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इस पोस्ट में माँ और पिता की पहचान आदि के सम्बन्ध में मैं जो कह रही हूँ, यह बात मैं सभ्य समाज के बन जाने के बाद की नहीं कर रही हूँ - समाज के स्थापन के पहले की कर रही हूँ ।
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स्त्री पुरुष वर्ग क्या सचमुच भिन्न हैं, या यह समाज का बनाया हुआ या थोपा हुआ वर्ग है ?
मुझे निजी तौर पर लगता है की समाज द्वारा कोई भी चीज़ तब तक थोपी ही नहीं जा सकती जब तक भीतर से फर्क न हो उन दोनों वर्ग समूहों के अधिकांश व्यक्तियों के स्वभाव और प्रवृत्तियों में ।
तो क्या इससे पहले के भाग में जो मैंने मानुषी स्वभाव की स्वाभाविक रुचियों की बातें कीं - क्या स्त्रियों में वे ही चार प्रकार नहीं होते ? जो स्त्रियाँ सब एक ही समूह में आ गयीं ? क्या सभी स्त्रियों की एक सी प्रवृत्तियां होती हैं ???
नहीं - स्त्रियों में भी हर तरह की रुचियाँ होती हैं । संसार में सभ्य समाज की स्थापना के पहले के समय में , जब स्त्री और पुरुष दोनों ही अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे, तब तो निश्चित तौर पर किसी भी दूसरी प्रजाति ही की तरह स्त्री-पुरुष दोनों ही बराबर रहे होंगे । दोनों अपनी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए भोजन इकठ्ठा करते होंगे, फल, फूल, शिकार आदि ।
मैंने इस शृंखला के एक पुराने भाग में भी लिखा था - मानव स्तनधारी जीव हैं , जिनमे प्राकृतिक रूप से दूसरी प्रजातियों से कहीं अधिक संतान प्रेम दीखता है । मनुष्य में "साथ ढूँढने" और "परिवार जोड़ने" की प्रवृत्ति दुसरे स्तनधारियों से भी कहीं अधिक है, क्योंकि मानव बालक की संभावनाओं के पूर्ण विकास के लिए अन्य प्राणियों से कई गुना अधिक समय और लगन की आवश्यकता है । सिर्फ़ शारीरिक विकास का प्रश्न ही नहीं है, मानसिक और आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और कलात्मक, अनेकानेक संभावनाएं हैं । इन सब संभावनाओं के साथ ही स्मृति है, तो पुराने विकास को याद रख कर अगली पीढ़ी को देने का अवसर भी है । मानव संतान को , शारीरिक देख रेख की भी, और देख रेख के समय खंड की अवधि के सम्बन्ध में भी , देख रेख की दूसरी स्तनधारी प्रजातियों से अधिक आवश्यकता है।
जैसा हम हर स्तनधारी जीव में देखते हैं - सन्तति के प्रति माँ का लगाव और माँ सन्तति को माँ की आवश्यकता - दोनों ही - हर स्तनधारी जीव में - पिता से कहीं अधिक है । माँ के गर्भ में पलने से, और उसके दूध पर जीवित रहने के लिए पूरी तरह निर्भर होने से - संतान का जीवन के आरंभिक चरणों में - स्वाभाविक रूप से संतान का माँ के प्रति (और माँ का संतान के प्रति) लगाव पिता से कहीं अधिक दिखता है ।
फिर ? क्या पिता की कोई भूमिका ही नहीं ? शुद्ध वैज्ञानिक रूप से बताइये - मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी प्रजातियों को देख कर बताइये - पिता का योगदान सिर्फ जीवन के निषेचन के बाद होता है क्या ? होता है तो कितना ? क्या माँ जितना ही ? यदि दुसरे जीवों में यह नहीं है , या न के बराबर है, लेकिन मनुष्य में इतना गहरा नाता है - तो यह फर्क क्यों है ?
यह फर्क इसलिए है कि मानव में अपनी सन्तति और फिर उसकी सन्तति से प्रेम होना शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि मानसिक, और अन्य क्षमताओं, की प्रगति के लिए, स्वाभाविक तौर पर उपजा है । पीढ़ियों के अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण तब ही हो सकता है, जब उसके "योग्य सामाजिक माहौल" हो । और समाज की संकल्पना तो परिवार की इकाई के विकास के बाद ही हो सकती है ।
तो पिता और माता एक इकाई में कैसे बंधें ? संतान को दोनों ही की देख रेख मिले इसकी व्यवस्था कैसे की जाए ?
जाहिर तौर पर - माँ का होना, और माँ की पहचान तो संतान के जन्म और उससे भी पहले उसके गर्भवती होने भर से ही , और प्रसूति से भी , स्वयं सिद्ध है । जन्म के बाद भी सहज और निहित तौर पर ही माँ का सन्तति से जुड़ाव है ही, पहचान और ऐक्य है ही । किन्तु पिता के प्रति ऐसा बिलकुल नहीं है ।
आज नारीवाद चीख चीख कर कहते हैं कि प्रकृति ने नारी से अन्याय किया पहले ऋतुस्राव की परेशानी फिर गर्भ का बोझ और फिर संतान उत्पन्न करने का दर्द और उसकी देख रेख की ज़िम्मेदारी । यह बात सिरे से ही मूर्खता पूर्ण है । मातृत्व सुख सिर्फ मानव स्त्री ही नहीं पाती, हर प्रजाति की मादा संतान सुख पाती है । और यह ऐसी भेंट है जिसके लिए कोई भी "कीमत" लग ही नहीं सकती, यह संभव ही नहीं है । माँ बन जाने का सुख संसार की किसी भी चीज़ से बड़ा है - माँ होना , जन्म देना स्वार्गिक अनुभूति है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता न ही परिभाषित किया जा सकता ही है ।
फिर पिता ? उसका प्रेम, उसकी स्थिति ? संतान का जुड़ाव उससे कैसे हो ? माँ से तो स्वाभाविक रूप से हो ही गया - किन्तु पिता से कैसे हो ? याद रहे - और यह बात मैं सभ्य समाज के बन जाने के बाद की नहीं कर रही हूँ - समाज के स्थापन के पहले की कर रही हूँ । संतान की पहचान अपनी जननी "माँ" से तो अन्तर्निहित है, लेकिन पिता का नाम माँ से ही मिल सकता है । यह तब ही हो सकता है जब एक स्त्री का एक ही पुरुष से सम्बन्ध हो । समाज बाद में आये, परिवार और कुनबे पहले बने । उससे पहले मानव झुण्ड में भले ही रहते हों परस्पर रक्षा और अस्तित्व के लिए, किन्तु समाज का अर्थ सिर्फ साथ रहना भर नहीं होता ।
तो - समाज की प्रस्थापना से पहले ही पारिवारिक इकाइयां और फिर कुनबे बनते गये होंगे ।
स्त्री के पास तो प्रकृतिदत्त सहज भेंट थी - माँ होने की । उस संतान पर प्रेम का दावा करने वाले पुरुष ( पिता ) के पास यह सुविधा नहीं थी । उसे अपनी पहचान के लिए माँ के कथन पर निर्भर होना था ।उस्के बदले वह स्त्री को क्या दे कि स्त्री उसके साथ अपनी बाकी रुचियों को छोड़ कर सिर्फ उसकी बनी रहे ?
ध्यान देने की बात है कि नव प्रसूता मादा (स्त्री नहीं हर प्रजाति की मादा) की रुचि सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान में होती है । नवजात शिशु की माँ होने का नशा ऐसा है जो हर दूसरी रूचि को कुछ समय के लिए पृष्ठभूमि में फेंक देता है । नवप्रसूता शेरनी हो या बिल्ली, वह अपनी संतान की सुरक्षा को लेकर अत्यधिक हिंसक और चिंतित होती है, और वह कदापि उस बच्चे को छोड़ कर इधर उधर नहीं जाना चाहती । इससे भी आगे, मानव प्रजाति की नवप्रसूता तो बाकी प्रजातियों से कहीं अधिक शारीरिक कष्ट से गुज़र कर माँ बनती है, और उस समय शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर होती है । ऐसे में यदि मानव "पुरुष" यह जिम्मा ले ले कि वह उस माँ और उसकी सन्तति के भरण पोषण का पूरा इंतज़ाम करेगा, तो माँ निश्चिन्त हो कर सिर्फ संतान को अपना समय दे सकती थी, जिसमे उस सीमित समयावधि में उसकी रूचि बाकी सब रुचियों से अधिक होती ।
फिर से ध्यान दीजिये - मैं समाज आदि के पहले के जंगली समय की बात कर रही हूँ । तब न TV था, न पुस्तकें न मनोरंजन के अन्य साधन । शारीरिक ऊर्जा अत्यधिक थी, शक्ति भी , जबकि मानसिक चिंताएं सिर्फ अस्तित्व बचाने तक सीमित थीं । तो ऐसी कोई रुचियाँ नहीं थी जो नवप्रसूता माँ को अपनी संतान से दूर खींच रही हों । और पुरुष को भी सिर्फ अपनी स्त्री और सन्तति की प्राणरक्षा और भरण पोषण का इंतज़ाम करना था (जो अपने आप में काफी कठिन होता होगा उस समय खंड में ) । लेकिन मनोरंजन के कोई बहुत अधिक साधन न होने से यौनाकर्षण आज से कहीं अधिक रहा होगा, तो संतानें होती चली जाना बहुत स्वाभाविक होता होगा । तो स्त्री नवप्रसूता की स्थिति में ही होती अक्सर, और उसे रूचि संतान में होती, और पुरुष को परिवार के जीवन यापन का प्रबंध करना होता ।
जब परिवार है, तो घर भी चाहिए । घर है तो उस को सजाना सम्हालना भी होगा । यदि पति शिकार पर गया है, जाता है, रोज जाता है , तो घर की देखभाल स्वतः ही नारी पर आ गयी होगी , क्योंकि वह संतान के साथ उसकी सुरक्षा के लिए घर पर रहती होगी । यह कोई ऊपर से थोपी हुई स्थिति न हो कर प्रकृतिजन्य स्थित थी, जिसमे "शोषण" जैसी कोई कल्पना नहीं थी ।
पुरुष को सन्तति पर अपना अभिज्ञान चाहिए, स्त्री को अपनी संतान की देख रेख में सहयोग चाहिए । जो जोड़े एक दुसरे की इस आपसी आवश्यकता की पूर्ती कर रहे हों, वे स्वाभाविक रूप से साथ रहने लगे, रहते रहे - तो परिवार की इकाई बनी होगी । इसमें शोषण कहाँ है ? कार्य के बंटवारे को तात्कालिक रूचि के अनुरूप किया गया - और वह धीरे धीरे आदत में आ गया , "स्वाभाविक रूचि" से हट कर "अपेक्षित कर्त्तव्य" में परिवर्तित हो गया होगा ।
जिन स्त्री और पुरुष दोनों की रुचियाँ एक सी हुईं वे एक दुसरे पर आकर्षित होते, और साथ जीवन यापन करते।धॆरे धीरे समाज का विकास हुआ होगा ।और विभिन्न रुचियों के समूह बनते अगये होंगे जैसा मैंने पिछली पोस्ट में कहा था । स्वाभाविक तौर पर, पढने लिखने वाले परिवारों में जन्मी संतान (चाहे बच्ची या बच्चा) की रूचि उस ओर ही बढती । लेकिन सामाजिक समूह बन जाने से पहले ही, पाषाण काल से ही , परिवार में स्त्री और पुरुष के कार्यक्षेत्र का विभाजन हो आया था ।
तो यह ऐसा था की - लड़कियों को पढने, शिकार सीखने धनुष्बाजी सीखने, आदि आदि "बाहरी कार्य सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उसके पास मातृत्व की पूँजी है" । जिसके "बदले में" उसे जीवन भर सम्हालने के लिए, उसका भरण पोषण करने के लिए "पुरुष" स्वयं सामने आयेंगे । तो आवश्यक नहीं कि वह ज्ञान, शक्ति या धन अर्जित करने की प्रतियोगिता में पड़े । यह "न करने की सुविधा" कब और कैसे "न कर सकने की मजबूरी" में बदल गयी होगी, कोई जान ही न पाया होगा।
जैसा मैंने पिछली पोस्ट में कहा था - ज्ञान, शक्ति और धन, ये तीनों शक्ति के तीन केंद्र हैं जिनसे समाज चलता है । समाज निर्माण के पहले के जंगली समय में तो स्त्रियाँ बाकी तीनों शक्तिकेंद्रों से बढ़ कर मातृत्व शक्ति केंद्र होने से परम धनिक थीं, तो उन्हें माँ के रूप में पूजा गया, अर्थात सिर्फ माँ बन पाने के कारण ही पुरुष ने उन्हें शीश पर लिया , पूजनीय माना, उनकी सेवा की ।
लेकिन समय बीतने के साथ स्थिति पूरी तरह पलट गयी । इस स्वाभाविक "सन्तति प्रेम" में उलझी रह गयी स्त्री पुरुष के समकक्ष अपनी प्रतिभाओं की प्रगति करने में पिछड़ गयी, और ज्ञान, दर्शन , शक्ति, धन हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी रूचि होते हुए भी इन रुचियों के "संतान प्रेम की रूचि" से कमतर होने के कारण उतनी प्रगति नहीं की जितनी वे स्वाभाविक तौर पर कर सकती थीं । इस बीच बाकी हर क्षेत्र में हो रही प्रगति में न तो तत्कालीन स्त्रियाँ सहभागी ही हो सकीं , न जान ही सकीं कि हो क्या रहा है । तो आरंभिक दर्शन बनाए पुरुषों ने , धर्मग्रन्थ लिखे पुरुषों ने, परिभाषाएं गाढ़ी पुरुषों ने । स्वाभाविक ही था कि उन दर्शनशास्त्रों में पुरुष का ही दर्जा स्त्री से ऊपर था ।
परिवार की इकाई की संस्थापना ऐसे हुई होगी (जो पाषाण युग में पुरुष का स्त्री के स्वाभाविक मातृत्व से प्राप्त "संतान पर अधिकार" को अपना नाम देने और सहभागी होने की आवश्यकता से शुरू हुआ होगा)
पुरुष की स्थिति :-
"अपनी संतान पर तुम्हारी पहचान और अधिकार तो स्वयं सिद्ध है । तुम मुझे अपनी स्वयंसिद्ध संतान पर पहचान और अधिकार दो - उसके बदले में मैं तुम्हे सब सुविधायें दूंगा । यदि मैं राजा हूँ, तो तुम रानी । यदि मैं यज्ञकर्ता हूँ तो तुम उस यज्ञ में बराबरी की सहभागिनी होगी, यदि मैं धनार्जन करता हूँ तो तुम उस धन की बराबरी की स्वामिनी होगी । मेरी शक्ति, मेरे ज्ञान, मेरी संपत्ति आदि सब पर तुम्हारा मेरे ही जितना अधिकार होगा, तुम्हे सिर्फ इतना करना है कि तुम्हारे गर्भ से जन्मी हर संतान "मेरी संतान" होने की मुझे आश्वस्ति देनी है (जो तब ही हो सकता था जब स्त्री शारीरिक तौर पर सिर्फ एक पुरुष के साथ सम्बन्ध बनाए)"
स्त्री की स्थिति :-
"मैं माँ हूँ । मैं तुम्हे यह आश्वासन देती हूँ कि मेरी हर संतान तुम्हारी होगी (जो तभी संभव था जब स्त्री "पतिव्रता" हो) । इसके बदल तुम मेरी , और मेरी संतानों की , आवश्यकताओं की पूर्ती करोगे और तुम भी मेरे प्रति निष्ठावान रहोगे । तुम्हारी हर वस्तु पर मेरा बराबर अधिकार होगा । "
यह शायद विवाह संस्था की शुरुआत थी । फिर संतानों के साथ इकाई हो जाने से सन्तान और माता पिता का स्वाभाविक प्रेम होने से , उसकी भलाई आदि के चलते, उसके जीवन साथी का चुनाव भी "अनुभवी और समझदार" परिवार की ओर से होने लगा होगा । लडकी को माँ बनना है, उसी "मातृत्व" संपदा पर जीवनयापन करना है , तो उसके लिए परिवार खोजने में माता पिता अपने ही जैसे (या बेहतर) परिवार की तलाश करते - और यह सब धीरे धीरे हर एक वर्ग समूह में बैठता चला गया होगा ।
जीवन की राह पर चलने के तरीके का चुनाव "स्वरूचि" से बदल कर "दूसरों के अनुसार रहने/ करने की मजबूरी" हो जाने पर जीवन शैली स्वाधीन नहीं रहती , परतंत्र हो जाती है । "प्रेम और भला सोचना" धीरे धीरे "अधिकार ज़माना और शोषण" में बदल जाता है । संतान प्रेम/ मोह में अंधी हुई और उस "मातृत्व शक्तिकेंद्र" की स्वामिनी होने से "पूजित और सेवित" बनी स्त्रियों के साथ यही हुआ होगा । ठहरा पानी अक्सर सड़ने लगता है । सन्तान और मातृत्व की शक्ति पर सीमित रह गयी स्त्री , पुरुष के समकक्ष प्रगति न कर सकी, और धीरे धीरे परिवार संस्था ने उसे जकड लिया होगा । वह स्वतंत्र से मजबूर , और सेवित से सेविका , बन गयी होगी ।
विभिन्न वर्गों द्वारा विभिन्न वर्गों के बारे में विचार, शोषण आदि पर आगे के भागों में बात होगी ।
पढने के लिए आभार ।
जारी .....