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पिछले भाग में हमने पढ़ा कि नारद जी ने राजा को कर्मकांड में उलझे न रह कर ईश्वर की खोज करने के बारे में समझाया और पुरञ्जन की कथा कही। इस भाग में यही कथा कहूँगी।
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एक राजा था - पुरञ्जन। पुरञ्जन के अभिन्न मित्र थे अविज्ञाता। अविज्ञाता का यह नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि उनके बारे में कोई भी नहीं जानता था कि वे कौन हैं और क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं । पुरञ्जन और अविज्ञाता हमेशा साथ रहते थे। बहुत लम्बे काल तक ऐसा ही चलता रहा। फिर पुरञ्जन अधीर होने लगे और उनका मन दुनिया देखने, जीतने और अपनी तरह से आनंदित रहने के लिए मचलने लगा। अविज्ञाता ने उन्हें बहुत रोकने का प्रयास किया , लेकिन वे अपनी राह पर चल ही पड़े।
हिमालय की दक्षिणी ढलानों पर उन्हें एक बहुत सुंदर नगर मिला। इस नगर में नौ द्वार थे। इसका नाम था - भोगवती नगर। नगर के समीप बाग़ में विश्राम करते पुरंजन ने देखा कि एक अनुपम अद्वितीय सुंदरी शहर से आ रही हैं, जिनके साथ दस मुख्य सेवक हैं। हर एक सेवक के साथ सौ सौ सेविकाएं भी थीं। इनके आगे एक पांच सिरों वाला नाग था जो हर संकट पर नज़र रखे था - और उसका नाम प्रजगर था। पुरञ्जन एकटक इस सुंदर षोडशी (सोलह वर्षीय युवती) को देखे जा रहे थे कि युवती ने उनकी तरफ देखा। पुरंजन शर्मिंदा हुए और नज़रें घुमा लीं। किन्तु वह युवती नाराज़ नहीं थी। वह उनकी तरफ आई और और नज़रें झुका पहल का इंतज़ार करने लगीं ।
पुरंजन ने कहा - हे ब्रह्माण्ड सुंदरी - आप कौन हैं ? आप इतनी सुन्दर हैं - आप कोई साधारण स्त्री नहीं हो सकतीं। क्या आप ब्रह्माणी हैं, या धर्म की पत्नी ह्री हैं ? नहीं तो आप अवश्य ही भवानी या नारायणी लक्ष्मी होंगी। तब वे बोलीं - बोली - हे तेजस्वी पुरुष, मेरा नाम पुरंजनी है । मैं जान गयी हूँ कि आप मुझ पर मोहित हैं , और मुझे भी आपकी ओर आकर्षण का अनुभव हो रहा है। मैं भी आप जैसे ही पुरुष को खोज रही थी जो मुझसे विवाह कर इस नगर का राजा बने , जो भय और चिंता से मुक्त होकर मुझसे प्रेम करे और मेरे राज्य को संभाले। पुरंजन अति प्रसन्न हुए और जल्द ही उन दोनों का विवाह हो गया।
सुंदरी पत्नी के प्रेम में डूबे हुए पुरंजन राज्य पर सुखपूर्वक राज करते गृहस्थ जीवन जीने लगे और अति प्रसन्न रहते। उनकी पत्नी उन्हें अत्यंत सुखदायिनी थीं और उन्हें पता ही नहीं चला कि कब वे अनेक सुन्दर संतानों के पिता बन गए। उनकी संतानें और पत्नी उनसे बहुत प्रेम करते थे। पुरंजन अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और उनसे अलग कुछ न देख पाते न सुन पाते थे। वे दिन कहतीं तो दिन, रत कहती तो रात, सुख कहती तो सुख क्रोधित होती तो पुरंजन भी क्रोधित हो उठते।
इधर "चण्डवेग" नामक एक दूसरा राजा था जिसने भोगवती पर आक्रमण कर दिया। उसके पास ३६० सेवक थे और हर सेवक के साथ उस सेवक की सेविका भी थी। प्रजगर उनसे युद्ध करता रहा और नगर पर कोई आंच न आने देता था। इधर काल की पुत्री थीं ज़रा - जो बहुत अनाकर्षक थीं। उनसे कोई विवाह करने को राजी न था। उन्होंने नारद को देखा और आकर्षित हो उठीं - लेकिन नारद ने विवाह न करने का अपना निर्णय उन्हें बता दिया। इससे दुखी हो कर वे काल के पास गयीं - तो मृत्यु ने उन्हें समझाया कि ऐसे नहीं करते। मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। कोई तुम्हे ख़ुशी से स्वीकार नहीं करता तो तुम चुपके से लोगो को जकड़ लेना। हम दोनों के साथी होंगे मेरे दो भाई प्रज्वर और भय। ये चारों शिकार की तलाश में घूमने लगे।
इधर चण्डवेग का आक्रमण सौ वर्ष तक चलता रहा और प्रजगर आक्रमण को झेलते झेलते थक गया था। शत्रु सेना से हारने वाला प्रजगर अब भोगवती नगर की और रक्षा नहीं कर सका और हारने लगा। तब शत्रु नगर में घुस आये और इधर ज़रा और उसके साथी भी भीतर आ गए। ज़रा के आने से पुरंजन को प्रज्वर और भय ने जकड़ लिया। न उसकी प्रिय पत्नी न उसकी संतानें अब कुछ कर सके, और न ही उनका वह पहले जैसा प्रेम उसे अब मिला । वह शीघ्र ही काल के गाल में समा गया। मृत्यु के समय उसे सिर्फ और सिर्फ अपनी पत्नी का ध्यान था सो स्त्री बन कर उसने पुनर्जन्म लिया।
इस बार वह विदर्भ राज की पुत्री हुआ। बड़ी होने पर वैदर्भी का विवाह मलयध्वज पंड्या से हुआ जो बहुत सदाचारी और धर्मयुक्त थे। उनके वृद्ध होने पर उन्होंने संन्यास लिया और वैदर्भी भी उनके साथ वन को गयीं । जब उन्होंने अष्टांगयोग द्वारा अपना शरीर त्याग किया तो वैदर्भी उनके साथ सती होने चलीं।
तभी अविज्ञाता वहां आ गए और वैदर्भी को समझाया कि, याद करो तुम कौन हो ? तुम न स्त्री (वैदर्भी) हो न पुरुष (पुरंजन)। तुम जीवात्मा हो। माया में पड़कर तुमने पुरंजनी (मन) के साथी नौ द्वारों वाले नगर भोगवती(नौ छिद्रों वाला शरीर) को अपना घर बनाया और अपने आप को भूल गए। उसके दस सेवकों को तुमने अपना सेवक माना। ( पांच कर्मेन्द्रिया और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ) , और वह मन (पत्नी) जो भी अच्छा बुरा मानती वही तुम भी मानते और अपने आप को मन से अलग जान ही नहीं पाये।
पांच सिरों वाला नाग प्रजगर (पांच इन्द्रिय विषय ) तुम्हारे शरीर (नगर) की रक्षा करता रहा और प्रचण्डवेग (गतिशील समय ) के ३६० सेवक सेविकाओं (दिन और रात) से वर्षों तक लड़ते हुए जब इन्द्रियां हार गयीं तो जरा (बुढ़ापा) और प्रज्वर (सभी तरह की बीमारियां, ज्वर) ने तुम्हे जकड़ा। तब तुम भयभीत हुए और काल के शिकार हुए। शरीर और मन के जाल में फंसे तुम दुबारा मन के ही रूप में जन्मे और अपने आप को आज भी मन ही मान रहे हो।
चलो अब इस मन से मोह तोड़ो और फिर से मेरे (अविज्ञाता - ईश्वर - जिसे कोई नहीं जानता लेकिन जो जीवात्मा का परम मित्र है और हमेशा संग होता है) संग चलो। अब अपने घर लौट आओ।
तब नारद ने राजा को इस कथा का सार समझाया और राजा को बोध हुआ। राजा ने कर्मकांड त्याग कर ईश्वर की खोज को अपना ध्येय बनाया।
जारी .......
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पिछले भाग में हमने पढ़ा कि नारद जी ने राजा को कर्मकांड में उलझे न रह कर ईश्वर की खोज करने के बारे में समझाया और पुरञ्जन की कथा कही। इस भाग में यही कथा कहूँगी।
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एक राजा था - पुरञ्जन। पुरञ्जन के अभिन्न मित्र थे अविज्ञाता। अविज्ञाता का यह नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि उनके बारे में कोई भी नहीं जानता था कि वे कौन हैं और क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं । पुरञ्जन और अविज्ञाता हमेशा साथ रहते थे। बहुत लम्बे काल तक ऐसा ही चलता रहा। फिर पुरञ्जन अधीर होने लगे और उनका मन दुनिया देखने, जीतने और अपनी तरह से आनंदित रहने के लिए मचलने लगा। अविज्ञाता ने उन्हें बहुत रोकने का प्रयास किया , लेकिन वे अपनी राह पर चल ही पड़े।
हिमालय की दक्षिणी ढलानों पर उन्हें एक बहुत सुंदर नगर मिला। इस नगर में नौ द्वार थे। इसका नाम था - भोगवती नगर। नगर के समीप बाग़ में विश्राम करते पुरंजन ने देखा कि एक अनुपम अद्वितीय सुंदरी शहर से आ रही हैं, जिनके साथ दस मुख्य सेवक हैं। हर एक सेवक के साथ सौ सौ सेविकाएं भी थीं। इनके आगे एक पांच सिरों वाला नाग था जो हर संकट पर नज़र रखे था - और उसका नाम प्रजगर था। पुरञ्जन एकटक इस सुंदर षोडशी (सोलह वर्षीय युवती) को देखे जा रहे थे कि युवती ने उनकी तरफ देखा। पुरंजन शर्मिंदा हुए और नज़रें घुमा लीं। किन्तु वह युवती नाराज़ नहीं थी। वह उनकी तरफ आई और और नज़रें झुका पहल का इंतज़ार करने लगीं ।
पुरंजन ने कहा - हे ब्रह्माण्ड सुंदरी - आप कौन हैं ? आप इतनी सुन्दर हैं - आप कोई साधारण स्त्री नहीं हो सकतीं। क्या आप ब्रह्माणी हैं, या धर्म की पत्नी ह्री हैं ? नहीं तो आप अवश्य ही भवानी या नारायणी लक्ष्मी होंगी। तब वे बोलीं - बोली - हे तेजस्वी पुरुष, मेरा नाम पुरंजनी है । मैं जान गयी हूँ कि आप मुझ पर मोहित हैं , और मुझे भी आपकी ओर आकर्षण का अनुभव हो रहा है। मैं भी आप जैसे ही पुरुष को खोज रही थी जो मुझसे विवाह कर इस नगर का राजा बने , जो भय और चिंता से मुक्त होकर मुझसे प्रेम करे और मेरे राज्य को संभाले। पुरंजन अति प्रसन्न हुए और जल्द ही उन दोनों का विवाह हो गया।
सुंदरी पत्नी के प्रेम में डूबे हुए पुरंजन राज्य पर सुखपूर्वक राज करते गृहस्थ जीवन जीने लगे और अति प्रसन्न रहते। उनकी पत्नी उन्हें अत्यंत सुखदायिनी थीं और उन्हें पता ही नहीं चला कि कब वे अनेक सुन्दर संतानों के पिता बन गए। उनकी संतानें और पत्नी उनसे बहुत प्रेम करते थे। पुरंजन अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और उनसे अलग कुछ न देख पाते न सुन पाते थे। वे दिन कहतीं तो दिन, रत कहती तो रात, सुख कहती तो सुख क्रोधित होती तो पुरंजन भी क्रोधित हो उठते।
इधर "चण्डवेग" नामक एक दूसरा राजा था जिसने भोगवती पर आक्रमण कर दिया। उसके पास ३६० सेवक थे और हर सेवक के साथ उस सेवक की सेविका भी थी। प्रजगर उनसे युद्ध करता रहा और नगर पर कोई आंच न आने देता था। इधर काल की पुत्री थीं ज़रा - जो बहुत अनाकर्षक थीं। उनसे कोई विवाह करने को राजी न था। उन्होंने नारद को देखा और आकर्षित हो उठीं - लेकिन नारद ने विवाह न करने का अपना निर्णय उन्हें बता दिया। इससे दुखी हो कर वे काल के पास गयीं - तो मृत्यु ने उन्हें समझाया कि ऐसे नहीं करते। मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। कोई तुम्हे ख़ुशी से स्वीकार नहीं करता तो तुम चुपके से लोगो को जकड़ लेना। हम दोनों के साथी होंगे मेरे दो भाई प्रज्वर और भय। ये चारों शिकार की तलाश में घूमने लगे।
इधर चण्डवेग का आक्रमण सौ वर्ष तक चलता रहा और प्रजगर आक्रमण को झेलते झेलते थक गया था। शत्रु सेना से हारने वाला प्रजगर अब भोगवती नगर की और रक्षा नहीं कर सका और हारने लगा। तब शत्रु नगर में घुस आये और इधर ज़रा और उसके साथी भी भीतर आ गए। ज़रा के आने से पुरंजन को प्रज्वर और भय ने जकड़ लिया। न उसकी प्रिय पत्नी न उसकी संतानें अब कुछ कर सके, और न ही उनका वह पहले जैसा प्रेम उसे अब मिला । वह शीघ्र ही काल के गाल में समा गया। मृत्यु के समय उसे सिर्फ और सिर्फ अपनी पत्नी का ध्यान था सो स्त्री बन कर उसने पुनर्जन्म लिया।
इस बार वह विदर्भ राज की पुत्री हुआ। बड़ी होने पर वैदर्भी का विवाह मलयध्वज पंड्या से हुआ जो बहुत सदाचारी और धर्मयुक्त थे। उनके वृद्ध होने पर उन्होंने संन्यास लिया और वैदर्भी भी उनके साथ वन को गयीं । जब उन्होंने अष्टांगयोग द्वारा अपना शरीर त्याग किया तो वैदर्भी उनके साथ सती होने चलीं।
तभी अविज्ञाता वहां आ गए और वैदर्भी को समझाया कि, याद करो तुम कौन हो ? तुम न स्त्री (वैदर्भी) हो न पुरुष (पुरंजन)। तुम जीवात्मा हो। माया में पड़कर तुमने पुरंजनी (मन) के साथी नौ द्वारों वाले नगर भोगवती(नौ छिद्रों वाला शरीर) को अपना घर बनाया और अपने आप को भूल गए। उसके दस सेवकों को तुमने अपना सेवक माना। ( पांच कर्मेन्द्रिया और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ) , और वह मन (पत्नी) जो भी अच्छा बुरा मानती वही तुम भी मानते और अपने आप को मन से अलग जान ही नहीं पाये।
पांच सिरों वाला नाग प्रजगर (पांच इन्द्रिय विषय ) तुम्हारे शरीर (नगर) की रक्षा करता रहा और प्रचण्डवेग (गतिशील समय ) के ३६० सेवक सेविकाओं (दिन और रात) से वर्षों तक लड़ते हुए जब इन्द्रियां हार गयीं तो जरा (बुढ़ापा) और प्रज्वर (सभी तरह की बीमारियां, ज्वर) ने तुम्हे जकड़ा। तब तुम भयभीत हुए और काल के शिकार हुए। शरीर और मन के जाल में फंसे तुम दुबारा मन के ही रूप में जन्मे और अपने आप को आज भी मन ही मान रहे हो।
चलो अब इस मन से मोह तोड़ो और फिर से मेरे (अविज्ञाता - ईश्वर - जिसे कोई नहीं जानता लेकिन जो जीवात्मा का परम मित्र है और हमेशा संग होता है) संग चलो। अब अपने घर लौट आओ।
तब नारद ने राजा को इस कथा का सार समझाया और राजा को बोध हुआ। राजा ने कर्मकांड त्याग कर ईश्वर की खोज को अपना ध्येय बनाया।
जारी .......
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंपुरञ्जन की कथा तत्व बोध कराती है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
ji . abhar .
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