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ऋषभ देव जी के वन गमन के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत जी ने लम्बे समय तक जम्बूद्वीप पर राज किया। इनके नाम "भरत" पर ही भूमि का नाम "भारत" हुआ (कई लोग यह समझते हैं कि इससे बहुत बाद में आये शकुन्तला पुत्र भरत पर यह नाम हुआ किन्तु वे बहुत बाद में आये थे) . समय आने पर भरत जी ने अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को सम्राट बना कर संन्यास ले लिया। वे संसार के मोहबंधन तोड़ कर हरिद्वार में ऋषि पुलह जी के आश्रम को गए। आश्रम के आस पास चक्र नामक नदी बहती थी जो आज भी विष्णु जी के शालीग्रामों से भरी है जिनकी पूजा होती है।
भरत जी आश्रम में अकेले रहते और स्वयं पुष्प पत्र आदि एकत्र कर के उपासना करते। नारायण से प्रेम के कारण नारायण का नाम लेने से भी उनके अश्रु बह निकलते और हृदय भर आता। वे वनवासियों के ही वेश में रहते और नारायण भक्ति में डूबे रहते। नारायण की आराधना करते और उनकी ऋचाएं गाते रहते। नारायण के अतिरिक्त उनके मन में कोई विचार न रहता था।
एक दिन वे महानदी के किनारे बैठे थे कि उनकी आँखों ने एक दुखद घटना देखी। एक गर्भिणी हिरणी नदी पर पानी पीने आई थी और पानी पीने के लिए झुकी ही थी कि कहीं से शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। अचानक आई इस घनघोर दहाड़ से भयभीत हुई हिरणी जल पी भी न पायी थी कि भयातिरेक से अपने प्राण बचाने के लिए उसने नदी के उस पार जाने को छलांग लगाईं। उसकी इस आतंकित छलांग के कारण उसका मृगछौना गर्भ से बाहर नदी में ही गिर पड़ा और डूबने को हुआ। इधर माता हिरणी ने उस पार दम तोड़ दिया।
भरत जी यह सब देख रहे थे और उनका हृदय इस नन्हे छौने के लिए द्रवित हो उठा। उन्होंने उसे डूबने से बचाया और अपने आश्रम ले आये जहां उसे दूध दिया और एक माँ की तरह उसे सहला पुचकार कर दिलासा दिया। दिन गुज़रते गए और मृगछौना बड़ा होने लगा। भरत उससे बहुत प्रेम करने लगे। जो भरत अपना परिवार और राजपाट त्याग कर निर्मोही हो वन आये थे वे ही भरत इस मृग के मोह जाल में डूबते चले गए। वे सदा उसीके विषय में सोचते और उसका ध्यान रखते। पूजा के लिए एकत्र किये कुश वे उसे खिला देते। आँखे बंद करने पर उन्हें अब नारायण नज़र न आते बल्कि मृग की अठखेलियां दिखतीं और वे मुस्कुराते। यदि कभी वन में चरने गए मृग समय से न लौटता तो वे चिंतित होने लगते कि उसे कोई शेर आदि खा तो नहीं गया ? एक दिन ऐसे ही मोहपाश में बंधे भरत का अंतिम समय आ गया, और मरते सारा ध्यान उसी मृग पर होने से वे अगले जन्म में मृग बन कर जन्मे।
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पूर्व जन्म के पुण्यप्रभाव से भरत मृग रूप में भी अपने आप को भूले नहीं थे। वे पश्चात्ताप करते कि अहो मैंने नारायण के पुत्र रूप में जन्म लिया और सब ज्ञान शिक्षा उनसे पायी। सर्वस्व त्याग मोहबंधन काट मैं वन को गया और एक मृग से हुए मोह के कारण पुनः जन्म मरण के बंधन में बंध गया। इस बार मैं ध्यान रखूँ कि ऎसी गलती न हो। तब मृगरूपी भरत शालग्राम को गए जहां वे आश्रम के निकट घास फूस खाते जिए और ऋषियों की वाणी के अमृत को सुनते रहे। समय आने पर पशु देह को त्याग उन्होंने पुनः मानव जन्म लिया।
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इस बार वे अंगिरस गोत्र के एक ब्राह्मण के घर उनकी दूसरी पत्नी के पुत्र के रूप में जन्मे। पहली पत्नी के नौ पुत्र थे। भरत अपना पूर्व जन्म न भूले थे और इस बार वे मोहबंधन में बंधना न चाहते थे। इसलिए वे मूर्ख होने का दिखावा करते और कुछ भी न सीखते। उनके पिता ने बहुत प्रयास किये कि उन्हें गायत्री आदि की शिक्षा दें किन्तु विक्षिप्त का अभिनय करते उन्होंने कुछ भी न सीखा। वे "जड़ भरत" कहलाने लगे।
पिता की मृत्यु के बाद भाइयों को सौतेला भाई भारी लगता और सब उनके साथ रूखा व्यवहार करते। किन्तु भरत तनिक भी दुखी न होते क्योंकि वे "मैं" से अलिप्त थे। वे खेतिहर मजदूरों की तरह भाइयों के खेतों में काम करते और जो रूखा सूखा भाभियाँ खाने को दे देतीं वह खा लेते या कभी भूखे भी सो जाते। किन्तु वे स्वयं को भूले न थे इसलिए वे कभी इन बातों से दुखी न होते।
एक रात वे खेत पर पहरा दे रहे थे कि एक डाकू के आदमी उन्हें नरबलि के लिए उठा ले गए। उन डाकुओं ने उन्हें खिला पिला कर सजाया और बलि की तैयारी की। सब देखते समझते हुए भी भरत दुखी न थे क्योंकि वे तो वैसे भी मुक्ति ही चाहते थे। जब पुजारी ने इस मानव शिकार की बलि के लिए तलवार उठायी तो देवी (जो सब जानती थीं) यह देख न सकीं और उमके तेज से तड़प कर मूर्ति से बाहर आ गयीं। उनके साथ उनके लोक के सेवक भी आये जिन्होंने सब डाकुओं को मार डाला और ये सब भरत को प्रणाम कर लौट गए। भरत वहां से निकल कर फिर यहां वहां भटकने लगे।
एक दिन वे कहीं भटक रहे थे कि राजा की सवारी निकली। पालकी उठाने वालों ने देखा कि यह हट्टा कट्टा पागल घूम रहा है, और उन्हें भी अपने में जोड़ लिया। भरत पालकी उठाये चलने लगे और हर कदम पर रुक कर देखते कि कोई जंतु उनके पैर से न दबे। इससे पालकी टेढ़ी मेढ़ी होने लगी और राजा को क्रोध आया। क्रुद्ध राजा ने व्यंग्य करते हुए उन्हें अपशब्द कहे जिनका उन पर कोई असर न हुआ। कुछ दूर आगे फिर यही हुआ तो इस बार राजा को बहुत क्रोध आया और उन्होंने फिर भरत को डांटा और मन भर अपशब्द कहे, और उन्हें दण्डित करने चले ।
भरत जानते थे कि सही ज्ञान न होने से राजा ऐसा ज्ञान प्रदर्शन कर रहा है किन्तु यह भले राजा ऐसे पाप का भागी होने योग्य नहीं। (जो पाप ब्रह्मज्ञानी भरत से अन्याय करने से उस राजा को लगता ) दयाभाव के कारण , यह सुन कर , राजा को भयंकर कर्म से बचाने के लिए, भरत ने कहा कि हे राजन आप राजा होने से दम्भ में हैं, अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझ रहे हैं , और स्वयं को उन्हें दण्डित करने का अधिकारी मान रहे हैं। किन्तु मैं तो यह शरीर हूँ ही नहीं - आप किसे दण्डित करेंगे ? इस शरीर के कष्टों से मेरा संग नहीं और जो मैं हूँ वह न तो दिख सकता है , न ही दण्डित हो सकता है। यह सुन कर राजा की आँखे खुल गयीं और वे भरत के चरणों में गिर पड़े।
राजा ने कहा मैं तो कपिल जी के पास ब्रह्म विद्या को जानने के लिए जा रहा था किन्तु सौभाग्य से आप मिल गए। अब आप ही मुझे यह शिक्षा दें। शरण में आये राजा पर कृपा कर भरत जी ने उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया। वे बोले :
मन ही जीवात्मा को संसार में गिराता है या इससे निकालता है। मन "सतो रजो और तमोगुणों" के प्रभाव से घूमता रहता है। जैसे दिए में कपास की बत्ती होती है लेकिन जब वह जलती है तो वह नहीं जलती बल्कि उसमे वह घी जलता है जो दिए में है। उस अग्नि में उस घी का रंग होता है, बत्ती का नहीं। जब घी न रहे तब कपास ही जलता है और रंग बदल जाता है। ऐसे ही जब मन - त्रिगुणों में लिप्त हो - तो उसके विषय उन गुणों से ही प्रभावित हुए उन्हीं में रँगे रहते हैं। जब वे त्रिगुणों से निकल जाते हैं तब मन ही खुद को जला कर ख़त्म हो जाता है और जीव छः शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) से मुक्त हो जाता है। जैसे सारे आकाश में वायु व्याप्त हैं, उसी तरह प्रभु सारे संसार में व्याप्त हैं। जब जीव कर्म, पुण्य, पाप, संसार, गृहस्थाश्रम आदि के बंधनों को तोड़ देता है तब वह इस सर्वव्यापी परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है।
गृहस्थाश्रम एक डिब्बी में बंद कपूर की तरह है। यह दिखना बंद भी हो जाए तो डिब्बे में उसकी महक बस जाती है - उसी तरह जीव गृहस्थाश्रम से छूट भी जाए तो उसके मन में वासनाएं बनी रहती हैं। यह तभी छूट सकता है जब "मैं" और "मेरा" समाप्त हो जाए। हे राजन - अपने नेत्र खोलो और देखो कि न तुम पुरुष हो न राजा। तुम अपने लक्ष्य को खोजो।
राजा ने भरत जी को साष्टांग प्रणाम किया और आभार प्रकट किया। ऋषभदेव जी के पुत्र भरत जी ने अपने पिता नारायण की शिक्षा इस तरह आगेबढ़ायी , और अपने रास्ते चल पड़े।
जारी .......
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ऋषभ देव जी के वन गमन के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत जी ने लम्बे समय तक जम्बूद्वीप पर राज किया। इनके नाम "भरत" पर ही भूमि का नाम "भारत" हुआ (कई लोग यह समझते हैं कि इससे बहुत बाद में आये शकुन्तला पुत्र भरत पर यह नाम हुआ किन्तु वे बहुत बाद में आये थे) . समय आने पर भरत जी ने अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को सम्राट बना कर संन्यास ले लिया। वे संसार के मोहबंधन तोड़ कर हरिद्वार में ऋषि पुलह जी के आश्रम को गए। आश्रम के आस पास चक्र नामक नदी बहती थी जो आज भी विष्णु जी के शालीग्रामों से भरी है जिनकी पूजा होती है।
भरत जी आश्रम में अकेले रहते और स्वयं पुष्प पत्र आदि एकत्र कर के उपासना करते। नारायण से प्रेम के कारण नारायण का नाम लेने से भी उनके अश्रु बह निकलते और हृदय भर आता। वे वनवासियों के ही वेश में रहते और नारायण भक्ति में डूबे रहते। नारायण की आराधना करते और उनकी ऋचाएं गाते रहते। नारायण के अतिरिक्त उनके मन में कोई विचार न रहता था।
एक दिन वे महानदी के किनारे बैठे थे कि उनकी आँखों ने एक दुखद घटना देखी। एक गर्भिणी हिरणी नदी पर पानी पीने आई थी और पानी पीने के लिए झुकी ही थी कि कहीं से शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। अचानक आई इस घनघोर दहाड़ से भयभीत हुई हिरणी जल पी भी न पायी थी कि भयातिरेक से अपने प्राण बचाने के लिए उसने नदी के उस पार जाने को छलांग लगाईं। उसकी इस आतंकित छलांग के कारण उसका मृगछौना गर्भ से बाहर नदी में ही गिर पड़ा और डूबने को हुआ। इधर माता हिरणी ने उस पार दम तोड़ दिया।
भरत जी यह सब देख रहे थे और उनका हृदय इस नन्हे छौने के लिए द्रवित हो उठा। उन्होंने उसे डूबने से बचाया और अपने आश्रम ले आये जहां उसे दूध दिया और एक माँ की तरह उसे सहला पुचकार कर दिलासा दिया। दिन गुज़रते गए और मृगछौना बड़ा होने लगा। भरत उससे बहुत प्रेम करने लगे। जो भरत अपना परिवार और राजपाट त्याग कर निर्मोही हो वन आये थे वे ही भरत इस मृग के मोह जाल में डूबते चले गए। वे सदा उसीके विषय में सोचते और उसका ध्यान रखते। पूजा के लिए एकत्र किये कुश वे उसे खिला देते। आँखे बंद करने पर उन्हें अब नारायण नज़र न आते बल्कि मृग की अठखेलियां दिखतीं और वे मुस्कुराते। यदि कभी वन में चरने गए मृग समय से न लौटता तो वे चिंतित होने लगते कि उसे कोई शेर आदि खा तो नहीं गया ? एक दिन ऐसे ही मोहपाश में बंधे भरत का अंतिम समय आ गया, और मरते सारा ध्यान उसी मृग पर होने से वे अगले जन्म में मृग बन कर जन्मे।
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पूर्व जन्म के पुण्यप्रभाव से भरत मृग रूप में भी अपने आप को भूले नहीं थे। वे पश्चात्ताप करते कि अहो मैंने नारायण के पुत्र रूप में जन्म लिया और सब ज्ञान शिक्षा उनसे पायी। सर्वस्व त्याग मोहबंधन काट मैं वन को गया और एक मृग से हुए मोह के कारण पुनः जन्म मरण के बंधन में बंध गया। इस बार मैं ध्यान रखूँ कि ऎसी गलती न हो। तब मृगरूपी भरत शालग्राम को गए जहां वे आश्रम के निकट घास फूस खाते जिए और ऋषियों की वाणी के अमृत को सुनते रहे। समय आने पर पशु देह को त्याग उन्होंने पुनः मानव जन्म लिया।
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इस बार वे अंगिरस गोत्र के एक ब्राह्मण के घर उनकी दूसरी पत्नी के पुत्र के रूप में जन्मे। पहली पत्नी के नौ पुत्र थे। भरत अपना पूर्व जन्म न भूले थे और इस बार वे मोहबंधन में बंधना न चाहते थे। इसलिए वे मूर्ख होने का दिखावा करते और कुछ भी न सीखते। उनके पिता ने बहुत प्रयास किये कि उन्हें गायत्री आदि की शिक्षा दें किन्तु विक्षिप्त का अभिनय करते उन्होंने कुछ भी न सीखा। वे "जड़ भरत" कहलाने लगे।
पिता की मृत्यु के बाद भाइयों को सौतेला भाई भारी लगता और सब उनके साथ रूखा व्यवहार करते। किन्तु भरत तनिक भी दुखी न होते क्योंकि वे "मैं" से अलिप्त थे। वे खेतिहर मजदूरों की तरह भाइयों के खेतों में काम करते और जो रूखा सूखा भाभियाँ खाने को दे देतीं वह खा लेते या कभी भूखे भी सो जाते। किन्तु वे स्वयं को भूले न थे इसलिए वे कभी इन बातों से दुखी न होते।
एक रात वे खेत पर पहरा दे रहे थे कि एक डाकू के आदमी उन्हें नरबलि के लिए उठा ले गए। उन डाकुओं ने उन्हें खिला पिला कर सजाया और बलि की तैयारी की। सब देखते समझते हुए भी भरत दुखी न थे क्योंकि वे तो वैसे भी मुक्ति ही चाहते थे। जब पुजारी ने इस मानव शिकार की बलि के लिए तलवार उठायी तो देवी (जो सब जानती थीं) यह देख न सकीं और उमके तेज से तड़प कर मूर्ति से बाहर आ गयीं। उनके साथ उनके लोक के सेवक भी आये जिन्होंने सब डाकुओं को मार डाला और ये सब भरत को प्रणाम कर लौट गए। भरत वहां से निकल कर फिर यहां वहां भटकने लगे।
एक दिन वे कहीं भटक रहे थे कि राजा की सवारी निकली। पालकी उठाने वालों ने देखा कि यह हट्टा कट्टा पागल घूम रहा है, और उन्हें भी अपने में जोड़ लिया। भरत पालकी उठाये चलने लगे और हर कदम पर रुक कर देखते कि कोई जंतु उनके पैर से न दबे। इससे पालकी टेढ़ी मेढ़ी होने लगी और राजा को क्रोध आया। क्रुद्ध राजा ने व्यंग्य करते हुए उन्हें अपशब्द कहे जिनका उन पर कोई असर न हुआ। कुछ दूर आगे फिर यही हुआ तो इस बार राजा को बहुत क्रोध आया और उन्होंने फिर भरत को डांटा और मन भर अपशब्द कहे, और उन्हें दण्डित करने चले ।
भरत जानते थे कि सही ज्ञान न होने से राजा ऐसा ज्ञान प्रदर्शन कर रहा है किन्तु यह भले राजा ऐसे पाप का भागी होने योग्य नहीं। (जो पाप ब्रह्मज्ञानी भरत से अन्याय करने से उस राजा को लगता ) दयाभाव के कारण , यह सुन कर , राजा को भयंकर कर्म से बचाने के लिए, भरत ने कहा कि हे राजन आप राजा होने से दम्भ में हैं, अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझ रहे हैं , और स्वयं को उन्हें दण्डित करने का अधिकारी मान रहे हैं। किन्तु मैं तो यह शरीर हूँ ही नहीं - आप किसे दण्डित करेंगे ? इस शरीर के कष्टों से मेरा संग नहीं और जो मैं हूँ वह न तो दिख सकता है , न ही दण्डित हो सकता है। यह सुन कर राजा की आँखे खुल गयीं और वे भरत के चरणों में गिर पड़े।
राजा ने कहा मैं तो कपिल जी के पास ब्रह्म विद्या को जानने के लिए जा रहा था किन्तु सौभाग्य से आप मिल गए। अब आप ही मुझे यह शिक्षा दें। शरण में आये राजा पर कृपा कर भरत जी ने उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया। वे बोले :
मन ही जीवात्मा को संसार में गिराता है या इससे निकालता है। मन "सतो रजो और तमोगुणों" के प्रभाव से घूमता रहता है। जैसे दिए में कपास की बत्ती होती है लेकिन जब वह जलती है तो वह नहीं जलती बल्कि उसमे वह घी जलता है जो दिए में है। उस अग्नि में उस घी का रंग होता है, बत्ती का नहीं। जब घी न रहे तब कपास ही जलता है और रंग बदल जाता है। ऐसे ही जब मन - त्रिगुणों में लिप्त हो - तो उसके विषय उन गुणों से ही प्रभावित हुए उन्हीं में रँगे रहते हैं। जब वे त्रिगुणों से निकल जाते हैं तब मन ही खुद को जला कर ख़त्म हो जाता है और जीव छः शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) से मुक्त हो जाता है। जैसे सारे आकाश में वायु व्याप्त हैं, उसी तरह प्रभु सारे संसार में व्याप्त हैं। जब जीव कर्म, पुण्य, पाप, संसार, गृहस्थाश्रम आदि के बंधनों को तोड़ देता है तब वह इस सर्वव्यापी परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है।
गृहस्थाश्रम एक डिब्बी में बंद कपूर की तरह है। यह दिखना बंद भी हो जाए तो डिब्बे में उसकी महक बस जाती है - उसी तरह जीव गृहस्थाश्रम से छूट भी जाए तो उसके मन में वासनाएं बनी रहती हैं। यह तभी छूट सकता है जब "मैं" और "मेरा" समाप्त हो जाए। हे राजन - अपने नेत्र खोलो और देखो कि न तुम पुरुष हो न राजा। तुम अपने लक्ष्य को खोजो।
राजा ने भरत जी को साष्टांग प्रणाम किया और आभार प्रकट किया। ऋषभदेव जी के पुत्र भरत जी ने अपने पिता नारायण की शिक्षा इस तरह आगेबढ़ायी , और अपने रास्ते चल पड़े।
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मै और मेरा से छूटने का मर्म बताती सुंदर भरत की कथा..
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