धर्म का अर्थ "उपासना पद्धति" करने वालों के लिए इस पोस्ट का कोई ख़ास अर्थ नहीं है - फिर चाहे वे आस्तिक कन्फूज़न में हों या नास्तिक कन्फ्यूज़न में :) आप पढ़ने के लिए सादर आमंत्रित हैं, लेकिन यह पोस्ट उपासना पद्धति की बात नहीं कर रही इसलिए किसी उपासना पद्धति पर मुझसे प्रश्न न कीजियेगा प्लीज़ :)
ओशो को सुनते हुए :
महावीर , बुद्ध , कृष्ण , जीज़स आदि …जैसे धार्मिक खोजियों ; और न्यूटन , आइंस्टाइन , बोस आदि .... जैसे वैज्ञानिक खोजियों की खोज पद्धति में मूल फर्क क्या और क्यों है ? विज्ञान कभी नहीं कहता कि आज खोज सम्पूर्ण हुई - इसके आगे / पीछे जानने को कुछ नहीं बचा। लेकिन धर्म की खोज का स्कोप timeless कहा जाता है। बुद्ध की बातें आज भी प्रासंगिक ही हैं जबकि विज्ञान अपने वर्जन को बदलता रहता है। कुछ समय पहले यह माना जाता था आज वह माना जाता है। पहले कहते थे प्रकाश वेव है, फिर कहा पार्टिकल है, फिर कहा ड्युअल नेचर है फिर कहा द्रव्यमान शून्य है फिर नहीं है और पता नहीं क्या क्या।
ओशो इसपर बहुत ही उपयुक्त निरूपण देते हुए लगते हैं। वे कहते हैं - विज्ञान की खोज ऎसी है जैसे व्यक्ति एक दिया या लालटेन लेकर अँधेरे में कुछ खोजता हो। अपने आगे और अपने पीछे का सीमित दायरा ही उसे दिखेगा। उस रौशनी के घेरे में वह खोजी सब तरफ, हर कोण पर देख तो पायेगा , लेकिन निश्चित सीमा तक ही। जहां तक प्रकाश, उतने दायरे के सत्य सत्य होंगे। प्रकाश के दायरे से पीछे जो छूट गया - वह सत्य है या नहीं इस पर स्मृति के अलावा कोई साक्ष्य नहीं।
रामायण महाभारत आदि - स्मृतियाँ ही हैं ? या लोककहानियाँ ? या कवियों की कल्पनाएं ? या सत्य ? या कैसे तय हो ? हाँ - गांधी हुए थे यह माना जा सकता है आज - क्योंकि गांधी तक हमारे साक्ष्यों का प्रकाश दायरा अभी तक पहुँच रहा है। जीज़स हुए या नहीं इस पर बहसें अब होने लगी हैं, जबकि कुछ समय पहले तक यही जीज़स एक ऐतिहासिक सत्य थे।
इसी तरह आगे की तरफ भी वैज्ञानिक खोजी उतना ही देख सकता है जितना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि देख पाये। उसके आगे सब कुछ असत्य ही है - आगे बढ़ने के बाद जब प्रकाश का दायरा आगे जाएगा - तब वहां नए सत्य उजागर होंगे।
इसके विपरीत - धार्मिक (उपासक नहीं , पंथ नहीं - धर्म ) खोजी जैसे महावीर और बुद्ध जो खोजते हैं वह दिए के प्रकाश को लेकर एक दायरे में खोजी गयी सीमित सच्चाई नहीं बल्कि revelation होता है। जैसे व्यक्ति अँधेरे में खड़ा हो और पल भर में बिजली कौंधे, और जितनी दूर नज़र जाए सब कुछ प्रकाशित हो उठे। व्यक्ति फिर वस्तुओं को दायरे में नहीं देखता बल्कि पूर्ण में सब कुछ उसे दिख जाता है। वह फिर जान कर उन्हें बताता है जिन्होंने नहीं देखा - और यह संभव ही नहीं कि सदियों बाद उनकी देखि हुई विराट सच्चाई हम तक उसी रूप में पहुंचे। हम अपने अपने चश्मों से सत्य के अलग अलग पहलुओं को देखते समझते और समझाते रहते हैं। भूल होती ही चली जाती है।
इस तरह देखा जाये तो वैज्ञानिक खोज हर एक के निजी खोज के मार्ग में बेहतर है - क्योंकि कम से कम हर एक अपने दिए तो लेकर चल रहा है। जबकि अधिकाँश पंथ अपने आप को "धर्म" मानते हुए अँधेरी रात में बिना दिए के सदियों पहले किसी और को हुए revelation के समझाए मार्ग पर आँखों पर पट्टी बांधे चल रहे हैं ....
ओशो को सुनते हुए :
महावीर , बुद्ध , कृष्ण , जीज़स आदि …जैसे धार्मिक खोजियों ; और न्यूटन , आइंस्टाइन , बोस आदि .... जैसे वैज्ञानिक खोजियों की खोज पद्धति में मूल फर्क क्या और क्यों है ? विज्ञान कभी नहीं कहता कि आज खोज सम्पूर्ण हुई - इसके आगे / पीछे जानने को कुछ नहीं बचा। लेकिन धर्म की खोज का स्कोप timeless कहा जाता है। बुद्ध की बातें आज भी प्रासंगिक ही हैं जबकि विज्ञान अपने वर्जन को बदलता रहता है। कुछ समय पहले यह माना जाता था आज वह माना जाता है। पहले कहते थे प्रकाश वेव है, फिर कहा पार्टिकल है, फिर कहा ड्युअल नेचर है फिर कहा द्रव्यमान शून्य है फिर नहीं है और पता नहीं क्या क्या।
ओशो इसपर बहुत ही उपयुक्त निरूपण देते हुए लगते हैं। वे कहते हैं - विज्ञान की खोज ऎसी है जैसे व्यक्ति एक दिया या लालटेन लेकर अँधेरे में कुछ खोजता हो। अपने आगे और अपने पीछे का सीमित दायरा ही उसे दिखेगा। उस रौशनी के घेरे में वह खोजी सब तरफ, हर कोण पर देख तो पायेगा , लेकिन निश्चित सीमा तक ही। जहां तक प्रकाश, उतने दायरे के सत्य सत्य होंगे। प्रकाश के दायरे से पीछे जो छूट गया - वह सत्य है या नहीं इस पर स्मृति के अलावा कोई साक्ष्य नहीं।
रामायण महाभारत आदि - स्मृतियाँ ही हैं ? या लोककहानियाँ ? या कवियों की कल्पनाएं ? या सत्य ? या कैसे तय हो ? हाँ - गांधी हुए थे यह माना जा सकता है आज - क्योंकि गांधी तक हमारे साक्ष्यों का प्रकाश दायरा अभी तक पहुँच रहा है। जीज़स हुए या नहीं इस पर बहसें अब होने लगी हैं, जबकि कुछ समय पहले तक यही जीज़स एक ऐतिहासिक सत्य थे।
इसी तरह आगे की तरफ भी वैज्ञानिक खोजी उतना ही देख सकता है जितना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि देख पाये। उसके आगे सब कुछ असत्य ही है - आगे बढ़ने के बाद जब प्रकाश का दायरा आगे जाएगा - तब वहां नए सत्य उजागर होंगे।
इसके विपरीत - धार्मिक (उपासक नहीं , पंथ नहीं - धर्म ) खोजी जैसे महावीर और बुद्ध जो खोजते हैं वह दिए के प्रकाश को लेकर एक दायरे में खोजी गयी सीमित सच्चाई नहीं बल्कि revelation होता है। जैसे व्यक्ति अँधेरे में खड़ा हो और पल भर में बिजली कौंधे, और जितनी दूर नज़र जाए सब कुछ प्रकाशित हो उठे। व्यक्ति फिर वस्तुओं को दायरे में नहीं देखता बल्कि पूर्ण में सब कुछ उसे दिख जाता है। वह फिर जान कर उन्हें बताता है जिन्होंने नहीं देखा - और यह संभव ही नहीं कि सदियों बाद उनकी देखि हुई विराट सच्चाई हम तक उसी रूप में पहुंचे। हम अपने अपने चश्मों से सत्य के अलग अलग पहलुओं को देखते समझते और समझाते रहते हैं। भूल होती ही चली जाती है।
इस तरह देखा जाये तो वैज्ञानिक खोज हर एक के निजी खोज के मार्ग में बेहतर है - क्योंकि कम से कम हर एक अपने दिए तो लेकर चल रहा है। जबकि अधिकाँश पंथ अपने आप को "धर्म" मानते हुए अँधेरी रात में बिना दिए के सदियों पहले किसी और को हुए revelation के समझाए मार्ग पर आँखों पर पट्टी बांधे चल रहे हैं ....
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