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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

माता पिता, बच्चे , और दादाजी


यह कहानी मेरी नहीं, कई बार पढ़ी होगी आपने ..... एक बार और सही ....

एक घर में माता पिता ,  उनके दो बच्चे ,  और दादाजी रहते थे ।

दादाजी की उम्र बहुत हो गयी थी, और उनके हाथ कांपते थे । कभी हाथ से चम्मच गिर जाते, कभी दूध के ग्लास से दूध फ़ैल जाता । पति पत्नी आये दिन की परेशानी से तंग आ गये थे ।

एक दिन उन्होंने सोचा कि बहुत हो गया । यह रोज़ रोज़ खाने के बीच का खलल, बीच में रुक कर सफाई - यह सब कितने दिन चलेगा ? तो उन्होंने दादाजी के लिए कोने में एक दूसरी मेज का इंतज़ाम कर दिया । चीनी के बर्तन टूटने से बचाने के लिए उन्हें लकड़ी का बर्तन मिलता भोजन के लिए । 

बेचारे दादाजी - क्या करते ? किसीसे कुछ कहते नहीं थे, बस चुप से अपने कोने में बैठ कर भोजन करते । जब जब कुछ गिरता , बेटे बहु की क्रोधित बातें भी सुनते और चुप चाप खाते रहते । 

कुछ दिन गुज़रे , पोता बड़ा हो चला था । एक दिन पोता गराज में लकड़ी से कुछ बना रहा था - बड़े जतन से । माँ ने - पूछा बेटा - क्या बना रहे हो ? -जवाब आया  लकड़ी के बर्तन बना रहा हूँ । जब आप दोनों दादाजी जैसे बूढ़े हो जायेंगे ......

फिर ?
फिर क्या - पति पत्नी की आँख खुल गयी - अगले ही दिन बेटे ने बूढ़े पिता को बड़े प्रेम से अपने साथ बिठाया और बुजुर्ग व्यक्ति उस दिन से पूरे प्रेम के साथ बाकी परिवार के साथ बैठने लगे । 

क्या हम भी अपने लकड़ी के बर्तनों का इंतज़ार कर रहे हैं ?  या हम अपने पिताजी के कांपते हाथों को थामने को तैयार हैं ?

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

सभ्यता शासन क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया 5 : स्त्रियाँ - एक और वर्ग समूह

पुराने भाग 1    4   

इस भाग में "स्त्री - पुरुष" वर्ग विभिन्नता, और अगले भाग में इन असमानताओं के चलते बन गए , सही और गलत , सामाजिक नियमों, परम्पराओं और "शोषण" आदि पर बात करेंगे

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इस पोस्ट में माँ और पिता की पहचान आदि के सम्बन्ध में मैं जो कह रही हूँ, यह बात मैं सभ्य समाज के बन जाने के बाद की नहीं कर रही हूँ - समाज के स्थापन के पहले की कर रही हूँ । 

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स्त्री पुरुष वर्ग क्या सचमुच भिन्न हैं, या यह समाज का बनाया हुआ या थोपा हुआ वर्ग है ?

मुझे निजी तौर पर लगता है की समाज द्वारा कोई भी चीज़ तब तक थोपी ही नहीं जा सकती जब तक भीतर से फर्क न हो उन दोनों वर्ग समूहों के अधिकांश व्यक्तियों के स्वभाव और प्रवृत्तियों में । 

तो क्या इससे पहले के भाग में जो मैंने मानुषी स्वभाव की स्वाभाविक रुचियों की बातें कीं - क्या स्त्रियों में वे ही चार प्रकार नहीं होते ? जो स्त्रियाँ सब एक ही समूह में आ गयीं  ? क्या सभी स्त्रियों की एक सी प्रवृत्तियां होती हैं ???

नहीं - स्त्रियों में भी हर तरह की रुचियाँ होती हैं । संसार में सभ्य समाज की स्थापना के पहले के समय में , जब स्त्री और पुरुष दोनों ही अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे, तब तो निश्चित तौर पर किसी भी दूसरी प्रजाति ही की तरह स्त्री-पुरुष दोनों ही बराबर रहे होंगे । दोनों अपनी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए भोजन इकठ्ठा करते होंगे, फल, फूल, शिकार आदि । 

मैंने इस शृंखला के एक पुराने भाग में भी लिखा था - मानव स्तनधारी जीव हैं , जिनमे प्राकृतिक रूप से दूसरी प्रजातियों से कहीं अधिक संतान प्रेम दीखता है । मनुष्य में "साथ ढूँढने" और "परिवार जोड़ने" की प्रवृत्ति दुसरे स्तनधारियों से भी कहीं अधिक है, क्योंकि मानव बालक की संभावनाओं के पूर्ण विकास के लिए अन्य प्राणियों से कई गुना अधिक समय और लगन की आवश्यकता है । सिर्फ़ शारीरिक विकास का प्रश्न ही नहीं है, मानसिक और आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और कलात्मक, अनेकानेक संभावनाएं हैं । इन सब संभावनाओं के साथ ही स्मृति है, तो पुराने विकास को याद रख कर अगली पीढ़ी को देने का अवसर भी है । मानव संतान को , शारीरिक देख रेख की भी, और देख रेख के समय खंड की अवधि के सम्बन्ध में भी , देख रेख की दूसरी स्तनधारी प्रजातियों से अधिक आवश्यकता है।  

जैसा हम हर स्तनधारी जीव में देखते हैं - सन्तति के प्रति माँ का लगाव और माँ सन्तति को माँ की आवश्यकता - दोनों ही - हर स्तनधारी जीव में - पिता से कहीं अधिक है । माँ के गर्भ में पलने से, और उसके दूध पर जीवित रहने के लिए पूरी तरह निर्भर होने से - संतान का जीवन के आरंभिक चरणों में - स्वाभाविक रूप से संतान का माँ के प्रति (और माँ का संतान के प्रति) लगाव पिता से कहीं अधिक दिखता है । 

फिर ? क्या पिता की कोई भूमिका ही नहीं ? शुद्ध वैज्ञानिक रूप से बताइये - मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी प्रजातियों को देख कर बताइये - पिता का योगदान सिर्फ जीवन के निषेचन के बाद होता है क्या ? होता है तो कितना ? क्या माँ जितना ही ? यदि दुसरे जीवों में यह नहीं है , या न के बराबर है, लेकिन मनुष्य में इतना गहरा नाता है - तो यह फर्क क्यों है ?

यह फर्क इसलिए है कि मानव में अपनी सन्तति और फिर उसकी सन्तति से प्रेम होना शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि मानसिक, और अन्य क्षमताओं, की प्रगति के लिए,  स्वाभाविक तौर पर उपजा है । पीढ़ियों के अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण तब ही हो सकता है, जब उसके "योग्य सामाजिक माहौल" हो  । और समाज की संकल्पना तो परिवार की इकाई के विकास के बाद ही हो सकती है । 

तो पिता और माता एक इकाई में कैसे बंधें ? संतान को दोनों ही की देख रेख मिले इसकी व्यवस्था कैसे की जाए ?

जाहिर तौर पर - माँ का होना, और माँ की पहचान तो संतान के जन्म और उससे भी पहले उसके गर्भवती होने भर से ही , और प्रसूति से भी , स्वयं सिद्ध है । जन्म के बाद भी सहज और निहित तौर पर ही माँ का सन्तति से जुड़ाव है ही, पहचान और ऐक्य है ही । किन्तु पिता के प्रति ऐसा बिलकुल नहीं है । 

आज नारीवाद चीख चीख कर कहते हैं कि प्रकृति ने नारी से अन्याय किया पहले ऋतुस्राव की परेशानी फिर गर्भ का बोझ और फिर संतान उत्पन्न करने का दर्द और उसकी देख रेख की ज़िम्मेदारी । यह बात सिरे से ही मूर्खता पूर्ण है  । मातृत्व सुख सिर्फ मानव स्त्री ही नहीं पाती, हर प्रजाति की मादा संतान सुख पाती है । और यह ऐसी भेंट है जिसके लिए कोई भी "कीमत" लग ही नहीं सकती, यह संभव ही नहीं है । माँ बन जाने का सुख संसार की किसी भी चीज़ से बड़ा है - माँ होना , जन्म देना स्वार्गिक अनुभूति है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता न ही परिभाषित किया जा सकता ही है । 

फिर पिता ? उसका प्रेम, उसकी स्थिति ? संतान का जुड़ाव उससे कैसे हो ? माँ से तो स्वाभाविक रूप से हो ही गया - किन्तु पिता से कैसे हो ? याद रहे -  और यह बात मैं सभ्य समाज के बन जाने के बाद की नहीं कर रही हूँ - समाज के स्थापन के पहले की कर रही हूँ । संतान की पहचान अपनी जननी "माँ" से तो अन्तर्निहित है, लेकिन पिता का नाम माँ से ही मिल सकता है । यह तब ही हो सकता है जब एक स्त्री का एक ही पुरुष से सम्बन्ध हो । समाज बाद में आये, परिवार और कुनबे पहले बने  । उससे पहले मानव झुण्ड में भले ही रहते हों परस्पर रक्षा और अस्तित्व के लिए, किन्तु समाज का अर्थ सिर्फ साथ रहना भर नहीं होता । 

तो - समाज की प्रस्थापना से पहले ही पारिवारिक इकाइयां और फिर कुनबे बनते गये होंगे । 

स्त्री के पास तो प्रकृतिदत्त सहज भेंट थी - माँ होने की । उस संतान पर प्रेम का दावा करने वाले पुरुष ( पिता ) के पास यह सुविधा नहीं थी । उसे अपनी पहचान के लिए माँ के कथन पर निर्भर होना था  ।उस्के बदले वह स्त्री को क्या दे कि स्त्री उसके साथ अपनी बाकी रुचियों को छोड़ कर सिर्फ उसकी बनी रहे ? 

ध्यान देने की बात है कि नव प्रसूता मादा (स्त्री नहीं हर प्रजाति की मादा) की रुचि सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान में होती है । नवजात शिशु की माँ होने का नशा ऐसा है जो हर दूसरी रूचि को कुछ समय के लिए पृष्ठभूमि में फेंक देता है । नवप्रसूता शेरनी हो या बिल्ली, वह अपनी संतान की सुरक्षा को लेकर अत्यधिक हिंसक और चिंतित होती है, और वह कदापि उस बच्चे को छोड़ कर इधर उधर नहीं जाना चाहती । इससे भी आगे, मानव प्रजाति की नवप्रसूता तो बाकी प्रजातियों से कहीं अधिक शारीरिक कष्ट से गुज़र कर माँ बनती है, और उस समय शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर होती है ।  ऐसे में यदि मानव "पुरुष" यह जिम्मा ले ले कि  वह उस माँ और उसकी सन्तति के भरण पोषण का पूरा इंतज़ाम करेगा, तो माँ निश्चिन्त हो कर सिर्फ संतान को अपना समय दे सकती थी, जिसमे उस सीमित समयावधि में उसकी रूचि बाकी सब रुचियों से अधिक होती । 

फिर से ध्यान दीजिये - मैं समाज आदि के पहले के जंगली समय की बात कर रही हूँ  । तब न TV  था, न पुस्तकें न मनोरंजन के अन्य साधन । शारीरिक ऊर्जा अत्यधिक थी, शक्ति भी , जबकि मानसिक चिंताएं सिर्फ  अस्तित्व बचाने तक सीमित थीं । तो ऐसी कोई रुचियाँ नहीं थी जो नवप्रसूता माँ को अपनी संतान से दूर खींच रही हों  । और पुरुष को भी सिर्फ अपनी स्त्री और सन्तति की प्राणरक्षा और भरण पोषण का इंतज़ाम करना था (जो अपने आप में काफी कठिन होता होगा उस समय खंड में ) । लेकिन मनोरंजन के कोई बहुत अधिक साधन न होने से यौनाकर्षण आज से कहीं अधिक रहा होगा, तो संतानें होती चली जाना बहुत स्वाभाविक होता होगा । तो स्त्री नवप्रसूता की स्थिति में ही होती अक्सर, और उसे रूचि संतान में होती, और पुरुष को परिवार के जीवन यापन का प्रबंध करना होता । 

जब परिवार है, तो घर भी चाहिए । घर है तो उस को सजाना सम्हालना भी होगा  । यदि पति शिकार पर गया है, जाता है, रोज जाता है , तो घर की देखभाल स्वतः ही नारी पर आ गयी होगी , क्योंकि वह संतान के साथ उसकी सुरक्षा के लिए घर पर रहती होगी । यह कोई ऊपर से थोपी हुई स्थिति न हो कर प्रकृतिजन्य स्थित थी, जिसमे "शोषण" जैसी कोई कल्पना नहीं थी । 

पुरुष को सन्तति पर अपना अभिज्ञान चाहिए, स्त्री को अपनी संतान की देख रेख में सहयोग चाहिए  । जो जोड़े एक दुसरे की इस आपसी आवश्यकता की पूर्ती कर रहे हों, वे स्वाभाविक रूप से साथ रहने लगे, रहते रहे - तो परिवार की इकाई बनी होगी । इसमें शोषण कहाँ है ? कार्य के बंटवारे को तात्कालिक रूचि के अनुरूप किया गया - और वह धीरे धीरे आदत में आ गया , "स्वाभाविक रूचि" से हट कर "अपेक्षित कर्त्तव्य" में परिवर्तित हो गया होगा ।  

जिन स्त्री और पुरुष दोनों की रुचियाँ एक सी हुईं वे एक दुसरे पर आकर्षित होते, और साथ जीवन यापन करते।धॆरे धीरे समाज का विकास हुआ होगा  ।और विभिन्न रुचियों के समूह बनते अगये होंगे जैसा मैंने पिछली पोस्ट में कहा था । स्वाभाविक तौर पर, पढने लिखने वाले परिवारों में जन्मी संतान (चाहे बच्ची या बच्चा) की रूचि उस ओर ही बढती । लेकिन सामाजिक समूह बन जाने से पहले ही, पाषाण काल से ही , परिवार में स्त्री और पुरुष के कार्यक्षेत्र का विभाजन हो आया था ।  

तो यह ऐसा था की - लड़कियों को पढने, शिकार सीखने धनुष्बाजी  सीखने, आदि आदि "बाहरी कार्य सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उसके पास  मातृत्व की पूँजी है" । जिसके "बदले में" उसे जीवन भर सम्हालने के लिए, उसका भरण पोषण करने के लिए "पुरुष"  स्वयं सामने आयेंगे । तो आवश्यक नहीं कि वह ज्ञान, शक्ति या धन अर्जित करने की प्रतियोगिता में पड़े । यह "न करने की सुविधा"  कब और कैसे "न कर सकने की मजबूरी" में बदल गयी होगी, कोई जान ही न पाया होगा।

जैसा मैंने पिछली पोस्ट में कहा था - ज्ञान, शक्ति और धन, ये तीनों शक्ति के तीन केंद्र हैं जिनसे समाज चलता है । समाज निर्माण के पहले के जंगली समय में तो स्त्रियाँ बाकी तीनों शक्तिकेंद्रों से बढ़ कर मातृत्व शक्ति केंद्र होने से परम धनिक थीं, तो उन्हें माँ के रूप में पूजा गया, अर्थात सिर्फ माँ बन पाने के कारण ही पुरुष ने उन्हें शीश पर लिया , पूजनीय माना, उनकी सेवा की । 

लेकिन समय बीतने के साथ स्थिति पूरी तरह पलट गयी । इस स्वाभाविक "सन्तति प्रेम" में उलझी रह गयी स्त्री पुरुष के समकक्ष अपनी प्रतिभाओं की प्रगति करने में पिछड़ गयी, और ज्ञान, दर्शन , शक्ति, धन हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी रूचि होते हुए भी इन रुचियों के "संतान प्रेम की रूचि" से कमतर होने के कारण उतनी प्रगति नहीं की जितनी वे स्वाभाविक तौर पर कर सकती थीं  । इस बीच बाकी हर क्षेत्र में हो रही प्रगति में न तो तत्कालीन स्त्रियाँ सहभागी ही हो सकीं , न जान ही सकीं कि हो क्या रहा है  । तो आरंभिक दर्शन बनाए पुरुषों ने , धर्मग्रन्थ लिखे पुरुषों ने, परिभाषाएं गाढ़ी पुरुषों ने । स्वाभाविक ही था कि उन दर्शनशास्त्रों में पुरुष का ही दर्जा स्त्री से ऊपर था  । 

परिवार की इकाई की संस्थापना ऐसे हुई होगी (जो पाषाण युग में पुरुष का स्त्री के स्वाभाविक मातृत्व से प्राप्त "संतान पर अधिकार" को अपना नाम देने और सहभागी होने की आवश्यकता से शुरू हुआ होगा) 

पुरुष की स्थिति :-
"अपनी संतान पर तुम्हारी पहचान और अधिकार तो स्वयं सिद्ध है । तुम मुझे अपनी स्वयंसिद्ध संतान पर पहचान और अधिकार दो - उसके बदले में मैं तुम्हे सब सुविधायें  दूंगा । यदि मैं राजा हूँ, तो तुम रानी । यदि मैं यज्ञकर्ता हूँ तो तुम उस यज्ञ में बराबरी की सहभागिनी होगी, यदि मैं धनार्जन करता हूँ तो तुम उस धन की बराबरी की स्वामिनी होगी । मेरी शक्ति, मेरे ज्ञान, मेरी संपत्ति आदि सब पर तुम्हारा मेरे ही जितना अधिकार होगा, तुम्हे सिर्फ इतना करना है कि तुम्हारे गर्भ से जन्मी हर संतान "मेरी संतान" होने की मुझे आश्वस्ति देनी है (जो तब ही हो सकता था जब स्त्री शारीरिक तौर पर सिर्फ एक पुरुष के साथ सम्बन्ध बनाए)"   

स्त्री की स्थिति :-
"मैं माँ हूँ । मैं तुम्हे यह आश्वासन देती हूँ कि मेरी हर संतान तुम्हारी होगी (जो तभी संभव था जब स्त्री "पतिव्रता" हो)  । इसके बदल तुम मेरी , और मेरी संतानों की , आवश्यकताओं की पूर्ती करोगे और तुम भी मेरे प्रति निष्ठावान रहोगे । तुम्हारी हर वस्तु पर मेरा बराबर अधिकार होगा । "

यह शायद विवाह संस्था की शुरुआत थी । फिर संतानों के साथ इकाई हो जाने से सन्तान और माता पिता का स्वाभाविक प्रेम होने से , उसकी भलाई आदि के चलते, उसके जीवन साथी का चुनाव भी "अनुभवी और समझदार" परिवार की ओर से होने लगा होगा ।  लडकी को माँ बनना है, उसी "मातृत्व" संपदा पर जीवनयापन करना है , तो उसके लिए परिवार खोजने में माता पिता अपने ही जैसे (या बेहतर) परिवार की तलाश करते - और यह सब धीरे धीरे हर एक वर्ग समूह में बैठता चला गया होगा । 

जीवन की राह पर चलने के तरीके का चुनाव "स्वरूचि" से बदल कर "दूसरों के अनुसार रहने/ करने की मजबूरी" हो जाने पर जीवन शैली स्वाधीन नहीं रहती , परतंत्र हो जाती है । "प्रेम और भला सोचना" धीरे धीरे "अधिकार ज़माना और शोषण" में बदल जाता है । संतान प्रेम/ मोह में अंधी हुई और उस "मातृत्व शक्तिकेंद्र" की स्वामिनी होने से "पूजित और सेवित" बनी स्त्रियों के साथ यही हुआ होगा । ठहरा पानी अक्सर सड़ने लगता है  । सन्तान और मातृत्व की शक्ति पर सीमित रह गयी स्त्री , पुरुष के समकक्ष प्रगति न कर सकी, और धीरे धीरे परिवार संस्था ने उसे जकड लिया होगा । वह स्वतंत्र से मजबूर , और सेवित से सेविका , बन गयी होगी । 

विभिन्न वर्गों द्वारा विभिन्न वर्गों के बारे में विचार, शोषण आदि पर आगे के भागों में बात होगी । 

पढने के लिए आभार ।  

जारी ..... 

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

सभ्यता शासन क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया 4

पुराने भाग 1  2  3  

इस भाग में मैं इन व्यवस्थाओं के चलते बन गयी वर्ण व्यवस्था और वर्ग असमानता  के कारणों पर बात करूंगी । 

अगले भाग में "स्त्री - पुरुष" वर्ग विभिन्नता, और उसके अगले भाग में इन असमानताओं के चलते बन गए , सही और गलत , सामाजिक नियमों, परम्पराओं और "शोषण" आदि पर बात करेंगे 
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यह नीला भाग वह है जो मैंने पिछले भाग में मैंने कहा , इसे न पढ़ना चाहें तो यह नीला भाग छोड़ कर नीचे चले  जाएँ)

मुझे लगता है कि अपने समाज में आदर पाने की इच्छा हर मनुष्य में अन्तर्निहित है । इस निहित इच्छा की पूर्ती तभी हो सकती है जब व्यक्ति कोई न कोई ऐसा कर्म करता हो, जो उसे दूसरों के मन में सम्मानित बनाए। सम्मान प्राप्त करने योग्य कर्म क्या होंगे ? 

1. समाज की / समाज के मूल्यों की (बाहुबल , शक्ति , अस्त्र शस्त्रादि से ) रक्षा करना (क्या आज हम अपने सेना के जवानों का आदर नहीं करते क्योंकि वे अपनी जान खतरे में रख कर हमारे जीवन और समाज को रक्षित करते हैं?) 

2. ज्ञान पथ पर चलना / पुराने अर्जित ज्ञान को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने और सम्हालने का कार्य करना / नयी नयी खोजें करना / विद्यार्जन और विद्यादान करना , वैद्य आदि हो कर लोगों की जान बचाना, दर्द दूर करना । (आज भी साइंटिस्ट डॉक्टर्स और टीचर्स का बहुत सम्मान है समाज में) ।

3. धनवान होना, समाज की / लोगों की ज़रूरतों की चीज़ें बनाना / बेचना, कई लोगों को रोजगार मुहैया करा सकना (आज के टाटा बिडला अम्बानी की तरह?)

मैं धार्मिक व्यवस्थाओं / सुव्यवास्थाओं / कुव्यवस्थाओं या अप्व्यवस्थाओं की बात नहीं कर रही, मैं सिर्फ सम्मान पाने के योग्य कर्म पथों की बात कर रही हूँ ।

मुझे लगता है की इन कर्मों में लगने वाले लोग क्रमशः क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य कहलाये होंगे समाज की नयी नयी गढन के समयखंड में जिनकी रूचि इन तीनों कर्मों में स्पेसिफिक न रही हो, वे इन तीनों कर्मों में लगे लोगों का सहयोग करने लगे होंगे, और यह "सिर्फ सहयोग" या "सेवा कर्म" बाकी तीनों कर्मों से क्षुद्र माना गया होगा ? यह "क्षुद्र" कर्म कहलाने से "शूद्र" कहलाये होंगे शायद ? ........ और ये सब कर्मपथ , धीरे धीरे , संतान मोह के कारण , और माहौल के अनुसार रुचिकर कर्मपथ का चुनाव करने की मानवीय प्रकृति, के कारण रूढ़ हो कर जन्म से जुड़ गये होंगे । 

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पहले लेते हैं कि दूसरों द्वारा ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ क्यों माना गया होगा ?

ब्राह्मण विद्योपार्जन और विद्यादान में कर्मरत रहने और शोध करने वाले जन थे । जब बाकी सब वर्गों को अपनी अगली सन्तति के विद्याध्ययन और "ट्रेनिंग" के लिए ब्राह्मणों पर ही निर्भर होना होता, तो यह आवश्यक था की विद्याग्रहण करने वाले बालक के मन में यथोचित सम्मानपूर्ण भावनाएं हों । क्या हमारे बच्चे किसी ऐसे व्यक्ति से कुछ सीख सकते हैं जिसका वे आदर नहीं करते ? क्या हम अपने बच्चों को अपने गुरुओं का आदर नहीं करना सिखाते ?

न भी सिखाएं, तब भी यह बहुत ही प्राकृतिक है की 6-7 वर्ष का बालक जिस गुरु से शिक्षा ले, उसे बहुत ही ज्ञानी मानता ही है, और अक्सर माता पिटा से भी बढ़ कर टीचर की ही छवि होती है बालमन में । कई बार तो बच्चे को स्कूल में कुछ गलत भी पढ़ाया जाए, और माता उसे सही कराने का प्रयास करे - तो बच्चा यह कह कर नहीं मानता कि "मेरी मिस ने ऐसा ही कहा है" । तो जब पीढियां गुरु को श्रेष्ठ मानती हुई बड़ी होती हैं, तो स्वाभाविक है की विद्यार्जन और विद्यादान में रत व्यक्ति और समाज शेष समाज के लिए आदरणीय होते ही जाते हैं ।

लेकिन शायद कुछ पीढियां बीतने तक ब्राह्मण परिवारों में जन्मे बालक इस आदर को "अर्जित" आदर की जगह "जन्मसिद्ध अधिकार" मानने लगे होंगे - कि मैं ब्राह्मण होने (जन्मने) भर से आदरणीय हूँ । इश्वर और संसार दोनों ही के बारे में शिक्षा देने वाला वर्ग होने से उनकी authority को कोई challenge  नहीं कर पाता होगा, क्योंकि बाकी सब ने तो साड़ी "पोथियाँ पढ़ी" (या श्रुतियां सुनी ) नहीं होती होंगी , ज्ञान में तो वे ब्राह्मणों से उन्नीस ही होते । तो ब्राह्मण जन जो कह दें वही "सत्य" । कब किसने असल में कितना जोड़ा होगा, कौन जानता होगा, कौन बता सकता होगा ?
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दूसरा वर्ग है क्षत्रिय । इन्हें श्रेष्ठ क्यों माना गया होगा ?

किसी भी एक समाज के रूप में हमें दो तरह की मनुष्य निर्मित आपदाओं का सामना करना होता है । बाहरी समाजों के / राज्यों के हमले, और भीतरी अराजक तत्त्वों के / चोर डाकू लुटेरों आदि के हमले । इनसे लड़ने और समाज की रक्षा करने के लिए शक्तिवंतों का एक तबका होना आवश्यक था, जो अपने प्राणों को भी खतरे में रखते हुए भी बाहरी भीतरी हमलावारों से लडे , और समाज को सुरक्षित करे।

इसके बदले में समाज का कर्त्तव्य होता कि वह उन जान पर खेलने वालों को जीवन की सुख सुविधाओं की सामग्रियों मुहैया  कराये । सिर्फ "necessities" नहीं, बल्कि "luxuries" भी - क्योंकि आखिर वह वर्ग अपनी जान खतरे में रख कर बाकी समाज को सुख शांतिपूर्ण जीवन मुहैया कराता होगा न ? शायद् इसी के चलते राजा को "भेंट" देने की परम्परा बनी हो । ......... इसके अलावा, वही शक्तिवंत व्यक्तिसमूह , देश के बुनियादी ढाँचे (infrastructure) को भी बनवाते (सडकें नहरें आदि) तो उसके लिए भी धनराशि चाहिए ही होती - जिसके लिए "कर" व्यवस्था बनी होगी ।

क्या हम में से हर एक अपनी, अपने परिवार की और अपने अधिकारों की रक्षा स्वयं करने में सक्षम है ? क्या भीतरी या बाहरी हमलों के समय हर व्यक्ति अपनी दैनिक पारिवारिक आदि जिम्मेदारियां छोड़ छाड़ कर इस हमलों का मुकाबला कर सकता है ? क्या खेत की कटाई या बुवाई के समय बाहरी शत्रु आने से किसान युद्ध पर चला जाए ? तब समाज खायेगा क्या और जीवित कैसे रहेगा ?

तब ? समाज की रक्षा में ही रत रहने वाला एक बड़ा तबका होना चाहिए । क्योंकि बिना किसी तरह की सामाजिक क़ानून व्यवस्था के तो हर कोई उसे जो सही लगे वैसा कर सकता है । समाज है, तो नियम कायदे भी होंगे । और नियम कायदे उस समयखंड के विश्वासों, मान्यताओं और सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप होंगे, जो समय के साथ बदलते रहेंगे ।

लेकिन नियम होने का अर्थ कुछ रह ही नहीं जाता जब तक उन्हें क्रियान्वित न किया जाए । जो असामाजिक व्यक्ति नियम तोड़े - उसे रोका कैसे जाए ? यदि कोई सामाजिक कानूनों के विरुद्ध जाए, चोरी करे, डकैती करे, उसे रोका कैसे जाए ?

नियम के क्रियान्वन के लिए, समाज की रक्षा के लिए शक्ति और भय आवश्यक थे, हैं और रहेंगे । "अहिंसा" का सिद्धांत बहुत सुन्दर है, किन्तु "भय बिनु होए न प्रीती" । तो - समाज को अराजकता से बचाना हो तो न्याय और सत्य के पक्ष से भी लड़ने वाले को शक्तिवान होना होगा । इस शक्तिवान वर्ग को और अधिक शक्तिवान बनाने के लिए समाज को उसे अधिकार देने होंगे, कि वह आवश्यकता होने पर "दोषियों" को दण्डित कर सके । दोष के अनुसार दंड का नियमन भले ही समाज के बुद्धिमान-गण मिल कर करते हों, या सिर्फ शक्तिवंत अकेले, किन्तु दंड प्रक्रिया के क्रियान्वन का कार्यभार आवश्यक रूप से शक्तिवंतों के ही हाथ में रहना आवश्यक होगा

जब दंड प्रक्रिया के क्रियान्वन का भार शक्तिवंतों (जो क्षत्रिय कहलाये) पर सौंप दिया गया होगा तब आवश्यक रूप से समाज ने उन्हें इस सम्बन्ध में यथोचित निर्णय लेने का उत्तरदायित्व सौप दिया होगा (उत्तरदायित्व शब्द मे अधिकार और कर्तव्य दोनों शामिल हैं ) ।

पर कहते हैं न - power corrupts  and absolute power corrupts absolutely .

तो - जिन "क्षत्रियों" को यह उत्तरदायित्व दिया गया - वे ( उस समय वाले) भले ही अपने उत्तरदायित्व के कर्त्तव्य की ओर जागरूक थे किन्तु, जब यह व्यवस्था कर्म से हट कर जन्म से जुड़ गयी होगी, तो आगामी संततियों के लिए शायद "अधिकार" बड़ा होता चला गया होगा और कर्त्तव्य गौण :(  ।

धीरे धीरे शायद राज्य शासन व्यवस्था चलाने वाले शक्तिवंतों (क्षत्रियों) ने अपना "अधिकार" मान लिया होगा प्रजा से कर लेना, उन्हें दण्डित करना, किन्तु यह भूलते चले गए होंगे कि  राज्य की रक्षा और प्रजा की रक्षा के लिए उन्हें यह स्थान दिया गया था । दुर्भाग्य से आज "डेमोक्रसी में भी यही होता जा रहा है ।
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तीसरा वर्ग है "वैश्य"
- वे - जो समाज के नए नए निर्माण के समय्खंड में , सामाजिक उपयोग की वस्तुएं बनाने और बेचने, धनोपार्जन करने, रोजगार मुहैया कराने आदि के कर्म में लगे । आरंभिक पीढियां तो genuine रूचि और कर्म से प्रेरित रही होंगी । लेकिन फिर -वही  संतान प्रेम / संतान मोह / विरासत/ आस पास के माहौल के कारण बालक पीढ़ी की रूचि का स्वयमेव उस और मुड़ जाना ।

जब एक पीढ़ी ने बड़ी बड़ी संपत्ति इकट्ठी की / कारोबार चलाया , तो स्वाभाविक रूप से वह विरासत में उसकी पीढ़ियों तक पहुंची । और वह कहते हैं न - money breeds money , तो आने वाली सन्ततियां और धनाढ्य होती चली गयी होंगी । जब धनाढ्य हुए तो धन की शक्ति बढती चली गयी होगी । धन बढ़ता चला जाने से अपने से कम धनवानों को हे दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति भी अक्सर आ ही जाती है , सो आ गयी होगी ।
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और चौथा वर्ग है "शूद्र"
- वे, जो उस समय्खंड में ऊपर दिए कर्मक्षेत्रों (शक्ति से समाज की रक्षा, ज्ञानोपार्जन और वितरण, धनोपार्जन और सामाजिक आवश्यकता की वस्तुओं / रोगारों का उत्पादन ) में ख़ास तौर पर न रमे होंगे, वे इन सब में लगे हुए लोगों को (यथोचित पारिश्रमिक के साथ) सहयोग देते होंगे  । (उनके काम का भी उस समय खंड में उतना ही मान रहा होगा, तभी तो पारिश्रमिक मिलता होगा न ?)

धीरे धीरे समाज की भीतरी बाहरी आक्रमणों से रक्षा का का उत्तरदायित्व लिए क्षत्रिय , विद्या क्षेत्र में रत ब्राह्मण और धनाढ्य वर्गों का प्रभाव बढ़ता चला गया होगा । सबके पास एक एक शक्ति केंद्र होने से उनकी शक्ति भी बढ़ गयी होगी और साख भी ।

और जो सहयोग कर्म में लगे थे वे जान ही नहीं पाए होंगे की समय के साथ इन तीनों में से एक भी शक्तिकेंद्र उनके पास नहीं होने से उनकी स्थिति समाज में कमज़ोर पड़ती चली जा रही है । वे यह भी नहीं जान पाते होंगे कि उनके अधिकार भी बाकी सब के बराबर ही हैं - न कम न ज्यादा । स्वयं को दूसरों का "सेवक" मान कर ही जीवन यापन करते करते वे अपने शोषण को स्वीकारने पर मजबूर होते गए होंगे ।
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एक और वर्ग है -"स्त्रियाँ"
ऊपर के हर वर्ग में स्त्रियाँ हैं और पुरुष भी । वह भी करीब करीब बराबर संख्या में । और अक्सर स्त्री और पुरुष की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में फर्क भी है ही, हर वर्ग में ।

हम कितना भी झुठला लें सच तो यही है कि हमारे समाज में यह फर्क है । कन्या भ्रूण ह्त्या हो या दहेज़ हत्या  , आये दिन होने वाले बलात्कार हों, सड़कों पर होने वाली छेडखानियाँ हों, चेहरे अपर एसिड फेंकने की घटनाएं हों, - सब अक्सर स्त्रियों के ही साथ होते हैं । क़ानून कुछ भी कहे हम कितना ही कहें कि  यह नहीं हो रहा - लेकिन हम सब जानते हैं कि यह हो रहा है । यह सब दुर्गुण इसी सामाजिक परिवेश से आये हैं । यह कैसे और क्यों हुआ होगा - इस पर बातचीत अगली पोस्ट में - यह पोस्ट काफी लम्बी हो चली है ।

जारी ....

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

सभ्यता शासन क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया 3


पिछले  भाग 1 ,  2
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पिछले भाग में यह कहा -
.... सिर्फ और सिर्फ अपने निजी अनुभव से सीखने तक सीमित न रहना पड़े, बल्कि इससे पहले की पीढ़ियों द्वारा हुई शोधों से वे आगे बढ़ सकें । ... इसके लिए अब तक अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण भी आवश्यक था । अर्जित ज्ञान के हस्तांतरण, सामाजिक न्यूनतम आवश्यक ज्ञान आदि के लिए शिक्षा व्यवस्था आवश्यक थी , संस्कृतियाँ आवश्यक थीं ।....
.... यदि समाज के हर व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा की चिंता से दूर रह कर अपने रुचिकर क्षेत्र में प्रगति करनी हो, तो आवश्यक था कि समाज सुरक्षित हो ।.....
.... समाज को इस बुनियादी चिंता से मुक्ति मिली रहे, और एक शांतिपूर्ण अस्तित्व में वे दूसरी "मानवीय" दिशाओं में अपने ज्ञान और कला की और अग्रसर हो सकें ।.... क़ानून व्यवस्थाएं समय समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहीं ।

अब आगे
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अब बात करते हैं समसामयिक मापदंडों की । मैं सोचती हूँ कि यदि हमें सभ्यता की और अग्रसर होते रहना हो, तब तो आवश्यक है कि सहज सह-अस्तित्व के लिए सुचिंतित और परिपक्व प्रयास हों । आवश्यक था कि  , यदि मानव के भीतर की शुभ प्रकृतियों का विकास होना हो, तो अशुभ प्रकृतियों का नियंत्रण भी हो।

मानव के भीतर स्वाभाविक इच्छा है - अपने समूह में सम्मानित होने की, प्रतिष्ठित होने की, समादर प्राप्त करने की । आदर प्राप्त करने के लिए व्यक्ति या तो ज्ञान अर्जित करे, सुकर्म करे, या शक्तिशाली हो, या धनवान हो । और इनमे से जो भी दिशा चुनी जाए, उस दिशा की ओर बालपन से ही समुचित प्रशिक्षण होने की परम्परा बन गयी हो ।

ज्ञान प्राप्ति एवं विस्तार के मार्ग पर चलने वाले शायद ब्राह्मण हुए होंगे,
शक्ति, देशरक्षा, समाज रक्षा के मार्ग पर जाने वाले शायद क्षत्रिय हुए होंगे ,
धन और अर्थ का अर्जन करने वाले वैश्य हुए होंगे

जो इस प्रतियोगिता में पीछे रह गए होंगे समाजों की नयी स्थापना के समयखण्ड में, वे दुसरे कर्मों में लगे रहने वाले लोगों कोछोटे मोटे कार्यों में सहयोग देते होंगे  । इसके लिए उन्हें जो "मेहनताना" मिलता होगा, वही उनके जीवन यापन के लिए सहायक होता होगा । ध्यान रहे कि समाजों के आरंभिक काल में "मुद्रा" नहीं रही होगी । शायद तब "बार्टर सिस्टम" था - कि मुझे चावल चाहिये और तुम्हे कपडा - और हम दोनों के पास एक दूजे की आवश्यकता की वस्तु है - तो हम दोनों अदला बदली कर लें । तो , सेवा कर्म में लगे लोगों को "उच्च" वर्ग के लोग "मेहनताने" के तौर पर जो भी कुछ देते होंगे, वह धीरे धीरे उनका "अधिकार" न रह कर उन पर शक्तिवंत ज्ञानवंत या धन्वंत समाज की "दया" में मान लिया गया होगा  

सहयोग देने वालों को पता नहीं कब "सेवक" मान लिया गया हो ? क्योंकि "सेवक" उस परिवार की पीढ़ियों से जन्मा होता जो पहले ही खुद को "सेवक" मानते होते, उस व्यक्ति के पास न ज्ञान , न शक्ति, न धन होता अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, न ही उस वर्ग के व्यक्ति के पास यह जानकारी ही होती कि वह भी उतना ही अधिकारी है मानवीय अधिकारों का, जितने वे लोग जिन्हें वह अपने "मालिक" या "भाग्य विधाता" माने बैठा है - तो धीरे धीरे उस वर्ग ने अपने अधिकारों की सचेतता न हने से अपने अधिकारों की मांग भी बंद कर दी होगी ।

दुर्भाग्य से, सन्तति के प्रति जो प्रेम और उसके उत्थान के उद्देश्य से बनी बढ़ी शैक्षणिक व्यवस्था , सामाजिक व्यवस्था, क़ानून आदि व्यवस्था, उस प्रेम के मोह के ही चलते, धीरे धीरे योग्यता से घूम कर जन्म और परिवार से जुड़ गयी होगी । अपने आसपास जो हम देखते हैं - नेता के बच्चे नेता, अभिनेता के अभिनेता, डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर आदि कई उदाहरण दीखते हैं ।  तरह से, तथाकथित "उच्च" वर्ग भी यही चाहते होंगे न , कि उनकी संतान भी उन्ही के मार्ग चले ? बहुत स्वाभाविक रहा होगा की ब्राह्मण अपने बच्चों को ज्ञानार्जन और उसके प्रतिपादन की दिशा दें, तो क्षत्रिय उन्हें सामाजिक क़ानून व्यवस्था और देश रक्षा की ओर मोडें। वही धन-अर्जन करने वाले - वैश्य, अपने बच्चों को अपने ही ख़ास कर्म में प्रेरित करें , किसान का बच्चा किसान, सोनार का बच्चा सोनार हो जाए ।

इस सब में कुछ अपवाद भी अवश्य होते होंगे, जैसे हम जानते भी हैं पौराणिक गाथाओं से, लेकिन अधिकांशतः कर्मपथ का चुनाव कुछ पीढियां जाते जाते, रूचि से हट कर जन्म से जुड़ चला होगा ।
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तो - क्षत्रिय का अर्थ है समाज की रक्षा में लगे लोग, जो भीतर के शत्रुओं (चोर डाकू आदि) और बाहर के शत्रुओं (दुसरे राज्यों की सेनायें) से लड़ने के कर्म में उद्यत लोग । आवश्यक था कि ऐसे लोग अपने कर्म के लिए विशेषज्ञ हों, बेहतर से बेहतर हथियार आदि चला सकें । 

तो उनके पास समय नहीं होता कि  वे अपने लिए शिक्षा, भोजन, घर आदि के लिए समय दे सकें । लेकिन, क्योंकि वे समाज के लिए आवश्यक तौर पर अपने जीवन को खतरे में डालते, तो समाज का कर्त्तव्य होता कि उनका जीवन निर्बाध हो, बल्कि विलासपूर्ण होने की सीमा तक भी उनके लिए धन आदि का प्रबंध हो । इस "कर" की संकल्पना के साथ ही यह संकल्पना भी विकसित हुई होगी, कि क्योंकि क्षत्रिय वर्ग को क़ानून व्यवस्था लागू करनी है, तो क़ानून बनाने के अधिकार, निर्णय लेने के अधिकार भी उन्ही के पास आ जाएँ, रहे । 

इसलिए, सब लोग अपने अपने जीवनोपार्जन के लिए जो भी करते, उसमे से इन्हें "कर" के रूप में धन देते , और उनके बनाए / चलाये कानूनों को भी मानते, स्वीकारते । धीरे धीरे,यह सब कब आपसी समझ बूझ से हट कर शक्तिवान "राजा" का अधिकार हो गया होगा, कहा नहीं जा सकता । इसके साथ ही , जब कोई "राजा" और दुसरे "प्रजा" हो गए होंगे, तब क़ानून व्यवस्था की समूची जिम्मेदारी उन्ही को सौंप दी गयी होगी, और धीरे धीरे वे निरंकुश होते गए होंगे ।

समय समय पर क़ानून, मापदंड कैसे बनते बदलते होंगे , किस समूह के प्रति सही और गलत , आदि कैसे हुए होंगे, अगले भाग में आगे बात करते हैं इस बारे में ...