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शुक्रवार, 10 मई 2013

सौर मंडल ५ : एस्टेरोइड पट्टी

हममें से अधिकतर जन बचपन से पढ़ते आये हैं :
"मरकरी , वीनस , अर्थ ; 
मार्स जुपिटर सेटर्न ; 
युरेनस नेप्चून प्लूटो ।"

लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है ।

एक तो प्लूटो अब ग्रहों में नहीं गिना जाता - यह एक क्षुद्रग्रह के रूप में नामांकित कर दिया गया है ।
इसके अलावा , मार्स और जुपिटर (मंगल और बृहस्पति) के बीच एक और कक्षा है - जिसमे "ग्रह" नहीं हैं - लेकिन रेगुलरली कक्षा में घूमते हुए कई शिलाखंड से हैं ।
इसके अलावा भी दूसरे अस्तेरोइड्स / कोमेट्स/ मीटियरोइट्स / कोमेट्स  आदि आदि खगोलीय पिंडों /वस्तुओं के बारे में सुना होगा आपने - लेकिन इस भाग में उन सब पर बात नहीं कर रही । यहाँ सिर्फ मेन एस्टेरोइड बेल्ट की ही बात करूंगी ।

बहुत पहले विटेंनबर्ग नामक खगोल प्रेक्षक ने तब तक ज्ञात ग्रहों (मरकरी से सेटर्न ) की विभिन्न कक्षाओं में एक तरह की समानता देखी और उस हिसाब से उन्हें लगा कि मंगल और गुरु के बीच एक और कक्षा होनी चाहिए । इस सिद्धांत का नाम हुआ टिटियस बोड सिद्धांत और बाद में  जब युरेनस ग्रह की खोज हुई तो उसकी कक्षा बिलकुल इस सिद्धांत के अनुरूप (मैच) हुई । इसके बाद एक समूह बनाया गया "खगोलीय पुलिस" { :)))) } जिन्होंने इस 360 डिग्री की कक्षा के 15 - 15 डिग्री के भागों में उस गुमशुदा गृह को खोजने का काम सम्हाला  । आश्चर्य जनक है कि इस खगोलीय पुलिस की और से पहला एस्टेरोइड नहीं खोजा गया, बल्कि किसी गैर सदस्य ( गिसेप पियाजी ) ने पहला शिलाखंड खोजा (वे पहले इसे कोमेट समझे लेकिन पूंछ न होने से इसे पुच्छल तार न मान कर ग्रह मान लिया गया) - जिसका नाम उन्होंने रखा "सेरेस" । और इसे वह खोया हुआ ग्रह समझा गया  ।

लेकिन 15 महीने बाद एक और शिलाखंड दिखा जिसका नाम पालास हुआ । तब सोचा गया कि शायद ये लघु सितारे हैं ? लेकिन ये टिमटिमाते नहीं थे - तो तारे भी नहीं हो सकते थे । इसके बाद मिला जूनो , फिर वेस्ता और फिर एस्त्रिया । इसके बाद बड़ी तेज़ी से इस कक्षा में दूसरे शिलाखंड मिलने लगे ।  तब इस कक्षा का नाम "एस्टरोइड बेल्ट" रख दिया गा और इन सब शिलाखंडों को "अस्टरोइड्स" कहा गया ।

बाद में नेप्चून की खोज ने टिटियस बोड  सिद्धांत को वैज्ञानिकों की नज़र में खारिज कर दिया क्योंकि इसकी कक्षा उसके अनुरूप नहीं थी । लेकिन इसके कारण अस्टरोइड्स की खोज हो चुकी थी । 

पहले समझा गया कि इस कक्षा में एक गृह था जो किसी खगोलीय टक्कर के कारण टूट कर बिखर गया और टुकड़े कक्षा में घूमते रहे  । लेकिन यह सिद्धांत जल्द ही खारिज कर दिया गया , क्योंकि इन टुकड़ों की बनावट आदि असमान थी  और ये बहुत छोटे थे (इस कक्षा में पाए गए सारे पिंडों का द्रव्यमान जोड़ कर भी हमारे चन्द्रमा से ४ % ही आता है) । अब यह माना जाता है कि जब सूर्य और सौर मंडल बन रहे थे तब ग्रह पूरी तरह से बने नहीं थे , बल्कि अलग अलग पिंड थे जो अपनी अपनी कक्षाओं में आने के बाद भी अलग थे  । जब ये आपस में टकराते तो "स्टिकी कोलिज़न" से जुड़ जाते और धीरे धीरे "प्लेनेटीसिमल" बने और बहुत बाद में प्लेनेट । लेकिन इस कक्षा के शिलाखंड जुपिटर के गुरुत्वाकर्षण के कारण ठीक से जुड़ ही नहीं पाए  ।

यह बेल्ट अधिकाँश रूप से खाली ही है । ये शिलाखंड इतने अधिक विस्तार क्षेत्र में फैले हुए हैं और इतने छोटे हैं कि इन तक पहुँचने के लिए बहुत ही सटीक निशाना लगाना होगा । इनकी कुल संख्या दस लाख से भी अधिक है, जिनमे अधिकाँश बहुत ही छोटे हैं ( त्रिज्या / रेडियस माइक्रो मीटर में )। कुछ तो धूल के कणों की तरह बारीक भी हैं । करीब २०० टुकड़े १०० कि.मी. से बड़े हैं ।   ७ और १७ लाख के करीब शिलाखंड ऐसे हैं जो १ कि.मी. से बड़े हैं ।  लेकिन पूरी कक्षा का कुल द्रव्यमान हमारे चन्द्रमा के द्रव्यमान का ४ प्रतिशत भर है। सबसे बड़े चार खंड "सेरेस , वेस्टा , पाल्लास , और हयजिया में ही कुल द्रव्यमान का आधा भाग समाया है । बल्कि अकेले सेरेस में ही एक तिहाई द्रव्यमान समाया है।

ये टुकड़े कार्बन , सिलिकेट, और मेटल प्रधान श्रेणियों में आते हैं । आश्चर्यजनक रूप से किसी भी शिलाखंड पर ज्वालामुखीय प्रधान चट्टानें या किसी भी तरह के ज्वालामुखीय पर्वतों के आसार नहीं मिलते (जबकि वेस्टा और उससे बड़े शिलाखंडों पर इनके पाए जाने की वैज्ञानिक अपेक्षा होती है । )

पुच्छल तारों पर विस्तार में बात किसी और जगह करूंगी । यहाँ सिर्फ इतना कहूँगी कि , माना जाता है कि  बाहरी शिलाखंडों पर बर्फ होगी जो टक्कर आदि से उदात्तीकृत हो जाती होगी जिससे ये धूमकेतु बनते होंगे , क्योंकि इनमे हाइड्रोजन ड्युटेरियम का अनुपात शास्त्रीय धूमकेतुओं से अलग है । यह भी माना जाता है (मतभेदों के साथ) कि  शायद इसी बेल्ट के कोमेट्स से पृथ्वी के सागर बने हों ।

अस्टरोइड्स आपस में टकराते भी रहते हैं । कुछ टक्करें "स्टिकी कोलिज़न" होती हैं - अर्थात दोनों जुड़ जाते हैं , तो कुछ टक्करें एक शिलाखंड को बिखेर भी देती है । इनमे से कुछ टूटे टुकड़े मीटीयरोइड बन जाते हैं  । ऐसे ही मीटीयरोइड की टक्कर से माना जाता है कि  पृथ्वी पर डायनोसौर प्रजाति का विनाश हुआ ( अटकलें ? ) ।

यह बेल्ट इतनी खाली है कि धरती के अनेक अंतरिक्ष वाहन इससे होकर गुज़र चुके हैं और अब तक कोई टक्कर नहीं हुई है । सबसे पहले पायोनियर १० इससे होकर गुजरा था ( July 16, 1972) जिसके बाद कई और वाहन गुज़र चुके हैं । डौन तो बाकायदा वेस्ता के उपग्रह की तरह घूमा July 2011 से September 2012 तक ।

आगे के भागों में आगे बात होगी । 

14 टिप्‍पणियां:

  1. विज्ञान संचार का सत्प्रयास

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  2. रोचक जानकारी, विधार्थियों के साथ साथ आमजन के लिये भी लाभदायक।
    सदस्य-शतक की बधाई :)

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    1. आभार है जी :)

      शतक का बड़ा इन्तज़ार था। लेकिन पता नही चला कि हो गया । क्योंकि आजकल मोबाइल पर ज्यादा रहती हूँ। इसमें दिखा नही। आपने ही बताया। आपके मुंह में घी शक्कर। :)

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  3. ब्रह्मांड के बारे में सरल भाषा में अति रोचक जानकारी मिली.

    रामराम.

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  4. 101 वें सदस्य के रूप में अगले शतक की शुरूआत हमने कर दी.:)

    रामराम.

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  5. आपके लेख सामग्री के चोरी होने की पूरी संभावना है, इसके कुछ भागो को मै अपनी लेखमाला मे जोड़ुगा!

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    1. आशीष जी
      यह शायद मुझे आज तक मिला बेस्ट कॉम्पलिमेंट है :)

      बहुत आभार आपका कि आपने यहाँ की सामग्री को अपने लेखों में शामिल करने योग्य समझा ।

      @@ चोरी - इस लेख माला में मेरी अपनी कोई भी सामग्री नहीं है - सिर्फ पहले से ज्ञात जानकारी की शेयरिंग है । सिर्फ शब्द मेरे हैं ।

      इस लेखमाला के लेखों की जानकारी जो चाहें, जहां चाहे, जितना चाहे शेयर कर सकते हैं । आप ही के शब्दों में - उद्देश्य है अधिकाधिक वैज्ञानिक जानकारी हिंदी में सुलभ तरीके से उपलब्ध करना - बस :)

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  6. आदरणीया शिल्पा जी, सादर प्रणाम। आज पहली बार आपके ब्लॉगपर आना हुआ। काफी ज्ञानवर्धक ब्लॉग है आपका। अच्छा लगा।
    कृपया मेरे ब्लॉग्सपर भी पधारें। पसंद आनेपर सदस्य के रूप में शामिल होकर प्रोत्साहित अवश्य करें।

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  7. उत्तर
    1. श्री राम हो या कृष्ण धोखा धोखा होता है उसमे खुद्दारी नही ........ जो धोखेसे मारते है वो भी पाप का अधिकारी है ........उसको ये जन्म या अगले जन्ममै उसका प्रायीचीत करना पडता है..........

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