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गुरुवार, 28 अगस्त 2014

श्रीमद भगवद गीता २.१८, २.१९

[ अन्य भाग पढ़ने के लिए ऊपर गीता तब पर क्लिक करिये ]

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अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। 
अनाशिनोSप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।

अर्जुन (या कोई भी) अपने प्रियजनों के शरीर से मोहग्रस्त होते है और उनकी मृत्यु के भय सेअपना कर्म नहीं करना चाहता (और यह हम भी करते हैं) . वह बार बार यह  कहता है कि , यह युद्ध अपने प्रिया गुरुजनों और परिवारजनों की मृत्यु का कारण होगा , तो मैं युद्ध नहीं करूंगा।

किन्तु कृष्ण उसे कह रहे हैं कि  जो तू शरीर से मोह करता है - तो उस शरीर को तो ख़त्म होना ही है - उसे तू कैसे बचा सकता है ?
और यदि  शरीरधारी से तू मोह रखता है - तो वह तो नष्ट हो सकता ही नहीं - तू उसके मरने की बात कैसे करता है ? यह जान और समझ लो कि शरीरधारी अविनाशी है - उसके मरने या विनष्ट होने को असंभव जान ले - और इस सब (कचरे) को मन से निकाल कर युद्ध कर।

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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी व्यक्ति इस शरीरधारी आत्मन को मारने वाला / या मर जाने वाला समझता है - वे दोनों ही सही यथार्थ नहीं जानते - क्योंकि शरीरधारी आत्मा न तो कभी मारता है न ही कभी मर सकता है (मारा जा सकता है)

कृष्ण यह नहीं कह रहे कि क्योंकि शरीर मारा नहीं जा सकता तो शरीरों की हत्याएं करने लगो - वे कह रहे हैं कि आत्मा को मारना या आत्मा का मर जाना  संभव नहीं - तो शरीर मर ही जाएगा और आत्मा स्थायी ही रहेगा - इसलिए तुम मोहग्रस्त मत हो जाओ।  तुम अपना स्वधर्म (जो अर्जुन के लिए उस समयकाल में युद्ध था) करो - शरीर या शरीरधारी के मरने के मोह में पड़े बिना।