चुनावों के दौरान हमने देखा और सुना कि नरेंद्र मोदी जी ने "होलोग्राफिक रैली" की। इस आलेख में समझाने का प्रयास करती हूँ कि यह किस तरह काम करता है। विस्तृत जानकारी के लिए विकिपीडिया देखियेगा :)
होलोग्राफी एक ऐसी तकनीक है जिससे त्रि-आयामी तस्वीरें बनती हैं। इन तस्वीरों को होलोग्राम कहते हैं। ये बनाने के लिए लेज़र, इंटरफेरेंस (प्रकाश की दो किरणों के एक दुसरे को काटने पर उनका एक फेज़ में होने से जुड़ कर बढ़ना या उलटे फेज़ में होने से घटना), डिफ्रैक्शन (विवर्तन), और लाइट इंटेंसिटी (प्रकाश की तीव्रता या मात्रा) को इस्तेमाल कर के रिकॉर्डिंग होती है।
जिस प्रकार हम किसी को असलियत में देखते हुए अपने स्थान से दूसरी और जाते हुए उस व्यक्ति को अलग कोण से देखें तो वह हमें अलग दीखता है, उसी तरह या तस्वीर भी दूसरी तरफ से (दुसरे कोण से) देखि जाए तो उसी प्रकार अलग दृश्य देती है। अर्थात तस्वीर और असल व्यक्ति जहाँ जो कर रहा है / था रिकॉर्डिंग के वक़्त - इन दोनों में कोई फर्क नहीं होता। ये दो चित्र देखिये - एक ही ऑब्जेक्ट की एक ही होलोग्राफिक तस्वीर के एक ही समय लिए गए दो (साधारण २-डायमेंशनल) चित्र - जो अलग अलग कोण से लिए गए हैं - अलग अलग दिख रहे हैं :
होलोग्राफिक रिकॉर्डिंग अपने आप में इमेज नहीं होती। यह प्रकाश की बदलती घटती तीव्रता का , उसके घनत्व का और उसके अलग अलग कोण से दीखते प्रोफाइल (पार्श्व चित्र) का एक स्ट्रक्चर (संरचना) होती है।
इस तकनीक की खोज का श्रेय जाता है हंगरी / ब्रिटिश फिजिसिस्ट डेनिस गाबोर को। इन्हे इसके लिए नोबल प्राइज भी मिला था। इसकी शुरुआत एक्स-रे मायक्रोस्कोपि की नींव पर हुआ।
पहले ये तस्वीरें स्ट्रक्चर पर लेज़र फेंक कर बनती थीं अब या साधारण सफ़ेद रौशनी से उजागर (illuminate) की जाती हैं। इसे "रेनबो ट्रांसमिशन: इंद्रधनुषी प्रसारण या प्रकटन" कहा जाता है। ये क्रेडिट कार्ड सेक्युरितु आदि में भी उपयोग होता है। एक और आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला होलोग्राम है डेंसियुक होलोग्राम, जिस पर देखने वाली दिशा से ही प्रकाश गिरता है और सतरंगी तस्वीर (गहराई लिए) उभरती है - ऐसे देवी देवताओं वाले चित्र आपने मंदिरों के आस पास कई दुकानों पर बिकते देखे होंगे।
आरम्भ में यह सोचा गया कि हम एक्सरे से मॉलेक्युल्स के होलोग्राम बना कर उन्हें स्टडी कर सकेंगे, किन्तु यह अब तक नहीं हो पाया है।
स्पेकुलर होलोग्राफी में दो आयामी सतह पर तीन आयामी चित्र उभारे जाते हैं (लिंक एक, लिंक दो ) . स्पेक्युलर रिफ्लेक्शन का अर्थ होता है अलग अलग ऑब्जेक्ट्स को प्रकाश बिंदु से जब प्रकाशित किया जाता है तो उसके अलग अलग curved सतहों से अलग अलग प्रतिबिम्बन होते हैं जिससे वह हमें तीन आयामी दिखता है - इसी तरह के प्रतिबम्बन इस तस्वीर में भी देखने मिलते हैं। यह चित्र देखिये :
अधिकाँश होलोग्राम स्थिर या अचल विषयवस्तु के भिन्न भिन्न दिशा और कोनों से ली गयी तस्वीरों को संघटित और संगठित कर के बनाए जाते हैं। यानी जैसे आप साधारण टीवी देखते हैं तो आपके टीवी स्क्रीन पर किसी भी एक समय पर जो चित्र है वह एक कैमरा ने लिए है - लेकिन यहां अनेक कैमरा हैं सब ओर और सब की बाइनरी इमेज संघटित कर एक त्रि-आयामी इमेज (तस्वीर ) आपको दिख रही है। होलोग्राम
होलोग्राम प्रकाशिक जानकारी के भंडारण ; संसाधन और पुनः-प्रतिस्थापन ; के लिए भी इस्तेमाल होते हैं।
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होलोग्राम कैसे बनते हैं ? : आइये एक नज़र देखते हैं :)
एक प्रकाश क्षेत्र को (सिर्फ उसमे स्थित वस्तुओं भर का नहीं बल्कि उनसे बिखरे प्रकाश का भी) रिकॉर्ड किया जाता है , और बाद में तस्वीर में संघटित कर त्रि आयामी चित्रण किया जाता है।
रिकॉर्डिंग की विधि :
दोबारा संघटन की विधि
इसे आप आवाज़ की रिकॉर्डिंग की तरह समझ सकते हैं - जैसे एक स्रोत से प्रेषित ध्वनि तरंगों को हम रिकॉर्ड करते हैं और कहीं और (जहाँ वह स्रोत नहीं है) उन्ही तरंगों को दोबारा उत्पन्न करते हैं, उसी तरह यहां प्रकाश तरंगों के साथ होते है।
होलोग्राम रिकॉर्ड करने के लिए लेज़र प्रकाश सीन पर फ़्लैश किया जाता है और रिकॉर्डिंग मीडियम पर इसका इंप्रिंट (छाप) ले ली जाती है - जैसे कोई चित्र लिया जाता है। किन्तु एक फर्क है। वह यह कि प्रकाश की बीम के एक भाग को भी को सीधे भी रिकॉर्डिंग मीडियम पर सीधे चमकाया जाता है - उसी समय। इस दूसरी बीम को रिफरेन्स बीम (सन्दर्भ किरण) कहते हैं। लेज़र प्रकाश इसलिए प्रयुक्त होता है क्योंकि उसमे वेवलेंथ (तरंगदैर्घ्य) नियंत्रित की जा सकती है जबकि साधारण प्रकाश (जैसे सूर्य का) में वेवलेंथ मिली जली रहती हैं। शटर टाइम को कड़ाई से नियंत्रित किया जाना आवश्यक है (जैसा साधारण केमेरा में भी होता है) . बाहरी रौशनी दखल न दे इसलिए होलोग्राफिक रिकॉर्डिंग या तो अँधेरे कमरे (डार्क रूम) में होती है या फिर लेज़र के रंग से बहुत अलग तरंगदैर्घ्य के हलके प्रकाश में।
रिकॉर्डिंग माध्यम के लिए कई विकल्प उपलब्ध हैं। एक है टोफ़ोटोग्राफिक फिल्म (सिल्वर हैलाइड) जो साधारण फोंटोग्राफी में भी प्रयुक्त होती है किन्तु इसमें प्रकाश से प्रतिक्रिया करने वाले ग्रेन्स अधिक कॉन्सेंट्रेटेड होते हैं। इससे रेज़ल्यूशन बढ़ जाता है।
जब ये दोनों लेज़र किरणें माध्यम पर पड़ती हैं तो एक दुसरे को काटती हैं और interfere करती हैं। इससे जो पैटर्न बनता है , वही माध्यम पर छप जाता है।
यह प्रतिच्छाया देखने में एकदम ही अनियमित दीखता है और इसमें मूल वास्तु से कोई भी साम्य नहीं दीखता। जैसे ऊपर यह प्रतिच्छाया एक खिलौना वैन की है जो किसी भी तरह से एक वन नहीं लग रही। किन्तु जब दूसरी ओर यह सीन फिर से बनाना हो , तब वहां पहले वाले लेज़र जैसा ही (ठीक वैसा ही) प्रकाश सोर्स चाहिए होता है, और जब यह प्रकाश उस होलोग्राफिक (डेवलप्ड) चित्र पर चमकाया जाता है तब ठीक पहले जैसा प्रकाश सीन बन जाता है जो भ्रम देता है कि त्रि-आयामी विषय वस्तु यहीं मौजूद है।
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