पोथी पढ़ कर जग मुवा
पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय ....
कितना सच है यह।
दो मार्ग हैं :-
वृहद् प्रेम (भक्ति) , और ज्ञान ।
ओशो हमेशा कहते हैं कि भक्ति प्रेम का ही शीर्षासन से सीधा खडा हो जाना होता है । प्रेम जब एक "व्यक्ति" पर केन्द्रित हो, तब वह बीज रूप है, और जब समस्त अस्तित्व से हो जाए - तब वही भक्ति का वृक्ष हो जाता है।
लेकिन अस्तित्व से प्रेम करना बड़ा कठिन है, क्योंकि वह अकेंद्रित है । भक्ति संसार के केन्द्रित रूप से करना आसान होता है - इसीलिए "राम", "कृष्ण","जीज़स", "GOD", "मातारानी", "गणपति बप्पा", "ईश्वर" या "शिव" ......ये "व्यक्ति" रूप में समूचे अस्तित्व का समन्वय प्रकट होते हैं, और भक्ति केन्द्रित हो जाती है , संभव हो जाती है ।
जब हम व्यक्ति से प्रेम में होते है (शीरी का फरहाद से , या मजनू का लैला से प्रेम) तो उस प्रेम के केंद्र के अलावा कोई वस्तु हमें नहीं खींच पाती - खींच ही नहीं सकती । पथ भ्रष्ट होने का प्रश्न होता ही नहीं , क्योंकि वह प्रेम इतना गहन है, इतना आकर्षक है, कि कोई और आकर्षण उससे अलग कर ही नहीं पाए । सोनी को चहुँ दिश महिवाल ही भासता है, और राधा को कृष्ण के अलावा कुछ नहीं दीखता । जब उद्धव गोपियों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं , तो वे हंसती हैं - कहती हैं कि आप तो पंडित हैं - हमारे "तुच्छ" प्रेम को आप क्या जानेंगे ? वह आते तो हैं उनके "तुच्छ" प्रेम को हटा कर उन्हें ज्ञान मार्ग दिखाने - किन्तु होता उल्टा यह है कि वे खुद ही भक्ति मार्ग पर चल पड़ते हैं ।
किन्तु ज्ञान मार्ग पर हम पोथियाँ पढ़ते हैं - जो हमें सिखाती हैं कि ज्ञानवान व्यक्ति को छोटी छोटी बातों से विचलित नहीं होना चाहिए , और यह सच भी है । तो हम वह सीख लेते हैं । परेशानी यह हो जाती है - कि यह बात ज्ञान मार्ग के यात्री को सिखाई जा रही थी - किन्तु वह यात्री इसे सभी पर लागू कर देने लगता है । वह भूल जाता है कि उन पोथियों में लिखी बातें उसने (और संभवतः उसके परिवार जनों ने) तो जानी और पढ़ी हैं, किन्तु "सभी" ने नहीं पढ़ीं । वह सभी मनुष्यों से अपेक्षा रखने लगता है कि वे ज्ञानी हों, और उनके दर्दों को भावनाओं को नज़रंदाज़ करने लगता है , छोटा मानने लगता है (और ज्ञान का प्रकाश जहां हो वहां वे छोटे दुःख और दर्द तुच्छ हैं भी - किन्तु भूल यहाँ हो जाती है कि वह यात्री यह भूल ही जाता है कि ज्ञान का प्रकाश सबके पास है नहीं )। वह बड़े बड़े गूढ़ शब्द उपयोग करता है अपनी बातें कहने के लिए - यह भूलते हुए कि "सब" जो उतने ज्ञानी नहीं हैं - वे तो उन शब्दों को उक्तियाँ या मुहावरे भर नहीं समझेंगे - उन्हें वे शब्द शूल की तरह चुभ सकते हैं ।
गीता में कृष्ण- अर्जुन संवाद में भी यह बात आती हैं की ज्ञान मार्ग श्रेष्ट तो है - किन्तु इस मार्ग पर अहंकार के चलते च्युत हो जाने का भय बहुत है । वेदों की घुमावदार बातों में उलझना बहुत सामान्य है । अहंकार इतना दबे पाँव आता है कि मनुष्य जान ही नहीं पाता कि वह कब आ गया ।
अच्छा हो यदि व्यक्ति अपने दस साल पुराने और आज के चित्र देख कर मिलान करे और देखे कि दोनों चित्रों में उम्र के फर्क के अलावा कहीं आँखों में विनय की जगह अहंकार तो नहीं दिखने लगा है ?
एक कविता (यदि इसे कविता कहा जा सके तो ) प्रस्तुत है
आओ चले हम
ज्ञान से प्रेम की ओर
अहंकार से समत्व की ओर
मैं से हम की ओर
ज्ञान की गाडी में चलते
मार्ग चलते दूसरे पैदल राही
हमें मार्ग के कीड़े न दिखें
नेक रस्ते पर जब हम चलें
भूल से भी भूल न करें
दूसरों को जय नहीं ,
मन पर हम जय करें
आईने में जिस देख कर
खोज स्वयं की करें
पडी धूल उस आईने पर
उसे रोज़ साफ़ करें,
अपने बिम्ब की शुभ्रता पर
मन को मिहित न करें,
परिदृश्य में धूमिल पड़े,
श्याम बिम्ब भी हमें दिखें ..
गाय को हम पूजते
गाय सरीखे मन बनें
शांतता गौ के नेत्रों की
निज नेत्रों में उतार लें
गौ माता के प्रेम को
निज मनस में हम उतार लें ...
हम ज्ञान के मार्ग को
बस मार्ग भर ही रहने दें
उस ज्ञान को निज मस्तक पर
नहीं सवार हम करें
हे प्रभु हमें तुम प्रेम दो
हे प्रभु हमें तुम दे दो ज्ञान
असत से सत को
तमस से ज्योति को
बढ़ पाएं हम हो ज्ञानवान ...
...
पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय ....
कितना सच है यह।
दो मार्ग हैं :-
वृहद् प्रेम (भक्ति) , और ज्ञान ।
ओशो हमेशा कहते हैं कि भक्ति प्रेम का ही शीर्षासन से सीधा खडा हो जाना होता है । प्रेम जब एक "व्यक्ति" पर केन्द्रित हो, तब वह बीज रूप है, और जब समस्त अस्तित्व से हो जाए - तब वही भक्ति का वृक्ष हो जाता है।
लेकिन अस्तित्व से प्रेम करना बड़ा कठिन है, क्योंकि वह अकेंद्रित है । भक्ति संसार के केन्द्रित रूप से करना आसान होता है - इसीलिए "राम", "कृष्ण","जीज़स", "GOD", "मातारानी", "गणपति बप्पा", "ईश्वर" या "शिव" ......ये "व्यक्ति" रूप में समूचे अस्तित्व का समन्वय प्रकट होते हैं, और भक्ति केन्द्रित हो जाती है , संभव हो जाती है ।
जब हम व्यक्ति से प्रेम में होते है (शीरी का फरहाद से , या मजनू का लैला से प्रेम) तो उस प्रेम के केंद्र के अलावा कोई वस्तु हमें नहीं खींच पाती - खींच ही नहीं सकती । पथ भ्रष्ट होने का प्रश्न होता ही नहीं , क्योंकि वह प्रेम इतना गहन है, इतना आकर्षक है, कि कोई और आकर्षण उससे अलग कर ही नहीं पाए । सोनी को चहुँ दिश महिवाल ही भासता है, और राधा को कृष्ण के अलावा कुछ नहीं दीखता । जब उद्धव गोपियों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं , तो वे हंसती हैं - कहती हैं कि आप तो पंडित हैं - हमारे "तुच्छ" प्रेम को आप क्या जानेंगे ? वह आते तो हैं उनके "तुच्छ" प्रेम को हटा कर उन्हें ज्ञान मार्ग दिखाने - किन्तु होता उल्टा यह है कि वे खुद ही भक्ति मार्ग पर चल पड़ते हैं ।
किन्तु ज्ञान मार्ग पर हम पोथियाँ पढ़ते हैं - जो हमें सिखाती हैं कि ज्ञानवान व्यक्ति को छोटी छोटी बातों से विचलित नहीं होना चाहिए , और यह सच भी है । तो हम वह सीख लेते हैं । परेशानी यह हो जाती है - कि यह बात ज्ञान मार्ग के यात्री को सिखाई जा रही थी - किन्तु वह यात्री इसे सभी पर लागू कर देने लगता है । वह भूल जाता है कि उन पोथियों में लिखी बातें उसने (और संभवतः उसके परिवार जनों ने) तो जानी और पढ़ी हैं, किन्तु "सभी" ने नहीं पढ़ीं । वह सभी मनुष्यों से अपेक्षा रखने लगता है कि वे ज्ञानी हों, और उनके दर्दों को भावनाओं को नज़रंदाज़ करने लगता है , छोटा मानने लगता है (और ज्ञान का प्रकाश जहां हो वहां वे छोटे दुःख और दर्द तुच्छ हैं भी - किन्तु भूल यहाँ हो जाती है कि वह यात्री यह भूल ही जाता है कि ज्ञान का प्रकाश सबके पास है नहीं )। वह बड़े बड़े गूढ़ शब्द उपयोग करता है अपनी बातें कहने के लिए - यह भूलते हुए कि "सब" जो उतने ज्ञानी नहीं हैं - वे तो उन शब्दों को उक्तियाँ या मुहावरे भर नहीं समझेंगे - उन्हें वे शब्द शूल की तरह चुभ सकते हैं ।
गीता में कृष्ण- अर्जुन संवाद में भी यह बात आती हैं की ज्ञान मार्ग श्रेष्ट तो है - किन्तु इस मार्ग पर अहंकार के चलते च्युत हो जाने का भय बहुत है । वेदों की घुमावदार बातों में उलझना बहुत सामान्य है । अहंकार इतना दबे पाँव आता है कि मनुष्य जान ही नहीं पाता कि वह कब आ गया ।
अच्छा हो यदि व्यक्ति अपने दस साल पुराने और आज के चित्र देख कर मिलान करे और देखे कि दोनों चित्रों में उम्र के फर्क के अलावा कहीं आँखों में विनय की जगह अहंकार तो नहीं दिखने लगा है ?
एक कविता (यदि इसे कविता कहा जा सके तो ) प्रस्तुत है
आओ चले हम
ज्ञान से प्रेम की ओर
अहंकार से समत्व की ओर
मैं से हम की ओर
ज्ञान की गाडी में चलते
मार्ग चलते दूसरे पैदल राही
हमें मार्ग के कीड़े न दिखें
नेक रस्ते पर जब हम चलें
भूल से भी भूल न करें
दूसरों को जय नहीं ,
मन पर हम जय करें
खोज स्वयं की करें
पडी धूल उस आईने पर
उसे रोज़ साफ़ करें,
अपने बिम्ब की शुभ्रता पर
मन को मिहित न करें,
परिदृश्य में धूमिल पड़े,
श्याम बिम्ब भी हमें दिखें ..
गाय को हम पूजते
गाय सरीखे मन बनें
शांतता गौ के नेत्रों की
निज नेत्रों में उतार लें
गौ माता के प्रेम को
निज मनस में हम उतार लें ...
हम ज्ञान के मार्ग को
बस मार्ग भर ही रहने दें
उस ज्ञान को निज मस्तक पर
नहीं सवार हम करें
हे प्रभु हमें तुम प्रेम दो
हे प्रभु हमें तुम दे दो ज्ञान
असत से सत को
तमस से ज्योति को
बढ़ पाएं हम हो ज्ञानवान ...
...
नमस्कार!
जवाब देंहटाएंनमस्कार स्मार्ट इन्डियन जी :)
हटाएंभक्ति रस में डूबी ह्रदय में बसती सुन्दर अभियक्ति हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंअरुन शर्मा
Recent Post हेमंत ऋतु हाइकू
भक्ति और ज्ञान के सूक्ष्म फ़र्क को बहुत सहजता से उकेरा है।
जवाब देंहटाएंओशो हमेशा कहते हैं कि भक्ति प्रेम का ही शीर्षासन से सीधा खडा हो जाना होता है । प्रेम जब एक "व्यक्ति" पर केन्द्रित हो, तब वह बीज रूप है, और जब समस्त अस्तित्व से हो जाए - तब वही भक्ति का वृक्ष हो जाता है।
जवाब देंहटाएंsundar aalekh...
वरदान हमें दो यह प्रभु -हम ज्ञान मार्ग पर डट जाएँ ! बचपन में पढी प्रार्थना याद हो आई!
जवाब देंहटाएंशिल्पा मेहता जी में समझ नही पा कि आप भक्ति और ज्ञान में किसे महान बता रही हैं ,जबकी ईस कविता मे अन्तिम पंक्ति मे ज्ञान (असत से सत को
जवाब देंहटाएंतमस से ज्योति को
बढ़ पाएं हम हो ज्ञानवान)को ही महान बताया गया हैं ।
Jash ji ; main dono ke bare me bat kar rahi hoon; bas...
जवाब देंहटाएंMahan kisee ko nahi bata rahi.
Har ek ko apni rah khud chunni hai.bhakti marg chunein to andhvishwas se aur gyan marg chune to ahankar se satark rahein......