फ़ॉलोअर

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

श्रद्धांजलि

शब्द नही हैं, कहने के लिए जो महसूस कर रही हूँ ।

प्रिय अजेया कन्या, लोग तुम्हे जाने कौन कौन से नाम देंगे, अजेया, निर्भया, दामिनी .... ।

मेरे लिए - तुम अभिमन्यु थीं - जिसने अनेक दुष्टों से घिर कर भी हार नहीं मानी और संघर्ष किया - सांस रहने तक । तुम द्रौपदी भी हो, तुम अभिमन्यु भी । मुझे तुम पर गर्व है ।

तुम द्रौपदी हो जिसके मान पर हमला किया गया, तुम अभिमन्यु हो , जो सत्य के लिए लडती हुई शहीद हुईं । गर्वित हूँ मैं तुम पर , और शर्मिन्दा हूँ इन कापुरुषों पर ।

** जहां के अंधे सत्तालोलुप राज्य अधिकारी "धृतराष्ट्र" अपनी बेटियों के चीरहरण को मौन समर्थन देते रहेंगे,
** जहां के राजपुत्र बहू बेटियों को वेश्या कह कर संबोधित करेंगे और उनके चीरहरण को अपना अधिकार बताएंगे , चीरहरण की कीमत तय करेंगे
** जहां के पितामह अपने बेटे की बेहूदगी को अपने वचन की ढाल के पीछे छुप कर मौन समर्थन दें,

वहां हमेशा अभिमन्यु शहीद होते हैं ।

तुम अभिमन्यु थीं, मैं तुम्हारे शौर्य को प्रणाम करती हूँ ।

उस बेटी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि जिसने सिर्फ "लड़की शरीर" ले कर जन्म लेने की इतनी क्रूर सजा भुगती ...

------------------------------------------
क़ानून में बदलाव सम्बन्धी सुझाव भेजने का पता :

ई मेल: justice.verma@nic.in
फैक्स: 011- 23092675
------------------------------------------

सभी मित्रों से प्रार्थना है --- कृपया एक जनवरी की तारीख को, नव वर्ष के अर्थहीन सुखमय गीतों के बजाय , बलात्कार सम्बंधित केसों की सुनवाई के लिए
*** अखिल भारतीय स्तर पर (सिर्फ फेमस हुए केस नहीं हर केस के लिए)
*** स्थायी तौर से 
*** "फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट्स"
की मांग को लेकर पोस्ट लिखें ।
------------------------------------------

जो हैवानियत एक बच्ची के साथ हुई वह किसी और के साथ न हो, इसके लिए प्रयत्न करें ।

बहुत से स्त्री / पुरुष यह भी कह रहे हैं कि "वह रात में बाहर क्यों थी लड़की हो कर" वे यह बात ध्यान में रखें कि, बलात्कार तो  3 साल की बच्चियों के साथ भी हो रहा है - अपने ही घर में । उन  साथियों से अनुरोध है, कृपया यह याद रखिये - जो बरबरता उस बच्ची के साथ हुई - वह किसी पुरुष के शरीर के साथ भी हो सकती थी । इसलिए इसे "स्त्री मामला" मान कर नज़र अंदाज़ न करें, न ही सुपीरियर स्माइल्स के साथ चुप्पी रखें ।

कृपया जागें - कुछ करें ।
स्त्री सिर्फ शरीर भर नहीं है, सिर्फ माँ भर नहीं है, कोख भर नहीं है, वह मनुष्य है ।

और उसे शरीर के रूप में देखना, यह सोच रखने वाले मन को नीचा साबित करता है, स्त्री को नहीं । लेकिन इसकी सजा स्त्री भुगतती है ।
-----------------------------------------

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

स्त्रियाँ, स्त्री अधिकार, अपशब्द और कांग्रेस पार्टी

अपने सुझाव भेजें :
ई मेल: justice.verma@nic.in
फैक्स: 011- 23092675
---------------------------------------
कांग्रेस 1 : 
दिग्विजय सिंह : राखी सावंत "एक्सपोज़" करती हैं लेकिन उस में कुछ ....

कांग्रेस 2 : 
आंध्र प्रदेश के कोंग्रेस चीफ, (साथ ही एक मिनिस्टर / मंत्री होते हुए भी) :  देश को आधी रात को आज़ादी मिली का मतलब यह नहीं कि लड़कियां आधी रात को बाहर घूमें, ....... दिल्ली की एक "छोटी सी घटना" पर इतना बवाल किया गया ।

कांग्रेस 3 : 
कांग्रेस स्पोक्स पर्सन - टीवी वार्ता में स्मृति इरानी से (4-5 बार दोहराते हुए) : तू तो टीवी पर ठुमके लगाती है .... तेरा क्या चरित्र है ? ...... शटअप ..................

कांग्रेस 4 : 
केंद्रीय मंत्री : पत्नी/ औरत पुरानी हो जाती है तो  मजा नहीं ............. :( :(

कांग्रेस 5 : 
संसद सदस्य अभिजित मुखर्जी, (जो राष्ट्रपति के पुत्र भी हैं ) : 
* dented and painted women, ...........
* who go for candle marches for fashion, ..............
* older women with kids can't be students .................
(truth of the matter is, many many many women i know have been full time MTech students after having two kids, and, I myself Shilpa Mehta, at 43, with a kid, am a student, and i do not stay away from either makeup, or discotheques or candle marches. i have the right as a citizen, and mr abhijit cannot intimidate me to stay away from ANY of these things or to chose between them)...........
* these youth from college - we have been to college and we "know:" what is the "character" of students........
* these protests have "little connection" with ground realities..........
* they go for discotheques at night and come for protests in the day ............
------------------------------------------
after all these shocking displays of what is the position of women in their leaders minds, what is their mindset about women, still,

NOT A SINGLE DISCIPLINARY ACTION AS YET FROM THE RULING PARTY ON THESE PEOPLE _ AND THEY CLAIM TO CARE FOR WOMEN"S RIGHTS
------------------------------------------

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

send in your suggestions

send in your suggestion for reforms in the laws for crimes on abuse of women, women's rights

fax :  011 23092675
email :  justice.verma@nic.in

I have sent in a few . my suggestions are also here : link 

just hope this  "once upon a time this was a great nation" will again become "a great one" some day......

-------------------------------------------------
please write a post on this on 1st jan 2013

stop playing petty politics and slandering your opponents, and come together for this cause.

don't dilute it by talking of other personal disagreements and hatreds,

this time will not come back,

this is a chance when the youth sitting drenched with cold water cannons on delhi streets in the cold foggy nights have provided us a chance to DO SOMETHING -

don't let it slip by
------------------------------------------------

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

सभी ब्लोगर बंधुओं से अनुरोध



सभी ब्लोगर्स से अनुरोध : अपने निजी ब्लॉग उद्देश्यों से परे , इस बात पर समवेत हों , एक हों ।


हो सकता है निजी तौर पर हम एक दुसरे के आज साथ हों या विरोध में हों - लेकिन यह विषय हमारी निजी पसंद और नापसंद से बड़ा है ।

हम सब ने देखा जो हुआ दिल्ली में, और यह भी देखा है कि क्या होता आया है हमारी न्याय व्यवस्था में, सामाजिक व्यवस्था में । कृपया दस दिन के उबाल के बाद बात को ख़त्म न हो जाने दें ।


इस बार """" एक जनवरी """" को :

बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कार पीड़िताओं के हित में, उनके परिवार के हित में और समस्त स्त्री जाति के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें जहाँ अपराध स्वयं सिद्ध है।

पढ़ें गिरजेश जी की पोस्ट "सभी ब्लॉगरों से एक अपील"

मैं लिखूंगी उस दिन इस एक ही विषय पर । कोई निरर्थक नव वर्ष शुभाशाओन के गीत नहीं - कि शुभाकांक्षाएं सम्पूर्ण नहीं हो सकतीं जब तक आधी आबादी निरंतर भय में जीती है । 

जो बच्ची दिल के अस्पताल में पडी है, वह हम में से कोई भी ,या हमारी बहन , बेटी , माँ , - हो सकती थी - बल्कि है । 

कृपया एक दिन सब मिल कर पूरी एकता से प्रयास करें - मैं लिखूंगी एक जनवरी को । क्या आप मेरे साथ हैं ?

रविवार, 9 दिसंबर 2012

भक्ति और ज्ञान

पोथी पढ़ कर जग मुवा
पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय ....

कितना सच है यह।

दो मार्ग हैं :-
वृहद् प्रेम (भक्ति) , और ज्ञान । 

ओशो हमेशा कहते हैं कि भक्ति प्रेम का ही शीर्षासन से सीधा खडा हो जाना होता है । प्रेम जब एक "व्यक्ति" पर केन्द्रित हो, तब वह बीज रूप है, और जब समस्त अस्तित्व से हो जाए - तब वही भक्ति का वृक्ष हो जाता है।

लेकिन अस्तित्व से प्रेम करना बड़ा कठिन है, क्योंकि वह अकेंद्रित है । भक्ति संसार के केन्द्रित रूप से करना आसान होता है - इसीलिए "राम", "कृष्ण","जीज़स", "GOD", "मातारानी", "गणपति बप्पा", "ईश्वर" या "शिव" ......ये "व्यक्ति" रूप में समूचे अस्तित्व का समन्वय प्रकट होते हैं, और भक्ति केन्द्रित हो जाती है , संभव हो जाती है ।

जब हम व्यक्ति से प्रेम में होते है (शीरी का फरहाद से , या मजनू का लैला से प्रेम) तो उस प्रेम के केंद्र के अलावा कोई वस्तु हमें नहीं खींच पाती - खींच ही नहीं सकती । पथ भ्रष्ट होने का प्रश्न होता ही नहीं , क्योंकि वह प्रेम इतना गहन है, इतना आकर्षक है, कि कोई और आकर्षण उससे अलग कर ही नहीं पाए । सोनी को चहुँ दिश महिवाल ही भासता है, और राधा को कृष्ण के अलावा कुछ नहीं दीखता । जब उद्धव गोपियों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं , तो वे हंसती हैं - कहती हैं कि आप तो पंडित हैं - हमारे "तुच्छ" प्रेम को आप क्या जानेंगे ? वह आते तो हैं उनके "तुच्छ" प्रेम को हटा कर उन्हें ज्ञान मार्ग दिखाने - किन्तु होता उल्टा यह है कि वे खुद ही भक्ति मार्ग पर चल पड़ते हैं ।

किन्तु ज्ञान मार्ग पर हम पोथियाँ पढ़ते हैं - जो हमें सिखाती हैं कि ज्ञानवान व्यक्ति को छोटी छोटी बातों से विचलित नहीं होना चाहिए , और यह सच भी है । तो हम वह सीख लेते हैं । परेशानी यह हो जाती है - कि यह बात ज्ञान मार्ग के यात्री को सिखाई जा रही थी - किन्तु वह यात्री इसे सभी पर लागू  कर देने लगता है । वह भूल जाता है कि उन पोथियों में लिखी बातें उसने (और संभवतः उसके परिवार जनों ने) तो जानी और पढ़ी हैं, किन्तु "सभी" ने नहीं पढ़ीं । वह सभी मनुष्यों से अपेक्षा रखने लगता है कि वे ज्ञानी हों, और उनके दर्दों को भावनाओं को नज़रंदाज़ करने लगता है , छोटा मानने लगता है (और ज्ञान का प्रकाश जहां हो वहां वे छोटे दुःख और दर्द तुच्छ हैं भी - किन्तु भूल यहाँ हो जाती है कि वह यात्री यह भूल ही जाता है कि ज्ञान का प्रकाश सबके पास है नहीं )। वह बड़े बड़े गूढ़ शब्द उपयोग करता है अपनी बातें कहने के लिए - यह भूलते हुए कि "सब" जो उतने ज्ञानी नहीं हैं - वे तो उन शब्दों को उक्तियाँ या मुहावरे भर नहीं समझेंगे - उन्हें वे शब्द शूल की तरह चुभ सकते हैं ।

गीता में कृष्ण- अर्जुन संवाद में भी यह बात आती हैं की ज्ञान मार्ग श्रेष्ट तो है - किन्तु इस मार्ग पर अहंकार के चलते च्युत हो जाने का भय बहुत है । वेदों की घुमावदार बातों में उलझना बहुत सामान्य है । अहंकार इतना दबे पाँव आता है कि मनुष्य जान ही नहीं पाता कि वह कब आ गया ।

अच्छा हो यदि व्यक्ति अपने दस साल पुराने और आज के चित्र देख कर मिलान करे और देखे कि दोनों चित्रों में उम्र के फर्क के अलावा कहीं आँखों में विनय की जगह अहंकार तो नहीं दिखने लगा है ?

एक कविता (यदि इसे कविता कहा जा सके तो ) प्रस्तुत है

आओ चले हम
ज्ञान से प्रेम की ओर
अहंकार से समत्व की ओर
मैं से हम की ओर

ज्ञान की गाडी में चलते
मार्ग चलते दूसरे पैदल राही
हमें मार्ग के कीड़े न दिखें

नेक रस्ते पर जब हम चलें
भूल से भी भूल न करें
दूसरों को जय नहीं ,
मन पर हम जय करें

आईने में जिस देख कर
खोज स्वयं की करें
पडी धूल उस आईने पर
उसे रोज़ साफ़ करें,
अपने बिम्ब की शुभ्रता पर
मन को मिहित न करें,
परिदृश्य में धूमिल पड़े,
श्याम बिम्ब भी हमें दिखें ..

गाय को हम पूजते
गाय सरीखे मन बनें
शांतता गौ के नेत्रों की
निज नेत्रों में उतार लें
गौ माता के प्रेम को
निज मनस में हम उतार लें ...

हम ज्ञान के मार्ग को
बस मार्ग भर ही रहने दें
उस ज्ञान को निज मस्तक पर
नहीं सवार हम करें

हे प्रभु हमें तुम प्रेम दो
हे प्रभु हमें तुम दे दो ज्ञान
असत से सत को
तमस से ज्योति को
बढ़ पाएं हम हो ज्ञानवान ...
  ...

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

उपनिषद् सन्देश 4 प्रस्तावना 4



पिछला भाग 

सत्य के चार रूप उभर कर प्रकट हो आते हैं : ब्राह्मण , इश्वर , हिरण्यगर्भ , और विराज (संसार) । इसलिए ब्राह्मण को चतुष्पात कहा गया । फिर संसार रचना कर्म , पालन कर्म , और विलयकर्म के अनुरूप इश्वर के भी तीन रूप कहे गए - ब्रह्मा, विष्णु , महेश ।

बुद्ध इस सत्य को "शून्यता" कहते हैं - जो न स्थूल है न सूक्ष्म , न प्रकाश है न अन्धकार, न चमक है न छाया, भीतर है न बाहर .... या यह कहें की किसी भी एक परिभाषा में बंधा नहीं है - या यूँ कहें कि यह सब कुछ है । किन्तु यह कहना कि ब्राह्मण के स्वभाव को , प्रकृति को परिभाषित नहीं किया जा सकता - इसका यह अर्थ नहीं  की ब्राह्मण का कोई निज स्वभाव है ही नहीं । वह सत चित और आनंद के रूप में परिभाषित होता है - किन्तु यह भी हमारी भाषा की लघुता है - इसमें भी वह पूर्ण रूप में नहीं उतरता , बस सिर्फ एक सन्निकटन है ।

सूत्रकार में अपुरुष विधा  (ब्राह्मण) और पुरुष विधा (इश्वर) को प्रथक प्रथक बताया गया है । ब्राह्मण श्रवण ,जागृति, और स्वप्न स्थितियों से परे हैं । कार्य ब्राह्मण और कारण ब्राहमण की प्रथक अवधारणायें हैं । वैदिक देवतागण इश्वर के अधीन हैं ।

फिर आत्मन क्या है ? आत्मन वह है जो "मैं" के अतिरिक्त सब कुछ निकालते जाने के पश्चात बचा रहता है । जो अजन्मा है, अमृत्य है । आत्म ज्ञान होने के पश्चात ही वह अनावृत्त होता है - तब तक वह अहंकार के परदे में छिपा रहता है । चांदोज्ञ उपनिषद् में देवगण और दानवगण प्रजापति के पास आते हैं - जो कहते हैं कि  आत्मन हर पाप और पुण्य से परे है । वे देव और दानवगण क्रमशः इंद्र और विरोचन जी को अपने अग्रणी बना कर प्रश्नकार के रूप में भेजते हैं । पहला संकेत होता है कि आत्मन वह है जो हमें जल पड़ती छाया में, या सामने वाले की आँख में , या फिर आईने में दिखे । किन्तु प्रजापति कहते हैं कि अब तुम अपने सबसे अच्छे परिधान पहन कर आईने में छवि देखो । तब इंद्र कहते हैं कि तब तो वह रूप बदल जाएगा जो हम देख रहे थे । तब तो यह अपरिवर्तनीय नहीं - और जो परिवर्तनशील हो वह आत्मन नहीं हो सकता ।

दूसरा सुझाव है - कि यदि यह शरीर जिसकी छाया जल में र्पतिबिम्बित होती है - वह आत्म नहीं तो क्या इसके भीतर बैठा स्वप्नदर्शी आत्मन है ? जो इस जीवन का "स्वप्न" देख रहा है ? इंद्र फिर से कहते हैं कि  यद्यपि यह भीतर बैठा दृष्टा इस शरीर रुपी वस्त्र के बदलाव से प्रभावित नहीं होता, तथापि, हम स्वप्न में भी जब हमें चोट लगती है तब हम दर्द भी महसूसते हैं और अश्रु भी बहाते हैं । स्वप्न में हम क्रोधित भी होते हैं, सुखी और दुखी भी । तब तो आत्मन "स्वप्न बोधिता" भी नहीं हो सकती ... आत्मन हमारी मानसिक स्थितियों का संयोग भर ही नहीं है - भले ही वे मानसिक परिस्थितियाँ कितनी ही अलग अलग प्रतीत होती हों । इंद्र फिर प्रजापति से प्रश्न करते हैं, जो अब तीसरी बार सुझाते हैं कि शायद गहरी निद्रा (जिसमे सपने नहीं आते) की स्थिति का भीतर से बोध कर्ता ही आत्मन हो ? इंद्र का विचार है कि इस स्थिति में न हम स्वयं को जानते हैं, न संसार को - सब कुछ विलय हो चुका होता है, किन्तु तब भी अस्तित्व तो है ही । विषय-वस्तु / परिलक्ष्य के न होने पर भी इस स्थिति में आत्मपरकता या विषय तो होता ही है । आखिर में इंद्र  कहते हैं कि आत्मन "सक्रिय सार्वभौमिक चेतना" है , जो न शारीरिक रूप में चेतना की सीमित अवस्था है, न स्वप्न का अशरीरी सोता हुआ स्व बोध, और न ही गहन निद्रा का सुशुप्त बोध है ।

यह आत्मन प्रकाशों का प्रकाशक है, यह सतत , स्थायी, आलोक है, जो न जीता है न जन्मता है न मरता है । न यह गतिशील है, न स्थावर है , न परिवर्तनशील है न अपरिवर्तनीय है । यह अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी है । यह द्रष्टा भी है और दृश्य भी । यह साक्षी है और साक्ष्य भी । 

जारी ....

सोमवार, 26 नवंबर 2012

उपनिषद सन्देश 3 - प्रस्तावना 3

भाग 1 , 2

पिछला भाग 
.... संसार की रचना कोई "अचानक" साकार होने जैसी घटना नहीं, बल्कि प्राकृतिक और समयक्रम में हुआ विकास है । ...... evolution theory से इसमें एक बुनियादी फर्क है । वह फर्क यह है कि evolution विज्ञान कहता है की निर्जीव तत्त्वों के अलग अलग गठजोड़ों से धीरे धीरे जीवन "उत्पन्न" हुआ, यह आकस्मिक था । .... इसके विपरीत वैदिक मान्यता यह है की तत्त्वों में जीवन उत्पन्न नहीं हुआ , बल्कि पहले से था और अब सिर्फ अप्रकट से "प्रकट" हुआ । ---- उत्पन्न नहीं, सिर्फ प्रकट । ----- ऋग्वेद में "उत्पन्न" होना, "प्रकट" होना और "जन्म" लेना पृथक घटनाएं हैं । इसी प्रकार से,जब प्रलय के बाद जीवन "समाप्त" हो जाता है, तब भी वह "समाप्त" नहीं, सिर्फ "अप्रकट" होता है ...
अब आगे ..
_____________________

वेदों में संहिताएं, ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद् हैं । संहिताएं देवताओं की स्तुतियाँ आदि कहती हैं, इनमे यज्ञादि में कहे जाने वाले मन्त्र आदि संकलित हैं । ब्रह्मचारी शिष्य अपने पठन काल में इन स्तुतिगीतों को सीखते हैं । ब्राह्मण इन यज्ञ कर्म कांडों के महत्व के बारे में बताते हैं - जिन उपदेशों के अनुरूप पारिवारिक गृहस्थ अपने दैनिक जीवन के धर्माधीन कर्म, और यज्ञकर्म, करें । वानप्रस्थ जन आरण्यकों के उपदेशों पर मनन चिंतन करें और संन्यास को प्राप्त हों । सन्यासी जन, जो मोह माया से परे हो चुके होते हैं, वे उपनिषदों के दार्शनिक सूत्रों के चिंतन, मनन और कथन में अपना समय लगाते हैं । उपनिषद् कोई पूर्व निष्पन्न किताबें नहीं थीं जो सन्यासी पढ़ते हों , बल्कि जब संन्यास सच में घटित हो जाता - तब ये उनके आत्म में स्वतः प्रकट होते, स्वानुभव से आये, सत्य परिचय हैं । 

यहाँ पहुँच कर रूचि अब उद्देश्य उन्मुख की अपेक्षा व्यक्तिपरक और आतंरिक उन्मुख हो जाती है । यात्रा बाहर की जगह अब भीतर की और अग्रसर होती है । उपनिषदों में सिर्फ सूखे कर्मकांड वादिता की समालोचना दिखती है । यज्ञकर्म सिर्फ उच्च लोकों की और ले जायेंगे - जहां से इन सत्कर्मों का सुखमय फल भोगने के बाद यहीं धरा पर इस जीवन में लौटना होगा । स्तुतियों की जगह अब प्रश्न ले लेते हैं । सत्य की खोज - वह कौन / क्या है जिसे जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाए ? इससे अधिक कुछ है ? कुछ नहीं है ? सनातन सत्य की प्राप्ति कैसे हो ?  जब सब कुछ इश्वर का ही है - तो फिर यही सब उन्हें ही भेंट करने का क्या अर्थ ? ............. सोम आहुतियों की जगह अब "स्व" आहुति की बात उभरती है । यज्ञ की आहुति के समय कहा जाने वाला शब्द "स्वाहा" अब "स्व + आहुति" या स्वत्व हनन का अर्थ ले लेता है । जीवन के तीन कालखंड अब सोम आहुतियों का स्थान ले लेते हैं । मेध अब पुरुषमेध या सर्व मेध हैं : अपने आप को इश्वर को सौंपना, अपना ही स्व आहूत कर देना । बृहद आरण्यक उपनिषद् में अश्वमेध यज्ञ की व्याख्या इस तरह से है कि यजमान सारे ब्रह्माण्ड को त्याग दे - सिर्फ वचन से नहीं - मन से । प्रार्थना यज्ञ और त्याग, अब निमित्त भर हैं सत्य की खोज के लिए । ये अपने भीतर से पूर्ण परम संसार में प्रविष्ट होने के मार्ग के प्रवेशद्वार की तरह हैं ।

वैदिक दृष्टा जाती बंधनों से बंधे हुए नहीं हैं । सत्यकाम जाबाल - जिन्होंने अपने पिता का नाम बताने में असमर्थता कही - उन्हें भी दीक्षित किया गया । "तत् त्वं असि" इतने सामान्य से शब्द आभासित होते हैं - कि इन्हें पढ़ने के बाद भी इनमे समाहित ज्ञान मुट्ठी से फिसल जाता है । उपनिषद् वेदों का जिक्र अक्सर सम्मान के साथ करते हैं - किन्तु सिर्फ स्तुतियों तक सीमित नहीं रहते । ये वेदों की शिक्षाओं का सदुपयोग करते हुए भी याज्ञवल्क्य और शांडिल्य जैसे आत्मसाक्षातकारियों के स्वानुभव का परिचय देते हैं । गुरुकुल से लौटे श्वेतकेतु बेझिझक स्वीकार करतेहैं - कि वैदिक शिक्षा पूरी सीख लेने के बाद भी उन्हें वह ज्ञान नहीं मिला है जिससे हर जानने योग्य हर वस्तु जान ली जाती है ।

उपनिषदों के अग्रणी ऋषियों के आगे प्रश्न हैं - संसार के मूल में क्या / कौन है ? किसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है ? मूलभूत एक सत्य क्या है ? यह माना गया कि, यदि मानव ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है तो उसके भीतर ब्रह्म ने ही अपने आप को पहचाना है - यह सिर्फ साक्षात्कार / परिचय है उस "स्व" से जो पहले से था - लेकिन ज्ञात नहीं था । "अहम् ब्रह्मास्मि" का उद्घोष - बिना इस स्वानुभूति के सिर्फ अहंकार है, और स्वानुभूति के बाद निर्विवादित सत्य ।

"वास्तविकता" और "सत्य" एक ही नहीं हैं - वास्तविकता होते हुए भी सीमित वास्तविकता परम सत्य से बहुत लघु है । सत्यों का परम सत्य ब्राह्मण है । उसी एक से अनेकता हुई - पंचतत्त्व (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) और इनसे बहुरंगी संसार निर्मित हुआ । किन्तु वह सिर्फ इतना ही नहीं है । ये सब हैं - और चिर हैं - और उसी एक से प्रकट और में उसी एक में विलीन होते रहते हैं ।(विलीन होने का अर्थ विनष्ट होना नहीं, अप्रकट होना है)

एक शिष्य गुरु से पूछता है और ब्राह्मण के विषय में प्रश्न करता है । उसे परिभाषित करने के उपरांत गुरु उसी से समझाने को कहते हैं । तब शिष्य शुरुआत में कहता है "अन्न" (matter) ही सब है , जिससे सब कुछ बना है । किन्तु सिर्फ पदार्थ ही तो जीवन के हर रूप को नहीं समझा सकता न ? फिर वह कहता है -"प्राण" (life) ही सर्व है । किन्तु फिर से - जीवन के हर रूप में एक सा बोध तो नहीं होता (चल जीवों का और अचल पेड़ पौधों का बोध स्तर अलग है ) ? फिर कहता है "मनस" (consciousness) ही सर्वस्व है । फिर से प्रश्न उठता है - कि पशुओं का बोध स्तर और मानव का एक ही है क्या ? फिर कहता है  बुद्धियुक्त मन "विज्ञान" (intellectual consciousness) ही ब्राह्मण है । सिर्फ मानव ही अपने वैज्ञानिक बुद्धियुक्त मन के कारण अपने आप को अपने से ऊपर उठा सकता है । लकिन यह भी तो द्वैत्पूर्ण है ? तो आखिर शिष्य आत्मिक मुक्ति और आनंद पर आता है । तो वास्तविकता है सत्य, ज्ञान और अनंतता। आनंद भी परम सत्य का समीप अनुमान भर ही है । अन्न , जीवन, मानस , बुद्धियुक्त बोध मन , ये सब सीढियां है - जो सत्य के निकट जाती हैं ।

एक प्रजनन कोशिका में इतनी संसूचना होती है की वह पदार्थ को शिशु शरीर के आकार में ढाल लेती है - और हर भ्रूण अपनी ही प्रजाति के शारीरिक रूप में ही आकार लेता है - जिसमे प्राणों का प्राकट्य होता है । ठीक उसी तरह से वैदिक मान्यता है कि  पदार्थ इस रूप में विकसित हुए कि जीवन का प्राकट्य हो सके - तो यह इसलिए हुआ कि बोध पहले से था और वही पदार्थ को प्रेरित करता रहा उस रूप में आने के लिए । यह जो वैज्ञानिक अवधारणा है कि संसार सिर्फ पदार्थों के एक तरह से स्व-विकसित होने से बना, इससे यह प्रतीत होता है कि पदार्थ के आकस्मिक गठजोड़ से जीवन उत्पन्न हुआ, और वैदिक अवधारणा यह है कि यह हुआ तो ऐसे ही, किन्तु आकस्मिक नहीं था - यह तो होना नियत ही था , क्योंकि जीवन अपने प्राकट्य के लिए पदार्थ को उस रूप में आने के लिए प्रेरित कर रहा था ।

बोध भीतरी परत है, बुद्धि सत्त्व है । जिसपर रजस और तमस की परतें हैं । एक ओर तो अहंकार का प्रकटन होता है - जिससे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ होती हैं । ब्राह्मण परम सत्य हैं, इश्वर और संसार द्वैत रूप में बोध और पदार्थ को दर्शाते हैं । संसार की रचना दिव्य मन की इच्छा मात्र से हुई है, और इच्छा मात्र से ही इसका पुनः पुनः निर्माण और विलय होता रहता है ।  इश्वर की दिव्य इच्छा से यह ब्रह्माण्ड हिरण्य गर्भ के रूप में (अव्यक्त से)  व्यक्त हुआ । यह अभिव्यक्ति कोई बाहर से आई या थोपी हुई नहीं है, बल्कि यह समाहित ही है ।  परम सत्य को न तो अभिव्यक्ति की  आवश्यकता है,न ही वह इस प्रतीत होती हुई अभिव्यक्ति तक सीमित ही है । यह सिर्फ मन की मौज है । संसार हर बार, हर सृष्टि में, इसी रूप में होगा यह भी आवश्यक नहीं - क्योंकि यह भी तो उस ब्रह्म की रचनात्मकता पर सीमा बाँधने जैसा ही है ।

... जारी ...

बुधवार, 14 नवंबर 2012

उपनिषद सन्देश 2 - प्रस्तावना 2


पिछला भाग
.....चार वेद हैं : ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्व वेद । प्रत्येक में संहिताएं, ब्राह्मण, आरण्यक, और वेदान्त-उपनिषद् हैं । ब्राह्मण "कर्म" काण्ड पर जोर देते हैं, उपनिषद् "ज्ञान" काण्ड पर । वेदों में देवताओं की स्तुतियाँ हैं : इंद्र, सूर्य, सोम, अग्नि ...
उपनिषद सन्देश 1 - प्रस्तावना 1

...अब आगे
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
 जहां जहां नीले रंग के अक्षर हैं - वह सब मेरे अपने निष्कर्ष और समझ हैं - यह उपनिषदों से नहीं है 
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
जब किसी एक वैदिक देवता की स्तुति होती है, तो उन्हें ही "परम" देव के रूप में देखा जाता है, उस समय के लिए अन्य सभी उनकी ही शक्ति के विस्तृत प्रकटन हो जाते हैं । यह न तो monotheism है, न polytheism ही, इसे henotheism कहते हैं ।

वैदिक चिन्तक परिपक्व थे, और उन्होंने यह सत्य समझा कि इस संसार के निर्माण और शासन करने का श्रेय सिर्फ एक ही परम का हो सकता है । इससे भी अधिक परिपक्वता इसमें प्रदर्शित होती है की उन्होंने कभी कोई "मूर्ती भंजक" मिशन चलाने की आवश्यकता नहीं समझी । उनके लिए यह बात सहज बोधगम्य थी कि शक्ति के और वैभव के अनंत रूप में अनंत प्रतीतियाँ होने से जनमानस के लिए अनेक देवताओं को मानना और पूजना स्वाभाविक है । उन्होंने कभी मूर्ती पूजन को महाविनाशकारी त्रुटी न तो समझा, न ही बताया । बहुदेव-वादियों को एकेश्वरवादी बनाने के जबरन प्रयासों की अपेक्षा, उन्होंने व्यक्ति के अपने इष्ट देव में ही विश्वास को और गहरा करते हुए , व्यक्ति के मन को तार्किक मनन चिंतन, पुनर्व्याख्या, सुलह-संतोष से एक परम ईश्वर की संकल्पना की ओर ढाला । { गीता में भी कृष्ण कहते हैं कि मैं मनुष्य की अपने ही इष्ट देव में निष्ठां प्रगाढ़ करता जाते हूँ, और उन सबके प्रति की गयी प्रार्थना और भक्ति मुझ तक ही पहुँचती है । }उन्होंने इस बात को समझा और जाना कि उग्रवादी लड़ाका धर्म यदि विश्वासों के पुराने जंगलों और वनों के ऊंचे पेड़ों को काट भी दें, तब भी नीचे की छुट पुट खरपतवार (undergrowth) हमेशा बची रहती है, क्योंकि वह ह्रदय भूमि में पुरातन समय से बहुत गहरे विश्वासों के बीजों में छुपी है, जो लाख काटने पर भी फिर फिर उगती रहेगी । वैदिक यज्ञों में मन्त्रों में भी बारम्बार ऐसी बातें उठती है (उदाहरण ) "क्या इंद्र हैं? क्या किसी ने इंद्र को देखा है? फिर हम यह स्तुति गीत किसके प्रति गायें?" आदि । जब इस विचार और मीमांसा से विश्वास कमज़ोर होने लगता है - तब फिर से श्रद्धा (जो स्वयं एक पूज्य देव हैं) से प्रार्थना की जाती है की "हे श्रद्धा ! हमें विश्वास प्रदान करें" ।

यह माना गया कि  सर्जन से पहले और विलय के बाद भी सिर्फ निर्जीव पदार्थ ही नहीं, बल्कि "बोध" भी बचा रहता है । किन्तु वह अव्यक्त रूप में रहता है और निर्जीव पदार्थ को सहज भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा बारम्बार सृजन को तैयार करता है । जब निर्जीव पदार्थ समयक्रम में फिर से जीवन धारण करने योग्य रूप में परिवर्तित हो ( हैं अरबों वर्षों के बाद) तब फिर उन में प्राण रूप में यह बोध प्रकट होता है । और यह सृजन और प्रलय की प्रक्रिया अनंत समय तक चलती रहती है, चलतीरहती है ...

रचना के पहले अनंत अन्धकार में डूबा अन्धकार है, और प्रलय के बाद भी (my dear physics and astronomy loving scientific friends - remember black-hole?) लम्बे "तप" के बाद यह स्वप्रकाश से खुद अपने आप में से प्रकट होता है और विस्तृत हो कर फ़ैल  जाता है (physicists - the black hole has no nuclear reactions going on inside, as all the hydrogen /helium fuel is exhausted . hence the only force active is the gravity - which keeps pulling in the heavy mass tighter and tighter. The word "तप" means withstanding physical pressure and temperature) । विष्णु की नाभि से कमल निकलता है , जिसपर ब्रह्मा बैठे होते हैं । blackhole  का कोई चित्र देखिये इन्टरनेट से, और साम्य स्वयं देख सकते हैं - या फिर इस सन्दर्भ में एक विज्ञान सम्बंधित पोस्ट श्रंखला मैंने लिखी थी - एक सितारे की जीवन यात्रा  (इसमें तीन भाग हैं - पहला भाग page में नीचे है, तीसरा सबसे ऊपर) ।

सम्पूर्ण संसार "प्रकृति" ( विस्तृत किन्तु प्राणहीन तत्व , हर तत्व के अपने गुण या "प्रकृति") और "पुरुष" (बोध / प्राण / ज्ञान ) के संयोग से संभव हुआ माना गया है । "सृष्टि" से पहले की "असत" प्रकृति, प्रसव पूर्व स्त्री की तरह कही गयी है । परम पुरुष के दिव्य मन में पहला फल उगा - "काम" - सृष्टि रचने की इच्छा / कामना । तब उस कामना पर चिंतन" हुआ और कर्म रूप में (सत और असत के संयोग से ) प्रभु की "इच्छा" से जीव संसार की रचना हुई । ऋचा रचने वाले ऋषियों में इतना विनय और विनम्रता है, कि वे बेझिझक यह स्वीकार करते हैं कि  "यह सब सिर्फ एक अनुमान है, क्योंकि मानव ज्ञान से इतने परे की बातें हम निश्चित रूप से नहीं जान सकते । "ईश्वर" ( परमेश्वर ) और "ब्राह्मण" (परम सत्य) को पृथक कहा गया है । इश्वर और ब्राह्मण के साथ फिर "हिरण्यगर्भ" का प्रकटन बताया गया । "पुरुष" ने अपने आपको प्रकृति के साथ जोड़ कर सृष्टि को सजीव बनाया, फिर भी वे स्वयं इसमें / इससे निर्लिप्त ही रहे । ब्रह्मा के "रचना" करने के बाद, जबकि विराट संसार रचा जा चुका , फिर भी वह सम्पूर्ण होकर भी निर्जीव ही रहा । तब "पुरुष" उसमे जीव रूप में प्रविष्ट हुए, तब संसार "सचेत" हुआ । (यूँ कहा जाए कि  प्रकृति+पुरुष = जीव संसार सृष्टि ।  प्रकृति और पुरुष दोनों ही स्वतंत्र इकाइयां हैं, जिनके संगम से संसार संभव होता है, लेकिन ये अलग अलग इकाइयां हैं ।)

वेदों के अनुसार संसार की रचना कोई "अचानक" साकार होने जैसी घटना नहीं, बल्कि प्राकृतिक और समयक्रम में हुआ विकास है । लेकिन विकास वादी evolution theory  से इसमें एक बुनियादी फर्क है । वह फर्क यह है कि evolution विज्ञान कहता है की निर्जीव तत्त्वों के अलग अलग गठजोड़ों से धीरे धीरे जीवन "उत्पन्न" हुआ । इसके विपरीत वैदिक मान्यता यह है की तत्त्वों में जीवन उत्पन्न नहीं हुआ , बल्कि पहले से था और अब सिर्फ अप्रकट से "प्रकट" हुआ । जीवन "उत्पन्न नहीं होता - वह पहले से है, और वह निर्जीव पदार्थ को अपने ही उत्थान के लिए प्रेरित करता रहता है, जिससे पदार्थ उस रूप में बदल सके जिसमे जीवन लक्षणों का उदघाटन हो सके । उपनिषद कहते हैं की तत्त्व कभी भी अपना उत्थान स्वयं नहीं करता । उसमे जीवन (अर्थात बोध) इसलिए प्रकट होता है कि उसमे बोध का बीज पहले से ही उपस्थित  था । इस बीज ने ही निर्जीव तत्त्व को ऐसे रूप में आने के लिए प्रेरित किया जिसमे जीवन का प्रकटन हो सके । फिर - जब पदार्थ इस रूप में ढला की जीवन प्रकट हो सके - तब उनमे बोध प्रकट हुआ - उत्पन्न नहीं, सिर्फ प्रकट । ऋग्वेद में "उत्पन्न" होना, "प्रकट" होना और "जन्म" लेना पृथक घटनाएं हैं । इसी  प्रकार से,जब प्रलय के बाद जीवन "समाप्त" हो जाता है, तब भी वह "समाप्त" नहीं, सिर्फ "अप्रकट" होता है । गीता के दूसरे अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि सभी जीव  से पहले अप्रकट थे, फिर प्रकट हुए, और मृत्यु के बाद अप्रकट हो जायेंगे । फिर इस में शोक क्या करना है ?

बोध के भी अलग अलग स्तर के हैं । एक अचल पेड़ का, एक चलते हुए कीड़े का, एक बिल्ली का, गाय का , हाथी का, मानव का बोध का स्तर भिन्न होता है । मानवों में भी अलग अलग बौद्ध स्तर हैं । इस बात को समझने वाले विद्वानों ने बड़े सहज तरीके से जाति व्यवस्था बनायी - जो जिस तरह की रूचि रखता हो - वह उस प्रकार के कर्म में संलग्न रह सके । जो पूजा पाठ पठन आदि में रूचि न रखता हो उस पर कोई जबरदस्ती न हो कि उसे यह करना ही पड़े ।

ऋग्वेद के ही अनुसार, मानव का "स्वरुप" शरीर नहीं है, आत्मा है - जो शरीर के और उसके द्वारा किये गए कर्मों का कर्ता और नियंत्रक है । यह अजन्मा और अमृत है, जो जन्म नहीं लेता न मरता ही है । यह "जीव" भी नहीं है । एक प्रसिद्द उदहारण है - जो गीता में कृष्ण भी अर्जुन को कहते हैं - जैसे एक डाल पर दो चिड़िया होती हैं, एक भोगती है (फल खाना आदि) और दूसरी सिर्फ उसे देखती है । यही "जीवात्मा और परमात्मा" का फर्क है । जब जीव यह फर्क जान कर सिर्फ द्रष्टा / निष्क्रिय दर्शक / या साक्षी हो जाए - तब वह परमात्मा में मिल सकता है । यह स्थिति प्राप्त होने के उपरांत ही व्यक्ति "अहम् ब्रह्मास्मि" का उद्घोष कर सकता है । (जो इस साक्षी स्थिति को आये बिना ही अपने अभिमान (ज्ञान / शारीरिक शक्ति / या धन - किसी से भी अहंकार हो सकता है) के कारण यह उद्घोष करते हैं, वे असुर हैं । यह भी जन्म नहीं बल्कि कर्म से सम्बंधित है ) वामनदेव ने कहा "मैं ही मनु हूँ, मैं ही सूर्य हूँ" कृष्ण ने कहा "मैं ही सब कारणों का कारण हूँ" महाराज त्रसदस्यु ने कहा "मैं ही इंद्र और वरुण हूँ"- तब यह सब अहंकार से नहीं, बल्कि आत्मानुभूति से बोल रहे हैं ।

वैदिक मनीषियों ने मानवों को "ब्राह्मण (पठन / पाठन / चिंतन / मनन करने वाले ) , क्षत्रिय (युद्ध / समाज रक्षा / राज्य सम्बंधित कार्य करने वाले )  वैश्य (धनोपार्जन सम्बंधित कार्यों को करने वाले ) व् शूद्र (उपरोक्त तीन कार्य नहीं , लेकिन इन्हें करने वालों से सहयोग करने वाले ) में विभक्त किया - जो सिर्फ "कर्म" की आधार पर था । समय के साथ यह जन्मे से जुड़ गया ।  सब को एक रूचि नहीं होती । किसी को पूजा पाठ अच्छा लगता है, तो कोई मजबूरी में करता है ; किसी को पढना अच्छा लगता है . तो कोई शिक्षक के डंडे के जोर पर पढता है , किसी को लड़ाई करके जीतना पसंद है तो कोई शान्ति प्रिय है, कोई अपनी नौकरी मी आगे बढना चाहता है, कोई उद्योग लगाना चाहता है) इसी तरह देवता भी पृथक रुचियों वाले हैं : इंद्र युद्ध प्रिय और शक्ति द्योतक रूप में दर्शाए गये, तो सूर्यादि देव आत्मोत्थान सम्बंधित । आश्विन सेहत और कुबेर धन देव हुए, तो यम पितरों के प्रदेश के सम्राट हुए ।


[ शूद्र का अर्थ यह नहीं था कि वह ब्राह्मण से "नीच" है - उसका अर्थ था कि  उस पर पठन और पूजन का "नियम" नहीं है । लेकिन समय के साथ यह "न चाहने पर न करने की अनुमति" धीरे धीरे "चाहने पर भी न कर सकने की बाध्यता" में बदल गयी । ब्राह्मण पढने लिखने वाले थे - सो बौद्धिक रूप से सशक्त थे । क्षत्रिय युद्ध कुशल थे - सो राजनैतिक रूप से सशक्त थे। और वैश्य धनोपार्जन करने से आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त थे । लेकिन शूद्र के पास इनमे से कोई भी "शक्ति न थी, सो समयक्रम में उनकी यह शक्तिहीनता उनकी लाचारी बन गयी । मनुष्य को, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य "जन्म" से नहीं, "कर्म" से होना चाहिए थे, किन्तु समय के साथ और "संतान मोह" के चलते ब्राह्मण अपनी संतति को "ब्राह्मण" पद सिर्फ जन्म से ही नवाजने लगे , क्षत्रिय क्षत्रिय पद आदि । 

और एक बात रही होगी - कि जैसे वातावरण में मनुष्य रहता है, काफी स्वाभाविक है कि उसकी रुचियाँ और काबिलियतें भी उसी ओर हो  जाएँ । हम आज की अपनी फिल्म इंडस्ट्री को या राजनीति को देख कर इसके अनेकानेक उदाहरण देख सकते हैं - नेताओं के बच्चे नेता, अभिनेताओं के बच्चे अभिनेता बनने के कैन उदाहरण हैं - लेकिन हर बार यह हो यह आवश्यक नहीं (जो दुर्भाग्य से जाति व्यवस्थ के साथ हुआ)। फिर शिक्षा दीक्षा भी उसी वातावरण के अनुसार ढालने के लिए होती - तो प्रक्रिया कुछ पीढियां जाते जाते स्थूल और कठोर होती गयी होगी । जैसे कक्षा में प्रथम आने वाले छात्र को बाकी छात्र स्वयं से श्रेष्ठ स्वीकार कर लेते हैं, इसी प्रकार जिनकी रूचि पढने लिखने (ब्राह्मण कर्म) / युद्ध करने (क्षत्रिय कर्म) / धनोपार्जन करने (वैश्य कर्म) में न हो कर "नीचे" समझे वाले कार्यों में (जूते बनाना आदि) (शूद्र कर्म) होती वे इन बाकियों को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार लेते होंगे - और ये लोग भी कहीं न कहीं खुद को इन "क्षुद्र" कर्म में रत लोगों से क्रमशः श्रेष्ठ - और श्रेष्ठतर - और श्रेष्ठतम मानने लगे होंगे । इस प्रकार कर्म के अनुसार बनी जातियां समयक्रम में जन्म से जुड़ गयीं होंगी ।]

ऋग्वेद में पुनर्जन्म शब्द नहीं आता - किन्तु इसकी झलकियाँ दिखती हैं । आत्मा का एक शरीर से दुसरे शरीर को स्थानान्तरण, और तरह के रूपों / अस्तित्वों में वास करना, इस जीवनकाल के उपरान्त का अस्तित्व इस जीवन के कर्मों से सम्बंधित होना, "मित्र" देव का पुनः जन्मना, उषा का बारम्बार जन्म लेना - ये सब पुनर्जन्म की ओर संकेत तो करते हैं, किन्तु सीधे शब्दों में पुनर्जन्म की बात नहीं आती ।

वैदिक विद्या त्रयी विद्या कहलाई - ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद । अथर्व वेद तक आते आते तो देवताओं के लिए यज्ञ करना (कर्म स्वयं) यज्ञ के देवता से भी अधिक महत्वपूर्ण होने लगा । "पहले से शक्तिमान जो है उस देवता की प्रसन्नता के लिए" यज्ञ होने से उलट, "देवता स्वयं ही यज्ञ प्रताप से शक्ति पाए हुए" से प्रतीत होने लगे । ऋग्वेद के देवता स्व-आनंदित प्रतीत होते थे, जो पहले से प्रसन्न और कृपालु ही थे, यज्ञ करने से और अधिक कृपा बरसाते थे  । अथर्व वेद तक आते आते देवता क्रोधी से प्रतीत होने लगे, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए यज्ञ न हो तो अकृपा बरसने का भय सा स्थापित रहे ।

....
जारी ...

सोमवार, 12 नवंबर 2012

उपनिषद सन्देश 1 - प्रस्तावना 1

सभी को दीपोत्सव की हार्दिक शुभेच्छाएं , बधाईयाँ । यह पर्व आपके जीवन में रौशनी, सुख, शान्ति और सौहार्द्र की सौगात लाये
----------------------------------------------------------------------------------
आज से उपनिषदों पर यह शृंखला आरम्भ कर रही हूँ - कितनी नियमित रह पाऊंगी, पता नहीं ।

प्रस्तावना 1

भारत के इतिहास में, आत्म उत्थान के प्रयासों में , दर्शनशास्त्र, तत्त्वविज्ञान आदि के क्षेत्रों में , उपनिषदों के प्रबल प्रभाव रहा है । अलग अलग समयखंडों में, अनेक प्रकार के लोगों को, विविध प्रकार के कारणों से , उपनिषद अपनी अद्वितीय विविधता से आकर्षित करते रहे हैं । ये अगोचर, अव्यक्त, अप्रत्यक्ष, अविकारी परम सत्य के विषय में हमें सम्यक रूप से जानकारी देते हैं । मानव अस्तित्व, दर्शन, और धर्म के बारे में इनसे बेहतर ज्ञान देय, या इनके समानान्तर भी, इस जगत के किसी और ग्रन्थ / साहित्य आदि में मिलना असंभव सा लगता है ।

इन्हें कहने वाले निष्कपट महात्माओं के बारे में निर्विवाद छवि यही है कि इन्होने सत्य की खोज में ध्यानमग्न होकर परमसत्य को जाना और आत्मसात किया है, तब ही ये बातें कही हैं । वे इस व्यतीत होते  क्षणभंगुर संसार के पीछे के सत्य नित्य संसार को, ( जो है, किन्तु अव्यक्त है, अचिन्त्य है ) हम पर अभिव्यक्त करने के प्रयास करते हैं । वह संसार प्रतीत तो ऐसे होता है जैसे सिर्फ एक सुदूर संभावना हो, किन्तु वह हर सांसारिक सच्चाई को टिमटिमाता दिया सा दर्शा देने वाला सौर्य तेज सा प्रखर परम सत्य है ।  सैद्धांतिक स्पष्टीकरण की आध्यात्मिक जिज्ञासा , मुक्ति और सत्य की लालसा , प्रबुद्ध मन और आत्मा के उत्थान का पथ हैं हमारे दिव्य उपनिषद ।

यदि उपनिषद हमें इस स्थूल अस्तित्व से ऊपर उठाने का सन्देश दे रहे हैं, तो इसके पीछे कारण हैं वे महान लोग, जो हमेशा दिव्यता की और उद्यमरत रहे । उपनिषदों का आदर सिर्फ इसलिए नहीं है कि ये "श्रुति" का हिस्सा हैं । बल्कि यह इसलिए वन्दनीय एवं श्रद्धेय हैं , कि ये पीढ़ियों से सत्य मार्ग के पथिकों को प्रेरित करते रहे हैं, उन्हें राह दर्शाते रहे हैं । इनका महत्त्व अक्षय और अटूट है । भारतीय विचारधारा पथ प्रदर्शन के लिए हमेशा इन प्रकाश्पुन्जों की और देखती रही है । देखने और खोजने में मन रखने वालों के लिए ये परमज्ञान का स्रोत हैं ।

"उपनिषद्" शब्द को ज्ञानी महापुरुष जन अलग अलग व्याख्याएं देते हैं  ।
एक व्याख्या है : उप = near +नि = down +षद=sit  = sitting down near
तो दूसरी है : षद = loosen / reach /destroy , जिसमे 'उप' और 'नि' उपसर्ग रूप में जुड़े हैं  : वह ब्रह्म ज्ञान जिससे अन्धकार और अज्ञान विनष्ट हो जाए ।

उपनिषदों के लिए वेदांत शब्द भी प्रयुक्त होता रहा है, जिसका शाब्दिक का अर्थ है "वेदों के अंत में आने वाले" । वेदों में अन्तर्निहित ज्ञान और विज्ञान का निष्कर्ष हैं ये महान सन्देश । चार वेद हैं : ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्व वेद । प्रत्येक में संहिताएं, ब्राह्मण, आरण्यक, और वेदान्त उपनिषद् हैं । जहां मन्त्र और ब्राह्मण "कर्म" काण्ड पर जोर देते हैं, वहीँ उपनिषद् "ज्ञान" काण्ड पर । वेदों में देवताओं की स्तुतियाँ हैं : इंद्र, सूर्य, सोम, अग्नि, द्यौस , मारुत, पृथ्वी , वायु, मित्र, वरुण, विष्णु, अश्विन, आदि जो प्राकृतिक शक्तियों के अधिष्ठाता देव हैं । इसके अतिरिक्त, अमूर्त भाव - जैसे श्रद्धा, मन्यु आदि, की भी स्तुतियाँ हैं । विद्या प्राप्त कर चुके शिष्य को परीक्षित करने के उपरांत गुरु द्वारा वेदान्त की गुप्त शिक्षा मिलती थी । यह विज्ञान सिर्फ वह सीख सकता था जो विशुद्ध ज्ञानपिपासु होता । प्रार्थनाएं, शुद्ध ज्ञानार्जन , त्याग बलिदान के कर्म (काण्ड) ये सब सीख लेने के बाद जब पात्र सत्य प्राप्ति का सच्चा पात्र बन सके, तब ही वह उपनिषद् सीखने की स्थिति में आता था ।

उपनिषद 200 से अधिक कहे जाते हैं,  लेकिन भारतीय परम्परा के अनुसार ये 108 कहे गए हैं । वैदिक सन्दर्भों में इन्हें श्रुति या प्रकट सत्य कहा  गया है । ये सनातन, स्मरणातीत, और कालातीत हैं । इन्हें परमात्मा के श्वास से ऋषियों को गोचर हुआ कहा गया है - जिन्होंने अपने देखे हुए "सत्य" को शब्दों में प्रकट किया, जिससे ये "ऋचा" कहाए । ये साधारण दृष्टि से दृश्य नहीं है, न ही ध्यान या सोच विचार से पहुंचे गए निष्कर्ष हैं । ये असंदिग्ध प्राकट्य हैं उन "सत्य" का , जो महान ऋषियों ने दिव्य दृष्टि से प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर किये (देखे) और शिष्यों से कहे। ये व्यवस्थित सोच से निकाले गए निष्कर्ष नहीं , बल्कि आत्मिक प्रकाश के वाहक हैं । ये हमें एक समृद्ध और विविध आध्यात्मिक अनुभव देते हैं,  सिर्फ एक अमूर्त दार्शनिक श्रेणी का काल्पनिक विचरण भर नहीं । परम का सत्यापन व्यक्तिगत अनुभव, और तर्क दोनों ही कसौटियों पर हुआ है । उद्देश्य सिर्फ काल्पनिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक है । ब्रह्म विद्या सिर्फ एक "दर्शन" भर नहीं, बल्कि जीवन का तरीका होना ही ज्ञान का उद्देश्य जाना गया है ।

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

फेसबुक और ब्लॉगिंग

उफ़ यह फेसबुक
यह निखट्टू ब्लोगिंग
काम धरे रह जाते सारे
हो न पाती जॉगिंग :( :(

कंप्यूटर पर आते
करने को दो काम
फेसबुक अपडेट देखते
जाने कब हो जाती शाम

काम धरे रह जाते सारे
कुर्सी से फेविकोल का जोड़
फेसबुक और ब्लोगिंग ने
बना लिया गठजोड़

ट्रेडमिल बुला रही
बीप - बीप आवाजें मार
हम उसको कह रहे
तनिक ठहरो न यार  :)

"प्रोग्राम" काम का आधा ही बस
टाईप हुआ धरा है
रोज़ लगे कल पूरा होगा
बचा बस ज़रा ज़रा है

फिर आती सिस्टम पर
बैठकी लगाने
और समय बर्बाद करती
फेसबुक के बहाने ....
:) :)
:( :(

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

नवरात्र : श्री दुर्गा सप्त शती और मधु कैटभ कथा

सभी को महानवमी की शुभकामनायें 

श्री दुर्गा सप्तशती हिंदी में - गीतापेस - पढने के लिए लिंक क्लिक करें 


आज महानवमी के शुभ दिन एक और कथा बांचते हैं  :)

प्राचीन समय में सुरथ नाम के एक राजा थे । ये राज्य के प्रति उदासीन थे, जिसका लाभ उठा कर शत्रुओं ने इनके राज्य पर हमला किया । लोभवश राजा के विश्वासपात्र मंत्री भी शत्रुओं से मिल गए, और राजा सुरथ की पराजय हुई । राज का मन अपने मंत्रियों के इस विश्वासघात से बहुत खिन्न था, और वे तपस्वी वेश में वन में वास करने लगे, किन्तु उनका मोह उन्हें कष्ट देता रहा ।

वन में उनकी भेंट समाधि नामक एक वणिक से हुई, जो अपने स्त्री और पुत्रों के दुर्व्यवहार से दुखी हो वहां रह रहा था । दोनों का परस्पर परिचय हुआ और एक दूसरे को उन्होंने अपनी कथा सुनाई । तब दोनों आपस में चर्चा करने लगे कि जिनके लिए मानव इतना मरता खपत है, जब वे ही अपने न हुए, तो मन को शान्ति कैसे मिलेगी ?

वे दोनों महर्षि मेधा की शरण में गए । महर्षि मेधा ने उनसे आने का कारण पूछा और उन्होंने अपने मन के अशांत होने के और इसके कारणों के विषय में उन्हें बताया । उन्होंने कहा कि हमारे स्वजनों ने हमें अपमानित किया, धोखा दिया फिर भी हमारा उनकी और मोह नहीं छूट पाटा - इसका कारण या है ? तब ऋषिवर ने उन दोनों को माता की आराधना करने को कहा और उनको माँ के वैभव की अनेक गाथाएं सुनाईं ।

इनमे से कई कथाएं पिछले नौ दिनों में हम सब पढ़ते आये हैं । आज मधु कैटभ वध की कथा पढ़ते हैं ।
"
राजा सुरथ ने पूछा : भगवन ! वह देवी कौन हैं जिन्हें आप महामाया कहते हैं ? उनके बारे में विस्तार से हमें बताइये प्रभु ।
महर्षि मेधा ने कहा " राजन ! वे तो नित्यस्वरूपा हैं, जिनसे संसार रचा गया है । फिर भी उनकी उत्पत्ति बारम्बार अनेक कारणों से प्रकार से होती है ।
एक बार भगवान् विष्णु क्षीर सागर शेष शैया पर योगनिद्रा में थे । संसार विलीन हो चूका था और धरती आदि सब कुछ चिर जल में जलमग्न हो चुका था । तब मधु कैटभ नामक दो दैत्य उनके कर्ण कुहरों से प्रकट हुए । वे श्री विष्णु के नाभि कमल पर स्थित ब्रह्मा जी को मारने दौड़े । ब्रह्मा जी जानते थे कि इन दोनों महाबलवान दैत्यों से सिर्फ विष्णु जी ही मुझे बचा सकते हैं । तब ब्रह्मा जी ने विष्णु जी की आँखों में बसने वाली योगनिद्रा से प्रार्थना की, तो वे स्त्री रूप में श्री विष्णु की आँखों से बाहर आ गयीं । मधु कीटाभ की मृत्यु सिर्फ श्री विष्णु के हाथों ही होनी थी । उन्होंने वर माँगा की यह जल में / जल पर न हो , क्योंकि सब और जल था, तो उन्होंने सोचा कि इस तरह हम बच जायेंगे । लेकिन श्री विष्णु ने उन्हें जाँघों पर लेकर उनका वध किया ।
फिर श्री महर्षि मेधा ने महिषासुर, चंड मुंड, रक्तबीज, और शुम्भ निशुम्भ वध की कथाएँ सुनाईं ।

यह सब उपाख्यान सुनकर सुरथ और वणिक  के मन शांत हुए, तब महर्षि ने उन्हें माँ की उपासना विधि बताईं । वे दोनों नदी के तट पर जाकर तपस्या करने लगे । तीन वर्ष बाद देवी ने उन्हें दर्शन और आशीर्वाद दिए । वणिक ने सांसारिक मोह से मुक्त हो कर आत्मचिंतन में मन लगाया और राजा सुरथ ने शत्रुओं को हरा कर अपना खोया राज्य वापस प्राप्त कर लिया । 

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

देवी कथाएँ 6 महिषासुर, शुम्भ निशुम्भ वध

पिछले भागो से आगे । अन्य भाग पढने के लिए ऊपर "पुराणों की कथाएँ" tab क्लीक करें ।

---------------
महिषासुर वध 

रम्भासुर नामक दैत्य का महिषासुर नामक पुत्र था, जिसने अथक तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया, और उनसे वरदान लिए कि वह सिर्फ एक स्त्री के ही हाथों से मारा जा सकेगा । वरदान प्राप्त करने के बाद वह सभी देवताओं को परास्त कर इन्द्रासन पर चढ़ बैठा । देवता ब्रह्मा जी और विष्णु जी सहित शिव जी के पास आये । सब सुन कर शिव जी क्रोधित हुए  । शिव के क्रोधित मुखमंडल से एक तेज निकला, और तब ब्रह्मा जी और विष्णु जी सहित सब देवताओं से तेज उत्पन्न हुआ, जिसने स्त्री वेश धारण किया , जो दुर्गा देवी थीं ।  देवताओं ने अति हर्षित हो कर उन महाकाली को आयुध एवं आभूषण आदि प्रदान किये । शिव जी ने उन्हें अपना त्रिशूल दिया, विष्णु जी ने चक्र तो इंद्र ने वज्र ।

आयुध व् आभूषणों से सुसज्जित चंडिका ने परम अट्टहास किया जिसकी गर्जना सुन महिषासुर अपनी सेना ले युद्ध करने पहुंचा । राक्षसों ने वाण चलाने आरम्भ किये तो माँ ने सांस छोड़ी जिससे असंख्य सैनिक प्रकट हो राक्षसों से युद्ध करने लगे । माँ का वाहन सिंह गरज गरज कर सब और असुरों को मारने लगा । देवी ने असंख्य सैनिक संहार दिए और महिषासुर के दैत्य सेनापति भी मारे गए । तब महिषासुर भैंसे और फिर सिंह के रूप में परिवर्तित हुआ । देवी ने उसका गला काट दिया, तो असुर फिर अपने रूप में आकर दौड़ा । फिर वह हाथी में बदला, जिसकी माँ ने सूंड काट दी । आखिर फिर से भैसा बन कर जब महिषासुर हमला करने आया तो माँ उस के ऊपर चढ़ गयीं और इस बार गर्दन काटने पर जब वह भैसे के मुंह से निकलने लगा तो देवी ने उसकी ग्रीवा में त्रिशूल मार कर उसे संहारा ।

बची हुई असुर सेना भाग गयी और देवताओं गन्धर्वों ने देवी की विनयपूर्वक महादुर्गा जी की स्तुति की ।
-------------------------
चंड , मुंड, धूम्राक्ष , रक्तबीज , शुम्भ - निशुम्भ वध 

एक बार शुम्भ निशुम्भ नामक पराक्रमी दैत्यों से त्रिलोक कम्पायमान था । दुखी देवता जगज्जननी के पास पहुंचे, और उनकी स्तुति की । भवानी महेश्वरी ने उनसे आगमन का कारन पूछा , तब उन्होंने अपनी व्यथा कही । तब गौरी के शरीर से एक कुमारी प्रकट हुई जो शरीर कोष से निकली होने से कौशिकी भी कहलाई , और माता के शरीर से प्रकट होने से मातंगी भी कहलाई । देवताओं को आश्वस्त कर उग्रतारा देवी सिंह पर स्वर हो कर हिमालय के शिखर पर स्थित हुईं ।

शुम्भ निशुम्भ के दो सेवकों - चंड और मुंड ने उस सुन्दर देवी अम्बिका को देखा तो अपने स्वामियों को जाकर कहा की हे महाराज, हिमालय पर अद्वितीय सुन्दर कन्या सिंहारूढ़ है - और वह आप के योग्य है ।

मदांध असुरों ने सुग्रीव नामक दैत्य को उसे लिवा लाने भेजा, तो देवी ने कहा की हे दूत, मैं प्रतिज्ञाबद्ध हूँ की मैं सिर्फ उससे ही विवाह करूंगी जो मुझे युद्ध में परास्त कर सके । जब दूत ने यह बात अपने स्वामियों को बताई तो क्रोधित हो उन्होंने धूम्राक्ष से युवती को बाँध कर घसीट लेन की आज्ञा दी । किन्तु वहां आने पर महोग्रतारा ने सिर्फ "हम्म" स्वर भर से उसे राख कर दिया ।सैनिक भागने लगे । चंड , मुंड फिर आये तो माँ ने भृकुटी टेढ़ी की, जिसमे से महाकालिका प्रकट हुईं । चंड और मुंड का वध करने से महाकालिका चामुंडी कहलाईं । यह हो जाने के उपरांत शुम्भ निशुम्भ स्वयं युद्ध भूमि में आये  ।

तब श्री ब्रह्मा जी के शरीर से ब्राह्मी, विष्णु से वैष्णवी , महेश से महेश्वरी, और अम्बिका से चंडिका प्रकट हुईं। पल भर में सारा आकाश असंख्य देवियों से आच्छादित हो उठा । ब्राह्मणी ने अपने कमंडल से जल छिड़का जिस से राक्षस तेजहीन होने लगे, वैष्णवी अपने चक्र , महेश्वरी अपने त्रिशूल से, इन्द्रानी वज्र से और सभी देवियाँ अपने अपने आयुधों से  आक्रमण कर रही थीं । राक्षस सेना भागने लगी ।

तब रक्तबीज ने राक्षसों को धिक्कारा कि वे स्त्रियों से डर कर भाग रहे हैं ? रक्तबीज हमला करने आया, तो इन्द्राणी ने उस पर शक्ति चलाई जिससे उसका सर कट गया और रक्त भूमि पर गिरा । किन्तु पूर्व वरदान के प्रभाव से उस रक्त से फिर एक रक्तबीज उठ खडा हुआ और अट्टहास करने लगा । जैसे ही शक्तियां उसे मारतीं, उसके रक्त से और असुर उठ खड़े होते । जल्द ही असंख्य रक्तबीज सब और दिखने लगे ।

श्री चंडिका ने श्री काली से कहा कि इसका रक्त भूमि पर इरने से रोकना होगा, जिससे और रक्तबीज न जन्में । देवी काली ने कहा की आप सब इन्हें मारें, मैं एक बूँद रक्त भी भूमि पर न पड़ने दूँगी । और ऐसा ही हुआ भी, जल्द ही सारे नए रक्तबीज युद्ध में मारे गए । तब रक्तबीज समझ गया की काली उसे पुनर्जीवित नहीं होने दे रही हैं, तो वह चंडिका को मारने दौड़ा । तब चंडिका ने उसे मार दिया और काली ने रक्त को भूमि पर न गिरने दिया । देवता चंडिका की जयजयकार करने लगे । जयकार सुन कर शुम्भ ने निशुम्भ को हमले की आज्ञा दी ।

 निशुम्भ देवी से बोला , की हे मालती के पल्लव सी सुकोमल तन्धारिणी, तुम यह विकट युद्ध क्यों कर रही हो ? तब देवी ने उसे वाचालता छोड़ कर युद्ध को ललकारा । निशुम्भ पर उन्होंने वाण वर्षा की , और निशुम्भ ने उन पर । काली देवी ने करोडो दैत्य संहार दिए, तब निशुम्भ उन पर लपका । उसके सभी आयुधों को काट कर देवी ने उसका वध कर दिया ।

भाई को गिरता देख शुम्भ देवी से युद्ध करने बढ़ा , तब चंडिका ने उसे भी त्रिशूल से संहारा । देवताओं ने पुष्पवर्षा करते हुए माँ की बड़ी स्तुति की ।

.............
जय माता दी  

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

कथा 5 : शिव पार्वती विवाह


पिछले भाग से आगे
(बाकी भाग पढने के लिए ऊपर "पुराणों की कहानियाँ " tab क्लिक करें )

देवी रति को कामदेव के प्रद्युम्न रूप में लौटने के बारे में बता कर शिव जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए । पार्वती बहुत दुखी हुईं और उन्होंने शिव जी को प्राप्त करने के लिए पंचाक्षरी नाम जाप के साथ तपस्या करना शुरू किया । माता ने उन्हें "उमा" कह कर रोका- जिससे उनका नाम उमा हुआ ।

उमा ने बड़ी कठिन तपस्या की , पहले भोजन त्यागा, फिर फल आदि भी त्याग दिए और बाद में पत्र पुष्प भी । पर्ण भी त्याग देने से उनका नाjम "अपर्णा" हुआ । 3 हज़ार साल से अधिक होने पर भी शिव प्रसन्न न हुए, तब पार्वती जी और भी लगन के साथ अपनी साधना में लग गयीं ।

उनके तप ताप के तेज से पृथ्वी संतप्त हो उठी और प्राणियों को अत्यंत पीड़ा होने लगी  । उधर ताड़कासुर ने सब और अपना राज्य विस्तारित किया और इन्द्रासन पर भी आसीन हो गया । तब देवगण विष्णु जी और ब्रह्मा जी सहित शिव जी के पास गये और पार्वती से ब्याह करने को कहा, । शिव जी ने कहा कि  मैं योगी हूँ, मुझे विवाह में कोई रूचि नहीं, और फिर से ध्यान मग्न हो गए । देवताओं ने उन्हें फिर पुकारा और धरा पर मची हाहाकार से मुक्ति के लिए उनसे तप स्वीकारने की प्रार्थना की । तब शिव जी ने कहा कि यद्यपि विवाह में हमारे रूचि नहीं है, तथापि आओ सब के लिए हम यह स्वीकार कर सकते हैं , आप सब प्रसन्न मन से प्रस्थान कीजिये ।

देवताओं के जाने के बाद शिव जी ने सप्तर्षियों से काली के प्रेम और समर्पण की परीक्षा लेने को कहा, जिन्होंने उमा के आगे आ कर शिव जी के अवगुणों की बातें  कहीं। भवानी ने तनिक भी विचलित हुए बिना अपनी तपस्या जारी राखी ।

फिर शिव जी खुद वृद्ध ब्राह्मण वेश में उनके पास आये और माँ ने उनका आदर सत्कार किया । उन्होंने पूछा की हे सुन्दर राजकुमारी, आप यह किस उद्देश्य से इतना कठोर तप कर रही हैं । उमा के कारण बताने पर वे शिव जी की बड़ी भर्त्सना करने लगे और कहा की ऐसे वर से विवाह करने से तो अच्छा हो की तुम कुंवारी ही रहो । शिव जी की बुराई पर माता भवानी क्रोधित हो गयीं और ब्राह्मण को वहां से जाने का आदेश दिया, अपनी सखी से कहा कि इसे यहाँ से दूर रखो और चुप रखो  । जितना पाप श्री महादेव की बुराई करने में है, ऐसा ही पाप उसे सुनने में भी है । मैं लज्जित हूँ कि मैंने इस शिवद्रोही का स्वागत सत्कार किया, और यह कह कर शिवा वहां से जाने लगीं  । इस पर शिव अपने निज रूप में आये और शिव का सारा क्लेश जाता रहा  । शिव जी ने कहा कि हे देवी, आपसे हम अति प्रसन्न हैं, और आपसे असीमित प्रेम भी करते हैं । आपके बिना अब हम भी नहीं रहना चाहते। आपको जो चाहिए है, मांग लीजिये । तब गिरिजा ने उनसे पिता हिमवान से अपना हाथ मांगने को कहा ।

शिव जी बोले , की मांगने में समर्थ पुरुष का तेज घट जाता है । जैसे ही "देहि" (मांगने के लिए संस्कृत शब्द - दो / दीजिये) शब्द मुंह से निकले, पुरुष भिक्षुक की तरह हीन हो जाता है  । किन्तु माता भवानी ने कहा कि पिता से पुत्री को स्त्री रूप में मांगना पुरुष का अपनी स्व प्रकृति को प्राप्त करने का कर्म है, और शास्त्र सम्मत है ।  तब शिव उन्हें पिता के घर प्रसन्न मन से लौट जाने को कह कर चले गए और गिरिजा प्रसन्नचित्त से घर आ गयीं ।

शिव नट रूप में डमरू लेकर हिमवान के घर आये और अत्यंत दिव्य नृत्य किया । अति प्रसन्न होकर राजा रानी ने उन्हें जो चाहें लेने को कहा, तो उन्होंने देवी काली का नाम लिया । राजा रानी नट की उद्दंडता पर अति क्रोधित हुए और सैनिकों से उसे बाहर निकालने को कहा, किन्तु उनके दिव्य तेज से कोई भी उनके सम्मुख न पहुँच सका  । नटराज ने फिर उमा का हाथ स्वयं को सौंपने को कहा, किन्तु मैना और हिमवान के न करने पर वे वहां से अंतर्ध्यान हो गए ।

फिर गिरिजेश वैष्णव ब्राह्मण रूप में हिमवान के घर गए और शिव जी की इतनी तीव्र निंदा की कि मैना और हिमवान ने कहा कि हम अपनी बेटी को कुंवारी भले ही रखेंगे, किन्तु ऐसे वर को उसे न सौंपेंगे । बाद में शंकर जी की प्रेरणा से सप्तर्षि वहां गए और हिमवान को मनाया । मैना देवी फिर भी न मानें, तो उन्हें अरुंधती जी ने समझाया (अरुंधती जी ब्रह्मा पुत्री संध्या हैं, जो कामदेव के साथ ही ब्रह्मा के ह्रदय में से उत्पन्न हुईं थीं  । ब्रह्मा की अनुमति पा कर कामदेव ने बाण संधान किया, जिससे सभा में उपस्थित सभी देवों की दृष्टि काम्पूर्ण हो उठी और संध्या पर सकाम दृष्टि पडी । इससे संध्या का मन व्यथित हुआ और वे पित्राज्ञा से श्री वशिष्ठ जी से मन्त्र ले कर तपस्या को चली गयीं । संध्या को सूर्य ने प्रातः और सायं संध्या में विभक्त किया था । बाद में वे तपस्या करने वे चंद्रभाग पर्वत पर चली गयीं, जहां से चंद्रभागा नदी उत्पन्न हुईं । अगले जन्म में वे ऋषि मेधातिथि की पुत्री अरुंधती हुईं, और उनका ब्याह वशिष्ठ जी से हुआ )

बरात आई तो शिव जी ने मैना जी के अहंकार को नष्ट करने के लिए इतना भयंकर वेश धारण किया कि मैना उन्हें देख कर बेहोश हो गयीं  । चेतना लौटने पर बेटी से कहा कि ऐसे कुलक्षणी अशुभ से मैं तुम्हे नहीं बांधूंगी ।
वे अपनी बेटी उमा, नारद, सप्तर्षियों, सबको अपशब्द कहने लगीं की धिक्कार है कि मेरी कोमलांगी पुत्री को ऐसे अमंगल दूल्हा चुना गया । उसी समय मेरा गर्भ नष्ट हो जाता तो भला होता । मैं उमा को अपने हाथों से विष दे दूँगी परन्तु इस से उसे न ब्याहूंगी । नारद ने उन्हें समझाया की शिव रूप सर्व शुभ है , यह रूप तो उन्होंने कौतुकवश धारण किया है । किन्तु वे न मानीं और नारद को कहा कि तुम दुष्टों और अधर्मियों के शिरोमणि हो कि तुमने हमारी बेटी का जीवन खराब कर दिया । देवताओं और सप्तर्षियों के समझाने पर भी मैना अपनी बात पर अड़ी रहीं । हिमवान स्वयं भी समझाने गए तो मैना ने कहा की वे सहर्ष बेटी को गले में रस्सी बाँध कर पर्वत से लटका दें , किन्तु वे उसका ब्याह शिव से न होने देंगी ।

अब पार्वती ने कहा कि "हे माते, तुम्हारी वाणी और बुद्धि तो सदैव मंगलकारी हुआ करती थी । आज यह धर्म का अवलंब न कर भटक गयी है । हे माँ, रूद्र सर्वोत्पत्ति के कारण और साक्षात इश्वर हैं । मनोहारी रूप धारी, कल्याणकारी महेश्वर परमेश्वर हैं । विष्णु ब्रह्मा द्वारा सेवित हैं और देवता गण इनकी आराधना करते हैं । ये निर्विकार, अविनाशी और सनातन हैं । शिव जी के ही कारण आज आपके द्वार पर ब्रह्मा विष्णु और समस्त देवगण और ऋषि मुनि जन पधारे हैं । मैं मन वचन कर्म से उन्हें पति मान चुकी हूँ, और आप मेरा विवाह न भी करेंगे, तो भी मैं आजीवन उनकी ही पत्नी बन कर कुंवारी रहूंगी " पुत्री की इन बातों से मैना देवी अति क्रोधित हुईं और उसे (निर्लज्जता के लिए ) डांटने लगीं । विष्णु जी भी मैना के पास आये और उन्हें समझाया , कि पितरों की कन्या और शैलप्रिया होने से उम्का सम्बन्ध ब्रह्मा जी के कुल से है । विष्णु जी के समझाने से मैना का आवेश कम तो हुआ, किन्तु उन्होंने जिद न छोड़ी । किन्तु जब शिव जी ने अपनी माया हटाई, तो मैना ने उन्हें उत्तम स्वीकार किया और नारायण से प्रार्थन की कि शिव जी से निज रूप में आने को कहें । तब शिव अपने स्वरुप में आये और उस रूप में अति सुन्दर प्रकट हुए  । मैना ने अपने व्यवहार पर क्षमा मांगी और फिर शिव और शिव का विवाह संपन्न हुआ ।

नव दंपत्ति के दर्शनों को सोलह श्री नारियां आयीं : सरस्वती, लक्ष्मी सावित्री, गंगा, अदिति, लोपामुद्रा, अरुंधती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथ्वी, शतरूपा, संज्ञा और रति । फिर और भी अनेक दिव्य देवपत्नियाँ, नाग कन्याएं, मुनि कन्याएं आदि वहां आईं   । रति ने कामदेव की भस्म को शिव के आगे किया और विवाह के शुभ अवसर पर अपने पति को पुनर्जीवित करने को कहा, और बहुत रोने लगीं । उनके रोने से अन्य देवपत्नियाँ भी रोने लगीं और प्रभु की दयादृष्टि पड़ते ही भस्म से कामदेव अपने पूर्व रूप में आ अगये और रतिकाम ने शिव शिव की मधुर स्तुतियाँ की । विदाई के समय माँ ने पुत्री को पतिव्रता नारी के धर्म समझाए । फिर गिरिजकुमारी अपने पति के साथ हिमवान के देश से विदा हो गयीं ।

शिव पार्वती सुत कार्तिकेय जन्म की गाथा 
शम्भु शक्ति सुत  श्री गणेश गाथा 


शिवरात्रि की शुभकामनाएं







शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

देवी कथाएँ 4

पिछले भाग से आगे (पढने के लिए ऊपर पुरानों की कहानियाँ tab क्लिक करें )

दक्ष दत्त (सती का) शरीर त्याग कर माता भवानी स्वधाम को लौट गयीं । शिव बड़े संतप्त हुए और कैलाश पर तप को चले गए । समय गुज़रता गया ।

इधर देवतागण ब्रह्मा जी के पास गए, जहाँ उन्होंने बताया कि कुछ आसुरी शक्तियों का नाश विष्णु अवतार करेंगे, कुछ का शिव अवतार, तो कुछ और आसुरी शक्तियों का विनाश सिर्फ जगदम्बिका के अवतारों और शिव भवानी की संतति द्वारा ही हो सकता है । आदिशक्ति जगदम्बिका अब हिमवान और मैना जी के घर अवतार लेंगी । तब देवता गण मैना जी के परिवार ( पितरों ) के पास गए और उनसे मैना जी और हिमवान के विवाह का अनुरोध किया । विवाह के उपरांत मैना जी और हिमवान ने माता की कठोर तपस्या की । ताप फलित हुआ और माता जी ने मैना रानी को दर्शन दिए और वर मांगने को कहा ।

मैना जी ने कहा की हे मातेश्वरी, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वर दीजिये की मेरे सौ अत्योत्तम पुत्र हों, और स्वयं आप मेरी पुत्री के रूप में पधारें । माता ने वरदान दिया और अंतर्ध्यान हो गयीं । समयचक्र में मैना जी ने सौ बलवान पुत्रों को जन्म दिया । उमा महेश्वरी अपने पूर्ण अंश के साथ हिमालय के शरीर में प्रविष्ट हुईं , जिससे वे अद्वितीय आभा से संपन्न हो गए । फिर यथोचित समय पर गिरिराज हिमालय ने, शिवा के इस पूर्णांश को, अपनी प्रिया मैना जी के उदर में स्थापित किया ।जगदम्बा के गर्भ में होने से मैना अत्यंत तेजोमय हो उठीं और सभी देवताओं, ने विष्णु सहित उनकी स्तुति की । गर्भकाल पूर्ण होने पर जगदीश्वरी ने शिशु रूप में मैना जी के घर जन्म लिया । उनका शरीर नील श्याम कान्तियुक्त था । हिमवान जी ने अपनी पुत्री का नामकरण किया, और उन्हें काली इत्यादि सुन्दर नामों से बुलाया गया । सुशीलता के कारण परिवारजन उन्हें "पार्वती" भी बुलाते थे । माँ ने तप को रोकते हुए "उमा" कहा - जिससे उनका नाम उमा भी हुआ ।

दैवीय प्रेरणा से नारद हिमालय जी के घर आये और पुत्री का हाथ देख कर बोले की इनका विवाह ऐसे वर से होगा जो योगी, नंग-धडंग, निर्गुण, निष्काम, मात-पिता रहित , निस्पृह और अमंगल वेशधारी होगा । यह सुन कर भवानी मन ही मन प्रसन्न हुईं, किन्तु माता पिता चिंतित हो गए । उनके उपाय पूछने पर नारद ने कहा कि ब्रह्म लेख झूठा तो हो नहीं सकता, किन्तु अशुभ को शुभ करने का एक उपाय है , कि आपकी पुत्री का ब्याह महेश्वर के साथ हो - क्योंकि उनमे ये सब गुण अवगुण नहीं, बल्कि भव्यता के रूप में वास करते हैं । हिमालय ने कहा कि वे तो निर्मोही और तपरत हैं, वे कैसे मेरी कन्या से विवाह करेंगे, तब नारद ने भवानी को शिव आराधना करने की सलाह दी , और कहा की तुम्हारी पुत्री आदिशक्ति है । शिव इनके अतिरिक्त किसी से विवाह न करेंगे । इनसे संगम होकर ही वे अर्धनारीश्वर कहलायेंगे ।

जब उमा 8 वर्ष की आयु को पहुंची तब शिव को उनके अवतरण के विषय में समाचार आया, और वे अति प्रसन्न हुए, (वे जानते तो पहले ही थे) और लौकिक रीति निभाते हेतु अपने पार्षद गणों सहित गंगावतरण तीर्थ पर जा कर समाधिस्थ हो रहे ।

पुत्री को लेकर पर्वतराज वहां पहुंचे और उन्हें नमन कर के अपनी पुत्री को आगे कर के भगवान् से बोले, हे प्रभु , आप हमारे यहाँ उपस्थित हुए, यह आपकी हम पर असीम कृपा है । हम अपनी कन्या को आपकी सेवा में समर्पित कर रहे हैं, यह सखियों सहित यहीं रहेगी और आपकी सेवा करेगी । कृपया आज्ञा दें ।

महाप्रभु बोले, हे हिमवान शैलराज, आप हमारे दर्शन कर सकते हैं । किन्तु अपनी पुत्री को घर ही में छोड़ आइये , कि हम तो तपस्वी हैं, हमें इससे क्या सेवा लेनी है ? वेद पारंगत विद्वान् ऐसी अत्यंत सुन्दर, तन्वंगी,चंद्रमुखी और शुभ लक्षना युवास्त्री को मायारूपिणी कहते हैं । हे गिरिश्रेष्ठ, मैं योगी हूँ, और माया से सदा दूर रहता हूँ  ।इस पर हिमवान अत्यंत उदास हो उठे ।

अब पार्वती बोलीं, हे आप योगी और ज्ञान विशारद हैं, फिर भी हमारे पिता से ऐसी बात कही ? सभी कर्मो को करने की शक्ति, सर्व प्राकट्य प्रकृति (nature ) ही है । प्रकृति से ही सृष्टि , पालन, और संहार होता है ( जो ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के अधीनस्थ लोक कर्म हैं )। प्रकृति बिना आप लिंग रूप महेश्वर कैसे हो सकते हैं ? आप प्राणीमात्र के वन्दनीय और चिंतनीय हैं, किन्तु आपके मूल में आपकी प्रकृति ही है ।

महेश जी हंस पड़े और बोले ,  मैं तप द्वारा प्रकृति का नाश करता हूँ और तत्वरूप प्रकृति रहित शम्भू रूप में स्थित और विद्यमान रहता हूँ । सत्पुरुष कभी प्रकृति के अधीन नहीं होते । 

माता महाकाली ने कहा, हे प्रभु । अभी जो आपने कहा, वह भी "वाणी" से कहा, और वाणी प्रकृति प्रदत्त है । तब आप प्रकृति से परे कैसे रहे ? जो आप प्रकृति से परे हैं, तो न आप को बोलना चाहिए, न कर्म करना, कि कर्म का किया जाना भी प्रकृति (nature ) है । जो आप प्रकृति से परे हैं, तो हिमालय पर तपस्या क्यों और  कैसे? प्राणियों की इन्द्रियों से सम्बंधित हर वास्तु प्रकृतिजन्य ही है । अधिक कहने से क्या प्रयोजन ? मैं प्रकृति हूँ, और आप पुरुष हैं । आप निराकार निर्गुण हैं और मेरे अनुग्रह से ही आप साकार सगुण होते हैं । आप इन्द्रियों को जीत कर जितेन्द्रिय कहलाते हैं, किन्तु इन्द्रियां मुझसे हैं । प्रकृति अधीन ही आप सब लीलाएं करते हैं । यदि आप प्रकृति से परे हैं, तो मेरे यहाँ रहने से आपको भय कैसा ?

इससे आगे शंकर जी तर्क न कर सके । उन्होंने हिमवान को घर जाने की अनुमति दे दी , और बोले कि हे गिरिजे, यदि तुम ऐसा कहती हो, तो प्रतिदिन मेरी शास्त्र सम्मत विधि से पूजा करो । हिमवान प्रतिदिन वहां आते और पार्वती शंकर जी की विधिसम्मत रूप से आराधना पूजा करतीं ।

इसी बीच ब्रह्मा जी की आज्ञा से इंद्र ने कामदेव को (दक्ष की पुत्री रति कामदेव की पत्नी हैं) शिव के पास भेजा, किन्तु जब कामदेव के वाण से शिव का ध्यान टूटा तो उनकी क्रोधमयी तीसरी दृष्टि से कामदेव पल में भस्म हो गए । रति ने शिव जी की बड़ी स्तुति की और कहा कि मेरे पति यहाँ अपने किसी स्वार्थ वश नहीं आये थे । वे तो देवताओं के कल्याण हेतु आपके और पार्वती जी के ब्याह के लिए अपना धर्म पूर्ण करने आये थे  ।तब शिव जी ने कहा कि भले ही मंतव्य शुभ हो, किन्तु कर्म तो अशुद्ध था, और मन भी उस समय अपने "काम्वेग के बाण" की शक्ति पर गर्वित था । इसलिए कामदेव कोयाह दैहिक क्षति हुई । लेकिन शुभ लक्ष्य होने से उन्होंने बड़ा सौभाग्य भी अर्जित किया है कि वे साक्षात श्री कृष्ण को अपने पिता के रूप में प्राप्त करेंगे । रति की प्रार्थना और निवेदन पर शिव जी ने वचन दिया की अब से कामदेव अनंग रहेंगे, और कृष्णावतार के समय कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में फिर से शरीर प्राप्त करेंगे ।

जारी ...

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

देवी कथाएँ 3


ब्रह्माण्डों  के होने से पूर्व , और ब्रह्माण्डों की समाप्तियों के बाद , जो दैवी शक्ति है (या रहती है) , वैष्णव इसे नारायण / नारायणी या राधकृष्ण का नाम देते हैं, तो शैव इन्हें सदाशिव और आदिशक्ति । ये सत चित और  आनंद हैं,  अव्यक्त, अचिन्त्य, अविकार्य हैं ।

जब शिव और शिवा के मन में यह इच्छा आई कि  सञ्चालन को एक और पुरुष हो, तो एक सत्त्वगुणी पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ, जो व्यापक होने से "विष्णु" कहलाये ।वे तपस्या में विलीन हो गए, और उनके शरीर से अनेक जलधाराएं (जल = नीर) फूटीं और आकाश जलमय हो गया । विष्णु ने (स्वयं) नीर में स्वयं के शेष (भाग) पर शयन किया , जिससे उनका नाम शेषशायी या नारायण भी हुआ । उनसे ही सभी तत्त्व,गुण , त्रिविध अहंकार तन्मात्राएँ,  पञ्च भूत, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ प्रकटीं ।

फिर शेषशायी नारायण की नाभि से कमल उगा, जिसपर ब्रह्मा का प्राकट्य हुआ ।ब्रह्मा के तप पर चतुर्भुज विष्णु प्रकटे, जिन्होंने उन्हें ज्ञान दिया । बाद में किसी तर्क के समाधान के लिए उन दोनों के बीच महान ज्योतिर्लिंग प्रकट हुए, जिन के आदि अंत का पता वे दोनों न लगा सके । दोनों की प्रार्थना पर ज्योतिर्लिंग से उमाशिव प्रकटे । ब्रह्मा को सृष्टि करने और विष्णु को सृष्टि पालने का कर्म मिला ।

ब्रह्मा ने अंजुली भर कर जल उछाला जो अंडे की आकृति में फ़ैल गया और ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ, किन्तु चेतन न हुआ । फिर श्रीविष्णु ने उस अंड में अनंत रूप में प्रवेश किया जिस से वह चेतन हुआ । किसी बात पर क्रुद्ध होकर रोते हुए ब्रह्मा के माथे से रूद्र प्रकट हुए ।

ब्रह्मा के शरीर से (दायें अंगूठे से) दक्ष प्रजापति प्रकट हुए, जिनकी संगिनी हुईं प्रसूति 

ब्रह्मा के कहने पर (रूद्र की अर्धांगिनी बनने के लिए)  दक्ष ने सदाशिव की चिर संगिनी आदिशक्ति, की 3 हज़ार  वर्षों तक, तपस्या और आराधना की और जब माँ प्रकट हुईं तो उनसे कहा "हे जगन्माते, हे जगदम्बिके । सदाशिव ने ब्रह्मा पुत्र के रूप में (रूद्र) अवतार लिए है  । उनकी संगिनी होने के लिए आप मेरे घर पुत्री रूप में पधारें" । माँ ने उन्हें वरदान दिया की मैं तुम्हारी पुत्री तो बनूंगी, किन्तु यदि तुमने कभी भी मुझे अप्रसन्न किया, तो मैं तुरंत तुम्हारी दी हुई देह त्याग दूँगी । दक्ष ने यह शर्त स्वीकार की , और समय के साथ उनके घर में माँ ने सती के रूप में जन्म लिया ।

पति को पाने के लिए ताप करने के बाद सती का ब्याह शिव से हुआ , और एक बार शिव जी के साथ विहार करते सती ने श्री राम को सीता की खोज में पागलों की तरह रोते बिलखते देखा । सती माँ के मन में आया की मेरे पति जिन राम को ईश्वर मानते हैं, वे स्त्री के लिए ऐसे मोहित हैं ? और उन्होंने समयक्रम में श्री राम की परीक्षा लेने के लिए सीता का रूप लिया और उनके सामने गयीं । श्री राम उन्हें तुरंत पहचान गए और पूछा कि हे माते, आप यहाँ वन में अकेली क्या कर रही हैं , शम्भू कहाँ हैं । इसपर सती ने राम की सत्यता जान ली किन्तु दिव्य दृष्टि से यह सब जान लेने पर शिव शम्भू अपने आराध्य की पत्नी का रूप ले चुकी सती को पत्नी रूप में न देख पाए । सती मन में यह जान गयीं और उदास रहने लगीं ।

समयक्रम में  दक्ष ने एक यज्ञ आयोजित किया, जिसमे उन्होंने शिव को नहीं बुलाया । बिना बुलाये भी सती वहां जाना चाहती थीं और शिव जी के समझाने के बाद भी वे गयीं । वहां उन्हें बड़ा अपमानित महसूस हुआ, पिता और बहनों ने उन्हें मान न दिया,  और सिर्फ माँ ने ही उन्हें प्रेम और सम्मान दिया । यज्ञ में सब देवताओं के भाग थे, किन्तु शिव जी का न था, जिस पर सती माँ ने आपत्ति की और दक्ष ने शिव जी के लिए बड़े अपशब्द कहे । इससे कुपित होकर सती वहीं योगाग्नि में दक्ष से जन्मी अपनी देह को त्याग दिया ।

यह जान लेने पर शिव जी ने वीरभद्र को वहां भेजा, जिन्होंने यज्ञ ध्वंस कर दिया और दक्ष की गर्दन काट दी । शिव जी सती के जले हुए शरीर को हाथों में उठाये यहाँ वहां भटकने लगे  ।उनके मोह को तोड़ने के लिए विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से सती माँ के शरीर के टुकड़े कर दिए , जो धरती पर अलग अलग जगह गिरे ।

जिस जगह माँ की "जीभ" गिरी, वहां से अग्नि की जिव्हायें हमेशा निकलती रहती हैं, और वह स्थान ज्वालादेवी के नाम से प्रसिद्द है । मुग़ल सम्राट अकबर ने इस आग को बुझाने के लिए कई प्रयास किये, वहां मोटे मोटे लोहे ले ढक्कन भी ठोके गए, जिन सब को पिघला कर ज्वाला फिर ऊपर आ गयी । बाद में अकबर ने समझा, और प्रायश्चित्त के रूप में वहां सोने का छत्र चढ़ाया ।

किन्तु माना जाता है की माँ ने यह स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वह एक अनजानी धातु में परिवर्तित हो गया ।

जय माता दी ।

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

देवी की कथाएँ 2


नवरात्र पर्व के तीसरे दिन माँ को मेरा प्रणाम पहुंचे ।

आज वैष्णो देवी धाम से जुडी दो कथाएँ कहती हूँ । फिर एक बार दोहरा दूं, कि कथा मेरी नहीं है । जो जानती हूँ, बड़ों से सुना है - बस दोहरा भर रही हूँ ।

1.
कहते हैं कि त्रेता युग में दुष्ट राक्षसों से परेशान देवताओं की रक्षा के लिए एक दैवीय कन्या का अवतरण हुआ, जो "त्रिकुटा" कहलाई । उस कन्या ने वैष्णव धर्म का प्रसार किया , और कालान्तर में "वैष्णो" कहलाई । बाद में पिता की आज्ञा लेकर वे तपस्या को चली गयीं, और श्री विष्णु जी की आराधना करने लगीं । 

तब रामावतार का समय था । श्री राम अपनी पत्नी श्रीसीता जी की खोज में वहां पहुंचे, और उन्होंने त्रिकुटा से अपना नाम और तपस्या का उद्देश्य पूछा । तब उन्होंने श्री राम को बताया कि वे उन्हें मन से पति रूप में स्वीकार कर चुकी हैं , और उन्हें प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रही हैं । श्री राम ने उस अवतार में एक पत्नीव्रत धारण किया था । फिर भी, उनके ताप को निरुद्देश्य न जाने देने के भाव से, श्री राम ने उन्हें कहा कि वे बदले रूप में उनके सम्मुख आयंगे और यदि वे उन्हें पहचान सकीं, तो उन्हें स्वीकार कर लेंगे । 

बाद में श्रीलंका से लौटते हुए श्री राम त्रिकुटा के आगे एक वृद्ध सन्यासी के रूप में आये, जब वे उन्हें न पहचान सकीं  । तब अपने असल रूप में आकर श्री राम ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि वे कलियुग में कल्कि अवतार के रूप में प्रकट होंगे, और तब उनसे विवाह करेंगे । तब तक वे हिमालय के त्रिकूट पर्वत पर रहें , और भक्त जनों की मनोकामनाएं पूर्ण करें ।

----------------------------------------
2.
श्रीधर नामक एक ब्राह्मण, श्री वैष्णो देवी के बहुत बड़े भक्त थे । वह कटरा के पास हंसाली नामक गाँव में रहते थे । एक बार माँ ने उन्हें एक सुन्दर कन्या के रूप में दर्शन दिए, और "भंडारा" करवाने के लिए कहा । ( भंडारा का अर्थ है भक्तों को भोजन करवाना) । श्रीधर धनवान नहीं थे, न ही उनमे भोज करवाने की आर्थिक क्षमता थी । किन्तु माँ के आदेश को सर माथे पर लेकर उन्होंने गाँव के सभी वासियों को आमंत्रित किया । 

उस समय वहां भैरवनाथ नामक एक तांत्रिक वास करते थे । श्रीधर जी ने उन्हें भी बुलाया, और उन्होंने चेतावनी दी कि उन्हें संतुष्ट न कर सकने का परिणाम बुरा होगा । श्रीधर के पास धन तो था नहीं , वे भोज को लेकर बड़े चिंतित थे । तब माँ उनके सामने फिर से प्रकट हुईं, और कहा कि वे चिंतित न हों, वे स्वयं सारा प्रबंध करेंगी । और ऐसा ही हुआ भी । श्रीधर जी की छोटी सी झोपडी में माँ ने 360 व्यक्तियों को बैठाया भी, और भरपेट भोजन भी परोसा । 

भोज में भैरवनाथ ने कहा कि  वे तो तांत्रिक हैं, और निरामिष भोजन उन्हें स्वीकार्य नही। उन्हें तो मांस आदि ही चाहिए। किन्तु कन्या ने इनकार करते हुए कहा कि वैष्णव भोज में सिर्फ सात्विक भोजन ही परोसा जाएगा, तामसिक भोजन नहीं । इस पर क्रोधित होकर तांत्रिक ने अपनी चेतावनी याद दिलाते हुए श्रीधर को डराया , और उसकी रक्षक कन्या पर हमला किया ।

ध्यान देने की बात है कि कई सम्प्रदायों में देवी के आगे पशुबलि का प्रचालन है - जिसका हम पुरजोर विरोध करते हैं । यहाँ माँ का भैरवनाथ को मांसाहार के लिए इनकार उसी विरोध का प्रामाणीकरण है मेरी नज़र में । भैरंव्नाथ तांत्रिक पद्धति के अनुगामी थे और देवी के आगे पशु बली के समर्थन की बात है यह मांसाहार की मांग ।

देवी जानती थीं कि भैरवनाथ एक भक्त है, और वे उसका वध नहीं करना थीं । वे वहां से त्रिकूट पर्वत की तरफ चली गयीं । भैरंव उनका पीछा करने लगा । 

** माँ ने उसकी तरफ एक बाण चलाया, जो धरती में धंस गया और वहां से "बाणगंगा" प्रकट हुई । कहते हैं कि बाणगंगा में स्नान करने वाले भक्त के सारे पाप धुल जाते हैं । नदी के किनारे पर माँ की "चरणपादुका" के निशान हैं ।

** फिर माँ यहाँ से आगे बढीं, और अर्धक्वारी के पास "गर्भ गुफा" में छुप गयीं । यहाँ वे नौ महीने तक रहीं । कहा जाता है कि इस बीच रामभक्त श्री बजरंगबली गुफा के बाहर पहरा देते रहे । 

[** इससे कुछ ऊपर और बढ़ने पर "सांझी छत" आता है , और आखिर में माँ की टेकरी आती है । ]

** यहाँ से निकल कर माँ और ऊपर को बढीं, और भैरंव के हमले करते रहने से उन्हें महा काली का रूप लेना पडा, और माँ ने भैरंव का वध कर दिया । 

सर कट जाने पर कटे हुए सर ने माँ से कहा कि वे जानते थे की माँ कौन हैं, और उन्होंने यह सब इसलिए किया , जिससे माँ के हाथों से मृत्यु होने पर उन्हें मोक्ष मिल जाए । किन्तु उन्होंने दुःख प्रकट किया कि माँ के भक्त उन्हें हमेशा इस शैतानी रूप के ही लिए याद करेंगे । 

इस पर माँ ने उन्हें वचन दिया , कि जो भक्त मेरे दर्शन को आयेंगे, उनके दर्शन तभी सम्पूर्ण माने जायंगे जब वे भैरंवनाथ के स्थान पर भी जाकर दर्शन करेंगे । आज भी भक्त वैष्णो माँ के दर्शनों के बाद भैरंवानाथ के दर्शनों को जाते हैं । 

फिर माँ पिंडियों के रूप में परिवर्तित होकर तपस्यारत हो गयीं । इधर माँ के इंतज़ार में अधीर श्रीधन ने स्वप्न में देखे हुए रास्ते पर उन्हें खोजना शुरू किया, और आखिर पिंडियों तक पहुँच गए । तब से श्रीधर पंडित और उनके वंशज यहाँ पूजा आराधना करते हैं ।
---------------
आभार । जय माता दी ।

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

नवरात्र व्रत कथा : देवी कथाएँ 1


यह कहानी मेरी नहीं है ।

यह नवरात्र व्रत कथा व्रत करने वाले लोग आपस में एक दूसरे से कहते हैं । कहते हैं कि यह कथा बृहस्पति जी के पूछने पर ब्रह्मा जी ने उन्हें सुनाई थी

पीठत नाम के गाँव में अनाथ नामक एक ब्राह्मण रहता था । अवह भगवती दुर्गा का भक्त था और रोज़ उनकी पूजा मिया करता था । उस ब्राह्मण की सुमति नामक एक बेटी थी , जो रोज़ पिता की पूजा में शामिल होती थी।

एक दिन अपनी सहेलियों से खेलने लगी और समय का भान न होने से पूजा में नहीं आई । इस बात पर पिता अत्यधिक क्रुद्ध हुए, और उसे कहा, की हे दुष्ट पुत्री, तूने आज भगवती का पूजन नहीं किया, जिसके लिए मैं किसी कुष्ठी दरिद्र से तेरा ब्याह करूंगा ।

सुमति को बहुत दुःख हुआ, और उसने कहा, हे पिताजी, आपकी कन्या होने से मैं सब तरह से आपके अधीन हूँ । आप जिससे चाहें मेरा ब्याह कर सकते हैं, किन्तु होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा होगा । यह सुन कर पिता का क्रोध और बढ़ गया , जैसे आग में सूखे तिनके पड रहे हों  हो । उसने बेटी का ब्याह एक दरिद्र कुष्ठ रोगी से कर दिया ( यह कथा में है ) ।

वह रात उन दोनों ने जंगल में बड़े दुःख तकलीफ से गुजारी । उसकी ऐसी दशा देख भगवती पूर्व कर्म प्रताप से प्रकट हुईं , और उस से कहा, कि हे दीन ब्राह्मणी, मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ, जो माँगना हो मांग ले । सुमति के पूछने पर देवी ने बताया की मैं ही आदि शक्ति माँ हूँ, ब्रह्मा, विद्या और सरस्वती हूँ । तुझ पर मैं पूर्व जन्म के पुण्य से प्रसन्न हूँ ।

पिछले जन्म में तू निषाद की स्त्री थी, और अति पतिव्रता थी । एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की , और सिपाहियों ने तुम दोनों को जेलखाने में बंद कर दिया । वहां उन्होंने तुम दोनों को खाने को भी न दिया । तब नवरात्र  के दिन थे , और तुम दोनों का नौ दिन का व्रत हो गया। उस व्रत के प्रभाव से मैं तुम्हे मनोवांछित वास्तु दे रही हूँ, मांगो । तब सुमति ने अपने पति को स्वस्थ्य करने की कामना की । देवी ने उसे एक दिन के व्रत के प्रभाव को अर्पित करने को कहा, और सुमति ने "ठीक है" कहा । तुरंत ही उसका पति निरोगी हो गया और उन दोनों ने देवी की अत्यधिक स्तुति की । इसके पश्चात "उदालय"नामक पुत्र शीघ्र प्राप्त होने का आशीष देकर और व्रत विधि बता कर देवी अंतर्ध्यान हो गयीं । 

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

शहीदे आज़म भगत सिंह जी

शहीदे आज़म श्री भगत सिंह जी
shaheed martyr shri bhagat singh ji


आज शहीदे आज़म भगत सिंह जी का जन्म दिन है । इनका जन्म 27 सितम्बर 1907 को नवांशहर पंजाब में हुआ था ।

भगत सिंह भारत के एक स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख और मुखर सेनानी थे। उनका साहस आज के भारतीय युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। इन्होंने केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया, और अपनी गिरफ़्तारी दी । जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च, १९३१ को (आयु 23 बरस 5 महीने ) इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। हमारा भारत देश उनके बलिदान को आज भी बड़ी गम्भीरता से याद करता है । उनके जीवन और चरित्र पर कई हिन्दी फिल्में बनी हैं । कुछ फ़िल्में तो उनके नाम से बनाई गयीं हैं । मनोज कुमार की सन् १९६५ में बनी फिल्म शहीद भगत सिंह के जीवन पर बनायीं गयी फिल्म काफी प्रामाणिक फिल्म मानी जाती है।

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907, शनिवार सुबह ९ बजे लायलपुर ज़िले के बंगा गाँव (चक नम्बर १०५ जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। ( कहीं कहीं इनकी जन्म तिथि 28 सितम्बर भी बताई गयी है ) उनका पैतृक निवास आज भी भारतीय पंजाब के नवाँशहर ज़िले के खटकड़कलाँ गाँव में स्थित है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था , यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज को अपना लिया था।

लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की । काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह उद्विग्न हुए , और उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी "नौजवान भारत सभा" का श्री चंद्रशेखर आज़ाद जी के "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन" में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन"। इस संगठन का उद्देश्य सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। पहले लाहौर में साण्डर्स-वध और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की।

भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्ततः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। बाद में वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि भी बने। दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु, इत्यादि थे।

१९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर बटुकेश्वर दत्तअपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो । दत्त के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० वी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। १७ दिस्मबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, स्काट की जगह, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठा। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया ।

भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से प्रभावित थे। वे समाजवाद के पोषक भी थे। इसी कारण से उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। लेकिन याद रखने की बात है कि "समाजवाद" और "साम्यवाद" अलग अलग धाराएं हैं, COMMUNISM एंड SOCIALISM ARE DIFFERENT - भगतसिंह जी ने कभी कम्युनिस्ट पार्टी को ज्वाइन नहीं किया | उनकी अपनी बनाई पार्टी का नाम भी "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" है,कम्युनिस्ट नहीं है ।  (The word socialist also appears in the preamble of our constitution) उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी।

भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब! - जिन्दाबाद!! साम्राज्यवाद! - मुर्दाबाद!!" का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।

जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे।

२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो ।"

फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।

फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। [ अब यह कैसे माना जाए कि यह उनका शव था भी या नहीं - आखिर सुभाष बाबू की मौत को लेकर भी तो कई सवाल हैं | हमने बस मान लिया जो बताया गया :( ] जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया । एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया।

कहा जाता है कि जेल में रहने के दौरान भगतसिंह जी ने एक पत्र लिखा था "मैं नास्तिक क्यों हूँ" किन्तु ऐसा कोई सबूत नहीं है कि ऐसा कोई पत्र है भी | यह एक सोची समझी भ्रामक बात लगती है | इसी भ्रम को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए उनकी पगड़ी को लाल रंग कर यह दिखाने के प्रयास करे जा रहे हैं की वे कम्युनिस्ट थे - जो सरासर झूठ है । इस  के बारे में अपने विचार रखते हुए जल्द ही एक पूरी पोस्ट लिखूंगी ।

भगत सिंह को विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये । इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया। कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।

आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी।

भगत सिंह जी के जन्म दिवस पर उन्हें प्रणाम, नमन ।

-----
In reference to a comment by Shri Gaurav Rajasthan ka: 

इस लेख में लिखी जानकारी इन्टरनेट से ली गयी है।  जहां तक मेरी जानकारी है, ये जानकारियाँ सही हैं .

लेकिन यह एक प्रामाणिक जीवनी नहीं बल्कि मेरी तरफ से मेरे आदर्श व्यक्तित्व को एक निजी श्रद्धांजलि है।  

सन्दर्भ : विकिपीडिया और अन्य अंतरजाल स्रोत 

शनिवार, 18 अगस्त 2012

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस





नेताजी सुभाष चन्द्र बोस



श्री सुभाष चन्द्र जी के बारे में कौन नहीं जानता ?

जानकारी विकिपीडिया हिंदी से साभार।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, श्री सुभाषचन्द्र बोस "नेताजी" नाम से भी जाने जाते हैं | इनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में मशहूर वकील जानकीनाथ बोस और उनकी पत्नी प्रभावती की नौवीं संतान और पाँचवें बेटे के रूप में हुआ था हुआ था । 18 अगस्त, 1945 को नेताजी लापता हो गए | कुछ लोग इसे इनकी मृत्यु की तिथि मानते हैं,किन्तु यह विवादित है | द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, जापान के सहयोग से नेताजी ने "आज़ाद हिन्द फौज" का गठन किया | उनके द्वारा दिया गया "जय हिन्द" का नारा, आज भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।

१९४४ में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना तक कहा जाता हैं कि अगर 1947 में नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत का विभाजन न हुआ होता। 


कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखा, और उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार,भारत वापस आने पर वे गाँधी जी से मिले, जिन्होंने उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। फिर सुभाषबाबू कोलकाता आए और दासबाबू से मिले।

तब  असहयोग आंदोलन चल रहा था, और दासबाबू इस का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। सुभाषबाबू भी इस आंदोलन में सहभागी हो गए । 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, स्वराज पार्टी ने कोलकाता महापालिका का चुनाव लड़ा, और जीता भी । दासबाबू कोलकाता के महापौर बने , और सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बने  सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की।1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर जब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए तब  कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था । साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा था । पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष थे और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की थी । 

1928 में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी तब पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। वे अंग्रेजों से डोमिनियन स्टेटस माँगना चाहते थे । सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। यह तय हुआ कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए, और यदि एक साल में अंग्रेज़ सरकार यह मॉंग पूरी न करे, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। ऐसा ही हुआ भी, मांग पूरी नहीं की गयी । 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ जहां तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।

26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व करते हुए नेताजी पुलिस के लाठीचार्ज में घायल हुए, और गिरफ्तार हुए । सुभाषबाबू के जेल में रहते गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया । कुछ कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा नहीं दिया। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजीअंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड दे। लेकिन गाँधीजी वचन तोडने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तरिकों से बहुत नाराज हो गए थे ।

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी  को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू बहुत रोये और शव का अंत्यसंस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह माना कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया। सुभाषबाबू ने  देशबंधू चित्तरंजन दास की मृत्यू की खबर मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी। कारागृह में सुभाषबाबू को  तपेदिक हो गया। रिहा करने के लिए शर्त रखी गयी कि वे इलाज के लिए यूरोप चले जाए। लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त नहीं मानी । परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी कि शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाषबाबू की कारागृह में मौत हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा किया। सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।

यूरोप में सुभाषबाबू ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए भी अपना कार्य जारी रखा। वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए थे । सुभाषबाबू के यूरोप में रहते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले । बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से भी मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने "पटेल-बोस" विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की थी । बाद में विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।   विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत पर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ति गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट की ।

1934 में सुभाषबाबू को अपने पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली, तब वे हवाई जहाज से कराची होकर कोलकाता लौटे। कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मौत हो चुकी है । कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हे गिरफ्तार किया और कई दिन जेल में रखकर, वापस यूरोप भेज दिया।

1938 में कांग्रेस का ५१वा वार्षिक अधिवेशण हरिपुरा में तय हुआ था। इस अधिवेशण से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया था । अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी बनाई । 1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया थातब सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने, चीनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया था ।

युरोप में द्वितीय विश्वयुद्धके बादल छाए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बने , जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए प. सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकूर, प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर, बहुत सालो के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव हुए ।

सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए। मगर चुनाव के साथ बात खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने इसे अपनी हार बताकर, अपने साथियों से कहा  कि अगर वें सुभाषबाबू से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ रहे। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर, 29 अप्रैल, 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया। 3 मई, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।

द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम को तीव्र करने के लिए, जनजागृति शुरू की। अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहितफॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपवास शुरू किया। सरकार ने उन्हे रिहा तो कर दिया, मगर उन्हे उनके ही घर में नजरकैद रखा। 16 जनवरी, 1941 को वे पुलिस को चकमा देकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर, फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार की मदद से सुभाषबाबू काबुल की ओर निकल पडे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह सफर पूरा किया। काबुल उन्होने रूसी , जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

बर्लिन में सुभाषबाबू रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान वे नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। 29 मई, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया। कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था, जिस में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से बात की जिसके फलस्वरूप हिटलर ने "माईन काम्फ" की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

सुभाषबाबू को पता चल गया कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलनेवाला । इसलिए 8 मार्च, 1943 को वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर, मादागास्कर के किनारे तक आये । वहां से वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी  पनडुब्बी  तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की  पनडुब्बी  के दौरान, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग तक लाई।

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस नेभारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंपा ।

जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया।  नेताजी ने जापान की संसदडायट के सामने भाषण किया। 21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में "अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद" (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक मदद करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।"

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने "चलो दिल्ली" का नारा दिया। फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का "शहीद" और "स्वराज" द्वीप नामकरण किया। फौजो ने इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पीछे हटना पडा। जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। लेकिन नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मील चल कर जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श बनाया ।

6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना का उद्येश्य बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । इस प्रकार, नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया। 

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी ने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया । 18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये। 23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी, कि 18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी। नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।


स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किये । दोनो बार यही नतीजा निकला, कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन, इन दोनो आयोगो ने ताइवान देश की सरकार से तो बात ही नहीं की। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। कई जगहों पर नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। 

18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।

आज 18 अगस्त के दिन सुभाष बाबु को शत सहस्र नमन , वंदन ।


इस लेख में लिखी जानकारी इन्टरनेट से ली गयी है।  जहां तक मेरी जानकारी है, ये जानकारियाँ सही हैं .लेकिन यह एक प्रामाणिक जीवनी नहीं बल्कि मेरी तरफ से मेरे आदर्श व्यक्तित्व को एक निजी श्रद्धांजलि है।  सन्दर्भ : विकिपीडिया और अन्य अंतरजाल स्रोत ।