पिछले भाग 1 , 2
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पिछले भाग में यह कहा -
.... सिर्फ और सिर्फ अपने निजी अनुभव से सीखने तक सीमित न रहना पड़े, बल्कि इससे पहले की पीढ़ियों द्वारा हुई शोधों से वे आगे बढ़ सकें । ... इसके लिए अब तक अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण भी आवश्यक था । अर्जित ज्ञान के हस्तांतरण, सामाजिक न्यूनतम आवश्यक ज्ञान आदि के लिए शिक्षा व्यवस्था आवश्यक थी , संस्कृतियाँ आवश्यक थीं ।....
.... यदि समाज के हर व्यक्ति को अपनी निजी सुरक्षा की चिंता से दूर रह कर अपने रुचिकर क्षेत्र में प्रगति करनी हो, तो आवश्यक था कि समाज सुरक्षित हो ।.....
.... समाज को इस बुनियादी चिंता से मुक्ति मिली रहे, और एक शांतिपूर्ण अस्तित्व में वे दूसरी "मानवीय" दिशाओं में अपने ज्ञान और कला की और अग्रसर हो सकें ।.... क़ानून व्यवस्थाएं समय समय की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलती रहीं ।
अब आगे
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अब बात करते हैं समसामयिक मापदंडों की । मैं सोचती हूँ कि यदि हमें सभ्यता की और अग्रसर होते रहना हो, तब तो आवश्यक है कि सहज सह-अस्तित्व के लिए सुचिंतित और परिपक्व प्रयास हों । आवश्यक था कि , यदि मानव के भीतर की शुभ प्रकृतियों का विकास होना हो, तो अशुभ प्रकृतियों का नियंत्रण भी हो।
मानव के भीतर स्वाभाविक इच्छा है - अपने समूह में सम्मानित होने की, प्रतिष्ठित होने की, समादर प्राप्त करने की । आदर प्राप्त करने के लिए व्यक्ति या तो ज्ञान अर्जित करे, सुकर्म करे, या शक्तिशाली हो, या धनवान हो । और इनमे से जो भी दिशा चुनी जाए, उस दिशा की ओर बालपन से ही समुचित प्रशिक्षण होने की परम्परा बन गयी हो ।
ज्ञान प्राप्ति एवं विस्तार के मार्ग पर चलने वाले शायद ब्राह्मण हुए होंगे,
शक्ति, देशरक्षा, समाज रक्षा के मार्ग पर जाने वाले शायद क्षत्रिय हुए होंगे ,
धन और अर्थ का अर्जन करने वाले वैश्य हुए होंगे ।
जो इस प्रतियोगिता में पीछे रह गए होंगे समाजों की नयी स्थापना के समयखण्ड में, वे दुसरे कर्मों में लगे रहने वाले लोगों कोछोटे मोटे कार्यों में सहयोग देते होंगे । इसके लिए उन्हें जो "मेहनताना" मिलता होगा, वही उनके जीवन यापन के लिए सहायक होता होगा । ध्यान रहे कि समाजों के आरंभिक काल में "मुद्रा" नहीं रही होगी । शायद तब "बार्टर सिस्टम" था - कि मुझे चावल चाहिये और तुम्हे कपडा - और हम दोनों के पास एक दूजे की आवश्यकता की वस्तु है - तो हम दोनों अदला बदली कर लें । तो , सेवा कर्म में लगे लोगों को "उच्च" वर्ग के लोग "मेहनताने" के तौर पर जो भी कुछ देते होंगे, वह धीरे धीरे उनका "अधिकार" न रह कर उन पर शक्तिवंत ज्ञानवंत या धन्वंत समाज की "दया" में मान लिया गया होगा ।
सहयोग देने वालों को पता नहीं कब "सेवक" मान लिया गया हो ? क्योंकि "सेवक" उस परिवार की पीढ़ियों से जन्मा होता जो पहले ही खुद को "सेवक" मानते होते, उस व्यक्ति के पास न ज्ञान , न शक्ति, न धन होता अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, न ही उस वर्ग के व्यक्ति के पास यह जानकारी ही होती कि वह भी उतना ही अधिकारी है मानवीय अधिकारों का, जितने वे लोग जिन्हें वह अपने "मालिक" या "भाग्य विधाता" माने बैठा है - तो धीरे धीरे उस वर्ग ने अपने अधिकारों की सचेतता न हने से अपने अधिकारों की मांग भी बंद कर दी होगी ।
दुर्भाग्य से, सन्तति के प्रति जो प्रेम और उसके उत्थान के उद्देश्य से बनी बढ़ी शैक्षणिक व्यवस्था , सामाजिक व्यवस्था, क़ानून आदि व्यवस्था, उस प्रेम के मोह के ही चलते, धीरे धीरे योग्यता से घूम कर जन्म और परिवार से जुड़ गयी होगी । अपने आसपास जो हम देखते हैं - नेता के बच्चे नेता, अभिनेता के अभिनेता, डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर आदि कई उदाहरण दीखते हैं । तरह से, तथाकथित "उच्च" वर्ग भी यही चाहते होंगे न , कि उनकी संतान भी उन्ही के मार्ग चले ? बहुत स्वाभाविक रहा होगा की ब्राह्मण अपने बच्चों को ज्ञानार्जन और उसके प्रतिपादन की दिशा दें, तो क्षत्रिय उन्हें सामाजिक क़ानून व्यवस्था और देश रक्षा की ओर मोडें। वही धन-अर्जन करने वाले - वैश्य, अपने बच्चों को अपने ही ख़ास कर्म में प्रेरित करें , किसान का बच्चा किसान, सोनार का बच्चा सोनार हो जाए ।
इस सब में कुछ अपवाद भी अवश्य होते होंगे, जैसे हम जानते भी हैं पौराणिक गाथाओं से, लेकिन अधिकांशतः कर्मपथ का चुनाव कुछ पीढियां जाते जाते, रूचि से हट कर जन्म से जुड़ चला होगा ।
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तो - क्षत्रिय का अर्थ है समाज की रक्षा में लगे लोग, जो भीतर के शत्रुओं (चोर डाकू आदि) और बाहर के शत्रुओं (दुसरे राज्यों की सेनायें) से लड़ने के कर्म में उद्यत लोग । आवश्यक था कि ऐसे लोग अपने कर्म के लिए विशेषज्ञ हों, बेहतर से बेहतर हथियार आदि चला सकें ।
तो उनके पास समय नहीं होता कि वे अपने लिए शिक्षा, भोजन, घर आदि के लिए समय दे सकें । लेकिन, क्योंकि वे समाज के लिए आवश्यक तौर पर अपने जीवन को खतरे में डालते, तो समाज का कर्त्तव्य होता कि उनका जीवन निर्बाध हो, बल्कि विलासपूर्ण होने की सीमा तक भी उनके लिए धन आदि का प्रबंध हो । इस "कर" की संकल्पना के साथ ही यह संकल्पना भी विकसित हुई होगी, कि क्योंकि क्षत्रिय वर्ग को क़ानून व्यवस्था लागू करनी है, तो क़ानून बनाने के अधिकार, निर्णय लेने के अधिकार भी उन्ही के पास आ जाएँ, रहे ।
इसलिए, सब लोग अपने अपने जीवनोपार्जन के लिए जो भी करते, उसमे से इन्हें "कर" के रूप में धन देते , और उनके बनाए / चलाये कानूनों को भी मानते, स्वीकारते । धीरे धीरे,यह सब कब आपसी समझ बूझ से हट कर शक्तिवान "राजा" का अधिकार हो गया होगा, कहा नहीं जा सकता । इसके साथ ही , जब कोई "राजा" और दुसरे "प्रजा" हो गए होंगे, तब क़ानून व्यवस्था की समूची जिम्मेदारी उन्ही को सौंप दी गयी होगी, और धीरे धीरे वे निरंकुश होते गए होंगे ।
समय समय पर क़ानून, मापदंड कैसे बनते बदलते होंगे , किस समूह के प्रति सही और गलत , आदि कैसे हुए होंगे, अगले भाग में आगे बात करते हैं इस बारे में ...
मानव के भीतर स्वाभाविक इच्छा है - अपने समूह में सम्मानित होने की, प्रतिष्ठित होने की, समादर प्राप्त करने की । आदर प्राप्त करने के लिए व्यक्ति या तो ज्ञान अर्जित करे, सुकर्म करे, या शक्तिशाली हो, या धनवान हो । और इनमे से जो भी दिशा चुनी जाए, उस दिशा की ओर बालपन से ही समुचित प्रशिक्षण होने की परम्परा बन गयी हो ।
ज्ञान प्राप्ति एवं विस्तार के मार्ग पर चलने वाले शायद ब्राह्मण हुए होंगे,
शक्ति, देशरक्षा, समाज रक्षा के मार्ग पर जाने वाले शायद क्षत्रिय हुए होंगे ,
धन और अर्थ का अर्जन करने वाले वैश्य हुए होंगे ।
जो इस प्रतियोगिता में पीछे रह गए होंगे समाजों की नयी स्थापना के समयखण्ड में, वे दुसरे कर्मों में लगे रहने वाले लोगों कोछोटे मोटे कार्यों में सहयोग देते होंगे । इसके लिए उन्हें जो "मेहनताना" मिलता होगा, वही उनके जीवन यापन के लिए सहायक होता होगा । ध्यान रहे कि समाजों के आरंभिक काल में "मुद्रा" नहीं रही होगी । शायद तब "बार्टर सिस्टम" था - कि मुझे चावल चाहिये और तुम्हे कपडा - और हम दोनों के पास एक दूजे की आवश्यकता की वस्तु है - तो हम दोनों अदला बदली कर लें । तो , सेवा कर्म में लगे लोगों को "उच्च" वर्ग के लोग "मेहनताने" के तौर पर जो भी कुछ देते होंगे, वह धीरे धीरे उनका "अधिकार" न रह कर उन पर शक्तिवंत ज्ञानवंत या धन्वंत समाज की "दया" में मान लिया गया होगा ।
सहयोग देने वालों को पता नहीं कब "सेवक" मान लिया गया हो ? क्योंकि "सेवक" उस परिवार की पीढ़ियों से जन्मा होता जो पहले ही खुद को "सेवक" मानते होते, उस व्यक्ति के पास न ज्ञान , न शक्ति, न धन होता अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, न ही उस वर्ग के व्यक्ति के पास यह जानकारी ही होती कि वह भी उतना ही अधिकारी है मानवीय अधिकारों का, जितने वे लोग जिन्हें वह अपने "मालिक" या "भाग्य विधाता" माने बैठा है - तो धीरे धीरे उस वर्ग ने अपने अधिकारों की सचेतता न हने से अपने अधिकारों की मांग भी बंद कर दी होगी ।
दुर्भाग्य से, सन्तति के प्रति जो प्रेम और उसके उत्थान के उद्देश्य से बनी बढ़ी शैक्षणिक व्यवस्था , सामाजिक व्यवस्था, क़ानून आदि व्यवस्था, उस प्रेम के मोह के ही चलते, धीरे धीरे योग्यता से घूम कर जन्म और परिवार से जुड़ गयी होगी । अपने आसपास जो हम देखते हैं - नेता के बच्चे नेता, अभिनेता के अभिनेता, डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर आदि कई उदाहरण दीखते हैं । तरह से, तथाकथित "उच्च" वर्ग भी यही चाहते होंगे न , कि उनकी संतान भी उन्ही के मार्ग चले ? बहुत स्वाभाविक रहा होगा की ब्राह्मण अपने बच्चों को ज्ञानार्जन और उसके प्रतिपादन की दिशा दें, तो क्षत्रिय उन्हें सामाजिक क़ानून व्यवस्था और देश रक्षा की ओर मोडें। वही धन-अर्जन करने वाले - वैश्य, अपने बच्चों को अपने ही ख़ास कर्म में प्रेरित करें , किसान का बच्चा किसान, सोनार का बच्चा सोनार हो जाए ।
इस सब में कुछ अपवाद भी अवश्य होते होंगे, जैसे हम जानते भी हैं पौराणिक गाथाओं से, लेकिन अधिकांशतः कर्मपथ का चुनाव कुछ पीढियां जाते जाते, रूचि से हट कर जन्म से जुड़ चला होगा ।
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तो - क्षत्रिय का अर्थ है समाज की रक्षा में लगे लोग, जो भीतर के शत्रुओं (चोर डाकू आदि) और बाहर के शत्रुओं (दुसरे राज्यों की सेनायें) से लड़ने के कर्म में उद्यत लोग । आवश्यक था कि ऐसे लोग अपने कर्म के लिए विशेषज्ञ हों, बेहतर से बेहतर हथियार आदि चला सकें ।
तो उनके पास समय नहीं होता कि वे अपने लिए शिक्षा, भोजन, घर आदि के लिए समय दे सकें । लेकिन, क्योंकि वे समाज के लिए आवश्यक तौर पर अपने जीवन को खतरे में डालते, तो समाज का कर्त्तव्य होता कि उनका जीवन निर्बाध हो, बल्कि विलासपूर्ण होने की सीमा तक भी उनके लिए धन आदि का प्रबंध हो । इस "कर" की संकल्पना के साथ ही यह संकल्पना भी विकसित हुई होगी, कि क्योंकि क्षत्रिय वर्ग को क़ानून व्यवस्था लागू करनी है, तो क़ानून बनाने के अधिकार, निर्णय लेने के अधिकार भी उन्ही के पास आ जाएँ, रहे ।
इसलिए, सब लोग अपने अपने जीवनोपार्जन के लिए जो भी करते, उसमे से इन्हें "कर" के रूप में धन देते , और उनके बनाए / चलाये कानूनों को भी मानते, स्वीकारते । धीरे धीरे,यह सब कब आपसी समझ बूझ से हट कर शक्तिवान "राजा" का अधिकार हो गया होगा, कहा नहीं जा सकता । इसके साथ ही , जब कोई "राजा" और दुसरे "प्रजा" हो गए होंगे, तब क़ानून व्यवस्था की समूची जिम्मेदारी उन्ही को सौंप दी गयी होगी, और धीरे धीरे वे निरंकुश होते गए होंगे ।
समय समय पर क़ानून, मापदंड कैसे बनते बदलते होंगे , किस समूह के प्रति सही और गलत , आदि कैसे हुए होंगे, अगले भाग में आगे बात करते हैं इस बारे में ...
आपने सामजिक संस्था का निर्माण कैसे हुआ इसपर प्रकाश डालने का अच्छा प्रयाश किया है ,यह समाज शास्त्र का विषय है -रोचक है
जवाब देंहटाएंNew post बिल पास हो गया
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चारों वर्ण समाज को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ही बनाये गए थे..विकृतियाँ बाद में आती गयीं..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर,एव सार्थक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंगुण और सहज कर्म पर आधृत वर्ण व्यवस्था कब से जन्म के आधार पर हो गयी यह रोचक है जानना !
जवाब देंहटाएंनेता का बेटा नेता बनता है डाक्टर का बेटा डाक्टर बनता है तो इसमें कुछ बुराई नहीं है वह अपने पिता के अनुभवों से बेहतर सीख हासिल कर सकता है दिक्कत यह है कि भ्रष्ट नेता का बेटा भी भ्रष्टाचार अपना लेता है हमें राजनीतिक तंत्र सुधारने और समाज के मानकों को बदलने की जरूरत है। ज्ञान, धन और शक्ति का विभाजन जिस रूप में आपने किया वो एक अनूठा एंगल है जैसा मैंने कभी नहीं सोचा था।
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति, बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंकर्म आधारित व्यवस्था जन्म में कब बदली , पता नहीं चला ...मगर अफ़सोस यह है की आधुनिक विचारकों ने भी व्यवस्था में सुधार लाने के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की , वह भी जन्म आधारित ही रही .
जवाब देंहटाएंशायद ऐसा ही हुआ हो। कहते हैं कि power corrupts, and absolute power corrupts absolutely इसीलिये पावर का संतुलन आवश्यक है और अपेक्षाकृत विभिन्न स्तर के पावरफ़ुल्स को एट पार लाने के लिये भी न्याय, दंड व्यवस्था आवश्यक है।
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