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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

माता पिता, बच्चे , और दादाजी


यह कहानी मेरी नहीं, कई बार पढ़ी होगी आपने ..... एक बार और सही ....

एक घर में माता पिता ,  उनके दो बच्चे ,  और दादाजी रहते थे ।

दादाजी की उम्र बहुत हो गयी थी, और उनके हाथ कांपते थे । कभी हाथ से चम्मच गिर जाते, कभी दूध के ग्लास से दूध फ़ैल जाता । पति पत्नी आये दिन की परेशानी से तंग आ गये थे ।

एक दिन उन्होंने सोचा कि बहुत हो गया । यह रोज़ रोज़ खाने के बीच का खलल, बीच में रुक कर सफाई - यह सब कितने दिन चलेगा ? तो उन्होंने दादाजी के लिए कोने में एक दूसरी मेज का इंतज़ाम कर दिया । चीनी के बर्तन टूटने से बचाने के लिए उन्हें लकड़ी का बर्तन मिलता भोजन के लिए । 

बेचारे दादाजी - क्या करते ? किसीसे कुछ कहते नहीं थे, बस चुप से अपने कोने में बैठ कर भोजन करते । जब जब कुछ गिरता , बेटे बहु की क्रोधित बातें भी सुनते और चुप चाप खाते रहते । 

कुछ दिन गुज़रे , पोता बड़ा हो चला था । एक दिन पोता गराज में लकड़ी से कुछ बना रहा था - बड़े जतन से । माँ ने - पूछा बेटा - क्या बना रहे हो ? -जवाब आया  लकड़ी के बर्तन बना रहा हूँ । जब आप दोनों दादाजी जैसे बूढ़े हो जायेंगे ......

फिर ?
फिर क्या - पति पत्नी की आँख खुल गयी - अगले ही दिन बेटे ने बूढ़े पिता को बड़े प्रेम से अपने साथ बिठाया और बुजुर्ग व्यक्ति उस दिन से पूरे प्रेम के साथ बाकी परिवार के साथ बैठने लगे । 

क्या हम भी अपने लकड़ी के बर्तनों का इंतज़ार कर रहे हैं ?  या हम अपने पिताजी के कांपते हाथों को थामने को तैयार हैं ?

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय ब्लॉग बुलेटिन पर |

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  2. सैकड़ों बार लिखी गयी कहानी , मगर इसका असर कहाँ मिलता है , हर दुसरे घर में बूढ़े होते माता पिता के लिए वही कोने की मेज है :(

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  3. दुखद पहलू यह है कि नैतिकता बोध का स्मृति काल बहुत ही अल्प होता है. जब जब यह बोध प्रत्यक्ष होता है,सम्वेदनाएँ द्र्वित होती है, किंतु क्षण के व्यतीत होते ही ईगो सर उठा लेता है.इसीलिए ऐसी बोध-कथाओं की अनवरत प्रस्तुति से सम्वेदनाओं की स्मृति को जागृत व ताज़ा रखना नितांत आवश्यक हो गया है.

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  4. सच में ये कहानी पुरानी सही पर सार्थक है और रहेगी

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