शिव जी और पार्वती जी के विवाह (लिंक) के उपरांत नवदम्पत्ति लम्बे समय तक हिमवान जी के ही घर में रहे। फिर एक दिन शिव जी ने हिमालय जी और मैना जी से आज्ञा ली और अपनी संगिनी श्री पार्वती जी सहित कैलाश पर लौट आये। दोनों लम्बे समय तक बहुत सुखपूर्वक दाम्पत्य जीवन का आनंद लेते हुए कैलाश पर निवास करते रहे। इधर तारकासुर के संहारक के आने के लिए देवगण व्याकुलता से प्रतीक्षा करते थे। उन्होंने ब्रह्मा जी से सहायता मांगी और वे सब ब्रह्मा जी को संग लेकर विष्णु जी के पास पहुंचे और उनसे कहा कि विवाह को इतना समय बीतने के बाद भी शिवपुत्र का जन्म अब भी प्रतीक्षित ही है। देवताओं ने विष्णु जी से प्रार्थना की कि वे शिव जी के पास जाएँ और उन्हें अपने विवाह के पीछे के देवकल्याण हेतु की याद दिलाएं। विष्णु जी नवदम्पत्ति के नवजीवन में विघ्न नहीं डालना चाहते थे किन्तु देवताओं के आग्रह पर देवताओं सहित शिवधाम को आये।
देवगणों ने शिव जी के सम्मुख अपनी प्रार्थना की। शिव जी के वीर्य की कुछ बूँदें छिटक कर धरती पर गिरीं और अग्निदेव ने तुरंत पक्षी बन उन्हें चुग लिया। पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हुईं कि मेरी होने वाली संतान की आस में आप लोगों ने विघ्न पहुंचाया है। इस बात पर क्षुब्ध होकर श्री पार्वती जी ने देवताओं को श्रापित किया कि उनकी पत्नियां भी निःसंतान ही रहेंगी।
अग्निदेव तो तेज और ऊष्मा के ही स्वामी देव हैं किन्तु शिव वीर्य के तेज ताप को वे सहन नहीं कर पा रहे थे तब उन्हें शिव जी ने अनुमति दी कि वे इस वीर्य को एक तेजस्विनी स्त्री के गर्भ में स्थापित कर सकते हैं। अग्निदेव ने वीर्य को ६ स्त्रियों के गर्भ में उनके रोमकूपों के माध्यम से पहुंचाया। किन्तु वे भी इसे न धारण कर सकीं , और हिमालय पर बर्फ की ठंडक में इसे त्याग दिया। किन्तु इन बूंदों के ताप ने हिमालय की न ही सिर्फ बर्फ को पिघलाया , बल्कि पत्थरों को पिघला दिया और हिमालय की धरा धातु सी दहकने लगीं। तब इन्हे हिमालय नंदिनी श्री गंगा जी के बहाव सौंपा गया किन्तु जल में तपन आने से शीतल गंगा भी उबल पड़ीं।
गंगा जी की धारा के पास की ईखों सरकंडों के बीच मार्घशीर्ष के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के रोज तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। उधर से गुज़रती कृतिकाओं की नज़र बालक पर पड़ी और वे सब उस बालक को अपना दूध पिलाना चाहती थीं और आपस में लड़ पड़ीं। तभी बालक के ६ मुख हुए और सभी माताओं ने प्रसन्नतापूर्वक दुग्धपान करवाया। कृतिकाओं ने अपना दूध पिला कर बालक को पाल पोस कर बड़ा किया। इस कारण बालक "कार्तिकेय" हुए। श्री विश्वामित्र जी ने बालक को "गुहा" नाम दिया और ब्रह्मज्ञान भी दिया - साथ ही आशीष दिया कि वे ब्रह्मर्षि होंगे। अग्निदेव ने बालक को शक्ति नामक अस्त्र प्रदान किया। गुहा क्रौंच पर्वत पर गए और अपने अस्त्र से प्रहार किया। पर्वत बिखरने लगा और उसमे वास करने वाले असुरों ने बालक पर हमला किया जिन्हे बालक ने आसानी से मार दिया। बालक की वीरता सुन कर इंद्र उन पर हमला करने आये। इंद्र ने बालक के पर वज्र प्रहार किया तो दाहिने पक्ष से "शाख" प्रकट हुए, बाहिने अंग से "विशाख" उत्पन्न हुए और छाती पर प्रहार करने से "नैगम" हुए। गुहा और इन तीनों ने इंद्र की तरफ कदम लिए तो देवसेना भाग खड़ी हुई।
एक दिन पार्वती माँ ने शिव जी से प्रश्न किया कि उस दिन जो वीर्य की बूँदें धरा पर छिटकी थीं उनका क्या हुआ। तब शिव जी ने देवताओं से प्रश्न किया और कार्तिकेय के बारे में जान कर अति प्रसन्न हुए। तब शिव जी ने अपने शिवगणों को कृतिकाओं के पास से पुत्र को लाने भेजा और माताओं से अनुमति लेकर कार्तिकेय कैलाश आये। कैलाश पर उत्सव हुआ और देवताओं ने कार्तिकेय जी को अपने अपने अस्त्र और शक्तियां भेंट कीं। शिव जी ने ब्राह्मणों से कार्तिकेय जी का राज्याभिषेक करवाया और तबसे कार्तिकेय कैलाशपुरी के अधिपति हुए।
एक बार नारद जी कार्तिकेय जी के पास आये और यज्ञ के लिए निर्धारित हुई बकरी के खो जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि मैंने संकल्प लिए है और वह बकरी न मिली तो यज्ञ अधूरा रह जाएगा। कार्तिकेय जी ने बकरी तलाशी तो वह धरती पर न थी। उसे खोजते हुए वे विष्णुलोक पहुंचे जहां उसने ऊधम मचा रखा था। वह उनपर अपने सींगों से हमला करने लगी। तब कार्तिकेय जी उसकी पीठ पर सवार हुए और तीनों लोकों से होते हुए उसे वापस ले आये। किन्तु नारद जी ने जब बकरी मांगी तो उन्होंने अखा कि आपका यज्ञ सफल हो ही गया है - अब आप इस बेचारी के प्राण न लीजिये। तब नारद जी प्रसन्न मन से वहां से चले गए।
इधर कार्तिकेय के शौर्य को देख देख कर देवता बहुत प्रसन्न थे। आत्म विश्वास से परिपूर्ण होकर देवताओं ने कार्तिकेय जी से देव सेना के प्रधान बनने का आग्रह किया। उनके नेतृत्व में देवताओं ने तारकासुर पर हमला किया किन्तु उसके सामने देवता फीके थे। इंद्र और सभी लोकपाल उसके आक्रमणों से बेहोश हो गए। श्री वीरभद्र और विष्णु जी भी पराजित हुए। तब कार्तिकेय जी आगे आये तो तारकासुर ने छोटे बालक के पीछे छिपने के लिए देवताओं को धिक्कारा और कहा कि यदि यह बालक युद्ध में मेरे हाथो मार जाए तो आप ही उत्तरदायी होंगे। किन्तु जब युद्ध हुआ तो मुकाबला बराबरी का लगता था। दोनों योद्धा लहू लुहान हुए। फिर कार्तिकेय जी ने शक्ति के प्रहार से तारकासुर का वध किया।
जारी …
देवगणों ने शिव जी के सम्मुख अपनी प्रार्थना की। शिव जी के वीर्य की कुछ बूँदें छिटक कर धरती पर गिरीं और अग्निदेव ने तुरंत पक्षी बन उन्हें चुग लिया। पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हुईं कि मेरी होने वाली संतान की आस में आप लोगों ने विघ्न पहुंचाया है। इस बात पर क्षुब्ध होकर श्री पार्वती जी ने देवताओं को श्रापित किया कि उनकी पत्नियां भी निःसंतान ही रहेंगी।
अग्निदेव तो तेज और ऊष्मा के ही स्वामी देव हैं किन्तु शिव वीर्य के तेज ताप को वे सहन नहीं कर पा रहे थे तब उन्हें शिव जी ने अनुमति दी कि वे इस वीर्य को एक तेजस्विनी स्त्री के गर्भ में स्थापित कर सकते हैं। अग्निदेव ने वीर्य को ६ स्त्रियों के गर्भ में उनके रोमकूपों के माध्यम से पहुंचाया। किन्तु वे भी इसे न धारण कर सकीं , और हिमालय पर बर्फ की ठंडक में इसे त्याग दिया। किन्तु इन बूंदों के ताप ने हिमालय की न ही सिर्फ बर्फ को पिघलाया , बल्कि पत्थरों को पिघला दिया और हिमालय की धरा धातु सी दहकने लगीं। तब इन्हे हिमालय नंदिनी श्री गंगा जी के बहाव सौंपा गया किन्तु जल में तपन आने से शीतल गंगा भी उबल पड़ीं।
गंगा जी की धारा के पास की ईखों सरकंडों के बीच मार्घशीर्ष के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के रोज तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। उधर से गुज़रती कृतिकाओं की नज़र बालक पर पड़ी और वे सब उस बालक को अपना दूध पिलाना चाहती थीं और आपस में लड़ पड़ीं। तभी बालक के ६ मुख हुए और सभी माताओं ने प्रसन्नतापूर्वक दुग्धपान करवाया। कृतिकाओं ने अपना दूध पिला कर बालक को पाल पोस कर बड़ा किया। इस कारण बालक "कार्तिकेय" हुए। श्री विश्वामित्र जी ने बालक को "गुहा" नाम दिया और ब्रह्मज्ञान भी दिया - साथ ही आशीष दिया कि वे ब्रह्मर्षि होंगे। अग्निदेव ने बालक को शक्ति नामक अस्त्र प्रदान किया। गुहा क्रौंच पर्वत पर गए और अपने अस्त्र से प्रहार किया। पर्वत बिखरने लगा और उसमे वास करने वाले असुरों ने बालक पर हमला किया जिन्हे बालक ने आसानी से मार दिया। बालक की वीरता सुन कर इंद्र उन पर हमला करने आये। इंद्र ने बालक के पर वज्र प्रहार किया तो दाहिने पक्ष से "शाख" प्रकट हुए, बाहिने अंग से "विशाख" उत्पन्न हुए और छाती पर प्रहार करने से "नैगम" हुए। गुहा और इन तीनों ने इंद्र की तरफ कदम लिए तो देवसेना भाग खड़ी हुई।
एक दिन पार्वती माँ ने शिव जी से प्रश्न किया कि उस दिन जो वीर्य की बूँदें धरा पर छिटकी थीं उनका क्या हुआ। तब शिव जी ने देवताओं से प्रश्न किया और कार्तिकेय के बारे में जान कर अति प्रसन्न हुए। तब शिव जी ने अपने शिवगणों को कृतिकाओं के पास से पुत्र को लाने भेजा और माताओं से अनुमति लेकर कार्तिकेय कैलाश आये। कैलाश पर उत्सव हुआ और देवताओं ने कार्तिकेय जी को अपने अपने अस्त्र और शक्तियां भेंट कीं। शिव जी ने ब्राह्मणों से कार्तिकेय जी का राज्याभिषेक करवाया और तबसे कार्तिकेय कैलाशपुरी के अधिपति हुए।
एक बार नारद जी कार्तिकेय जी के पास आये और यज्ञ के लिए निर्धारित हुई बकरी के खो जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि मैंने संकल्प लिए है और वह बकरी न मिली तो यज्ञ अधूरा रह जाएगा। कार्तिकेय जी ने बकरी तलाशी तो वह धरती पर न थी। उसे खोजते हुए वे विष्णुलोक पहुंचे जहां उसने ऊधम मचा रखा था। वह उनपर अपने सींगों से हमला करने लगी। तब कार्तिकेय जी उसकी पीठ पर सवार हुए और तीनों लोकों से होते हुए उसे वापस ले आये। किन्तु नारद जी ने जब बकरी मांगी तो उन्होंने अखा कि आपका यज्ञ सफल हो ही गया है - अब आप इस बेचारी के प्राण न लीजिये। तब नारद जी प्रसन्न मन से वहां से चले गए।
इधर कार्तिकेय के शौर्य को देख देख कर देवता बहुत प्रसन्न थे। आत्म विश्वास से परिपूर्ण होकर देवताओं ने कार्तिकेय जी से देव सेना के प्रधान बनने का आग्रह किया। उनके नेतृत्व में देवताओं ने तारकासुर पर हमला किया किन्तु उसके सामने देवता फीके थे। इंद्र और सभी लोकपाल उसके आक्रमणों से बेहोश हो गए। श्री वीरभद्र और विष्णु जी भी पराजित हुए। तब कार्तिकेय जी आगे आये तो तारकासुर ने छोटे बालक के पीछे छिपने के लिए देवताओं को धिक्कारा और कहा कि यदि यह बालक युद्ध में मेरे हाथो मार जाए तो आप ही उत्तरदायी होंगे। किन्तु जब युद्ध हुआ तो मुकाबला बराबरी का लगता था। दोनों योद्धा लहू लुहान हुए। फिर कार्तिकेय जी ने शक्ति के प्रहार से तारकासुर का वध किया।
जारी …
एक उत्कूट कथा ...फिर से आपन्के माध्यम से याद की ...आभार
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