ओंकारेश्वर और मामलेश्वर दो मंदिर हैं जो नर्मदा नदी के एक छोटे से टापू पर स्थिर हैं। इस टापू को मन्धाता या शिवपुरी भी कहते हैं। इसका आकार "ॐ" अक्षर जैसा कहा जाता है। यहां से जुडी अनेक कथाएं हैं।
शिव पुराण के अनुसार, एक बार नारद जी विंध्य पर्वत आये। विंध्य बहुत अहंकारी था क्योंकि वह विराट और शक्तिवन्त था। तब नारद जी ने कहा कि तुमसे श्रेष्ठ और बड़े सुमेरु पर्वत हैं, उनपर देवगण वास करते हैं। तब विंध्य ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए पार्थिव लिंग बना कर कठिन तप किया। शिव जी प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा। तब विंध्य ने उन्हें वहीँ रहने का आग्रह किया। वहां पहले से विद्यमान ओम्कारेश्वर महादेव ने स्वयं को तब दो हिस्सों में विभाजित किया - एक अमरेश्वर कहलाये और दुसरे मामलेश्वर।
शिव जी ने विंध्य पर्वत को बढ़ने का वरदान दिया और कहा कि तुम बढ़ोगे अवश्य लेकिन भक्तों को परेशान न करना। शिव जी अंतर्ध्यान हो गए। विंध्य बढ़ने लगा और अपना वचन भूल कर सुमेरु से महान होने की इच्छा से बढ़ता ही चला गया। जब उसके कारण सूर्य और चन्द्र का रास्ता अवरुद्ध होने लगा तब देवगण महर्षि अगस्त्य के पास गए। अगस्त्य जी विंध्य के पास गए और उसे कहा कि मेरे लौटने तक नहीं बढ़ना। तब विंध्य रुका। अगस्त्य जी अपनी पत्नी के संग श्रीशैले पर रहने चले गए और कभी न लौटे। विंध्य पर्वत वैसे ही रुका रहा।
एक और कथा है कि मन्धाता और उसके पुत्रों ने यहाँ कठिन तप किया था जिस वजह से यहां ये स्थल स्थापित हुआ। एक तीसरी कथा देव दानवों के युद्ध से जुडी है कि युद्ध में पराजित होते देवताओं ने यहां प्रार्थना कर के फिर से बल प्राप्त किया था।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंInteresting story with a curious end!
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