गुजरात में द्वारका जी के समीप ही यह तीर्थस्थल है। कथा है कि सती माता के पिता प्रजापति दक्ष थे। उनकी २७ पुत्रियों का विवाह चन्द्रदेव से हुआ था। ऐसा इसलिए कि , जब ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र दक्ष को ये कन्याएँ प्रदान कीं तब उन्हें कहा कि , इन सब का विवाह एक ही वर से करना क्योंकि ये २७ शरीर अवश्य हैं किन्तु आत्मा एक ही है।
लेकिन चन्द्रदेव (चन्द्रदेव का एक नाम सोमदेव भी है, जो रेवती के वर के रूप में उन्हें कहा जाता है। ) अपनी सभी वधुओं सम्मान न देते थे। वे रोहिणी के ही प्रति अत्यधिक प्रेममय थे। इससे बाकी पत्नियां, मुख्यतः रेवती , दुखी रहती थीं। यह बात दक्ष से कही जाने पर दक्ष ने कई बार चन्द्रदेव समझाया लेकिन उनके व्यवहार में कोई फर्क न आया। इससे क्रुद्ध हो कर दक्ष प्रजापति ने चन्द्रदेव को श्राप दिया कि वे क्षयग्रस्त होंगे और धीरे धीरे लुप्त होते जाएंगे।
श्राप के प्रभाव से चन्द्रदेव क्षय होने लगे और उनका तेज जाता रहा। तब चन्द्रदेव ने मार्कण्डेय जी से महामृञ्जय मन्त्र (इसकी कथा आगे आएगी) प्राप्त किया और द्वारका के समीप सरस्वती नदी के किनारे शिवलिंग स्थापित कर वहाँ मृत्युंजय मन्त्र का पत्नियों सहित पाठ किया। इस पाठ के पश्चात शिव जी प्रकट हुए और उनसे वर मांगने को कहा।
चन्द्रदेव ने संगिनियों सहित अपनी कथा कही और प्राणरक्षण माँगा। शिव जी बोले , दक्ष प्रजापति का श्राप पूरी तरह ख़त्म तो नहीं हो सकता , किन्तु मैं उसका प्रभाव काम कर दूंगा। आपने अनुचित व्यवहार किया ही है और आप दंड के अधिकारी भी हैं। जब आपने सभी कन्याओं के संग विधिवत विवाह किया था तब आपका कर्त्तव्य था कि आप उन सब को बराबर प्रेम और सम्मान दें। इसलिए दक्ष का श्राप अनुचित न था। इस पर चन्द्रदेव ने आगे यह भूल न दोहराने का वचन लिया।
शिव जी ने कहा, मैं आपको अपने सर पर धारण करूंगा जिससे आपकी रक्षा होगी। पंद्रह दिन प्रजापति दक्ष के श्राप के असर से आप कम होते जाएंगे , और यह समय खंड "कृष्ण पक्ष" कहलायेगा। फिर पंद्रह दिन आप बढ़ेंगे और अपने पूर्व रूप में लौट आएंगे जो "शुक्ल पक्ष" कहलायेगा।
तब सभी संतों, चन्द्रदेव, अत्रि जी और अनुसूया जी (चन्द्रदेव के माता पिता ) , और अन्य सभी देवगणों ने प्रार्थना की कि इस स्थान पर स्वयंभू शिव जी सदैव रहें। यह ज्योतिर्लिंग "सोमनाथ" प्रसिद्ध है। मान्यता है कि यहाँ आकर पूजन करने से सभी बीमारियां दूर हो जाते हैं।
---------------------
जारी ……