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यह भाग देवी कथाओं में पहले भी शेयर कर चुकी हूँ
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दक्ष दत्त (सती का) शरीर त्याग कर माता भवानी स्वधाम को लौट गयीं । शिव बड़े संतप्त हुए और कैलाश पर तप को चले गए । समय गुज़रता गया ।
इधर देवतागण ब्रह्मा जी के पास गए, जहाँ उन्होंने बताया कि कुछ आसुरी शक्तियों का नाश विष्णु अवतार करेंगे, कुछ का शिव अवतार, तो कुछ और आसुरी शक्तियों का विनाश सिर्फ जगदम्बिका के अवतारों और शिव भवानी की संतति द्वारा ही हो सकता है । आदिशक्ति जगदम्बिका अब हिमवान और मैना जी के घर अवतार लेंगी । तब देवता गण मैना जी के परिवार ( पितरों ) के पास गए और उनसे मैना जी और हिमवान के विवाह का अनुरोध किया । विवाह के उपरांत मैना जी और हिमवान ने माता की कठोर तपस्या की । ताप फलित हुआ और माता जी ने मैना रानी को दर्शन दिए और वर मांगने को कहा ।
मैना जी ने कहा की हे मातेश्वरी, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वर दीजिये की मेरे सौ अत्योत्तम पुत्र हों, और स्वयं आप मेरी पुत्री के रूप में पधारें । माता ने वरदान दिया और अंतर्ध्यान हो गयीं । समयचक्र में मैना जी ने सौ बलवान पुत्रों को जन्म दिया । उमा महेश्वरी अपने पूर्ण अंश के साथ हिमालय के शरीर में प्रविष्ट हुईं , जिससे वे अद्वितीय आभा से संपन्न हो गए । फिर यथोचित समय पर गिरिराज हिमालय ने, शिवा के इस पूर्णांश को, अपनी प्रिया मैना जी के उदर में स्थापित किया ।जगदम्बा के गर्भ में होने से मैना अत्यंत तेजोमय हो उठीं और सभी देवताओं, ने विष्णु सहित उनकी स्तुति की । गर्भकाल पूर्ण होने पर जगदीश्वरी ने शिशु रूप में मैना जी के घर जन्म लिया । उनका शरीर नील श्याम कान्तियुक्त था । हिमवान जी ने अपनी पुत्री का नामकरण किया, और उन्हें काली इत्यादि सुन्दर नामों से बुलाया गया । सुशीलता के कारण परिवारजन उन्हें "पार्वती" भी बुलाते थे । माँ ने तप को रोकते हुए "उमा" कहा - जिससे उनका नाम उमा भी हुआ ।
दैवीय प्रेरणा से नारद हिमालय जी के घर आये और पुत्री का हाथ देख कर बोले की इनका विवाह ऐसे वर से होगा जो योगी, नंग-धडंग, निर्गुण, निष्काम, मात-पिता रहित , निस्पृह और अमंगल वेशधारी होगा । यह सुन कर भवानी मन ही मन प्रसन्न हुईं, किन्तु माता पिता चिंतित हो गए । उनके उपाय पूछने पर नारद ने कहा कि ब्रह्म लेख झूठा तो हो नहीं सकता, किन्तु अशुभ को शुभ करने का एक उपाय है , कि आपकी पुत्री का ब्याह महेश्वर के साथ हो - क्योंकि उनमे ये सब गुण अवगुण नहीं, बल्कि भव्यता के रूप में वास करते हैं । हिमालय ने कहा कि वे तो निर्मोही और तपरत हैं, वे कैसे मेरी कन्या से विवाह करेंगे, तब नारद ने भवानी को शिव आराधना करने की सलाह दी , और कहा की तुम्हारी पुत्री आदिशक्ति है । शिव इनके अतिरिक्त किसी से विवाह न करेंगे । इनसे संगम होकर ही वे अर्धनारीश्वर कहलायेंगे ।
जब उमा 8 वर्ष की आयु को पहुंची तब शिव को उनके अवतरण के विषय में समाचार आया, और वे अति प्रसन्न हुए, (वे जानते तो पहले ही थे) और लौकिक रीति निभाते हेतु अपने पार्षद गणों सहित गंगावतरण तीर्थ पर जा कर समाधिस्थ हो रहे ।
पुत्री को लेकर पर्वतराज वहां पहुंचे और उन्हें नमन कर के अपनी पुत्री को आगे कर के भगवान् से बोले, हे प्रभु , आप हमारे यहाँ उपस्थित हुए, यह आपकी हम पर असीम कृपा है । हम अपनी कन्या को आपकी सेवा में समर्पित कर रहे हैं, यह सखियों सहित यहीं रहेगी और आपकी सेवा करेगी । कृपया आज्ञा दें ।
महाप्रभु बोले, हे हिमवान शैलराज, आप हमारे दर्शन कर सकते हैं । किन्तु अपनी पुत्री को घर ही में छोड़ आइये , कि हम तो तपस्वी हैं, हमें इससे क्या सेवा लेनी है ? वेद पारंगत विद्वान् ऐसी अत्यंत सुन्दर, तन्वंगी,चंद्रमुखी और शुभ लक्षना युवास्त्री को मायारूपिणी कहते हैं । हे गिरिश्रेष्ठ, मैं योगी हूँ, और माया से सदा दूर रहता हूँ ।इस पर हिमवान अत्यंत उदास हो उठे ।
अब पार्वती बोलीं, हे आप योगी और ज्ञान विशारद हैं, फिर भी हमारे पिता से ऐसी बात कही ? सभी कर्मो को करने की शक्ति, सर्व प्राकट्य प्रकृति (nature ) ही है । प्रकृति से ही सृष्टि , पालन, और संहार होता है ( जो ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के अधीनस्थ लोक कर्म हैं )। प्रकृति बिना आप लिंग रूप महेश्वरकैसे हो सकते हैं ? आप प्राणीमात्र के वन्दनीय और चिंतनीय हैं, किन्तु आपके मूल में आपकी प्रकृति ही है ।
महेश जी हंस पड़े और बोले , मैं तप द्वारा प्रकृति का नाश करता हूँ और तत्वरूप प्रकृति रहित शम्भू रूप में स्थित और विद्यमान रहता हूँ । सत्पुरुष कभी प्रकृति के अधीन नहीं होते ।
माता महाकाली ने कहा, हे प्रभु । अभी जो आपने कहा, वह भी "वाणी" से कहा, और वाणी प्रकृति प्रदत्त है । तब आप प्रकृति से परे कैसे रहे ? जो आप प्रकृति से परे हैं, तो न आप को बोलना चाहिए, न कर्म करना, कि कर्म का किया जाना भी प्रकृति (nature ) है । जो आप प्रकृति से परे हैं, तो हिमालय पर तपस्या क्यों और कैसे? प्राणियों की इन्द्रियों से सम्बंधित हर वास्तु प्रकृतिजन्य ही है । अधिक कहने से क्या प्रयोजन ? मैं प्रकृति हूँ, और आप पुरुष हैं। आप निराकार निर्गुण हैं और मेरे अनुग्रह से ही आप साकार सगुण होते हैं । आप इन्द्रियों को जीत कर जितेन्द्रिय कहलाते हैं, किन्तु इन्द्रियां मुझसे हैं । प्रकृति अधीन ही आप सब लीलाएं करते हैं । यदि आप प्रकृति से परे हैं, तो मेरे यहाँ रहने से आपको भय कैसा ?
इससे आगे शंकर जी तर्क न कर सके । उन्होंने हिमवान को घर जाने की अनुमति दे दी , और बोले कि हे गिरिजे, यदि तुम ऐसा कहती हो, तो प्रतिदिन मेरी शास्त्र सम्मत विधि से पूजा करो । हिमवान प्रतिदिन वहां आते और पार्वती शंकर जी की विधिसम्मत रूप से आराधना पूजा करतीं ।
इसी बीच ब्रह्मा जी की आज्ञा से इंद्र ने कामदेव को (दक्ष की पुत्री रति कामदेव की पत्नी हैं) शिव के पास भेजा, किन्तु जब कामदेव के वाण से शिव का ध्यान टूटा तो उनकी क्रोधमयी तीसरी दृष्टि से कामदेव पल में भस्म हो गए । रति ने शिव जी की बड़ी स्तुति की और कहा कि मेरे पति यहाँ अपने किसी स्वार्थ वश नहीं आये थे । वे तो देवताओं के कल्याण हेतु आपके और पार्वती जी के ब्याह के लिए अपना धर्म पूर्ण करने आये थे ।तब शिव जी ने कहा कि भले ही मंतव्य शुभ हो, किन्तु कर्म तो अशुद्ध था, और मन भी उस समय अपने "काम्वेग के बाण" की शक्ति पर गर्वित था । इसलिए कामदेव कोयाह दैहिक क्षति हुई । लेकिन शुभ लक्ष्य होने से उन्होंने बड़ा सौभाग्य भी अर्जित किया है कि वे साक्षात श्री कृष्ण को अपने पिता के रूप में प्राप्त करेंगे । रति की प्रार्थना और निवेदन पर शिव जी ने वचन दिया की अब से कामदेव अनंग रहेंगे, और कृष्णावतार के समय कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में फिर से शरीर प्राप्त करेंगे ।