जी - यह "होता" नहीं  है, बल्कि सिर्फ "आभासित" होता है । और जो आभासित होता है - वह, सीधी रेखा में नहीं होता । असल में  रौशनी भले ही सीधी रेखा में चलती है, किन्तु आभासित क्षितिज को हम अपने आसमान में हवा की उन्ही परतों के पार देख रहे हैं - जो सूर्य की रेखाओं को हमें मुड़ा हुआ दिखा रही है । तो क्षितिज भी धरती पर अपनी स्थिति से tangential रेखा की सीध में नहीं है - वह खुद भी उस सीढ़ी रेखा से उतना ही नीछे स्थित है जितना सूर्य देवता :)
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3 while clicking this was i seeing the sun ?
Ans 1. हाँ - बिलकुल - तभी तो चित्र में आया है न ?
Ans 2. नहीं जी - कोई भी अपने मोबाइल से फोटो खेंचते हुए विषय वस्तु को नहीं देख रहा होता, बल्कि मोबाइल की स्क्रीन को देख रहा होता है की वह सीन ठीक से आ रहा है या नहीं । आपने कितने ही चित्र लिए होंगे न मोबाइल से ? कभी आप अपने दोस्त को देखते हैं जिसका चित्र के रहे हैं? या सिर्फ मोबाइल की स्क्रीन को ? :) :)
ANS 3. फिर सोच देखिये एक बार - प्रश्न फिर से पढ़िए । प्रश्न है - "while clicking this was i seeing the sun ?" was i "seeing" the sun  - looking at the sun नहीं पूछा है । प्रश्न ही नहीं उठता - सूर्य जी इतने ब्रिलियंट और बड़े हैं - मैं भले ही मोबाइल स्क्रीन को "देख" रही थी, लेकिन सूर्य जी मुझे "दिख" तो रहे ही थे - संभव ही नहीं की मोबाइल के पीछे सूर्य हों तो वे न "दिखें" भले ही मैं मोबाइल पर नज़र रखी हूँ, किन्तु वे महाराज दिखेंगे तो अवश्य । :) :)
(वैसे इस प्रश्न में "I " भी एक खेल है - यह भी हो सकता था न कि चित्र मैंने न लिए हो ? :) किसी और ने लिए हों चित्र और उस वक्त मैं कही और रही होऊं ? "मैं" उस समय सूर्य जी को न देख रही होऊं ?)
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4.was the sun in the sky when i took this photo ?
Ans 1. हाँ - वे वहां थे - तभी तो दिख रहे हैं न ?
Ans 2. "sky" शब्द "अंतरिक्ष" शब्द से अलग है । नार्मल भाषा में स्काई या आकाश हमारे धरती के वातावरण के लिए प्रयुक्त होता है - अंतरिक्ष का अर्थ स्पेस होता है और सूर्य देवता जी स्पेस में हैं ।
Ans 3. ऊपर का ans 2.सिर्फ एक टेक्नीकल लोचा है - जैसा कि मुन्नाभाई जी के दिमाग में केमिकल लोचा हुआ था तो उन्हें सब ओर गांधी बापू नज़र आने लगे थे - गांधी बापू कहीं थे नहीं । क्या यार - यह अब स्काई और स्पेस को सेपरेट करना कुछ ज्यादा ही टांग खिंचाई हो गयी
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5.
Ans 1. sunset  है ।
Ans 2. अरे बाबा सूर्य जी न सेट होते हैं, न राइज होते हैं - यह सब हमारी नज़र और भाषा का खेल है - सूरज देवता हमेशा अपनी जगह पर ही स्थित रहते हैं ।
Ans 3. तकनीकी तरह से यदि कहा जाए - तो उस वक्त भारत में sunset दिख रहा था, लेकिन धरती के किसी और भाग में - शायद पसिफ़िक ओशन पर - सनराइज दिख रहा होगा - क्योंकि हर पल सूर्य को हम यदि एक जगह से पूर्व में उगता देखते हैं तो पश्चिम में कहीं और सनराइज हो रहा होता है ।
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कुछ ज्यादा ही हो गया - नहीं ? बस ऐसे ही मज़ाक कर रही थी । लेकिन असल में यह सनसेट के समय लिया था मैंने - और ऑलमोस्ट सभी इसे सनराइज ही कह रहे हैं - फेसबुक पर भी इसी चित्र पर वाणी जी ने कहा "sunrise or sunset कई बार एक जैसे दिखते हैं !" तो मैंने कहा "bilkul - ab main is par ek post ...और पोस्ट लिख दी - यह सिर्फ एक मज़ाक था - तो इसे बहुत सीरियसली न लिया जाए प्लीज़ 

रविवार, 13 जनवरी 2013

सभ्यता शासन सुरक्षा क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया 2


यह श्रंखला सिर्फ अभी की आपात स्थितियों (और यूँ तो देखा जाए तो हमेशा ही हम मानव आपात स्थितियों में ही रहते हैं, क्योंकि हम में ही ऐसी स्थितियों को जन्म देने वाले जन भी बसते हैं) के ही सन्दर्भ में नहीं है, बल्कि यह मेरा अपना प्रयास है समझने और कहने का कि  समाज और क़ानून व्यवस्था के मूल में क्या है ।

 पिछला भाग 
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पिछले भाग की टिप्पणियों में ये बातें आयीं, न पढ़ना चाहें तो सीधे नीचे आज की कड़ी पर चले जाएँ ।

1. लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था है और उसका नाम है, "बेहतर लोकतन्त्र"। लोक को परिपक्व होना पड़ेगा और तंत्र को सक्षमसहमत हूँ ।
2. मैं गलत थी जब मैंने कहा कि लिखने से फर्क नहीं आएगा - सभी ने कहा कि लिखने से फर्क अवश्य आएगा - so, i stand corrected...
3.समाज परिवर्तन की लहर अपने अंदर से ही पहल करने से आएगी ..- सहमत हूँ ।
4.
* हम अपने स्तर पर जो भी जागरूकता समाज में ला सकते हैं, लानी चाहिए, ब्लॉग पर लिखकर या अख़बारों में, ........ माध्यम से अपनी बात रख सकते हैं.अब इस बात से सहमत हूँ । 
* शराब, ड्रग्स और दूसरे मादक पदार्थ बंद करने होंगे - सहमत हूँ ।
* व्यवस्था में जो खामियां हैं उनको दूर करने के प्रयास सरकार भी कर रही है हमें उसका भी स्वागत करना चाहिए. - सहमत हूँ ।
5. जब हर ज्ञात तरीके के लिए मैं यह कह दे रही हूँ कि  "ऐसे भी नहीं और वैसे भी नहीं, भीतर से नहीं, बाहर से नहीं लिखने से नहीं ब्लॉग पोस्ट से नहीं, की-बोर्ड खटखटाने से नहीं" तब सुझाव की दुविधा और बढ़ जाती है- सहमत हूँ ।
6.
'लोक' (समाज) को वही तंत्र मिलता है जिसका वह हकदार होता है, तंत्र कहीं बाहर से नहीं उतरता, वह लोक में/से ही जनमता-पनपता है..- सहमत हूँ ।
केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं... इस बात से मैं असहमत हूँ ।
7. negative elements among us who owing to their own prejudices divert the attention from the original issuesसहमत हूँ
8.  बेहतर लोकतंत्र के सबसे जरूरी कदम है..चुनाव सुधार - सहमत हूँ ।
9. जहाँ विचार आमंत्रित हों वहाँ टिप्पणी पर मॉडरेशन मुझे तो अच्छा नहीं लग रहा।इस बात से मैं असहमत हूँ
10. अपनी बात कहती रहिये। बात का असर होगा जरूर।  - अब इस बात से सहमत हूँ ।

सभ्यता शासन सुरक्षा क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया - इस सब का कारण क्या है, आवश्यकता क्यों पड़ी होगी?

अब आगे 
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पहली बात तो यह है कि प्रजाति की ही तरह हम मानव भी - स्त्री और पुरुष दोनों ही - शारीरिक रूप से एक ही जैसे बनाए गए हैं / बन गए हैं ( आप इश्वर को मानते हैं / या एवाल्युशन थियरी को  इस पर निर्भर है ), सिर्फ प्रजननांगो को छोड़ कर ।

फिर , हर प्रजाति में अगली पीढ़ी की उत्तरजीविता (survival) के लिए आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए जिन चीज़ों की ज़रुरत है उसकी जटिलता के अनुसार प्रजातियों की अलग अलग मानसिकताओं का निर्माण हुआ शायद ।

कीड़े मकौड़े अंडे देते हैं, और इतनी संख्या में कि  प्रजाति के लुप्त हो जाने की आशंका / जनसंख्या के बहुत कम होने का ख़तरा कम है - इसलिए शायद उन्हें पता भी नहीं होता कि अंडे दिए कहाँ थे, न भावनात्मक लगाव ही होता है, (वैसे भावनात्मक लगाव यूँ तो "भावनात्मक" होता है, लेकिन जिन प्रजातियों में बच्चों को उत्तर्जीविका के लिए माता पिता की देख रेख की आवश्यकता अधिक हो, उन्ही प्रजातियों में यह "भावनात्मक लगाव" उतनी ही अधिक तीव्रता से मिलता है ) ।

फिर कुछ प्रजातियाँ कम संख्या में अंडे देती हैं , तो उन्हें कुछ सुरक्षित स्थान पर देने का कष्ट उठाती हैं कम से कम, लेकिन इसके आगे कोई भावनात्मक लगाव नहीं दिखता, अण्डों में से जो बच्चे निकलते हैं, वे सर्वाइवल के लिए हम मानवों के बालकों से कहीं अधिक सक्षम होते हैं ।

इससे आगे कुछ प्रजातियाँ (जैसे चिड़िया) अंडे देती हैं, किन्तु बच्चे उड़ना सीख कर आत्म निर्भर न होने तक उनका ख्याल रखती हैं । तब तक भावनात्मक लगाव काफी तीव्र होता है, किन्तु एक बार बच्चे उड़ने लायक हो जाएँ तब यह कम हो जाता है, संतान की संतान के साथ तो कोई लगाव बिलकुल ही नहीं दिखता ।

स्तनधारी जीव न सिर्फ पूर्ण विकसित शिशु को जन्मते हैं, बल्कि उनके समझदार (सर्वाइवल के लायल) होने तक माँ उनका ध्यान रखती है । जैसे कुत्ते और बिल्ली । फिर अधिक इंटेलिजेंस वाले सामाजिक प्राणी जैसे हाथी - बच्चे बड़े हो जाने पर भी झुण्ड में ही रहते हैं, और न सिर्फ माता पिता, बल्कि पूरा झुण्ड ही एक दूजे की सहायता करता है । दूसरी ओर , एक मानव बालक को , मानसिक स्तर अधिक होने से , अधिक ज्ञान और शिक्षा की आवश्यकता है ।

मानवों में, न सिर्फ सर्वाइवल, बल्कि उच्च बौद्धिक स्तर होने की वजह से, ज्ञान, प्रेम, सम्बन्ध, और शिक्षा आदि की भी आवश्यकताएं हैं । इसीलिए शायद, जहां अधिकतर प्रजातियाँ सिर्फ  शरीर से जन्मी एक या दो संततियों को जन्मने और पाल पोस कर आत्मनिर्भर बनाने लायक समय के लिए ही एक स्वस्थ्य शरीर में जीवन लेकर आती हैं, वहीँ मनुष्य एकमात्र ऐसी प्रजाति है जो, अपनी संतान ही नहीं, बल्कि संतान की संतान के साथ भी जुडी है । मानव जाति , संतान की संतान के आत्मनिर्भर हो कर उसकी संतान को जन्म देने तक भी  शारीरिक , मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ्य जीवन काल लिए है ( इसमें अपवाद हो सकते हैं ) - क्योंकि ऐसी कई बातें हैं जो उतने अनुभव के बाद बेहतर समझाई जा सकती हैं । प्रकृति में यह अकारण नहीं हुआ है - इसके पीछे कारण हैं ।

 यह प्रकृति में शायद इसलिए हुआ हो कि  मानव की सन्तति को जितनी सशक्त बुनियादी नींव की ज़रुरत है आगे की इमारत बनाने के लिए, वह सिर्फ माँ, या फिर सिर्फ माँ और पिता से नहीं हो सकता, क्योंकि सिवाय शरीर के रखरखाव के भी बहुत कुछ है जो हमें सीखना होता है ।

मानव समाज में , सन्तति और साथी के अतिरिक्त भी भावनात्मक सम्बन्ध हैं। विवाह, धर्म, आदि की संकल्पनाएँ शायद उच्च भावनात्मक स्तर और उच्च बुद्धि स्तर की सहज प्रगति के लिए आवश्यक थीं । सिर्फ एक पीढ़ी जितना सीख सकती है अपने जीवन के अनुभवों भर से, उतनी ही जानकारी से अधिक प्रगति करने की क्षमता वाली मानव बुद्धि बेकार चली जाएंगी , यदि भौतिकी और रासायनिक वैज्ञानिक विश्लेषण, कला, गणित, सामाजिक व्यवहार, खगोल शास्त्र आदि आदि आदि की हर दिशा का गहन अध्ययन न हो सकेगा , और इश्वर की परिकल्पना को सत्य या अवास्तविक निर्धारित करने की खोजें न हो सकेंगी । 

इन में से हर एक विधा में अभिरूचि रखने वाले मनुष्य जन्म लेते हैं, और समुचित प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि  उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने निजी अनुभव से सीखने तक सीमित न रहना पड़े, बल्कि इससे पहले की पीढ़ियों द्वारा हुई शोधों से वे आगे बढ़ सकें । इसके लिए अब तक अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण भी आवश्यक था । अर्जित ज्ञान के हस्तांतरण, सामाजिक न्यूनतम आवश्यक ज्ञान आदि के लिए शिक्षा व्यवस्था आवश्यक थी , संस्कृतियाँ आवश्यक थीं ।

प्रशासन और क़ानून व्यवस्था शायद इसी का एक हिस्सा थीं, प्रगति को सुनिश्चित करने के लिए एक कदम थीं । यदि हर व्यक्ति को हर पल अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की ही चिंता करते रहना पड़े तो शिक्षा देना, शोध करना, अन्वेषण करना और कलाओं को निखारना , इस तरह के आयामों के विकास के लिए समुचित समय का प्रबंध नहीं हो सकता, और ये सभी आयाम हम में हैं । इसके अलावा, सिर्फ सुरक्षा के अलावा, प्रेम, उपलब्धि आदि की खुशियाँ , और यादें , भी हम मानवों से जुडी हैं । हम एक ऐसी प्राणी प्रजाति हैं, जो न सिर्फ अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित और प्रसन्न होते हैं, बल्कि अपने पुरानी पीढ़ियों की उपलब्धियों का इतिहास भी हमें सुख देता है, हमारी आने वाली पीढ़ी की असुरक्षा के भय से भी हम कम्पित हो जाते हैं । इसके उदाहरण हैं वे आलेख जो हमेशा "भारतीय संस्कृति की महान विरासत में गौरव लेते हैं (अतीत की उपलब्धियों का सुख) , और वे आलेख भी जो " प्रदूषण से 100 साल बाद धरती का इतना नुक्सान होगा" की परिकल्पना से चिन्तित होते हैं (आगामी पीढ़ियों की तकलीफ का भय) ।

तो - यदि समाज के हर व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा की चिंता से दूर रह कर अपने रुचिकर क्षेत्र में प्रगति करनी हो, तो आवश्यक था कि समाज सुरक्षित हो । कुछ मानदंड तय हों जिससे समाज का हर व्यक्ति भले ही सहमत न हो, किन्तु फिर भी अधिकाँश व्यक्तियों की भौतिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की सुरक्षा हो सके । वे मानदंड "सिर्फ उस कालखंड" के लिए होते और बदलते समय के साथ बदलते चले जाते, जिस समय खंड के लिए जो नियम मान्य होते, उस कालखंड की राज्य क़ानून व्यवस्था का कर्तव्य होता कि उन मानदंडों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करें । इससे बाकी समाज को इस बुनियादी चिंता से मुक्ति मिली रहे, और एक शांतिपूर्ण अस्तित्व में वे दूसरी "मानवीय"दिशाओं में अपने ज्ञान और कला की और अग्रसर हो सकें ।

क़ानून व्यवस्थाएं समय समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहीं । इस पर बातें अगले भाग में, यह भाग काफी लंबा हो गया है ।

जारी ....

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

सभ्यता शासन सुरक्षा क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया

पिछले कई वर्षों से लगता है कि हम एक समाज के रूप में लगातार नीचे को उतरते जा रहे हैं । या शायद यह हो कि हम हमेशा से इसी स्थिति में थे, लेकिन अब समझ में आने लगा है ? पिछले महीने दिल्ली में वीर ज्योति के साथ हुए वहशीपन ने सारे देश को झकझोर दिया - लेकिन - क्या सचमुच ? क्या सचमुच ही ? नहीं - शायद सब को नहीं - सिर्फ उन्हें झकझोरा जो खुद पहले से संवेदनशील थे लेकिन बातों को नज़रंदाज़ करते आ रहे थे जीवन की आपाधापी में । जो या तो संवेदना शून्य थे, या फिर उपदेशक टाइप के थे, अपने विचारों को सर्वोपरि मानने वाले थे , वे तो अपनी ही बात कहते नज़र आये , खुले या छिपे ढंग से यही कहते नज़र आये जो वे सदियों से कह रहे हैं -
कि
"जिसकी लाठी उसकी भैंस"

दुखद है, कि जब ऐसी कोई घटना होती है, तब सभ्य समाज को एक दूजे का दर्द कम करने के प्रयास करने चाहिए, इस प्रकार की घटनाओं और प्रवृत्तियों को रोकने के उपाय सोचने और करने चाहिए । किन्तु हर ऐसी मुश्किल घडी में अधिकाँश नेतागिरी करने के शौक़ीन लोग किसी के जलते घर पर अपने स्वार्थ की रोटियां ही सेंकते दीखते हैं ।

"देखा ?- मैंने तो पहले ही कहा था "
"देखा ?- पुरुष ऐसे ही होते हैं"
"देखा ?- पश्चिमी संस्कृति से लड़कियां बिगड़ रही हैं - इसलिए यह हो रहा है"
"देखा ?- हमारी अपनी ही संस्कृति इतनी गिरी हुई है - इसलिए हमारे यहाँ यह होता  है "
"देखा ?- यह" और "देखा ?- वह " .....

कई दिशाओं से यही छुपा ढंका सन्देश आया - लड़कियां कमज़ोर हैं, वे लक्ष्य हैं । पुरुष के लिए "स्वाभाविक" है स्त्री को इस दृष्टि से देखना और भोगना, और यह स्त्री की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने "स्त्रीत्व" की रक्षा करे। या तो सहम कर दब छिप कर, या शेरनी की तरह आक्रमण कर कर । यह कहते हुए उन्होंने उन सभी सद्पुरुषों और सदस्त्रियों का अपमान किया जो इस मनःस्थिति को गलत कहते हैं, जो इसका विरोध करते हैं । उन्होंने सम्पूर्ण पुरुष वर्ग को सम्पूर्ण स्त्री वर्ग से काट देने के वही प्रयास किये, जो वे सदियों से करते आये थे ।

दूसरी ओर दंड के डर से अपराध को रोकने के सुहाव हैं -
"फांसी दे दो"
"उनके साथ वही हो जो उन्होंने उस बच्ची के साथ किये"
"बन्दूक रखो और गोली मार दो"
"कराटे सिखा दो"

जितने भी सुझाव दिए गए हैं - संस्कृति के बारे में / या लड़कियों को चारदीवारी में बंदी बना रखने के / या सजा के बारे में / या बचाव के बारे में / या आक्रमण के बारे में , मुझे नहीं लगता कि इनमे से कोई भी कारगर हो सकता है । वह इसलिए की ये सभी उपाय संतुलन के विरुद्ध हैं, और यदि एक पात्र में पानी है, तो उसका स्तर यदि सब जगह बराबर नहीं रखने के प्रयास होते रहेंगे, तो हलचल होती ही रहेगा, क्योंकि पानी संतुलन में ही रह सकता है । स्त्री और पुरुष को इस तरफ या उस तरफ, ऊंचा या नीचा, यदि किसी भी तरह के भेद रखने को SOLUTION माना गया, तो वह कभी कारगर हो ही नहीं सकता ।

हमें जड़ से विवेचना करनी होगी, अपने अपने रंगीन चश्मे उतार कर । न तो मुझे वे सुझाव कारगर लग रहे हैं जो तथाकथित भारतीय संस्कृति को सब पापों से बचने के रामबाण उपाय की तरह सुझाते हैं, न ही वे जो तंत्र को पूरी तरह तोड़ कर जंगली जीवन की और लौटने की बात करते हैं । ......... न ही हर घटना पर सिर्फ कीबोर्ड खटका कर दो पोस्ट और दस कमेन्ट लिखने से कुछ होगा । .........और सबसे महत्वपूर्ण - कुछ भी नहीं करने से भी कुछ नहीं होगा ।

हमें कुछ तो करना ही होगा, और सिर्फ जो मन में आये वह कर देने भर से भी कुछ नहीं होगा, नहीं - करने से पहले हम में से जो भी सच में कुछ आउटपुट चाहते हैं - हमें एक मंच पर चर्चा कर के कोई प्लान बनानी होगी । कहते हैं न - FAILING TO PLAN IS PLANNING TO FAIL ... और स्थिति आज यह है कि हम सिर्फ "कर" रहे हैं, बल्कि कर भी नहीं रहे, सिर्फ कह रहे हैं, न कोई योजना है हमारे पास, न कुछ करने की इच्छा । यदि कुछ अचीव करना है - तो कर्म करने से पहले प्लान तो करना ही पड़ेगा । हम सब देश / विदेश के अलग अलग स्थानों पर हैं । तो एक जगह मिल कर तो बात नहीं कर सकते । इसलिए ब्लॉग पर चर्चा करना चाहती हूँ ।

आज की नयी झकझोरने वाली घटना - जो पुंछ सेक्टर की सीमा पर हुई - वह भी हमें झकझोरती है - लेकिन कितने दिन ? क्या यह पहली बार हुआ ? पिछली बार हमने कित्त्ने दिन याद रखा जो इस बार रखेंगे ? हम दामिनी को महीने भर में परे कर देते हैं और शहीदों को दो दिन में । हम अपने अपने ब्लॉग पर / फेसबुक पर एक पोस्ट लिख देते हैं और हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती है । कुछ वैसे ही जैसे आजकल डॉक्टर कहते हैं - क्रोध आ रहा है तो उसे दबाओ नहीं - उससे तो ब्लड प्रेशर बढेगा - ऐसा करो - तकिये को मार पीट कर अपना क्रोध उतार लो । तो हम भी कीबोर्ड को मार पीट कर अपना क्रोध निकल रहे हैं क्या ?

मैं नहीं मानती कि - हिन्दू धर्म के अनुसार चलने से / मुस्लिम धर्म के अनुसार चलने से / भारतीय संस्कृति (?) को उपाय मान लेने से / भारतीय संस्कृति (?) को अपराधी दर्शा देने से / बन्दूक की गोली से / निरामिष भोजन से या ऐसे ही अनेक घिसे पिटे उपायों से कुछ होगा । हमें कुछ नया ही सोचना होगा , और खुले मन से शुरुआत करनी होगी । कई बार पढ़ा है कि THERE IS NO FOOL LIKE THE FOOL WHO DOES THE SAME THING OVER AND OVER AGAIN EXPECTING TO SEE CHANGED RESULTS - जब आप वही करेंगे जो आपने कल किया था - तो वही परिणाम मिलेगा जो कल मिला था । बदलाव कैसे आएगा ?

गिरिजेश जी ने जनहित याचिका पर बहुत परिश्रम किया, और पूरी लगन से बहुत अच्छे सुझाव भी भेजे । मैं उनकी पहल का स्वागत और समर्ह्तन करती हूँ, मेरा तो दिमाग ही कुंद हो चुका था - कुछ करने को समझ ही नहीं आ रहा था । वह एक ऐसा कदम था जो अब तक कम से कम मुझे तो नहीं ही सूझा था ।

यह तो हम सभी को दिख रहा है कि कई दिशाओं में सब कुछ गड़बड़ ही चल रहा है हमारे यहाँ । और हम सभी अपने सुझाव अपने ब्लॉग पर लिखते हैं , क्यों ? तालियाँ मिलने के लिए ? ये सुझाव किसे दे रहे हैं हम ? एक दुसरे को ? क्या ऐसे हवा में पत्थर की तरह सुझाव उछाल देने से स्थितियां बदल जायेंगी ? मैं इस बारे में लगातार सोच रही हूँ, कि हम सब - हम ब्लोगर्स ही कम से कम - कुछ सोच कर एकजुट हो कर क्या कोई पहल कर सकते हैं ?

कुछ बातें मन में हैं जो लिखनी हैं - लेकिन इतना उलझा है सब मन में, इतने सारे नाज़ुक धागे टूट गए 16 दिसंबर को,कि विचार पिरोये ही नहीं जा रहे ।

न मुझे नेताओं की बात करनी है, न धर्मगुरुओं की, न पुरुषों की, न स्त्रियों की, न सेना के वीर शहीदों की, न सरकार में बैठे "कठोर शब्दों में निंदा" कर के अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करने वालों की ।

मुझे बात करनी है कि , साफ़ दिख रहा है कि हमारा तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा । क्या हम सब के लिए यह सोचने का समय नहीं आ गया कि पूरे सिस्टम को ही फिर से देखें और समझें - कि , जो लोकतंत्र अमेरिका में काम कर रहा है - क्या वह हमारे देश में काम कर रहा है ? यदि नहीं, तो क्या मूल भूत अंतर हैं हमारी मानसिकताओं में ? या यह कि वे क्या सही कर रहे हैं और हम क्या गलत कर रहे हैं कि यह काम नहीं कर रहा ? क्या हम कुछ कर सकते हैं ? 

मैं एक एक कर के दुनिया में जारी अलग अलग प्रशासन विधियों पर बात करना चाहूंगी और एक्स्प्लोर करना चाहूंगी कि  हमारे देश के लिए क्या इस लोकतंत्र से बेहतर कुछ उपाय हो सकता है ? अभी तो मुझे लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ लगता है, किन्तु शायद दूसरी शासन विधियों के कुछ गुणों से इस तंत्र को हाइब्रिडाईज करने की आवश्यकता है ?

पोस्ट्स के नीचे कमेंट्स में मैं अभी तक दोनों और से आये BIASED सुझावों पर बात करूंगी और बताऊंगी कि क्यों मेरे नज़रिए से वे कारगर नहीं हो सकते । फांसी की सजा / केमिकल केस्त्रेशन/ और कोई न्रशंस दंड पर मैं इस श्रंखला की पूरी पोस्ट डेडीकेट करूंगी, कि क्यों मुझे वह कारगर नहीं लगता

मेरा ब्लॉग कोई ख़ास पढ़ा नहीं जाता । मैं इस में अपने किसी भी ऐसे ब्लोगर साथी से मदद चाहूंगी जिनका ब्लॉग अधिक लोकप्रिय हो, जिस पर लिखने से बातें अधिक लोगों तक पहुंचें, और जो मेरी यह चर्चा अपने ब्लॉग पर जारी रख सकें , या मुझे अपने ब्लॉग पर यह चर्चा करने की अनुमति दे सकें । यदि आपमें से कोई इसके लिए मुझे सहयोग देंगे तो मैं आभारी होउंगी । यह पोस्ट श्रंखला यहीं चलेगी, रेत के महल पर, सिर्फ आपके ब्लॉग से मुझे इन पोस्ट की लिनक्स का समर्थन चाहिए होगा, या यदि आप उचित समझें तो मेरी इस श्रंखला की पोस्ट्स को को link के साथ अपने यहाँ कॉपी पेस्ट कर दें, अपने यहाँ टिप्पणियां लेते हुए उन टिप्स में आये सारगर्भित सुझाव यहाँ लिख दें ? या फिर वहां से टिप्पणियों के लिए यहाँ का लिंक दे दें ...

इस के लिए यदि आप मुझे यह सहयोग देंगे तो मैं आभारी होउंगी । नहीं भी देंगे तो आप यहाँ चर्चा में भाग लें तो आभारी होउंगी ।

लेकिन मैं आपके जो भी पुराने अजेंडे होंगे ( हिंदुत्व / संस्कृति / निरामिष भोजन / नारीवाद / पुरुष वाद / आदि आदि )- उन पर पहले से चले आ रहे सुझावों का (यह अपनाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा की तरह के सुझाव ) समर्थन नहीं करूंगी, इस बात के साथ यदि आप मुझे बिना इस तरह की पूर्व शर्तों के प्लेटफोर्म दे सकेंगे तो मैं आभारी रहूंगी ।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

बलात्कार के लिए - अखिल भारतीय - स्थायी - फ़ास्ट ट्रेक अदालतों की स्थापना

आज एक जनवरी है ।

इस दिसंबर में हमने अपने देश में नारियों के प्रति होती हुई दरिंदगी का अनुभव किया । इस नव वर्ष में आइये प्रयास करें कि,  हम में से आधी जनसँख्या, जो "नारी" हैं, उन्हें अपने मानव अधिकार मिलें । हम देवी नहीं होना चाहतीं, हम नारी भी नहीं कहलाना चाहतीं, सिर्फ मानव भर हम होना चाहती हैं, और एक मानव के रूप में निर्भय और गरिमामय जीवन चाहती हैं । 

कहते हैं, जीवन रुकता नहीं, और यह सच भी है । कुछ भी हो जाए, जीवन आगे बढ़ता रहता है, समय ठहरता नहीं और अपने बहाव में हम सब को बहाता रहता है । और उतना ही बड़ा सच यह भी है कि कुछ दरिंदों की दरिंदगी का अर्थ यह नहीं कि सम्पूर्ण मानवजाति या सम्पूर्ण पुरुष वर्ग को ही हम बुरा मान लें, या जीवन ठहर जाए, या हम समूचे समाज को दोषी ठहराने लगें । याद रखना होगा कि जो युवावर्ग दिल्ली में लाठियां और पानी की बौछारों से लड़ रहा था, वह सिर्फ लड़कियां ही नहीं थीं, वहां लड़के भी उतनी ही संख्या में थे ।

किन्तु, यह भी तो सच है न, कि हमारा जीवन भले ही आगे बढ़ गया हो, ऐसे हादसों की शिकार स्त्रियों का जीवन तो ठहर ही जाता है । उनसे उनका अपने ही जीवन और अपने ही शरीर पर नियंत्रण का अधिकार छीन लेते हैं कुछ वहशी, और हम भी - एक समाज के रूप में - उससे उसके अधिकार छीन लेने में कोई कोताही नहीं  करते।

बलात्कार सिर्फ स्त्री के प्रति अपराध नहीं है, यह वह हथियार है जिससे पूरे परिवार पर हमला होता है, यह वह डर है जिससे अमानुष मानुषों को डराते हैं, यह वह अंधी कामवासना है जो एक जीती जागती स्त्री को सिर्फ शरीर बना कर रख देती है । जब एक स्त्री के साथ यह होता है, तब सिर्फ वही आहत नहीं होती, पूरा परिवार आहत होता है, उसके भाई, पिता, जो पुरुष हैं, उन पर भी आघात होता है ।

आज के युवा वर्ग ने जाग कर जो पहल की है, उस पहल के कारण आज आशा है कि आधी आबादी अपना मानव अधिकार पा सकेगी । इन युवाओं के अथक आन्दोलन के नतीजे में कमीशन बनी है जिसने सुझाव मंगाए हैं क़ानून के विषय में ।

ई मेल: justice.verma@nic.in
फैक्स: 011- 23092675


मेरी मांग भी उसी समवेत स्वर का एक हिस्सा है -

1. बलात्कार के मुकदमों के लिए - अखिल भारतीय स्तर पर - स्थायी रूप से - फ़ास्ट ट्रेक अदालतों की स्थापना हो । 

इस विषय में गिरिजेश जी ने एक जनहित याचिका बनाई है - और इस याचिका का मैं पूरा समर्थन करती हूँ ।

क्योंकि अदालती पेटीशन अंग्रेजी में होती हैं, इसलिए अपने सुझाव जो मैंने कमीशन को भेजे हैं, वही यहाँ अंग्रेजी में लिख रही (बल्कि पेस्ट कर रही) हूँ । यदि आपको उचित लगें, तो इन्हें समर्थन दें ,न लगें, तो अपने सुझाव दें । किन्तु आज के दिन इस पर कुछ समय अवश्य दें, अपने अपने ब्लॉग पर आज के ही दिन अपने सुझाव अवश्य लगायें । शायद यह समवेत स्वर कुछ कर सके ?

1.  I ask you to bring in a legislation to bring in certain provisions for setting up of "Fast track courts" which should be
1.1 Pan India 
1.2 On a permanent basis, not to be setup only with public pressure in highlighted cases.
1.3 Dedicated to the cause of rapes, and not handling other case (unless they are free of rape cases.)
1.4 If they do take up other cases (when they are free of their own cause), the dates of such other should be adjusted whenever rape cases do come up.

2. Regarding police responsibilities, I ask you to kindly also make provisions to hold the police officers in-charge of the case answerable.
2.1 If it is found that the complainant / victim is being harassed by police officials,
2.2 Or that police officials have been bringing pressure on the complainant / victim and her family to reverse the case or cancel the complaint,
2.3 Or it is found that they troubled her and her family at the time of filing the FIR,
- then the concerned police officials should be prosecuted as accessories after the fact, with suitable punishments for the accessories, not just for corruption and dereliction of duties.

3. I am specifically asking for making provisions for fast investigation and verdict for the case, and NOT asking for any changes in the law of punishment.

4. Regarding bails 
4.1 Primarily, accused person(s) should not get bail. But if they do, then
4.2 If the accused person(s) having taken bail ask for extension of case/ furthering of dates more than a fixed number of times (maybe three times) with excuses of sudden (non pre-existing) illnesses etc,such attempts should be considered as evidence of guilt by absconding, and
4.3 A further case of harassment to the victim which should be added to the existing charge-sheet.

5. If the victim is from economically poor family, the state should bear the cost of the expenditure towards the case.
6. Any lawyers who try to intimidate the victim on the witness stand using sexually explicit questions should be named as accessories after the fact, and made to quit contesting on the behalf of accused persons in all later rape cases thereafter, or disbarred.

7. IF it is found that constitutional bodies like the "panchayat" etc have been involved in sexual harassment of women involving their private parts (as is happening in many places in India) by misusing their power and authority, the concerned members of the same should be immediately sacked from their positions and prosecuted at par with any other sexual offenders.

8. No constitutional body other than courts should have the right to take decisions on real or imagined cases, and punish the women accused with sexually explicit sentences. This is specifically to avoid sexual harassment of women by constitutional bodies by misusing their power and authority.

9. Regarding political responsibilities, I ask you to kindly also make provisions to hold the ruling government of the state / nation answerable.
9.1 If it is proved that at any given time, more than a fixed percentage (maybe 5%) ministers in the cabinet of  any chief minister or prime minister (during one elected tenure of election to election) are found guilty of rape by the honorable court of law, then the respective chief or prime minister should be disbarred from ever contesting elections again, or holding any ministries.
9.2 Any person / persons convicted of rape should be forever banned from contesting elections, even after the completion of the sentence, whatever the length and intensity the sentence decided for the case may be.
9.3 Any duly elected representative of the citizens of India (MLA, MP, Ward member, etc, or otherwise elected person), convicted by the court of law of having brought his political influence, to drop charges of rape or delay rape case proceedings, either on the victim, or her family, or police officers investigating any rape case, should be disbarred from ever contesting elections again.

10. If a rape case is not completed within a fixed maximum period (maybe one year), legal action be taken against all concerned authorities.

11. If a woman after having filed a rape complaint reverts back and cancels it, an inquiry should be initiated automatically to fix the reason why she has done so, (who ever was behind it, the accused or the supposed victim)

12. In the long term, let there be installed CCTV cameras in police stations to monitor how they treat the people approaching them to file FIR's

13. Presidential pardon applications should be inapplicable or persons convicted of rapes, whether penetrative or any other category.

14. Witness protection norms should automatically be made available to the victim and her family

आप सभी का अग्रिम आभार ।

Some LINKS , there are many more, perhaps good ones. I am sharing just a few

1. http://girijeshrao.blogspot.in/2012/12/blog-post_31.html
2. http://alpana-verma.blogspot.in/2012/12/blog-post_31.html
3. http://imjoshig.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
4. http://vanigyan.blogspot.in/2012/12/blog-post_31.html
5. http://blog.ramyantar.com/2013/01/delhi-rape-case.html#.UOJl9G9vBbE
6. http://mosamkaun.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
7. http://shrut-sugya.blogspot.in/2011/06/blog-post.html
8. http://shrut-sugya.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
9. http://uwaach.aojha.in/2013/01/there-was-no-one-left-to-speak-for-me.html
9. http://chalaabihari.blogspot.in/2013/01/blog-post.html