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मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

सच कडवा होता है ? क्या सचमुच ?

... हमारी राह सत्य से होकर ... गुज़रे, न गुज़रे ...

कई लोगों से सुना है,
कई किताबों में पढ़ा है
"सच तो कड़वा ही होता है"
क्या सचमुच ?

मैंने तो यह भी पढ़ा है कि
"God is truth " और यह कि
-- "सत्यम शिवम् सुन्दरम"
और "सत चित आनंद" फिर
"न असतो विद्यते भावो, न अभावो विद्यते सतः"

फिर
सत्य कडवा कैसे होता होगा ?
है यदि
तो क्यों सारी दुनिया
उसे खोजती फिर रही है ?

नहीं
सत्य कडवा नहीं होता
सत्य मीठा भी नहीं होता,
सत्य बस है,
रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन
न वह ठंडा है, न गर्म
वह न कट सकता है,
न जल सकता  है
न भीग सकता है कभी,
न कभी सूख सकता है ।

जो इसे कड़वा समझते हैं,
जो इसे मीठा कहते हैं
दोनों ही नहीं जानते
क्योंकि यह दोनों से परे है ।

कड़वा कब लगता है सच ?
जब सत्य के पथ पर
हमारी आकांक्षाएं
अवरोधित होती हैं
हमारे स्वार्थ टकराते हैं ।
मीठा कब है ?
जब विराट का वह नन्हा टुकड़ा
जो हमें दीखता है
हमारे सुखानुभव को संबल देता है।

पानी तो पानी है
हल्दी मिला दो तो पीला,
नील मिला दी तो नीला
न नीला न पीला
पानी तो है बस बस पानी ।

यदि सत्य मुझे मीठा लगता हो
तो मिठास मेरे भीतर है
यदि कड़वा
तो कडवाहट भी मेरी ही
सत्य बस सत्य है ।

हम कहते हैं - हम सत्य के साथ हैं ।
नहीं
हम सिर्फ अपनी राह पर हैं ।
सत्य बस है
हमारी राह सत्य से होकर
गुज़रे, न गुज़रे
इससे सत्य को, उसकी भव्यता को
कोई फर्क नहीं पड़ता
हाँ - हमें ज़रूर फर्क पड़ता है ........
तभी तो हमें सत्य मीठा और कड़वा दिखता है ......

.....................................................

इन पंक्तियों को आदरणीय अर्चना चावजी जी ने अपनी आवाज़ दी है - आप यहाँ क्लीक करने पर इन्हें सुन सकते हैं :


शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

रेलगाड़ी और सामान

एक रेलगाड़ी में एक सज्जन बैठे थे । वे अपना सारा सामान अपने सर पर रखे हुए थे - बड़े परेशान, थके हारे।परन्तु सामान नीचे रखने को तैयार ही नहीं थे । कई लोग उन्हें कह रहे थे कि सामान नीचे रख दें - पर वे सिर्फ बड़े दयाभाव से मुस्कुरा देते - परन्तु सामान नीचे न रखते । लोगों को लग रहा था की शायद सामान में कोई बेशकीमती चीज़ होगी जो ये नीचे रखने का खतरा मोल नहीं ले रहे ।

एक व्यक्ति ने उनसे कहा - "मैं तबसे देख रहा हूँ की आप सबके कहने से भी सामान नीचे नहीं रख रहे - सो मैं रखने को नहीं कहूँगा - परन्तु मैं यह जानना ज़रूर चाहता हूँ कि आप यह सामान उठाये क्यों बैठे हैं ?" इस पर उन ज्ञानी पुरुष का उत्तर था -

 "बेचारी रेलगाड़ी हम सब का और हम सब के सामान का बोझ उठाये हुए है - उसका भार कम करने के लिए मैं अपनी मदद दे रहा हूँ । कुछ सामान मैं भी उठा लूं ..... तो ट्रेन पर बोझ कम हो जाए "

.......उस व्यक्ति ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि - भले ही सामान आपने सर पर उठाया हो, फिर भी वह वजन ट्रेन पर तो है ही -क्योंकि आप स्वयं भी इसी ट्रेन में ही तो बैठे हैं । परन्तु उन सज्जन को बात समझ न आई । 

...............

ऐसे ही कई मित्र प्रकृति और ईश्वर की मदद करने के लिए मांसाहार ले रहे हैं -कि प्रकृति / ईश्वर इतनी बड़ी मानव जनसँख्या के लिए भोजन कैसे दे सकेगी ? उन्हें समझाने पर भी यह समझ ही नहीं आ पाता कि जो मांस खाया जायेगा, उन पशुओं / जीवों का शाकाहारी भोजन भी तो वही प्रकृति उपलब्ध करा रही है - तो क्यों वह मानवों के लिए समुचित शाकाहारी भोजन नहीं दे सकेगी ?

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

खूब पर्दा है


पुनः प्रस्तुति
ब्लॉग की शुरुआत में यह लिखा था, एक बार फिर से प्रस्तुत है ,

खूब पर्दा है - कि चिलमन से लगे बैठे हैं
              साफ़ छुपते भी नहीं - नज़र आते भी नहीं .......

कभी कहीं पढ़ा था - तो ठीक से तो याद नहीं है कि क्या शब्द थे - पर अर्थ कुछ कुछ ऐसा ही निकल कर आता था. आजकल हमारी दोस्तियाँ भी इसी तरह हो गयी हैं - इन्टरनेट पर ही बातें शातें हुआ करती हैं - वह भी कोई टाइप करने की ज़हमत कभी कभार ही उठता है - ज्यादा तर तो मेल फॉरवर्ड ही करी जाती हैं .

एक परसन  को एक ग्रुप से मेल मिलती हैं - और वोही दूसरे दोस्तों को फॉरवर्ड कर दी जाती है - हाँ , इन्बोक्स में एक दूसरे के नाम बराबर दिखाई पड़ते रहते हैं - तो दूरी का एहसास नहीं होता - नज़र से आते रहते हैं - पर वह पुरानी  दोस्ती कहीं गुम सी हो जाती है - मन की बातों कि शेअरिंग तो अब जैसे होती ही नहीं - ..

ज़िन्दगी इतनी तेज़ दौडती है - कि कोई किसीसे बैठ कर बातें नहीं करता - वैसे इन्टरनेट की मेल सिस्टम में ऐसा कोई रूल तो है नहीं - कि आप अपने दोस्त को चिट्ठी नहीं लिख सकते. बल्कि , उसमे तो घर बैठ कर चैटिंग की भी चोईस है हमें - लेकिन हम अपनी ज़िन्दगी में इतने मसरूफ रहते हैं - कि टाइम ही नहीं है किसीको लम्बी चिट्ठी लिखने का - न ही बैठ कर बातें करने का . वही दोस्त जो पहले घंटो साथ गुज़ार देते हैं - यदि इंटर नेट पर दिख भी जाएँ कभी ऑनलाइन - तो एक छोटी सी हाई आपस में एक्स्चंज  करने के बाद - दोनों ही इंविसिबल  हो जाते हैं .. ....पहले लोग एक लाइन कि चिट्ठी तब लिखते थे जब कोई बुरा समाचार सुनाना हो - या कि किसी चीज़ की बधाइयाँ देनी हो - पर अब तो बातें ऐसे होती हैं -

"हाई - हाई , हाउ आर यू? और सुना - जीजाजी कैसे हैं? - बेटा ठीक  से पढ़ रहा है?  - - हाँ यार, सच में , आजकल पहले जैसी पढाई कहाँ !! -------- ओके - सी यू लेटर यार - बाय ///

और एक दूसरे के घर जा कर बैठ के बातें करने का चलन तो तब ही रुक गया था - जब टीवी आया था - अब तो हम पड़ोस के घर की खुशियों और तकलीफों से ज्यादा - टीवी के सीरिअलों के परिवारों के किरदारों के करीब महसूस करते हैं!! पड़ोस में कोई बीमार है  - तो हमें एक दिन एक बार मिलने जाने का टाइम निकालना मुश्किल होता है  - पर हाँ - टीवी सीरियल की हेरोइन अगर बीमार है  - तो हम पूरे पूरे हफ्ते उसके साथ रोज़ आधा घंटा गुज़र सकते हैं.... यह कहाँ आ गए हैं हम?

एक कहानी  याद आती  है यहाँ - एक मेल में ही पढ़ी थी - एक बच्चा अपनी माँ से पूछता है माँ , आपकी एक घंटे  की आमदनी कितनी है ? माँ ऑफिस  से थक कर आई है - काम निबटाने हैं - खाना पकाना है - फिर उसी बेटे का होमवर्क करवाना है -आखिर बच्चे के फ्यूचर के लिए भी तो माँए वरीड रहती हैं न !!!! तो माँ  काम के टेंशन में बच्चे के कणटिनयस क़्योएस्चन्स से चिढ कर उसे जोर से डांटती है - क्यों परेशान कर रहा है - दिखता नहीं - काम कर रही हूँ.. पर बच्चा नहीं मानता  - पूछता ही रहता है . आखिर  माँ कहती है - २००   रुपये. तब बच्चा कुछ परेशान सा हो जाता है - और चला जाता है वहां से .. तीन चार हफ्ते गुज़र जाते हैं - बच्चा फिर माँ के पास आता है - माँ फिर बिजी है - हमेशा के ही तरह - फिर चिढ जाती है.. तब बच्चा माँ को १०० रुपये देता है - उसके पास एक १०० का नोट भी नहीं - कभी कही कभी कही से बचाए - २ रुपये - पांच रुपये, दस रुपये , बीस रुपये के नोट हैं - कुल ९७ ही हो पाए हैं  - पर यदि १०० पूरे करने हों - तो एक हफ्ते और रुकना होगा - ...... तो बच्चा माँ को १०० रुपये दे कर कहता है - माँ - क्या अब आप आधा घंटा मेरे साथ बिता सकती हैं? ( बाकि ३ रुपये उधार  हैं ) तब   माँ को रीअलैज़ होता है - कि मैं अपने बच्चे का फ्यूचर बनाने में इतनी बिजी हूँ - कि उसका प्रेजेंट ख़राब हो रहा है - और मुझे पता तक नहीं चला -

तो शायद हम सबको सोचने के ज़रुरत है - कही हम भी - अनजाने ही सही - चिलमन से लगे तो नहीं बैठे - कि अपने अपनों को - साफ़ छुपते भी नहीं हों - और नज़र आते भी नहीं हो??

खैर , आज बस इतना ही .. ये तो कुछ ज्यादा ही लम्बी बात खिच गयी .. शायद सीरियल का टाइम  हो गया होगा - तो आप भी सीरियल देखें - मैं भी टीवी ऑन  करूँ - पर शायद - यदि किसी नेबर को ज़रुरत हो - या किसी पुराने दोस्त को,- या कि हमारे  बेटे / बेटी को कुछ  बात करनी हो - तो शायद टीवी सीरियल को छोड़ कर - उसके लिए वक़्त निकलना अच्छा हो.....

फिर मिलेंगे ...

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

दो तिनके

( पिछली पोस्ट की ही तरह - यह भी "आनंद" कथा ही है । इस बार approach अलग है । पिछली पोस्ट में कर्म योग था - इस बार - नहीं मैं नहीं कहती - आप बताइये पढ़ कर :) यह कहानी भी मेरी नहीं है - ओशो की सुनाई अनेक कहानियों में से एक है )

तो कहानी यूँ है की दो तिनके एक नदी में पड़ गए (जान बूझ कर ही "गिर" गए नहीं कहा है )। दोनों एक ही हवा के झोंके से उड़ कर एक ही साथ यहाँ आ पहुंचे थे - एक ही साथ थे - दोनों की परिस्थतियाँ बिलकुल समान थी। परन्तु दोनों की मानसिक स्थिति एक न थी । एक पानी में बहता था - सुख पूर्वक, तैरने का आनंद लेते हुए, आनंदित ... तो दूसरा - उसे किनारे पर पहुंचना था । बड़े प्रयास करता - पूरी ताकत लगाता - परन्तु नदी के शक्तिशाली बहाव के आगे बेचारे तिनके की ताकत ही क्या ? उसके सारे प्रयास व्यर्थ होते रहे - बहता तो वह उसी दिशा में रहा जिसमे नदी बहती थी - परन्तु, पहले तिनके की तरह सुखपूर्वक नहीं, बल्कि दुखी मन से । 

फिर कुछ आगे जाने पर नदी की धारा कुछ धीमी हुई , तो पहला तिनका दूसरे से बोला - आओ मित्र - अब प्रयास करने के लिए समय अनुकूल है, मिल कर कोशिश करें, किनारे पर घास उगी है - जो नदी के बहाव को रोक भी रही है, और कई लम्बे घास के blades तो नदी में काफी दूर तक उग आये हैं । थोडा प्रयास करने से हम इन मित्रों के सहयोग से अपनी दुनिया में पहुँच जायेंग ।

परन्तु दूसरा तिनका इतनी मेहनत कर चुका था - कि थक गया था - उससे अब आगे प्रयास न किया गया । परन्तु पहला तिनका अपने मित्र को मुसीबत में छोड़ कर किनारे न गया - उसके साथ अपने आप को उलझा कर थोड़ी शक्ति बढ़ी, फिर जोर लगाया - और किनारे से जुड़े हुए एक लम्बे घास को किसी तरह पकड़ लिया । फिर कुछ देर सुस्ताने के बाद दोनों उस जुड़े वाले के सहारे धीरे धारे सूखे किनारे पर पहुँच ही गए ।

पहला तिनका पुराने साथियों की मीठी यादों से खुश था, किनारे नए मित्रों के बीच प्रसन्न था । दूसरा तिनका अब भी अपने पुराने स्थान के साथी तिनकों से बिछड़ने के कारण उदास , डूबने की याद से परेशान, और भीगेपन से दुखी था ।