भाग २
भाग १
परीक्षित ने कई वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य किया। उनका विवाह उत्तरकुमार जी की पुत्री इरावती जी से हुआ और उनका जनमेजय नामक पुत्र हुआ। वे एक बार सरस्वती नदी के किनारे जा रहे थे जब उन्होंने देखा कि एक बहुत कमज़ोर गाय और एक बैल बात कर रहे थे। बैल की तीन टाँगे टूटी हुई थीं और वह लंगड़ा कर चलता था।
बैल गाय से कह रहा था :
"हे माता पृथ्वी, आप इतनी दुखी और कमज़ोर लगती हैं। आप इसीलिए उदास हैं न कि श्रीकृष्ण आपको छोड़ कर अपने धाम चले गए और धर्म क्षीण हो चला है ?"
गौमाता ने कहा:
"जी हाँ, धर्म देव। जब कृष्ण यहां थे तब उन्होंने अापका उत्थान किया एवं अन्याय और अधर्म का नाश किया। अब कलि प्रभाव से धर्म का ह्रास हो रहा है। धर्म के चार पैर हैं - तपस, शौच, दया और सत्य। आपके तीन चरण कलि प्रभाव से बिगड़ गए हैं और अब कलियुग में सत्य ही बचा है। मैं बहुत दुखी हूँ कि अब मुझ पर ऐसे लोग रहेंगे जो कहेंगे कि कोई ईश्वर है ही नहीं और यह चराचर जगत सिर्फ पदार्थों के प्रभाव से बना है और चल रहा है। सिर्फ संयोग और सम्भोग से जीवन बनता और बहता है। ईश्वर है ही नहीं। "
इतने में वहां से एक भयावह दिखने वाला पुरुष आया और वह बैल के चौथे पैर (सत्य) को तोड़ने का प्रयास करने लगा। यह देख कर परीक्षित दौड़े आए और उस पुरुष को मारने दौड़े।
उस कलि ने अपना भेष त्याग दिया और परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा। परीक्षित बोले - मैं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का पुत्र हूँ। शरणागत की ह्त्या नहीं कर सकता। तुम कौन हो ? उसने बताया कि वह कलियुग है तो परीक्षित कुपित हो कर बोले कि मेरे राज्य में प्रविष्ट होने का तुम्हारा साहस कैसे हुआ। निकल जाओ यहां से।
कलि ने कहा - हे राजन , सारी पृथ्वी पर आप ही का तो राज्य है। मैं कहाँ जाऊंगा ? मुझे भी प्रभु ने बनाया है , और समयानुसार ही मैं आया हूँ। अब मैं कहाँ जाऊंगा ? आप राजा हैं तो मुझे रहने का स्थान देना भी आप का ही धर्म है। क्योंकि मैं प्रभु द्वारा रचित हूँ और आपकी प्रजा भी हूँ।
तब परीक्षित ने सोच समझ कर कहा - ठीक है। शरणागत प्रजाजन का मैं वध नहीं करूंगा। तुम वहां रह सकते हो जहां ईश्वर का नाम भुलाया जा चुका हो, जहां जुआ, शराब, कामवासना , और ह्त्या की कामना हो। कलि ने कहा - मुझे एक ऐसा स्थान बताएं जहाँ ये सब साथ हों। मैं वहीं चला जाऊँगा। तब परीक्षित ने कहा - स्वर्ण में यह सब है - तुम स्वर्ण में रह सकते हो। तत्क्षण कलियुग ने स्वर्ण में अपना घर बना लिया।
परीक्षित का मुकुट भी स्वर्ण का ही था और कलियुग के प्रवेश पर उनका सर कलि प्रभाव से प्रभावित हुआ।
………………
एक बार परीक्षित आखेट पर थे और बहुत थके और क्लांत हो कर वे महर्षि शमिका के आश्रम पहुंचे। उन्होंने आदरपूर्वक ऋषि को प्रणाम किया और जल माँगा। किन्तु ऋषि समाधिस्थ थे और उन्होंने राजा को कोई उत्तर न दिया। बार बार पूछने पर भी उत्तर न आने से कलि प्रभावित थके हुए और प्यासे राजा को लगा कि ऋषि जानबूझ कर उनका अपमान कर क्रोध में आकर उन्होंने वहां पड़े हुए मृत सर्प को ऋषि के गले में डाल दिया और लौट गए। जब वे महल पहुंचे और मुकुट उतार तो कलि प्रभाव हटा और वे बहुत लज्जित हुए कि मैंने कितना गलत पाप कर्म कर दिया। वे क्षमा मांगने जाने का सोचने लगे।
उधर ऋषि पुत्र श्रृंगी के मित्र आकर उसे छेड़ने लगे कि तुम्हारे पिता मृत शरीर उठाये हैं। वह दौड़ा भागा आश्रम पहुंचा और यह दृश्य देख अत्यंत दुखी हुआ। तत्क्षण उसने कमंडल का जल लेकर श्राप दिया कि जिसने मेरे पिता के साथ यह किया वह ठीक सात दिन में सांप के ही काटने से मर जाएगा। फिर बालक बहुत रोने लगा।
पुत्र के रोने से ऋषिवर की समाधी टूटी और सब जानकर उन्होंने औने पुत्र को कहा कि तुम कैसे ब्राह्मण हो ? परीक्षित तो धर्मरक्षक राजा है - प्यास की अधीरता से यदि उनका क्षत्रिय क्रोध उठ आया और उन्होंने यह कर भी दिया तो तुम्हे तो ब्राह्मण के गुणों - क्षमा और शान्ति - का त्याग नहीं करना चाहिए था ? लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता - क्योंकि सच्चे ब्राह्मण का श्राप झूठा नहीं हो सकता।
तभी ऋषि ने महल अपने शिष्यों को भेजा जिन्होंने परीक्षित को बताया कि आज से सात दिन बाद आपकी सांप काटने से मृत्यु हो जायेगी। यह सुन परीक्षित बिलकुल दुखी नहीं हुए और बोले - मुझसे भयंकर पाप हुआ था , उसका दंड यहीं देकर ऋषिपुत्र ने मुझे मृत्यपरांत पाप का धारण किये रहने से बचा लिया है।
तुरंत परीक्षित ने अपने पुत्र का राज्याभिषेक कराया और सर्वस्व त्याग कर गंगातट पर चल पड़े। वहां अनेक महान ऋषिगण पहुंचे और मोक्ष के तरीके पर उन्हें सलाह देने के आग्रह पर उन्हें बताने को उद्धत हुए। किसी ने योग, किसी ने तपस, किसी ने दान और किसी ने यज्ञ की सलाह दी। तभी वहां व्यास पुत्र शुकदेव आये और सभी ने उनसे ही राह सुझाने को कहा।
शुकदेव जी ने कहा - योग और यज्ञ के लिए एक सप्ताह का समय कम है। दान आप नहीं कर सकते क्योंकि आप सर्वस्व पहले ही त्याग आये - तो आपके पास दान करने को कुछ नहीं है। तपस भी एक सप्ताह में नहीं हो सकता।
भागवद कथा के श्रवण से आप शुद्ध हो जाएंगे और ईश्वर धाम को जाएंगे। एक सप्ताह का समय तो बहुत अधिक है - एक मुहूर्त भी भागवत कथा का श्रवण मन और भक्ति से हो तो काफी है किसी के भी लिए।
इसके पश्चात कथा प्रारम्भ हुई।
जारी ……
भाग १
परीक्षित ने कई वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य किया। उनका विवाह उत्तरकुमार जी की पुत्री इरावती जी से हुआ और उनका जनमेजय नामक पुत्र हुआ। वे एक बार सरस्वती नदी के किनारे जा रहे थे जब उन्होंने देखा कि एक बहुत कमज़ोर गाय और एक बैल बात कर रहे थे। बैल की तीन टाँगे टूटी हुई थीं और वह लंगड़ा कर चलता था।
बैल गाय से कह रहा था :
"हे माता पृथ्वी, आप इतनी दुखी और कमज़ोर लगती हैं। आप इसीलिए उदास हैं न कि श्रीकृष्ण आपको छोड़ कर अपने धाम चले गए और धर्म क्षीण हो चला है ?"
गौमाता ने कहा:
"जी हाँ, धर्म देव। जब कृष्ण यहां थे तब उन्होंने अापका उत्थान किया एवं अन्याय और अधर्म का नाश किया। अब कलि प्रभाव से धर्म का ह्रास हो रहा है। धर्म के चार पैर हैं - तपस, शौच, दया और सत्य। आपके तीन चरण कलि प्रभाव से बिगड़ गए हैं और अब कलियुग में सत्य ही बचा है। मैं बहुत दुखी हूँ कि अब मुझ पर ऐसे लोग रहेंगे जो कहेंगे कि कोई ईश्वर है ही नहीं और यह चराचर जगत सिर्फ पदार्थों के प्रभाव से बना है और चल रहा है। सिर्फ संयोग और सम्भोग से जीवन बनता और बहता है। ईश्वर है ही नहीं। "
इतने में वहां से एक भयावह दिखने वाला पुरुष आया और वह बैल के चौथे पैर (सत्य) को तोड़ने का प्रयास करने लगा। यह देख कर परीक्षित दौड़े आए और उस पुरुष को मारने दौड़े।
उस कलि ने अपना भेष त्याग दिया और परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा। परीक्षित बोले - मैं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का पुत्र हूँ। शरणागत की ह्त्या नहीं कर सकता। तुम कौन हो ? उसने बताया कि वह कलियुग है तो परीक्षित कुपित हो कर बोले कि मेरे राज्य में प्रविष्ट होने का तुम्हारा साहस कैसे हुआ। निकल जाओ यहां से।
कलि ने कहा - हे राजन , सारी पृथ्वी पर आप ही का तो राज्य है। मैं कहाँ जाऊंगा ? मुझे भी प्रभु ने बनाया है , और समयानुसार ही मैं आया हूँ। अब मैं कहाँ जाऊंगा ? आप राजा हैं तो मुझे रहने का स्थान देना भी आप का ही धर्म है। क्योंकि मैं प्रभु द्वारा रचित हूँ और आपकी प्रजा भी हूँ।
तब परीक्षित ने सोच समझ कर कहा - ठीक है। शरणागत प्रजाजन का मैं वध नहीं करूंगा। तुम वहां रह सकते हो जहां ईश्वर का नाम भुलाया जा चुका हो, जहां जुआ, शराब, कामवासना , और ह्त्या की कामना हो। कलि ने कहा - मुझे एक ऐसा स्थान बताएं जहाँ ये सब साथ हों। मैं वहीं चला जाऊँगा। तब परीक्षित ने कहा - स्वर्ण में यह सब है - तुम स्वर्ण में रह सकते हो। तत्क्षण कलियुग ने स्वर्ण में अपना घर बना लिया।
परीक्षित का मुकुट भी स्वर्ण का ही था और कलियुग के प्रवेश पर उनका सर कलि प्रभाव से प्रभावित हुआ।
………………
एक बार परीक्षित आखेट पर थे और बहुत थके और क्लांत हो कर वे महर्षि शमिका के आश्रम पहुंचे। उन्होंने आदरपूर्वक ऋषि को प्रणाम किया और जल माँगा। किन्तु ऋषि समाधिस्थ थे और उन्होंने राजा को कोई उत्तर न दिया। बार बार पूछने पर भी उत्तर न आने से कलि प्रभावित थके हुए और प्यासे राजा को लगा कि ऋषि जानबूझ कर उनका अपमान कर क्रोध में आकर उन्होंने वहां पड़े हुए मृत सर्प को ऋषि के गले में डाल दिया और लौट गए। जब वे महल पहुंचे और मुकुट उतार तो कलि प्रभाव हटा और वे बहुत लज्जित हुए कि मैंने कितना गलत पाप कर्म कर दिया। वे क्षमा मांगने जाने का सोचने लगे।
उधर ऋषि पुत्र श्रृंगी के मित्र आकर उसे छेड़ने लगे कि तुम्हारे पिता मृत शरीर उठाये हैं। वह दौड़ा भागा आश्रम पहुंचा और यह दृश्य देख अत्यंत दुखी हुआ। तत्क्षण उसने कमंडल का जल लेकर श्राप दिया कि जिसने मेरे पिता के साथ यह किया वह ठीक सात दिन में सांप के ही काटने से मर जाएगा। फिर बालक बहुत रोने लगा।
पुत्र के रोने से ऋषिवर की समाधी टूटी और सब जानकर उन्होंने औने पुत्र को कहा कि तुम कैसे ब्राह्मण हो ? परीक्षित तो धर्मरक्षक राजा है - प्यास की अधीरता से यदि उनका क्षत्रिय क्रोध उठ आया और उन्होंने यह कर भी दिया तो तुम्हे तो ब्राह्मण के गुणों - क्षमा और शान्ति - का त्याग नहीं करना चाहिए था ? लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता - क्योंकि सच्चे ब्राह्मण का श्राप झूठा नहीं हो सकता।
तभी ऋषि ने महल अपने शिष्यों को भेजा जिन्होंने परीक्षित को बताया कि आज से सात दिन बाद आपकी सांप काटने से मृत्यु हो जायेगी। यह सुन परीक्षित बिलकुल दुखी नहीं हुए और बोले - मुझसे भयंकर पाप हुआ था , उसका दंड यहीं देकर ऋषिपुत्र ने मुझे मृत्यपरांत पाप का धारण किये रहने से बचा लिया है।
तुरंत परीक्षित ने अपने पुत्र का राज्याभिषेक कराया और सर्वस्व त्याग कर गंगातट पर चल पड़े। वहां अनेक महान ऋषिगण पहुंचे और मोक्ष के तरीके पर उन्हें सलाह देने के आग्रह पर उन्हें बताने को उद्धत हुए। किसी ने योग, किसी ने तपस, किसी ने दान और किसी ने यज्ञ की सलाह दी। तभी वहां व्यास पुत्र शुकदेव आये और सभी ने उनसे ही राह सुझाने को कहा।
शुकदेव जी ने कहा - योग और यज्ञ के लिए एक सप्ताह का समय कम है। दान आप नहीं कर सकते क्योंकि आप सर्वस्व पहले ही त्याग आये - तो आपके पास दान करने को कुछ नहीं है। तपस भी एक सप्ताह में नहीं हो सकता।
भागवद कथा के श्रवण से आप शुद्ध हो जाएंगे और ईश्वर धाम को जाएंगे। एक सप्ताह का समय तो बहुत अधिक है - एक मुहूर्त भी भागवत कथा का श्रवण मन और भक्ति से हो तो काफी है किसी के भी लिए।
इसके पश्चात कथा प्रारम्भ हुई।
जारी ……
सुख सागर भागवद कथा का रसामृत पिलाने के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंअच्छा तो आप कथा वाचक भी हैं.. भागवत का एक भाग पढ़ने से कुछ पुण्य खाते में क्रेडिट हो गया होगा.
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