जब किसी एक वैदिक देवता की स्तुति होती है, तो उन्हें ही "परम" देव के रूप में देखा जाता है, उस समय के लिए अन्य सभी उनकी ही शक्ति के विस्तृत प्रकटन हो जाते हैं । यह न तो monotheism है, न polytheism ही, इसे henotheism कहते हैं ।
वैदिक चिन्तक परिपक्व थे, और उन्होंने यह सत्य समझा कि इस संसार के निर्माण और शासन करने का श्रेय सिर्फ
एक ही परम का हो सकता है । इससे भी अधिक परिपक्वता इसमें प्रदर्शित होती है की उन्होंने कभी कोई "मूर्ती भंजक" मिशन चलाने की आवश्यकता नहीं समझी । उनके लिए यह बात सहज बोधगम्य थी कि
शक्ति के और वैभव के अनंत रूप में अनंत प्रतीतियाँ होने से जनमानस के लिए अनेक देवताओं को मानना और पूजना स्वाभाविक है । उन्होंने कभी मूर्ती पूजन को महाविनाशकारी त्रुटी न तो समझा, न ही बताया । बहुदेव-वादियों को एकेश्वरवादी बनाने के जबरन प्रयासों की अपेक्षा, उन्होंने व्यक्ति के अपने इष्ट देव में ही विश्वास को और गहरा करते हुए , व्यक्ति के मन को तार्किक मनन चिंतन, पुनर्व्याख्या, सुलह-संतोष से एक परम ईश्वर की संकल्पना की ओर ढाला । {
गीता में भी कृष्ण कहते हैं कि मैं मनुष्य की अपने ही इष्ट देव में निष्ठां प्रगाढ़ करता जाते हूँ, और उन सबके प्रति की गयी प्रार्थना और भक्ति मुझ तक ही पहुँचती है । }उन्होंने इस बात को समझा और जाना कि
उग्रवादी लड़ाका धर्म यदि विश्वासों के पुराने जंगलों और वनों के ऊंचे पेड़ों को काट भी दें, तब भी नीचे की छुट पुट खरपतवार (undergrowth) हमेशा बची रहती है, क्योंकि वह ह्रदय भूमि में पुरातन समय से बहुत गहरे विश्वासों के बीजों में छुपी है, जो लाख काटने पर भी फिर फिर उगती रहेगी । वैदिक यज्ञों में मन्त्रों में भी बारम्बार ऐसी बातें उठती है (उदाहरण ) "क्या इंद्र हैं? क्या किसी ने इंद्र को देखा है? फिर हम यह स्तुति गीत किसके प्रति गायें?" आदि । जब इस विचार और मीमांसा से विश्वास कमज़ोर होने लगता है - तब फिर से श्रद्धा (जो स्वयं एक पूज्य देव हैं) से प्रार्थना की जाती है की "हे श्रद्धा ! हमें विश्वास प्रदान करें" ।
यह माना गया कि सर्जन से पहले और विलय के बाद भी सिर्फ निर्जीव पदार्थ ही नहीं, बल्कि "बोध" भी बचा रहता है । किन्तु वह अव्यक्त रूप में रहता है और निर्जीव पदार्थ को सहज भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा बारम्बार सृजन को तैयार करता है । जब निर्जीव पदार्थ समयक्रम में फिर से जीवन धारण करने योग्य रूप में परिवर्तित हो ( हैं अरबों वर्षों के बाद) तब फिर उन में प्राण रूप में यह बोध प्रकट होता है । और यह सृजन और प्रलय की प्रक्रिया अनंत समय तक चलती रहती है, चलतीरहती है ...
रचना के पहले अनंत अन्धकार में डूबा अन्धकार है, और प्रलय के बाद भी
(my dear physics and astronomy loving scientific friends - remember black-hole?) लम्बे "तप" के बाद यह स्वप्रकाश से खुद अपने आप में से प्रकट होता है और विस्तृत हो कर फ़ैल जाता है
(physicists - the black hole has no nuclear reactions going on inside, as all the hydrogen /helium fuel is exhausted . hence the only force active is the gravity - which keeps pulling in the heavy mass tighter and tighter. The word "तप" means withstanding physical pressure and temperature) । विष्णु की नाभि से कमल निकलता है , जिसपर ब्रह्मा बैठे होते हैं । blackhole का कोई चित्र देखिये इन्टरनेट से, और साम्य स्वयं देख सकते हैं - या फिर इस सन्दर्भ में एक विज्ञान सम्बंधित पोस्ट श्रंखला मैंने लिखी थी -
एक सितारे की जीवन यात्रा (इसमें तीन भाग हैं - पहला भाग page में नीचे है, तीसरा सबसे ऊपर) ।
सम्पूर्ण संसार "प्रकृति"
( विस्तृत किन्तु प्राणहीन तत्व , हर तत्व के अपने गुण या "प्रकृति") और "पुरुष"
(बोध / प्राण / ज्ञान ) के संयोग से संभव हुआ माना गया है । "सृष्टि" से पहले की "असत" प्रकृति, प्रसव पूर्व स्त्री की तरह कही गयी है । परम पुरुष के दिव्य मन में पहला फल उगा - "काम" - सृष्टि रचने की इच्छा / कामना । तब उस कामना पर चिंतन" हुआ और कर्म रूप में (
सत और असत के संयोग से ) प्रभु की "इच्छा" से जीव संसार की रचना हुई । ऋचा रचने वाले ऋषियों में इतना विनय और विनम्रता है, कि वे बेझिझक यह स्वीकार करते हैं कि "यह सब सिर्फ एक अनुमान है, क्योंकि मानव ज्ञान से इतने परे की बातें हम निश्चित रूप से नहीं जान सकते । "ईश्वर" ( परमेश्वर ) और "ब्राह्मण" (परम सत्य) को पृथक कहा गया है । इश्वर और ब्राह्मण के साथ फिर "हिरण्यगर्भ" का प्रकटन बताया गया । "पुरुष" ने अपने आपको प्रकृति के साथ जोड़ कर सृष्टि को सजीव बनाया, फिर भी वे स्वयं इसमें / इससे निर्लिप्त ही रहे । ब्रह्मा के "रचना" करने के बाद, जबकि विराट संसार रचा जा चुका , फिर भी वह सम्पूर्ण होकर भी निर्जीव ही रहा । तब "पुरुष" उसमे जीव रूप में प्रविष्ट हुए, तब संसार "सचेत" हुआ ।
(यूँ कहा जाए कि प्रकृति+पुरुष = जीव संसार सृष्टि । प्रकृति और पुरुष दोनों ही स्वतंत्र इकाइयां हैं, जिनके संगम से संसार संभव होता है, लेकिन ये अलग अलग इकाइयां हैं ।)
वेदों के अनुसार संसार की रचना कोई "अचानक" साकार होने जैसी घटना नहीं, बल्कि प्राकृतिक और समयक्रम में हुआ विकास है । लेकिन विकास वादी evolution theory से इसमें एक बुनियादी फर्क है । वह फर्क यह है कि evolution
विज्ञान कहता है की निर्जीव तत्त्वों के अलग अलग गठजोड़ों से धीरे धीरे जीवन "उत्पन्न" हुआ । इसके विपरीत वैदिक मान्यता यह है की तत्त्वों में जीवन उत्पन्न नहीं हुआ , बल्कि पहले से था और अब सिर्फ अप्रकट से "प्रकट" हुआ । जीवन "उत्पन्न नहीं होता - वह पहले से है, और वह निर्जीव पदार्थ को अपने ही उत्थान के लिए प्रेरित करता रहता है, जिससे पदार्थ उस रूप में बदल सके जिसमे जीवन लक्षणों का उदघाटन हो सके । उपनिषद कहते हैं की तत्त्व कभी भी अपना उत्थान स्वयं नहीं करता । उसमे जीवन (अर्थात बोध) इसलिए प्रकट होता है कि उसमे बोध का बीज पहले से ही उपस्थित था । इस बीज ने ही निर्जीव तत्त्व को ऐसे रूप में आने के लिए प्रेरित किया जिसमे जीवन का प्रकटन हो सके । फिर - जब पदार्थ इस रूप में ढला की जीवन प्रकट हो सके - तब उनमे बोध प्रकट हुआ - उत्पन्न नहीं, सिर्फ प्रकट । ऋग्वेद में
"उत्पन्न" होना, "प्रकट" होना और "जन्म" लेना पृथक घटनाएं हैं । इसी प्रकार से,जब प्रलय के बाद जीवन "समाप्त" हो जाता है, तब भी वह "समाप्त" नहीं, सिर्फ "अप्रकट" होता है । गीता के दूसरे अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि सभी जीव से पहले अप्रकट थे, फिर प्रकट हुए, और मृत्यु के बाद अप्रकट हो जायेंगे । फिर इस में शोक क्या करना है ?
बोध के भी अलग अलग स्तर के हैं । एक अचल पेड़ का, एक चलते हुए कीड़े का, एक बिल्ली का, गाय का , हाथी का, मानव का बोध का स्तर भिन्न होता है । मानवों में भी अलग अलग बौद्ध स्तर हैं । इस बात को समझने वाले विद्वानों ने बड़े सहज तरीके से जाति व्यवस्था बनायी - जो जिस तरह की रूचि रखता हो - वह उस प्रकार के कर्म में संलग्न रह सके । जो पूजा पाठ पठन आदि में रूचि न रखता हो उस पर कोई जबरदस्ती न हो कि उसे यह करना ही पड़े ।
ऋग्वेद के ही अनुसार, मानव का "स्वरुप" शरीर नहीं है, आत्मा है - जो शरीर के और उसके द्वारा किये गए कर्मों का कर्ता और नियंत्रक है । यह अजन्मा और अमृत है, जो जन्म नहीं लेता न मरता ही है । यह "जीव" भी नहीं है । एक प्रसिद्द उदहारण है - जो गीता में कृष्ण भी अर्जुन को कहते हैं - जैसे एक डाल पर दो चिड़िया होती हैं, एक भोगती है (फल खाना आदि) और दूसरी सिर्फ उसे देखती है । यही "जीवात्मा और परमात्मा" का फर्क है । जब जीव यह फर्क जान कर सिर्फ द्रष्टा / निष्क्रिय दर्शक / या साक्षी हो जाए - तब वह परमात्मा में मिल सकता है । यह स्थिति प्राप्त होने के उपरांत ही व्यक्ति "अहम् ब्रह्मास्मि" का उद्घोष कर सकता है । (
जो इस साक्षी स्थिति को आये बिना ही अपने अभिमान (ज्ञान / शारीरिक शक्ति / या धन - किसी से भी अहंकार हो सकता है) के कारण यह उद्घोष करते हैं, वे असुर हैं । यह भी जन्म नहीं बल्कि कर्म से सम्बंधित है ) वामनदेव ने कहा "मैं ही मनु हूँ, मैं ही सूर्य हूँ" कृष्ण ने कहा "मैं ही सब कारणों का कारण हूँ" महाराज त्रसदस्यु ने कहा "मैं ही इंद्र और वरुण हूँ"- तब यह सब अहंकार से नहीं, बल्कि आत्मानुभूति से बोल रहे हैं ।
वैदिक मनीषियों ने मानवों को "ब्राह्मण (पठन / पाठन / चिंतन / मनन करने वाले ) , क्षत्रिय (युद्ध / समाज रक्षा / राज्य सम्बंधित कार्य करने वाले ) वैश्य (धनोपार्जन सम्बंधित कार्यों को करने वाले ) व् शूद्र (उपरोक्त तीन कार्य नहीं , लेकिन इन्हें करने वालों से सहयोग करने वाले ) में विभक्त किया - जो सिर्फ "कर्म" की आधार पर था । समय के साथ यह जन्मे से जुड़ गया । सब को एक रूचि नहीं होती ।
किसी को पूजा पाठ अच्छा लगता है, तो कोई मजबूरी में करता है ; किसी को पढना अच्छा लगता है . तो कोई शिक्षक के डंडे के जोर पर पढता है , किसी को लड़ाई करके जीतना पसंद है तो कोई शान्ति प्रिय है, कोई अपनी नौकरी मी आगे बढना चाहता है, कोई उद्योग लगाना चाहता है) इसी तरह देवता भी पृथक रुचियों वाले हैं : इंद्र युद्ध प्रिय और शक्ति द्योतक रूप में दर्शाए गये, तो सूर्यादि देव आत्मोत्थान सम्बंधित । आश्विन सेहत और कुबेर धन देव हुए, तो यम पितरों के प्रदेश के सम्राट हुए ।
[ शूद्र का अर्थ यह नहीं था कि वह ब्राह्मण से "नीच" है - उसका अर्थ था कि उस पर पठन और पूजन का "नियम" नहीं है । लेकिन समय के साथ यह "न चाहने पर न करने की अनुमति" धीरे धीरे "चाहने पर भी न कर सकने की बाध्यता" में बदल गयी । ब्राह्मण पढने लिखने वाले थे - सो बौद्धिक रूप से सशक्त थे । क्षत्रिय युद्ध कुशल थे - सो राजनैतिक रूप से सशक्त थे। और वैश्य धनोपार्जन करने से आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त थे । लेकिन शूद्र के पास इनमे से कोई भी "शक्ति न थी, सो समयक्रम में उनकी यह शक्तिहीनता उनकी लाचारी बन गयी । मनुष्य को, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य "जन्म" से नहीं, "कर्म" से होना चाहिए थे, किन्तु समय के साथ और "संतान मोह" के चलते ब्राह्मण अपनी संतति को "ब्राह्मण" पद सिर्फ जन्म से ही नवाजने लगे , क्षत्रिय क्षत्रिय पद आदि ।
और एक बात रही होगी - कि जैसे वातावरण में मनुष्य रहता है, काफी स्वाभाविक है कि उसकी रुचियाँ और काबिलियतें भी उसी ओर हो जाएँ । हम आज की अपनी फिल्म इंडस्ट्री को या राजनीति को देख कर इसके अनेकानेक उदाहरण देख सकते हैं - नेताओं के बच्चे नेता, अभिनेताओं के बच्चे अभिनेता बनने के कैन उदाहरण हैं - लेकिन हर बार यह हो यह आवश्यक नहीं (जो दुर्भाग्य से जाति व्यवस्थ के साथ हुआ)। फिर शिक्षा दीक्षा भी उसी वातावरण के अनुसार ढालने के लिए होती - तो प्रक्रिया कुछ पीढियां जाते जाते स्थूल और कठोर होती गयी होगी । जैसे कक्षा में प्रथम आने वाले छात्र को बाकी छात्र स्वयं से श्रेष्ठ स्वीकार कर लेते हैं, इसी प्रकार जिनकी रूचि पढने लिखने (ब्राह्मण कर्म) / युद्ध करने (क्षत्रिय कर्म) / धनोपार्जन करने (वैश्य कर्म) में न हो कर "नीचे" समझे वाले कार्यों में (जूते बनाना आदि) (शूद्र कर्म) होती वे इन बाकियों को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार लेते होंगे - और ये लोग भी कहीं न कहीं खुद को इन "क्षुद्र" कर्म में रत लोगों से क्रमशः श्रेष्ठ - और श्रेष्ठतर - और श्रेष्ठतम मानने लगे होंगे । इस प्रकार कर्म के अनुसार बनी जातियां समयक्रम में जन्म से जुड़ गयीं होंगी ।]
ऋग्वेद में
पुनर्जन्म शब्द नहीं आता - किन्तु इसकी झलकियाँ दिखती हैं । आत्मा का एक शरीर से दुसरे शरीर को स्थानान्तरण, और तरह के रूपों / अस्तित्वों में वास करना, इस जीवनकाल के उपरान्त का अस्तित्व इस जीवन के कर्मों से सम्बंधित होना, "मित्र" देव का पुनः जन्मना, उषा का बारम्बार जन्म लेना - ये सब पुनर्जन्म की ओर संकेत तो करते हैं, किन्तु सीधे शब्दों में पुनर्जन्म की बात नहीं आती ।
वैदिक विद्या त्रयी विद्या कहलाई - ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद । अथर्व वेद तक आते आते तो देवताओं के लिए यज्ञ करना (कर्म स्वयं) यज्ञ के देवता से भी अधिक महत्वपूर्ण होने लगा । "पहले से शक्तिमान जो है उस देवता की प्रसन्नता के लिए" यज्ञ होने से उलट, "देवता स्वयं ही यज्ञ प्रताप से शक्ति पाए हुए" से प्रतीत होने लगे । ऋग्वेद के देवता स्व-आनंदित प्रतीत होते थे, जो पहले से प्रसन्न और कृपालु ही थे, यज्ञ करने से और अधिक कृपा बरसाते थे । अथर्व वेद तक आते आते देवता क्रोधी से प्रतीत होने लगे, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए यज्ञ न हो तो अकृपा बरसने का भय सा स्थापित रहे ।
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जारी ...