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गुरुवार, 17 जुलाई 2014

धर्म रिलिजन संप्रदाय आस्तिकता


ये कुछ विचार हैं जो धर्म के विषय पर फेसबुक पर हुई चर्चाओं में आये। यहां सहेज रही हूँ।

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धर्म को आज हमने faith मान लिया है - कि आप किस किताब के ईश्वर को ईश्वर मानते हैं या कैसे प्रार्थना करते हैं । जबकि धर्म का विश्वास या ईश्वर से अर्थ था ही नहीं । धर्म न तो पंथ है न समुदाय न ही रिलिजन । धर्म व्यक्ति को सही गलत राहें बताता और उसे जानकारी प्रोवाइड कराता कि किन परिस्थितियों में उसके क्या कर्तव्य हैं और "सही" पथ क्या होगा।

सब धर्म एक ही है यह भी सच नहीं । धर्म व्यक्ति और समय और माहौल के अनुसार पृथक होते हैं । महाभारत धर्मयुद्ध इसीलिए कहलाया कि वहां कोई किसी एक धर्म के लिए नहीं खड़ा था। हर एक नायक के अपने धर्म थे।अर्जुन भी अपने धर्म की राह पर था तो कर्ण भी ।

श्रीकृष्ण ने भी कहा - क्षत्रिय होने से अपने विशिष्ट धर्म का पालन करते हुए - अर्थात उसका एक स्पेसिफिक धर्म।

फेसबुक पर अक्सर ये बहस देखती हूँ कि धर्म क्या है और कौनसा सही है या कि सब धर्म एक हैं । इसका क्या अर्थ है? जब मैं कोलेज में लैब में हूँ तो मेरा धर्म है हर एक छात्र को उस प्रयोग की थ्योरी को प्रैक्टिकल में कन्वर्ट करना सिखाना और लैब असिस्टंट का धर्म है उन्हें वह करने के लिए प्रोपर इक्विपमेंट देना और सर्किट सही लगवाना ।हम दोनों का धर्म अलग है ।

और हम दोनों में किसी का भी धर्म यह नहीं कि छात्र को समझाएं कि हे पुत्र , यह लैब यह इक्विपमेंट सब इस इस ने बनाए और इस इस ने तुम तक पहुंचाए और तुम्हारा धर्म है उनकी अर्चानाएं गाना !!!

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व्यक्ति के सब के प्रति धर्म हैं - औरअपने प्रति भी ।अब जैसे हर बच्चा एक क्लास में पढ़ते हुए टेस्ट आदि लिखता है तो सोमवार को उसका धर्म मैथ्स टेस्ट की तैयारी है, अगले दिन दूसरा विषय । उस सप्ताह उस यूनिट टेस्ट का पर्फोर्मांस । उस वर्ष उस क्लास का । छात्र जीवन में अपने आप को समाज की सेवा और जीवकोपार्जन के योग्य बनाने का । जीवन में समाज को समाज का ऋण लौटने का और परिवार सेवा का धर्म।

अलग लेवल के अलग धर्म होते हैं - माता पिता के प्रति पत्नी के प्रति आदि ।लेकिन एक धर्म अपने प्रति भी होता है।

समाज के प्रति या कमजोरो के प्रति अन्यायी न होने की सीख देने के लिए समय समय पर उस समयखंड की मान्यताओं के अनुसार अलग अलग सीखें अलग अलग महात्माओं ने दीं। हर प्रकार के मानसिक लेवल और रुचियों के अनुसार अलग प्रकार की सीखें दी गयीं । कई लोग समझ से सही गलत का निर्णय लेते हैं कई लोग भय की लाठी से ही हांके जा सकते हैं । तो तरह तरह के प्रोत्साहन (और भय भी) किताबें बताती हैं ।

दुखद है कि समय कर्म में धर्म का असल मकसद भुला कर उसे ईश्वर केनाम पर समुदाय भर बना दिया गया । अपने अपने ग्रुप के संख्याबल पर लाभ लेने के लिए अपने सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ बता कर उसकी संख्या बढाने की और दुसरे की कमियां बता कर उसका संख्याबल कम करने की होड़ सी लग गयी ।धर्म अन्यायपूर्ण न होने के लिए था और हम और तथाकथित धर्मगुरु उसी के नाम पर दुकानें चलाने लगे और इतना शोषण किया कि धर्म ही बदनाम हो गया और अच्छे लोग "मैं धर्म को नहीं मानता/ धर्म होना ही नहीं चाहिए" की दिशा में चल पड़े। उनके कारण सही हैं किन्तु वे वही कर रहे हैं जो हमारे समाज की परिपाटी है । विक्टिम को गुनहगार कहने की पुरानी आदत है हमारी। हम वह समाज हैं जो बलात्कार पीड़िता को ही कहते हैं - ज़रूर तूने ही कोई इशारे किये होंगे नहीं तो बिना तेरी मर्जी के कोई कैसे हाथ लगा सकता था ? हम ऐसे ही सोचने के लिए मेंटली कंडिशन्ड हैं।इसीलिए , इन ठेकेदारों ने धर्म को बदनाम किया और इन ठेकेदारों की हरकतों से चिढ कर अच्छे लोग धर्म के ही विरोधी हो गये ।

आज लोग "मैं नास्तिक हूँ" का पर्यायवाची मानते हैं कि "मैं धर्म को नहीं मानता"

नास्तिक आस्तिक क्या होता है? लोगों को लगता है नास्तिक आस्तिक का सम्बन्ध ईश्वर को मानने न मानने से था । अरे बुद्ध से बड़ा ईश्वर में अविश्वास करने वाला कौन है? और उनसे बड़ा सद-धर्मी भी कौन है?

ईश्वर में विश्वास होना व्यक्ति के लिए सही राह पर चलना और गलत राह को अवॉयड करना थोडा सा आसान कर सकता है - बस !!! इससे अधिक कुछ नहीं । आप ईश्वर को न मान कर भी धार्मिक हो सकते हैं और ईश्वर को मानने वाले भी अधर्मी हो सकते हैं ।

और "आस्तिक" का अर्थ ईश्वर में विश्वास है भी नहीं । आस्तिक अर्थात यदि आस्थावान है , तो भी आवश्यक नहीं कि वह आस्था ईश्वर में ही हो । आस्था आपको अपने constitution में भी हो सकती है, अपने पिता के सर्वशक्तिमान होने का विश्वास भी आस्था ही है । आस्था आवश्यक नहीं कि ईश्वर को स्वीकार करना ही हो।

ईश्वर में विश्वास होना व्यक्ति के  लिए सही राह पर चलना और गलत राह को अवॉयड करना थोडा सा आसान कर सकता है - बस !!! इससे अधिक कुछ नहीं । आप ईश्वर को न मान कर भी धार्मिक हो सकते हैं और ईश्वर को मानने वाले भी अधर्मी हो सकते हैं ।

और "आस्तिक" का अर्थ ईश्वर में विश्वास है भी नहीं । आस्तिक अर्थात यदि आस्था वांन है , तो भी आवश्यक नहीं कि वह आस्था ईश्वर में ही हो । आस्था आपको अपने constitution में भी हो सकती है, अपने पिता के सर्वशक्तिमान होने का विश्वास भी आस्था ही है । आस्था आवश्यक नहीं कि ईश्वर को स्वीकार करना ही हो।

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@@ राजन सिँह हाँ तो फिर ठीक है.लेकिन फिर मंदिर या मस्जिद पर से माईक आदि हटाना धर्म पर हमला कैसे बन जाता है?इनका धर्म से क्या लेना देना ?

@@राजन सिँह - इनका धर्म से कोई लेना देना है ही नहीं। इनका समुदाय की संख्याबल के डीएम पर अपनी बात मनवाने और अपने हिसाब से औरों को हांकने की प्रवृत्ति से लेना देना है और कुछ नहीं ।
यदि ये माइक वाले यह समझते हैं कि माइक आदि के बिना उनका ईश्वर उनकी बात या अर्चना नहीं सुन सकता तो फिर तो वे खुद हिकः रहे हैं कि वह ईश्वर इतना निःशक्त है कि मन की आवाज़ सुनने के लिए उसे ऊंचे शब्द की जरूरत है ।
न - यह ईश्वर की आराधना नहीं। यह कर्मकांड है।

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अपने स्वयं के प्रति धर्म यह है कि यदि उस व्यक्ति को सच्ची जिज्ञासा है यह जान्ने की कि वह कौन है कहाँ से आया है कहाँ जाएगा - तो उसे खोजने की आज़ादी है ।

जो लोग इससे पहले इस जिज्ञासा पर चल कर खोज कर चुके हैं उनकी खोजें (सही या गलत) तथाकथित "धर्म" पुस्तकों" में वर्णित हैं ।

जो चाहे पढ़े जो न चाहे न पढ़े जो चाहे खोजे जो न चाहे न खोजे । किसी पर कोई जबरदस्ती नहीं है "धर्म" के अनुसार । हाँ संख्याबल पर राज करने के लियेजो समुदाय बन गये हैं - वे अवश्य जरुरी है के कानून थोपते हैं इस डर से कि उनका गुट छोटा न हो जाय या दुसरे का उनसे अधिक शक्तिवंत न हो जाय ।

धर्म संख्याबल से सम्बन्धित है ही नहीं । न समुदाय से । धर्म तो व्यक्ति का होता है ।अधर्म समुदाय और संख्याबल के कारण होते हैं अक्सर। जितना बल उतना गुरूर- जितना गुरूर उतनी जिद अपनी बात मनवाने की - उतना क्रोध क्रूरता और अन्याय ।

तथाकथित "नास्तिकता" भी एक समुदाय है । इस समुदाय के लोग मानते हैं कि धर्म का अर्थ "faith" रखने वाले समुदाय हैं जो उनके "टारगेट" हैं । जिन्हें हरा देना और खुद जीत जाना , उन्हें "नास्तिक" बनाना ही उनका धर्म है और वे इस धर्म पर चलते हैं ।

उन्हें लगता है कि जिस दिन सब "नास्तिक" हो गये तो कोइ जादुई छड़ी घूमेगी और संसार की सब समस्याएँ पल भर में सुलझ जायेंगी । वे अपने इस धर्मं का पालन तथाकथित आस्तिकों से भी अधिक devotion से करते हैं ।ठीक उसी तरह तथाकथित आस्तिक भी यही कहते हैं कि "हमारे संप्रदाय" की सीखें सब मानने लगें तो ऐसी ही जादुई छड़ी घूमेगी। दोनों ही मूर्खतापूर्ण बातें हैं। 

कम्युनिस्ट्स ने जितनी क्रूरता इस संसार में की है शायद ही किसी "आस्तिक" समुदाय ने की होगी।

मैं हमेशा से कहती आई हूँ कि न मुझे आस्तिकता से कोई दिक्क्त है न नास्तिकता से।  मुझे दिक्क्त है एक दुसरे को चोट पहुंचा कर जीतने की प्रवृत्ति से।  मुझे दिक्कत है कि हम (हर एक गुट - चाहे आस्तिक या नास्तिक के नाम पर  ; चाहे इस समुदाय या उस समुदाय के लोग ; चाहे सामिष और निरामिष भोजन लेने वाले ; चाहे मोदी समर्थक और विरोधी ; चाहे केजरीवाल समर्थक और विरोधी ; चाहे कोई भी इस्शु हो - हम अपना संख्याबल बढ़ाने और जीतने के लिए अपनी पूरी शक्ति से प्रहार करते हैं। 

पहले पुराने समय में समुदाय एक दुसरे को शारीरिक चोट पहुंचाते थे, अब हम सोशल साइट्स पर एक दुसरे को मानसिक चोट पहुँचाना चाहते हैं।  हम गहरी से गहरी चोट करना चाहते हैं अपनी बात रखवाने की ज़िद में।  
एक कहावत है न - शब्द का घाव तलवार से गहरा होता है - यही हम कर रहे हैं आज। … 

6 टिप्‍पणियां:

  1. Shilpa Mehta दी! आपने सचमुच बहुतविस्तार से बहुत सुंदर और स्पष्ट बातें कही हैं धर्म के विषय में। सहमती के साथ अंत में मैं भी यही कहना चाहूँगा कि कालानुसार हमारे कर्म ही हमारा धर्म होते हैं। और कर्म केवल वे ही करने चाहिए जो करणीय/करने योग्य हों। और करणीय कर्म केवल वे होते हैं जो सत्य होते हैं। मिथ्या कर्म सदैव अकरणीय ही होते हैं। इसका अंतिम निष्कर्ष यह निकलता है कि "सत्य को धारण करना ही धर्म कहलाता है"। शेष जोभी अपरिग्रह, अहिंसा, यम, नियम आदि आदि आदि वे सब सत्य की ही व्याख्याऐं हैं।

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  2. चिंतनीय पोस्ट..सुंदर विचार !

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    1. अनीता जी - आप लगातार पढ़ भी रही हैं और हौसला अफजाई भी कर रही हैं - आपका बहुत बहुत आभार .

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  3. धर्म,स्वधर्म,अधर्म ....इन सब पर जितना भी चिंतन किया जाये उतना कम है.
    सार्थक चिंतन के लिए आभार.

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