यह श्रंखला सिर्फ अभी की आपात स्थितियों (और यूँ तो देखा जाए तो हमेशा ही हम मानव आपात स्थितियों में ही रहते हैं, क्योंकि हम में ही ऐसी स्थितियों को जन्म देने वाले जन भी बसते हैं) के ही सन्दर्भ में नहीं है, बल्कि यह मेरा अपना प्रयास है समझने और कहने का कि समाज और क़ानून व्यवस्था के मूल में क्या है ।
पिछला भाग
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पिछले भाग की टिप्पणियों में ये बातें आयीं, न पढ़ना चाहें तो सीधे नीचे आज की कड़ी पर चले जाएँ ।
1. लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था है और उसका नाम है, "बेहतर लोकतन्त्र"। लोक को परिपक्व होना पड़ेगा और तंत्र को सक्षम - सहमत हूँ ।
2. मैं गलत थी जब मैंने कहा कि लिखने से फर्क नहीं आएगा - सभी ने कहा कि लिखने से फर्क अवश्य आएगा - so, i stand corrected...
3.समाज परिवर्तन की लहर अपने अंदर से ही पहल करने से आएगी ..- सहमत हूँ ।
4.
* हम अपने स्तर पर जो भी जागरूकता समाज में ला सकते हैं, लानी चाहिए, ब्लॉग पर लिखकर या अख़बारों में, ........ माध्यम से अपनी बात रख सकते हैं.- अब इस बात से सहमत हूँ ।
* शराब, ड्रग्स और दूसरे मादक पदार्थ बंद करने होंगे - सहमत हूँ ।
* व्यवस्था में जो खामियां हैं उनको दूर करने के प्रयास सरकार भी कर रही है हमें उसका भी स्वागत करना चाहिए. - सहमत हूँ ।
5. जब हर ज्ञात तरीके के लिए मैं यह कह दे रही हूँ कि "ऐसे भी नहीं और वैसे भी नहीं, भीतर से नहीं, बाहर से नहीं लिखने से नहीं ब्लॉग पोस्ट से नहीं, की-बोर्ड खटखटाने से नहीं" तब सुझाव की दुविधा और बढ़ जाती है" - सहमत हूँ ।
6.
* 'लोक' (समाज) को वही तंत्र मिलता है जिसका वह हकदार होता है, तंत्र कहीं बाहर से नहीं उतरता, वह लोक में/से ही जनमता-पनपता है..- सहमत हूँ ।
* केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं... इस बात से मैं असहमत हूँ ।
7. negative elements among us who owing to their own prejudices divert the attention from the original issues! सहमत हूँ ।
8. बेहतर लोकतंत्र के सबसे जरूरी कदम है..चुनाव सुधार - सहमत हूँ ।
9. जहाँ विचार आमंत्रित हों वहाँ टिप्पणी पर मॉडरेशन मुझे तो अच्छा नहीं लग रहा।- इस बात से मैं असहमत हूँ ।
10. अपनी बात कहती रहिये। बात का असर होगा जरूर। - अब इस बात से सहमत हूँ ।
अब आगे
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पहली बात तो यह है कि प्रजाति की ही तरह हम मानव भी - स्त्री और पुरुष दोनों ही - शारीरिक रूप से एक ही जैसे बनाए गए हैं / बन गए हैं ( आप इश्वर को मानते हैं / या एवाल्युशन थियरी को इस पर निर्भर है ), सिर्फ प्रजननांगो को छोड़ कर ।
फिर , हर प्रजाति में अगली पीढ़ी की उत्तरजीविता (survival) के लिए आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए जिन चीज़ों की ज़रुरत है उसकी जटिलता के अनुसार प्रजातियों की अलग अलग मानसिकताओं का निर्माण हुआ शायद ।
कीड़े मकौड़े अंडे देते हैं, और इतनी संख्या में कि प्रजाति के लुप्त हो जाने की आशंका / जनसंख्या के बहुत कम होने का ख़तरा कम है - इसलिए शायद उन्हें पता भी नहीं होता कि अंडे दिए कहाँ थे, न भावनात्मक लगाव ही होता है, (वैसे भावनात्मक लगाव यूँ तो "भावनात्मक" होता है, लेकिन जिन प्रजातियों में बच्चों को उत्तर्जीविका के लिए माता पिता की देख रेख की आवश्यकता अधिक हो, उन्ही प्रजातियों में यह "भावनात्मक लगाव" उतनी ही अधिक तीव्रता से मिलता है ) ।
फिर कुछ प्रजातियाँ कम संख्या में अंडे देती हैं , तो उन्हें कुछ सुरक्षित स्थान पर देने का कष्ट उठाती हैं कम से कम, लेकिन इसके आगे कोई भावनात्मक लगाव नहीं दिखता, अण्डों में से जो बच्चे निकलते हैं, वे सर्वाइवल के लिए हम मानवों के बालकों से कहीं अधिक सक्षम होते हैं ।
इससे आगे कुछ प्रजातियाँ (जैसे चिड़िया) अंडे देती हैं, किन्तु बच्चे उड़ना सीख कर आत्म निर्भर न होने तक उनका ख्याल रखती हैं । तब तक भावनात्मक लगाव काफी तीव्र होता है, किन्तु एक बार बच्चे उड़ने लायक हो जाएँ तब यह कम हो जाता है, संतान की संतान के साथ तो कोई लगाव बिलकुल ही नहीं दिखता ।
स्तनधारी जीव न सिर्फ पूर्ण विकसित शिशु को जन्मते हैं, बल्कि उनके समझदार (सर्वाइवल के लायल) होने तक माँ उनका ध्यान रखती है । जैसे कुत्ते और बिल्ली । फिर अधिक इंटेलिजेंस वाले सामाजिक प्राणी जैसे हाथी - बच्चे बड़े हो जाने पर भी झुण्ड में ही रहते हैं, और न सिर्फ माता पिता, बल्कि पूरा झुण्ड ही एक दूजे की सहायता करता है । दूसरी ओर , एक मानव बालक को , मानसिक स्तर अधिक होने से , अधिक ज्ञान और शिक्षा की आवश्यकता है ।
मानवों में, न सिर्फ सर्वाइवल, बल्कि उच्च बौद्धिक स्तर होने की वजह से, ज्ञान, प्रेम, सम्बन्ध, और शिक्षा आदि की भी आवश्यकताएं हैं । इसीलिए शायद, जहां अधिकतर प्रजातियाँ सिर्फ शरीर से जन्मी एक या दो संततियों को जन्मने और पाल पोस कर आत्मनिर्भर बनाने लायक समय के लिए ही एक स्वस्थ्य शरीर में जीवन लेकर आती हैं, वहीँ मनुष्य एकमात्र ऐसी प्रजाति है जो, अपनी संतान ही नहीं, बल्कि संतान की संतान के साथ भी जुडी है । मानव जाति , संतान की संतान के आत्मनिर्भर हो कर उसकी संतान को जन्म देने तक भी शारीरिक , मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ्य जीवन काल लिए है ( इसमें अपवाद हो सकते हैं ) - क्योंकि ऐसी कई बातें हैं जो उतने अनुभव के बाद बेहतर समझाई जा सकती हैं । प्रकृति में यह अकारण नहीं हुआ है - इसके पीछे कारण हैं ।
यह प्रकृति में शायद इसलिए हुआ हो कि मानव की सन्तति को जितनी सशक्त बुनियादी नींव की ज़रुरत है आगे की इमारत बनाने के लिए, वह सिर्फ माँ, या फिर सिर्फ माँ और पिता से नहीं हो सकता, क्योंकि सिवाय शरीर के रखरखाव के भी बहुत कुछ है जो हमें सीखना होता है ।
मानव समाज में , सन्तति और साथी के अतिरिक्त भी भावनात्मक सम्बन्ध हैं। विवाह, धर्म, आदि की संकल्पनाएँ शायद उच्च भावनात्मक स्तर और उच्च बुद्धि स्तर की सहज प्रगति के लिए आवश्यक थीं । सिर्फ एक पीढ़ी जितना सीख सकती है अपने जीवन के अनुभवों भर से, उतनी ही जानकारी से अधिक प्रगति करने की क्षमता वाली मानव बुद्धि बेकार चली जाएंगी , यदि भौतिकी और रासायनिक वैज्ञानिक विश्लेषण, कला, गणित, सामाजिक व्यवहार, खगोल शास्त्र आदि आदि आदि की हर दिशा का गहन अध्ययन न हो सकेगा , और इश्वर की परिकल्पना को सत्य या अवास्तविक निर्धारित करने की खोजें न हो सकेंगी ।
इन में से हर एक विधा में अभिरूचि रखने वाले मनुष्य जन्म लेते हैं, और समुचित प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने निजी अनुभव से सीखने तक सीमित न रहना पड़े, बल्कि इससे पहले की पीढ़ियों द्वारा हुई शोधों से वे आगे बढ़ सकें । इसके लिए अब तक अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण भी आवश्यक था । अर्जित ज्ञान के हस्तांतरण, सामाजिक न्यूनतम आवश्यक ज्ञान आदि के लिए शिक्षा व्यवस्था आवश्यक थी , संस्कृतियाँ आवश्यक थीं ।
प्रशासन और क़ानून व्यवस्था शायद इसी का एक हिस्सा थीं, प्रगति को सुनिश्चित करने के लिए एक कदम थीं । यदि हर व्यक्ति को हर पल अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की ही चिंता करते रहना पड़े तो शिक्षा देना, शोध करना, अन्वेषण करना और कलाओं को निखारना , इस तरह के आयामों के विकास के लिए समुचित समय का प्रबंध नहीं हो सकता, और ये सभी आयाम हम में हैं । इसके अलावा, सिर्फ सुरक्षा के अलावा, प्रेम, उपलब्धि आदि की खुशियाँ , और यादें , भी हम मानवों से जुडी हैं । हम एक ऐसी प्राणी प्रजाति हैं, जो न सिर्फ अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित और प्रसन्न होते हैं, बल्कि अपने पुरानी पीढ़ियों की उपलब्धियों का इतिहास भी हमें सुख देता है, हमारी आने वाली पीढ़ी की असुरक्षा के भय से भी हम कम्पित हो जाते हैं । इसके उदाहरण हैं वे आलेख जो हमेशा "भारतीय संस्कृति की महान विरासत में गौरव लेते हैं (अतीत की उपलब्धियों का सुख) , और वे आलेख भी जो " प्रदूषण से 100 साल बाद धरती का इतना नुक्सान होगा" की परिकल्पना से चिन्तित होते हैं (आगामी पीढ़ियों की तकलीफ का भय) ।
तो - यदि समाज के हर व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा की चिंता से दूर रह कर अपने रुचिकर क्षेत्र में प्रगति करनी हो, तो आवश्यक था कि समाज सुरक्षित हो । कुछ मानदंड तय हों जिससे समाज का हर व्यक्ति भले ही सहमत न हो, किन्तु फिर भी अधिकाँश व्यक्तियों की भौतिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की सुरक्षा हो सके । वे मानदंड "सिर्फ उस कालखंड" के लिए होते और बदलते समय के साथ बदलते चले जाते, जिस समय खंड के लिए जो नियम मान्य होते, उस कालखंड की राज्य क़ानून व्यवस्था का कर्तव्य होता कि उन मानदंडों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करें । इससे बाकी समाज को इस बुनियादी चिंता से मुक्ति मिली रहे, और एक शांतिपूर्ण अस्तित्व में वे दूसरी "मानवीय"दिशाओं में अपने ज्ञान और कला की और अग्रसर हो सकें ।
क़ानून व्यवस्थाएं समय समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहीं । इस पर बातें अगले भाग में, यह भाग काफी लंबा हो गया है ।
जारी ....
फिर , हर प्रजाति में अगली पीढ़ी की उत्तरजीविता (survival) के लिए आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए जिन चीज़ों की ज़रुरत है उसकी जटिलता के अनुसार प्रजातियों की अलग अलग मानसिकताओं का निर्माण हुआ शायद ।
कीड़े मकौड़े अंडे देते हैं, और इतनी संख्या में कि प्रजाति के लुप्त हो जाने की आशंका / जनसंख्या के बहुत कम होने का ख़तरा कम है - इसलिए शायद उन्हें पता भी नहीं होता कि अंडे दिए कहाँ थे, न भावनात्मक लगाव ही होता है, (वैसे भावनात्मक लगाव यूँ तो "भावनात्मक" होता है, लेकिन जिन प्रजातियों में बच्चों को उत्तर्जीविका के लिए माता पिता की देख रेख की आवश्यकता अधिक हो, उन्ही प्रजातियों में यह "भावनात्मक लगाव" उतनी ही अधिक तीव्रता से मिलता है ) ।
फिर कुछ प्रजातियाँ कम संख्या में अंडे देती हैं , तो उन्हें कुछ सुरक्षित स्थान पर देने का कष्ट उठाती हैं कम से कम, लेकिन इसके आगे कोई भावनात्मक लगाव नहीं दिखता, अण्डों में से जो बच्चे निकलते हैं, वे सर्वाइवल के लिए हम मानवों के बालकों से कहीं अधिक सक्षम होते हैं ।
इससे आगे कुछ प्रजातियाँ (जैसे चिड़िया) अंडे देती हैं, किन्तु बच्चे उड़ना सीख कर आत्म निर्भर न होने तक उनका ख्याल रखती हैं । तब तक भावनात्मक लगाव काफी तीव्र होता है, किन्तु एक बार बच्चे उड़ने लायक हो जाएँ तब यह कम हो जाता है, संतान की संतान के साथ तो कोई लगाव बिलकुल ही नहीं दिखता ।
स्तनधारी जीव न सिर्फ पूर्ण विकसित शिशु को जन्मते हैं, बल्कि उनके समझदार (सर्वाइवल के लायल) होने तक माँ उनका ध्यान रखती है । जैसे कुत्ते और बिल्ली । फिर अधिक इंटेलिजेंस वाले सामाजिक प्राणी जैसे हाथी - बच्चे बड़े हो जाने पर भी झुण्ड में ही रहते हैं, और न सिर्फ माता पिता, बल्कि पूरा झुण्ड ही एक दूजे की सहायता करता है । दूसरी ओर , एक मानव बालक को , मानसिक स्तर अधिक होने से , अधिक ज्ञान और शिक्षा की आवश्यकता है ।
मानवों में, न सिर्फ सर्वाइवल, बल्कि उच्च बौद्धिक स्तर होने की वजह से, ज्ञान, प्रेम, सम्बन्ध, और शिक्षा आदि की भी आवश्यकताएं हैं । इसीलिए शायद, जहां अधिकतर प्रजातियाँ सिर्फ शरीर से जन्मी एक या दो संततियों को जन्मने और पाल पोस कर आत्मनिर्भर बनाने लायक समय के लिए ही एक स्वस्थ्य शरीर में जीवन लेकर आती हैं, वहीँ मनुष्य एकमात्र ऐसी प्रजाति है जो, अपनी संतान ही नहीं, बल्कि संतान की संतान के साथ भी जुडी है । मानव जाति , संतान की संतान के आत्मनिर्भर हो कर उसकी संतान को जन्म देने तक भी शारीरिक , मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ्य जीवन काल लिए है ( इसमें अपवाद हो सकते हैं ) - क्योंकि ऐसी कई बातें हैं जो उतने अनुभव के बाद बेहतर समझाई जा सकती हैं । प्रकृति में यह अकारण नहीं हुआ है - इसके पीछे कारण हैं ।
यह प्रकृति में शायद इसलिए हुआ हो कि मानव की सन्तति को जितनी सशक्त बुनियादी नींव की ज़रुरत है आगे की इमारत बनाने के लिए, वह सिर्फ माँ, या फिर सिर्फ माँ और पिता से नहीं हो सकता, क्योंकि सिवाय शरीर के रखरखाव के भी बहुत कुछ है जो हमें सीखना होता है ।
मानव समाज में , सन्तति और साथी के अतिरिक्त भी भावनात्मक सम्बन्ध हैं। विवाह, धर्म, आदि की संकल्पनाएँ शायद उच्च भावनात्मक स्तर और उच्च बुद्धि स्तर की सहज प्रगति के लिए आवश्यक थीं । सिर्फ एक पीढ़ी जितना सीख सकती है अपने जीवन के अनुभवों भर से, उतनी ही जानकारी से अधिक प्रगति करने की क्षमता वाली मानव बुद्धि बेकार चली जाएंगी , यदि भौतिकी और रासायनिक वैज्ञानिक विश्लेषण, कला, गणित, सामाजिक व्यवहार, खगोल शास्त्र आदि आदि आदि की हर दिशा का गहन अध्ययन न हो सकेगा , और इश्वर की परिकल्पना को सत्य या अवास्तविक निर्धारित करने की खोजें न हो सकेंगी ।
इन में से हर एक विधा में अभिरूचि रखने वाले मनुष्य जन्म लेते हैं, और समुचित प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने निजी अनुभव से सीखने तक सीमित न रहना पड़े, बल्कि इससे पहले की पीढ़ियों द्वारा हुई शोधों से वे आगे बढ़ सकें । इसके लिए अब तक अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण भी आवश्यक था । अर्जित ज्ञान के हस्तांतरण, सामाजिक न्यूनतम आवश्यक ज्ञान आदि के लिए शिक्षा व्यवस्था आवश्यक थी , संस्कृतियाँ आवश्यक थीं ।
प्रशासन और क़ानून व्यवस्था शायद इसी का एक हिस्सा थीं, प्रगति को सुनिश्चित करने के लिए एक कदम थीं । यदि हर व्यक्ति को हर पल अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की ही चिंता करते रहना पड़े तो शिक्षा देना, शोध करना, अन्वेषण करना और कलाओं को निखारना , इस तरह के आयामों के विकास के लिए समुचित समय का प्रबंध नहीं हो सकता, और ये सभी आयाम हम में हैं । इसके अलावा, सिर्फ सुरक्षा के अलावा, प्रेम, उपलब्धि आदि की खुशियाँ , और यादें , भी हम मानवों से जुडी हैं । हम एक ऐसी प्राणी प्रजाति हैं, जो न सिर्फ अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित और प्रसन्न होते हैं, बल्कि अपने पुरानी पीढ़ियों की उपलब्धियों का इतिहास भी हमें सुख देता है, हमारी आने वाली पीढ़ी की असुरक्षा के भय से भी हम कम्पित हो जाते हैं । इसके उदाहरण हैं वे आलेख जो हमेशा "भारतीय संस्कृति की महान विरासत में गौरव लेते हैं (अतीत की उपलब्धियों का सुख) , और वे आलेख भी जो " प्रदूषण से 100 साल बाद धरती का इतना नुक्सान होगा" की परिकल्पना से चिन्तित होते हैं (आगामी पीढ़ियों की तकलीफ का भय) ।
तो - यदि समाज के हर व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा की चिंता से दूर रह कर अपने रुचिकर क्षेत्र में प्रगति करनी हो, तो आवश्यक था कि समाज सुरक्षित हो । कुछ मानदंड तय हों जिससे समाज का हर व्यक्ति भले ही सहमत न हो, किन्तु फिर भी अधिकाँश व्यक्तियों की भौतिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की सुरक्षा हो सके । वे मानदंड "सिर्फ उस कालखंड" के लिए होते और बदलते समय के साथ बदलते चले जाते, जिस समय खंड के लिए जो नियम मान्य होते, उस कालखंड की राज्य क़ानून व्यवस्था का कर्तव्य होता कि उन मानदंडों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करें । इससे बाकी समाज को इस बुनियादी चिंता से मुक्ति मिली रहे, और एक शांतिपूर्ण अस्तित्व में वे दूसरी "मानवीय"दिशाओं में अपने ज्ञान और कला की और अग्रसर हो सकें ।
क़ानून व्यवस्थाएं समय समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहीं । इस पर बातें अगले भाग में, यह भाग काफी लंबा हो गया है ।
जारी ....
जली दिमागी बत्तियां, किन्तु हुईं कुछ फ्यूज ।
जवाब देंहटाएंबरबस बस के हादसे, बनते प्राइम न्यूज ।
बनते प्राइम न्यूज, व्यूज एक्सपर्ट आ रहे ।
शब्द यूज कन्फ्यूज, गालियाँ साथ खा रहे ।
सड़ी-गली दे सीख, मिटाते मुंह की खुजली ।
स्वयंसिद्ध *सक सृज्य , गिरे उनपर बन बिजली ।।
*शक्ति
thanks ravikar ji
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जारी रहिये... आत्म अवलोकन व चिंतन जारी रहना चाहिये ही...
पर पिछली किस्त में जब आप ने पूछा कि 'साफ़ दिख रहा है कि हमारा तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा । क्या हम सब के लिए यह सोचने का समय नहीं आ गया कि पूरे सिस्टम को ही फिर से देखें और समझें - कि , जो लोकतंत्र अमेरिका में काम कर रहा है - क्या वह हमारे देश में काम कर रहा है ? यदि नहीं, तो क्या मूल भूत अंतर हैं हमारी मानसिकताओं में ? या यह कि वे क्या सही कर रहे हैं और हम क्या गलत कर रहे हैं कि यह काम नहीं कर रहा ? क्या हम कुछ कर सकते हैं ?'
और मेरा जवाब था कि हम कुछ खास नहीं कर सकते, क्योंकि भले ही हैं हम एक लोकतंत्र, पर हमारी सोच, हमारी मानसिकता लोकतांत्रिक नहीं है... हम केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, भ्रष्ट, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं... जो तंत्र हमें मिला है शायद हम उस के भी पात्र नहीं... हम अपने इन कर्मों से उस स्थिति को प्राप्त करेंगे जब इस तंत्र का स्वयमेव नाश होगा, इसमें कुछ समय लगेगा, शायद ४०-५० साल और... फिर हो सकता है कुछ नया सृजित हो... :(
तो आप ने असहमति तो जताई पर इसका कारण नहीं दिया... मैं बहुत छोटा था तब, एक कांड हुआ था संजय-गीता चोपड़ा के साथ, बहुत पहले, इसे रंगा-बिल्ला कांड भी कहा गया, दिल्ली के वर्तमान कांड की तरह ही तब भी पूरे देश में गजब का आक्रोश था, पर उसके बावजूद क्या पिछले तीस साल में कुछ हुआ, स्थितियाँ या तो जस की तस हैं या बिगड़ी ही हैं... मुझे यही इस बार भी होता दिख रहा है... बदलाव लाने की इच्छा व हौसला दोनों नहीं हैं... दो-तीन साल के भीतर ही फिर इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते नजर आयेंगे हम लोग...
...
@@@@ तो आप ने असहमति तो जताई पर इसका कारण नहीं दिया... मैं बहुत छोटा था तब, एक कांड हुआ था संजय-गीता चोपड़ा के साथ, ................... इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते नजर आयेंगे हम लोग...
हटाएंइश्वर न करे ऐसा हो - लेकिन काफी संभावना है कि ऐसा हो - क्योंकि सुधार पल भर में नहीं आते । और यह किसी के भी साथ हो सकता है - अगली बार पीड़ित हम में से कोई भी या हमारे परिवार में से कोई भी हो सकते हैं । बलात्कार सिर्फ एक लड़की को ही नहीं, उसके सम्पूर्ण परिवार को तोड़ देता है - तो सबसे पहले तो हमें अपनी यह मानसिकता बदलनी होगी (सबकी नहीं - कई लोगों की) कि यह "पुरुषों" द्वारा "स्त्रियों" पर होने वाला शोषण मात्र है - नहीं - डायरेक्ट विक्टिम भले ही स्त्री हो - किन्तु टारगेट इसका पूरा मानव समाज है । इसीलिए आत्म अवलोकन की आवश्यकता है, इसलिए यह शोध करने की आवश्यकता है ।
मैं आपसे असहमत इसलिए हूँ कि जहां 100 साल पहले भी बलात्कार होते थे (निश्चित तौर पर होते ही होंगे - हम गुलाम थे और आज के अधिकार नहीं थे हमारे पास) - लेकिन यह बात सुर्खियाँ नहीं बनती थी । यह क्रूरता बहुत आसानी से दबा दी जाती थी ।
आजादी के बाद भी - ये घटनाएं जारी हैं ही । क्या यह अचानक होने लगा ? - नहीं - यह होता आया - लेकिन "मर्ज़" छुपा हुआ रखा जाता था । यदि घाव को छुपा कर रखा जाए न प्रवीण जी - तो वह ठीक नहीं हो सकता ।
समाज में बलात्कार हुई लड़की को और उसके परिवार को दोष देने की और अधमरा कर देने की जो मनःस्थिति बनी हुई थी - वह कम हो रही है - और अब कम से कम शिकायतें तो की जा रही हैं । क्या यह शुभ संकेत नहीं ? ....... जब साल दर साल "घटनाएं" बढ़ने की बात हम सुनते हैं - तो हमें समझना होगा कि "घटनाएं"नहीं बढ़ रहीं - उनकी रिपोर्टिंग बढ़ रही है । घाव उघाड़ने की प्रक्रिया तो आरम्भ हो ही गयी है - और जब सदियों से सड़ता हुआ घाव खुलेगा तो वीभत्स भले ही दिखे, हताशा भले ही हो देख कर - किन्तु यह होगा शुभ ही - क्योंकि इलाज संभव होगा । उस घाव की सफाई होगी तो बहुत दर्द भी होगा - और हमें यह दर्द सहना होगा - there is no escaping it .... यह पहला कदम है - एक दिन में कुछ नहीं होता , कुछ नहीं बदलता । @@ हम केवल अपनी सोचने, अपनों को देखने, रूढ़िवाद, जातिवाद, अतीत के झूठे गौरवगान में मस्त, दोगले, स्वार्थी, भ्रष्ट, कायर, धन/संपत्ति संग्रहण के लिये ईमान/सिद्धांतों को ताक पर रख देने वाले, अतार्किक, अवैज्ञानिक व पोंगापंथ समाज हैं... no - we are not all that bad . at any given point of time , about 99% people are neutral who want to live peacefully - the stronger side in the remaining 1% determine where the society moves to - and the majority of the people are always ready to change for the positive. Unfortunately praveen ji - the good work and achievements never make newspaper headlines, so we mostly view only the negatives and see those highlighted, but the truth is, we are not such a bad society as you feel, the situation is NOT SO HOPELESS....
मैं दिल से यह मानती हूँ कि यह जो प्रतिशोधात्मक कार्यवाहियों की मांगे चल रही हैं - ये उचित परिणाम नहीं दे सकतीं - क्योंकि ये मांगे खुद ही आपराधिक हैं । कुछ वहशी दरिन्दे अपराधियों के कारण हम अपने आप को उन्ही के स्तर तक गिरा दें और एक जंगली समाज बन जाएँ ?
हमें मंथन करना ही होगा - और मंथन में विष भी निकलेगा - और उसे पीने के लिए शिव भी हमें ही होना होगा ।
सिर्फ "कुछ नहीं हो सकता"कह देने से कुछ नहीं होगा - बल्कि कहूं कि कुछ नहीं "ही" होगा - क्योंकि हमारा लक्ष्य ही "कुछ नहीं" होगा । मैं मानती हूँ कि कुछ होगा - बहुत कुछ होगा - किन्तु समय लगेगा इस बदलाव को आने में - अपने अपने हिस्से का विषपान करने को तैयार रहना होगा हम सब को ।
आपकी आलोचना ,समालोचन मुझे तर्क पूर्ण लगा ,परन्तु कुछ तत्त्व पर आपकी अंतिम कड़ी के बाद अपनी प्रतिक्रिया दूंगा .बधाई . .मकर संक्रांति कि अतवा शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंNew post: कुछ पता नहीं !!!
New post : दो शहीद
मंथन चलता रहे!लेकिन नियंत्रण सिर्फ़ दो बातों से आ सकता है - विवेक जगाना या दंडित करना .दंड के बिना अविचारी तत्वों में भय की भावना नहीं जागेगी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंमकर संक्रान्ति के अवसर पर
उत्तरायणी की बहुत-बहुत बधाई!
शासन /राज्य की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि लोगों की प्रतिभाओं ,उनकी क्षमताओं को पूर्ण विकसित होने के लिए हर तरह की सुविधा ,माहौल और सुरक्षा की व्यवस्था करे ....ताकि समाज की बेहतरी में सभी का निर्विघ्न योगदान सुनिश्चित हो ...
जवाब देंहटाएंप्रवीण शाह जी मौजूदा स्थितियों को एक डिस्टोपिया के रूप में देखते हैं और उनकी दृष्टि में कोई दोष नहीं है किन्तु मनुष्य को हर हालात में आशावादी होना चाहिए और निरंतर प्रयास का दामन नहीं छोड़ना चाहिए -
यावत् कंठ गतः प्राणः तावत कार्य प्रतिक्रिया -कह चुके हैं हमारे पूर्वज!
पढ़ रहा हूँ..
जवाब देंहटाएंbahut sundar...........tathya cha satya parak lekh ke liye sadhuvad.......kramasha:
जवाब देंहटाएंpranam.
अगली कड़ी का इंतजार है ! :)
जवाब देंहटाएंदो तीन बार कमेंट करने आया लेकिन संयोग ऐसा बना कि कमेंट कर ही नहीं पाया। बहुत गंभीर और संतुलित पोस्ट है, गहन विचारों के मंथन से उपजी।
जवाब देंहटाएंइस बात से एकदम सहमत कि अपने हिस्से का विषपान करने को तैयार रहना होगा, वैसे तो करते ही रहते हैं विषपान लेकिन इस दौर में और करना पड़ेगा।
जी संजय जी - आपकी सटीक टिप्पणी जब भी आये, मेरे लिए अनमोल और महत्वपूर्ण है ... जितना इंतज़ार, उतना मीठा फल । हमेशा आपकी टिप्पन का इंतज़ार रहता है मुझे | नहीं आती , तो निराश होती हूँ, कि एक अनमोल सीख मिलने से रह गयी ।
हटाएं-------------------
और हाँ संजय जी - इसके आगे जो कहूँगी, इसे आप बिलकुल अपने से कहा हुआ न समझें - मैं यह अपने विचार जो कह रही हूँ - वे आपके लिए नहीं हैं । यह "हमारे" - हम सब के, लिए हैं ।
@ वैसे तो करते ही रहते हैं विषपान लेकिन ...
जी । हम सब जो विषपान करते हैं, वह "मैं" और "मेरा" तक सीमित है अक्सर । अधिकाधिक मेरा परिवर, मेरे मित्र, और मेरे घर के आस पास की साफ़ सफाई, सडकें , मोहल्ला आदि तक । वह सब चीजें जो "मैं" को आराम दें, उनके लिए, अपने अपने आत्म-मान (अहंकार ? ) के लिए, अपने अपने मोह के लिए कडवे घूँट हम पीते रहते हैं ।अक्सर हमारा कड़वा विष घूँट (?)सिर्फ इतना होता है की "मुझे"यह (house / car / job / promotion / money / love / respect ....) नहीं मिला :(
हम समाज के लिए कुछ भी करना भूल गए हैं बहुत पहले - हमारा समाज "मैं" उन्मुख हो गया - जो पहले नहीं था । अतीत के गौरव के किस्से कहते हम , अतीत के कर्त्तव्य भाव, अतीत के "मैं" से ऊपर "स्व-धर्म" भाव, देश के, समाज के प्रति कर्तव्य को भूल गए हैं । हम कहते हैं - "हर मानव को अपने जीवन को अपने अनुसार जीने का अधिकार है" - और यह सच है - अधिकार है ही । लेकिन अधिकार मर्यादा से बंधे रहे - तो शुभ होते हैं - अमर्यादित हो जाएँ - तो वे अधिकार के कर्म नहीं रहते - उच्छ्श्रन्खलता हो जाते हैं ।
माला तब तक ही खूबसूरत रहती है, जब तक मनके मोती डोर की मर्यादा से बंधे रहे । हर मोती अपने आप में अपने "मुक्त होने का अधिकार" प्रयोग करने लगे, तब माला का अस्तित्व समाप्त हो जाता है ।
हम यह भूल गए हैं कि जिस "व्यक्तिगत स्वतन्त्रता" के पीछे हम भाग रहे हैं - वह छिन्न भिन्न हो जायेगी यदि समाज छिन्न भिन्न हो गया ।
हम अपने अपने निजी स्वार्थ में अपने घर के जलने तक अपने समाज के जलते घर को नज़रंदाज़ कर रहे हैं, और माला के डोर जलती जा रही है - यह हम देख ही नहीं रहे ।
अपनी निजी इच्छाओं के लिए हमेशा तड़पते रहने वाले हम, समाज की आवश्यकताओं को बिलकुल भूल चुके हैं । यह भूल चुके हैं की यदि जलाशय ही सूख जाए - तो मछलियाँ जीवित रह ही नहीं सकतीं ।
हम कहते हैं - मैं समाज को नहीं सुधार सकता - तो मैं अपनी बेटी को घर में बंद कर लूं - उसे सुरक्षित रख सकूं । लेकिन हम यह भूल जाते हैं की यदि समाज को सुधारने से बचते रहे हम, तो बेटी को भले ही घर में रख कर, बुरखे में ढँक कर बचा लेंगे, लेकिन परपोती के समय तक कोई घर में घुस कर उसे मार जाएगा शायद । प्रोब्लम कभी बिना सामना किया जाती नहीं, दुश्मन से कितने भी छुप लें हम, जब तक उसका सामना नहीं करेंगे, वह जाएग नहीं ।
देशप्रेम हमारे लिए स्व-प्रेम और अपने अपने दृष्टिकोण को सर्वोपरि मानने की जिद के अलावा कुछ रह ही नहीं गया है । और यह हमें ही वापस बोना है अपने भीतर, हमें ही उपजाना है - कोई बाहर से आकर हमारी परेशानियां नहीं सुलझाएगा ।
Shilpa ji,
जवाब देंहटाएंbahut hi santulit aalekh.
aise hi likhtin rahein...
Hriday se aabhaar aapka