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बुधवार, 9 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम ९ : उत्तानपाद, ध्रुव, वेण, पृथु

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इससे पहले के भागों में हम मनु और शतरूपा जी की पुत्रियों और उनके वंशजों के बारे में पढ़ आये हैं।  अब उनके पुत्रों के बारे में जाते हैं।  (मनु और शतरूपा जी ने ब्रह्मा जी के आदेश से संतति बढाने के लिए पांच संतानों को जन्म दिया। ये थे - प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र और आकूति , देवहुति , एवं प्रसूति नामक कन्याएं।) मनु जी के दो पुत्र थे - उत्तानपाद और प्रियव्रत।

उत्तानपाद आगे जा कर राजा हुए।  उनकी दो पत्नियां थीं - सुरुचि और सुनीति - जिनमे राजा सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे।  सुनीति के पुत्र थे ध्रुव और सुरुचि के पुत्र उत्तम।  एक दिन बगीचे में उत्तम पिता के संग खेल रहे थे। तभी ध्रुव वहां आये और छोटे भाई को पिता की गोद में देख वे भी गोद में आने का प्रयास करने लगे।  यह देख कर सुरुचि दौड़ी आयीं और खींच कर उन्हें पिता की गोद से उतार दिया।  उन्होंने कहा कि तुम मेरी कोख से नहीं जन्मे हो तो तुम्हे यहां बैठने का कोई  अधिकार नहीं है।  आँखों में आंसू भरे ध्रुव ने सहारे के लिए पिता की ओर देखा किन्तु स्त्री प्रेम में मग्न पिता ने बालक के समर्थन में कुछ भी नहीं कहा।  दुखी हो कर ध्रुव अपनी माँ सुनीति के पास आये - और यह सब सुन कर माँ ने उन्हें कहा कि हाँ - मेरे पुत्र होने से तुम्हे यह सहना पड़ा।  तुम नारायण की आराधना करो और उनकी गोद में बैठना।

बालक के मन को यह बातें लग गयीं और वे तप करने निकल पड़े। उन्हें तप करना आता नहीं था - वे सिर्फ पांच साल के बालक थे।  वे इधर उधर भटक रहे थे, और देवर्षि नारद को (जो खुद पूर्व जन्म में नारायण के लिए भटके थे) उन पर करुणा हो आई।  नारद बालक के पास आये और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि तुम अभी बहुत छोटे हो, यह उम्र तप की नहीं है। लेकिन बालक ध्रुव मन बना चुके थे - न मानना था, न माने। तब नारद जी ने उन्हें दीक्षा दी।  उन्होंने कहा कि यमुना किनारे मधुवन में जाओ, और दिन में तीन बार स्नान करते हुए तप करना। उन्होंने ध्रुव को नारायण का रूप समझाया और ध्रुव के मन में नारायण की छवि उभर आई।  नारद जी ने कहा कि प्राणायाम करते हुए अपना ध्यान नारायण की छवि पर लगाए रहना।

ध्रुव वन में कड़ा तप करने लगे।  पहले मास उन्होंने सिर्फ फल खाए, दूसरे महीने वे घास और सूखे पत्ते खाने लगे।  तीसरे महीने सिर्फ जल पर और चौथे महीने सिर्फ हवा (सांस) पर रहे।  पांचवे महीने उन्होंने श्वास लेना भी बंद कर दिया।  उनके तप से घोर ऊर्जा प्रकट होने लगी और तपन को सहन न कर सकने से देव नारायण के पास गए और बालक को दर्शन देने का आग्रह किया।

नारायण ध्रुव के सामने आये तो ध्रुव के मन से उनकी छवि गायब हो गयी।  तड़प कर बालक ने आँखें खोलीं तो नारायण को सामने पाया।  आनंद अतिरेक से ध्रुव की आँखे बहने लगे और वे प्रयास करने से भी कुछ बोल न पाये।  तब नारायण ने सप्रेम अपने शंख से हलके से बालक के गालों को छुआ और ध्रुव के मन में सारा वेदज्ञान प्रकाशित हो उठा।  तब बालक ने अनेक प्रकार से नारायण की संस्तुति की।  लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं माँगा - क्योंकि इन दर्शनों के बाद उनके मन में कोई अभिलाषा ही नहीं बची थी।

सर्वज्ञ नारायण ने कहा कि मैं जानता हूँ कि तप तुमने शुरू क्यों किया था और वह मनोकामना पूर्ण होगी।  बड़े हो कर तुम महान राजा बनोगे और तीस हज़ार वर्षों तक राज्य करोगे, जिसमे अनेक यज्ञादि करोगे।  इस जीवन के बाद तुम ध्रुवतारे के रूप में आकाश में सर्वोच्च स्थान पर स्थित होगे, और सप्तर्षि तुम्हारी परिक्रमा करेंगे।

यह कह कर नारायण अन्तर्धान हो गए।  उनके जाने के बाद ध्रुव को होश आये, तो वे बहुत पछताए कि क्यों नहीं उन्होंने नारायण से मोक्ष माँगा।

इधर बालक के घर छोड़ कर जाने के बाद उत्तानपाद अपने व्यवहार पर बहुत लज्जित हुए और चिंतित और दुखी रहने लगे।  ध्रुव को दीक्षित करने के बाद नारद वहां आये और राजा के दुःख का कारण पूछा। उत्तानपाद ने सब बताया और कहा कि वे पुत्र की कुशलता को लेकर चिंतित हैं।  वन में कोई पशु उसे खा ही गए होंगे।  नारद जी ने राजा को सांत्वना दी और कहा कि ध्रुव को आप साधारण बालक न समझें - उन्हें कोई भय नहीं है,  उनकी रक्षा स्वयं नारायण कर रहे हैं। वे आगे जाकर बहुत बड़े राजा होंगे और आप उनके पिता होने के कारण जाने जाएंगे।

ध्रुव की तपस्या समाप्त होने पर जब वे लौटने लगे तो उनसे पहले उनकी ख्याति  पहुँच गयी।  राजा पत्नियों और छोटे पुत्र सहित दौड़े आये और उन्होंने पुत्र को आलिंगन में भर लिया।  बड़े होकर ध्रुव महान राजा बने और लम्बे अरसे तक राज्य करने के बाद पुत्र को राज्य सौंप कर संन्यास ले लिया और फिर से तप किया।

ध्रुव के बड़े पुत्र उत्क्ल बहुत बड़े दार्शनिक तत्वज्ञानी थे।  उन्ही राज्य आदि में कोई रूचि न थी।  तो उनके छोटे भाई वतसर राजा बनाये गए।  वत्सर के वंशज हुए अंग।  अंग ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराया और अग्निदेव प्रकट होकर पायसम दिया।  रानी सुनीता ने उस प्रसाद के फलस्वरूप एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु वह "वेण" नामक बालक बड़ा क्रूर और अधर्मी था।  अपने बेटे के सुधार के लिए राजा ने साम दाम दंड भेद सभी प्रयास किये किन्तु कोई फायदा न हुआ।  दुखी राजा एक दिन अचानक महल छोड़ कर वन को चले गए और वेण अगले राजा बने।

वेण का राज्य कार्य अधर्मपूर्ण था और गुरुजनों ने मन्त्रणा कर उन्हें समझाने के प्रयास किये। अहंकारी राजा ने कहा - मैं ही भगवान हूँ  - सब यज्ञ मेरी प्रशस्ति में हों।  उनकी इन अहंकारमय अपमानजनक बातों से कुपित होकर उन ज्ञानीजनों ने यमराज का आवाहन किया औरराजा की मृत्यु हो गयी।

राजा  चोर लुटेरों ने राजा रहित राज्य को लूटना शुरू कर दिया।  तब ऋषिगणों ने सलाह की कि अब क्या किया जाए। वेण की माता सुनीता ने पुत्र मोह के कारण शरीर का अंतिम संस्कार न किया था और लेपों से शरीर को सम्हाले रखा था।  ऋषियों ने वेण के शरीर को माँगा।  उसकी जाँघों को मथने से उसके भीतर का अशुभ तत्व एक काले व्यक्ति के रूप में प्रकट हुआ और निषाद कहलाया।  फिर ऋषियों ने उस शरीर के दायें और बाएं हाथों की भुजाओं को मथा - जिससे एक पुरुष और एक स्त्री (बालक बालिका) प्रकट हुए।  ये नारायण और लक्ष्मी थे।  ये पृथु और आर्चिस कहलाये और आगे जाकर इन दोनों का आपस में विवाह हुआ।

बाद में पृथु का राज्याभिषेक हुआ।

जारी ………  

6 टिप्‍पणियां:

  1. बालक ध्रुव की सुंदर कथा...अगली कड़ी की प्रतीक्षा

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  2. अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी,बहुत ही रोचक कथा।

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