यह पोस्ट सलिल वर्मा जी के फेसबुक स्टेटस पर एक कमेन्ट में लिखी थी । फेसबुक तो क्षणभंगुर है - सोचा यहाँ सहेज लूँ --
आप या मैं कहीं जाते नहीं।
आप या मैं कहीं जाते नहीं।
एक एक एस्केलेटर पर है हर कोई -
कई एस्केलेटर उलझे हुए गोलों में घूम रहे हैं ।
कभी किसीकी पटरी साथ हो जाए,
तो चंद घुमावों तक -
साथ आते - जाते - दिखते - मिलते,
लगाव सा हो जाता है ।
बार बार मिलते देखते ,
कुछ सम्हाल कुछ साज ,
कुछ अपनापन कुछ नाराजगियाँ,
होती जातीं हैं ।
फिर कोई एस्केलेटर ,
इन उलझी पटरियों से -
आगे की राह पकड़ ,
अलग हो जाते हैं उनसे -
जो अभी उलझी पटरियों पर हैं ।
जिनसे बनी थीं नजदीकियाँ -
वे याद करते हैं कुछ देर ।
अलग राह चल पड़े एस्केलेटर वाला -
पता नहीं किसे याद रखता है किसे नहीं?
ज्यादा याद आती हो तो -
शायद फिर लौट आता हो -
इसी घूमती भूलभुलैया में?
या निकल पड़ता हो आगे की राहों पर?
कौन जाने
किस किस के ,
किस किस से -
कितने कमिटमेंट -
अधूरे रहे -
कितने हुए पूरे?
किसी अधूरे कमिटमेंट में -
पीछे छूटा कोई -
कितनी देर सिसकता रहा ?
या बेहद लगाव होने से -
अपनी पटरी बदल -
पीछे दौड़ा ?
सिर्फ यह जानने को -
कि आगे पटरियां -
अनंत तक नहीं मिलतीं?
कौन जाने कितने कमिटमेंट ,
बनते टूटते रहे -
और रहेंगे ।
अनंत से अनंत तक ।
कितनी उलझी पटरियां -
कितने चक्रव्यूह भंवर ,
कितनी लम्बी सूनी राहें?
यान्त्रिक उपमाओं से लैस कविता
जवाब देंहटाएंआते जाते आवारा सड़कों पर इत्तिफ़ाक़ से लोग मिलते हैं , कुछ दूर साथ चलते हैं , बिछड़ते है , कभी लौट आते हैं , कभी याद रह जाते हैं … जीवन के सफर सा ही यह आभासी जीवन !
जवाब देंहटाएं