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बुधवार, 16 जुलाई 2014

भागवतम १५: हिरण्याक्ष और वराहावतार

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जब ब्रह्मा ने संतति चलाने की आज्ञा दी तब उनके पुत्रों ने पूछा कि हमारी प्रजा रहेगी कहाँ ? क्योंकि पिछली प्रलय में जो जलप्रलय हुई थी, उससे धरती अब तक जलमग्न थी और जनसंख्या के रहने को कोई स्थल नहीं था। तब ब्रह्मा की नाक के छिद्र से एक नन्हे से वराह प्रकट हुए जो सिर्फ एक अंगूठे के ऊपरी भाग जितने बड़े थे। देखते ही देखते ये बहुत बृहत्काय हो गए।

ब्रह्मा और मारीचि आदि ऋषि चर्चा करने लगे कि ये कौन हो सकते हैं ? कहीं ये श्री विष्णु तो नहीं ? जब ब्रह्मा अपने पुत्रों से चर्चा कर रहे थे, तभी वराह भयंकर पहाड़ जैसे शब्द से दहाड़ने लगे।   यह दहाड़ सुन कर मौजूद देवगण समझ गए कि ये सर्वशक्तिशाली विष्णु ही हैं और उनकी आरतियां गाने लगे।  उन अर्चनाओं को सुन वराहदेव फिर से दहाड़े और आकाश में उड़ते हुए सूंघ सूंघ कर धरती को खोजने लगे।  सुराग पा कर उन्होंने जल में प्रवेश किया।  उन्होंने धरती को अपने दांतों पर उठाया और जल से बाहर ले चले।  तब हिरण्याक्ष नामक असुर उन पर हमला करने आया, जिसे उन्होंने लम्बी लड़ाई के बाद मार दिया और धरती को बाहर लाकर स्थापित किया। तब ऋषिगणों ने उनकी ऋचाएं गायीं। सतलोक, जनलोक, और तपस लोक के महात्माओं ने अर्चना आराधना की।  

शुकदेव जी बोले, इस प्रकार संक्षेप में मैत्रेय जी ने विदुर जी को वराह जी की कथा सुनाई किन्तु यह सुन कर विदुर जी को संतोष न हुआ।  उन्होंने मैत्रेय जी से प्रार्थना की कि उन्हें पूरी कथा सुनाएँ।  तब मैत्रेय जी ने कथा कही। 
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दक्षपुत्री दिति जी का विवाह कश्यप जी से हुआ था।  एक शाम उन्हें पति से संगम की तीव्र इच्छा होने लगी और वे कश्यप जी के पास काम निवेदन लेकर गयीं। कश्यप जी उस समय संध्या पूजा कर ध्यान कर रहे थे। दिति ने कहा - हे स्वामी, कामदेव के वाण  से मैं आहत हूँ , और जैसे एक उन्मत्त पागल हाथी केले के पेड़ की ओर भागता है उसी तरह मैं भी कामोन्मत्त हुई हूँ।  हे स्वामी, मेरी बहनें (आपकी दूसरी पत्नियां) सुखपूर्वक मातृत्व का आनंद ले रही हैं, और यह काम कर के आप मुझे वही सुख देंगे और आप भी सुखी होंगे। वर्षों पहले हमारे मन की इच्छा जान कर पिता दक्ष ने हम तेरह दक्षायिनियों को आपको सौंपा था।  प्रति पतिव्रता रही हैं और आपका भी धर्म है हमारी इच्छाओं को पूर्ण करना।  

मारीचि पुत्र श्री कश्यप जी बोले - हे प्रिय पत्नी दिति, मैं निश्चित ही तुम्हानी कामना पूर्ण करूँगा, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो और मोक्ष की संगिनी भी हो। पत्नी के संग से ही मनुष्य इस भवसागर से मोक्ष प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। हे गृहलक्ष्मी, हम सारे जीवन भी प्रयास करें तो भी हे देवी,हम आपका ऋण नहीं चुका सकते।जीवन संगिनी के साथ से ही मनुष्य इन्द्रियों से जीत सकता है।  आपका ऋण चुकाना तो सम्भव नहीं है किन्तु हम आपकी यह कामना अवश्य अभी पूर्ण करेंगे।  किन्तु कुछ समय के लिए रुक जाइए, क्योंकि यह समय अच्छा नहीं। संध्या के इस समय भूतादि विचरण करते हैं तो इस समय संगम करना ठीक नहीं।  इस समय भूतपति शिव भी भ्रमण करते हैं जो आपकी बहन सती के पति हैं।  उन्हें कोई नहीं देखता लेकिन वे सबको देखते हैं।  इसलिए भी इस समय यह क्रिया धर्मोचित नहीं। 

किन्तु कामपाश से पीड़ित दिति न मानीं और पति के अंगवस्त्र को खींचने लगीं । स्त्री हाथ से हार कर कश्यप जी उन्हें एकांत स्थल पर ले गए और उनकी कामना शांत की।  इसके बाद कश्यप जी ने स्नान किया और मौन व्रत में चले गए। दिति भी बहुत पछ्तायीं कि , अहो! मुझसे बड़ी भूल हुई। वे कश्यप जी के पास गयीं और उनसे प्रार्थना की कि मुझसे भूल हुई और शिव जी के कोप से मेरी होने वाली संतान को कैसे बचाऊँ यह बताइये।  शिव जी मेरी सती दीदी के पति हैं, वे मुझे अवश्य क्षमा करेंगे।  

कश्यप जी गंभीर वाणी में बोले - हे प्रिय दिति, यह समय अनुचित था, और हमने देवताओं और शिव का अपमान किया।  इसका फल तो अशुभ ही होगा।  तुम्हारी कोख से हमारी जो संतानें जन्म लेंगी वे महान असुर होंगी और तीनों लोकों को दुखदायी होंगी।  वे असुर सबको दुःख पहुंचाएंगे - निरीह लोगों, स्त्रियों और साधुओं को भी। किन्तु तुम पश्चात्ताप कर रही हो इसलिए वे श्री नारायण के ही हाथों से मृत्यु प्राप्त करेंगे। 

दिति बोलीं : हे स्वामी, यही मेरे लिए सुखद समाचार है कि मेरे पुत्र ब्राह्मण श्राप से नहीं बल्कि मोक्षदाता के हाथों मृत्यु प्राप्त कर मोक्ष पाएंगे। कश्यप जी बोले - हे प्रिय दिति, तुम्हारे मुझ पर, शिव जी और नारायण जी में अटूट विश्वास का यह शुभ फल होगा कि तुम्हारे एक पुत्र के घर महान नारायण भक्त प्रह्लाद जन्म लेंगे और तुम उनके नाम से याद रखी जाओगी। 
 यह सब सुन कर दिति अति प्रसन्न हुईं , किन्तु वे मन में दुखी भी थीं कि उनके पुत्र दुराचारी और नारायण शत्रु होंगे।  उन्होंने १०० वर्षों तक गर्भ को भीतर ही धारा और बाहर न आने दिया , किन्तु आखिर उनके पुत्रों ने जन्म ले ही लिया।  वे दोनों हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष कहलाये, और वे जन्म से ही विशालकाय और भयंकर थे। 
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जब दिति जी ने गर्भ को अपने भीतर बांधे रखा था तो उनके गर्भ की शक्ति से सब ओर भयंकर अन्धकार होने लगा।  सब देवगण ब्रह्मा जी की शरण गए और उनसे इसका कारण पूछा। ब्रह्मा जी बोले - दिति के गर्भ में जो दो बालक हैं वे और कोई नहीं बल्कि , नारायण के सेवक जय और विजय हैं , और उनके ही बल से यह हो रहा है।  देवताओं ने प्रश्न किया कि हमने तो सुना है कि कश्यप जी की ये संतानें भयंकर असुर होंगी और आप यह कह रहे हैं? कृपया हमें समझाएं। 

ब्रह्मा जी बोले - हे देवताओं।  एक समय मेरे चारों पुत्र - सनक सनातन सनन्दन और सनतकुमार, श्री विष्णु के दर्शनों को गए। वे छः द्वारों के पार पहुंचे और वैकुण्ठ के सातवें द्वार पर भी वे पिछले द्वारों की ही तरह द्वार खोल कर भीतर जाने लगे। चारों कुमार सृष्टि के प्रथम ब्रह्म पुत्र होते हुए भी पांच बरस के बालक दिखते थे और वस्त्र भी न पहनते थे।  श्री विष्णु जी के द्वारपालों ने उन्हें रोका। उन्होंने कहा कि श्री विष्णु जी माता लक्ष्मी जी के साथ एकांत में हैं।  अभी आपका भीतर जाना उचित न होगा। 

सनत्कुमारों ने कहा कि हे द्वारपालों , आप यहां रहने योग्य नहीं लगते।  आप श्री नारायण के द्वारपाल हैं किन्तु यह नहीं जानते कि किसे भीतर जाने देना है किसे नहीं ? आपको हम सजा देना नहीं चाहते किन्तु आपके लिए यह पाठ बहुत आवश्यक है।  इसलिए आप तीन बार मृत्युलोक में जन्म लेंगे और आपके हृदय नारायण के प्रति शत्रुभावना से भरे होंगे।  ब्राह्मण श्राप सोच कर नारायण भक्त जय और विजय दुखी हुए।  कुमारों को नमन करते हुए उन्होंने क्षमा मांगी और कहा कि ब्रह्म श्राप की कोई काट नहीं है, कृपया हमें श्री नारायण से ह्रदय से दूर न करें। 

तभी श्री नारायण  लक्ष्मी देवी सहित वहां आये और मुस्कुराते हुए बोले कि हे कुमारों, आपने मेरे प्रिय सेवकों को श्राप दिया है, जो पूरा होगा अवश्य। किन्तु मेरे भक्तों पर जो श्राप है उसे मैं भी स्वीकार करता हूँ। इनके तीन जन्मों के लिए मैं भी तीन बार अवतार लूँगा और तीनों जीवनों में मैं ही इन्हे मारूंगा जिससे ये मृत्यु के उपरान्त फिर से मेरे पास लौट आएंगे। 

कुमार कुछ शर्मिंदा हुए क्योंकि अपना कर्तव्य कर रहे उनके परम भक्त द्वारपालों को श्राप देने का कोई औचित्य नहीं था। और वे जान गए थे कि उनके इस निर्णय से नारायण को अच्छा नहीं लगा है, जबकि वे कुछ कह नहीं रहे। किन्तु अब कुछ नहीं हो सकता था। उन्होंने श्री नारायण की स्तुतियाँ गयीं और लौट गए। 

ब्रह्मा जी बोले - हे देवों , ये वही द्वारपाल जय और विजय हैं जो दिति के गर्भ में हैं।  ये  भयंकर विष्णुद्रोही होंगे और उत्पात करेंगे, किन्तु इन्हे मारने स्वयं श्री नारायण आएंगे। मैत्रेय जी बोले, हे विदुर इस तरह हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का जन्म हुआ। शुकदेव जी बोले ऐसे मैत्रेय जी ने विदुर जी को इन असुरों के जन्म की कथा कही।  

जारी …… 



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