फ़ॉलोअर

बुधवार, 16 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १४ : अजामील

अन्य भागो को पढ़ने के लिए ऊपर भागवतम टैब पर क्लिक करें
-----------------

नारायण के नाम में जो शक्ति है उसका प्रभाव बताने के लिए अजामील की कथा कही गयी।

कान्यकुब्ज नामक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था।  पिता श्रेष्ठ ब्राह्मण थे और पुत्र आज्ञाकारी थे। एक पुत्र था अजामील। वह पिता की पूजा अर्चना के लिए वन से सामग्री लाता था। एक दिन अजामील वन में कुश नामक घास, पुष्प और फल एकत्रित कर रहा था कि उसकी नज़र एक मानव जोड़े पर पड़ी जो रतिक्रिया में रत थे। कामक्रीड़ा में खोया पुरुष नशे में धुत्त था और अति आनंदित प्रतीत होता था। स्त्री वेश्या थी और अपने हुनर की माहिर थी, और कामोन्मत्तत होकर कंठ से मदहोशी पूर्ण मैथुनिक स्वर निकाल रही थी । उन दोनों को इस तरह कामोद्दीपक स्थिति में देख कर अजामील कामवासना से भर उठा।  अपनी पत्नी को इस स्त्री से कमतर मान वह उसी स्त्री से कामक्रीड़ा करने को उद्धत हुआ।  उसके बचपन के संस्कारों ने उसे रोकने का प्रयास किया किन्तु उसने अपनी अंतरात्मा का गला घोंट दिया।

अजामील ने अपनी पत्नी, बच्चों और माता पिता को त्याग दिया और वेश्या से विवाह कर लिया।  उसकी संगति में वह ऐसा लिप्त हुआ कि सब धर्म कर्म भूल कर सिफ संसार में मग्न हो गया।  वह भूल ही गया कि अपनी धर्मानुसार ब्याही पत्नी बच्चों और माता पिता के प्रति उसके कुछ कर्तव्य हैं। वह स्त्री ऐशो आराम से रहने, शराब पीने, गहने पहनने आदि की अभ्यस्त थी - और उसके साथ अजामिल भी वैसा ही होता चला गया। इन सब वासनाओं और कामवासना के ज्वर में वह अपने आप को भूल ही गया।  इस सब के लिए धन चाहिए होता है - जिसके लिए वह चोरी और जुआ जैसे काम करता। इस स्त्री के साथ उसके दस पुत्र हुए।

सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण था।  वह बहुत प्यारा था और माता पिता का सबसे लाडला था।  हर वक़्त अजामिल उसी के बारे में सोचता।  खाने बैठता तो बुलाता - नारायण यह खाओ , नारायण यह पियो, नारायण मेरे पास आओ, नारायण मुझसे दूर न जाओ ……

समय बीतता रहा और अजामील को पता भी न चला कि उस का अंतिम समय आ गया है । समय आने पर उसके पापों की सजा देने ले जाने के लिए यमदूत आये और उस पर यम पाश फेंका।  इन भयंकर चेहरों को देख भयभीत हुए अजामिल को सिर्फ अपने प्रिय पुत्र नारायण का ध्यान आया और वह भयाक्रांत हुआ चिल्लाया - "नारायण , नारायण, मेरे पास आओ नारायण" .

उसका यह कहना भर था , कि नारायण दूत तुरंत वहां पहुँच गए और यमपाश को काट दिया।  यमदूत क्रोधित हो कर उनसे कहने लगे - आप लोग कौन हैं जो हमें अपने धर्म (कर्त्तव्य) से रोक रहे हैं ? इस पापी को यमराज के पास ले जाना हमारा धर्म है, और वे ही इसकी सजा तय करेंगे।  आप सब देखने में तो धर्मात्मा दिखते हैं किन्तु हमें अपने धर्म का पालन करने से रोक कर अधर्म कर रहे हैं।

इस पर मुस्कुराते हुए विष्णुदूतों ने उनसे कहा कि यह कैसा भी रहा हो,यमपाश में बंधते समय में नारायण का नाम लेकर इसने अपने सभी पाप नष्ट कर दिए हैं।  क्रोधित यमदूत बोले - यह नारायण भगवान को नहीं अपने पुत्र नारायण को बुला रहा था , और यह जानता तक नहीं कि अनजाने ही इसने प्रभु का नाम ले लिया है ।

नारायण दूत बोले - यह हम भली प्रकार जानते हैं कि इसने नाम अनजाने में लिया है । किन्तु नारायण का नाम इतना दिव्य है कि अनजाने में बोलने से भी उसका दिव्य प्रभाव होता ही है।  जैसे अग्नि की एक चिंगारी लकड़ी पर अनजाने ही पड़े तो भी उसे पूरी तरह जला कर भस्म कर देती है, जैसे सही औषधि बीमार व्यक्ति को दूध आदि में मिला कर अनजाने भी खिलाई जाए तो सकारात्मक असर कर बीमारी को जड़ से मिटा सकती है , ऐसे ही नारायण नाम की शक्ति भी सब पापों को भस्म कर देती है, मिटा देती है।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसने नाम अनजाने में लिया - बस इसने नाम लिया तो इसके पाप नष्ट हुए। इस नाम के उच्चारण से तो ब्रह्महत्या, गौहत्या, गुरुपत्नीगमन कुकर्म, राजहत्या जैसे भयंकर पाप भी धुल जाते हैं। आप लोगों को भरोसा न हो तो आप अपने स्वामी यमराज के पास जाकर उन्हें पूछ लीजिये।

यह सुन कर यमदूत यमराज के पास गए और उन्हें सब हाल कह सुनाया कि कैसे उन तेजस्वी विष्णुदूतों ने यमपाश काट दिया जो हमने पहले कभी होता हुआ नहीं देखा था। हम सोचते थे यमपाश को कोई नहीं काट सकता। उन्होंने हमे अपना कर्तव्य नहीं करने दिया।  इस पर यमराज बोले - इस जगत की रचना ईश्वर ने की है और सबके कर्मक्षेत्र निश्चित किये हैं।  मेरा और आपका भी , और विष्णुदूतों और अजामिल जैसों का भी। उनका नाम तक भी मुझसे अधिक शक्तिशाली है।  उनका नाम लेने वालों को मैं नहीं छू सकता।  आगे से आप लोग सिर्फ उन लोगों पर पाश डाल सकते हैं जो नारायण का नाम भूले से भी न लेते हों। नारायण ने यह संसार अपने ही धागों से बुना है - और हर जीव में वे द्रष्टा बने भीतर व्याप्त हैं।  माया जीव की बुद्धि को ढांक देती है और अविद्यावश वह अपने आत्मन को नहीं पहचानते और पांच विकारों (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) का शिकार होता है।  किन्तु प्रभु का नाम हर पाप को काट देता है।

इधर यमदूतों के जाते ही विष्णुदूत भी अन्तर्धान हो गए।  यमपाश से निकला अजामिल यह सब सुन चुका था।  अब उसकी आँखें खुलीं और वह पछताने लगा। अहो - मैं शुभ कुल में जन्मा, शुभ शिक्षा पायी और सदाचारिणी स्त्री से मेरा ब्याह हुआ। लेकिन कामवासना में पड़ कर अपना धर्म कर्तव्य सब भुला बैठा।  वृद्ध माता पिता की सेवा तो दूर रही , मैंने तो वेश्या के मोह में पड़ कर उन्हें घर से ही निकाल दिया।  नवयौवना सुसंस्कारी धर्मिणी पत्नी को प्रेम और सहारा देने के बजाय मैंने उसे दर दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया। मेरे नन्हे बालकों को पिता के स्नेह और छत की आवश्यकता थी , मैंने उन्हें छतरहित कर दिया।  शराबी बना , जुआरी बना, वेश्या के साथ रहा , और घोर पापाचार किया।  इतना कुछ होने पर भी अनजाने ही नारायण नाम लेने के सौभाग्य से मुझे दोबारा अवसर मिला है।  इस अवसर का लाभ उठा कर मुझे अब पश्चात्ताप करना चाहिए।

अजामील ने संन्यास लिया और गंगा के किनारे प्रभु भक्ति में जीने लगा।  अब उसके कोई मोहबंधन नहीं बचे थे।  शीघ्र ही उसकी मुक्ति का समय आ गया और विष्णुदूत आकर उसे ले गए और वह मोक्ष को प्राप्त हुआ।

जारी ....... 

2 टिप्‍पणियां: