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शुक्रवार, 1 मार्च 2013

क्या हिन्दू धर्म हमें अपने आराध्यों की आलोचना का अधिकार देता है ?

आज रचना जी के ब्लॉग "बिना लाग लपेट के…" पर यह लेख पढ़ा : "ईश्वर - हिन्दू धर्म "। इसमें रचना जी ने हिन्दू धर्म में अवतारों के तत्कालीन सामाजिक बिहेवियर और उसपर हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा होने वाली आलोचना और उसके लिए धार्मिक सम्मति पर लिखा है । इस पर टिप्पणी लिखने लगी , तो वह टिप्पणी पूरी पोस्ट ही बन गयी - इसलिए वहां लिंक दे कर यहाँ पोस्ट के रूप में पब्लिश कर रही हूँ ।

इससे पहले भी मैं इसी "हिन्दू धर्म में अवतारों" की आलोचना , उनकी "मानवीय गलतियों" की आलोचना आदि पर , इस ब्लॉग पर , यहाँ लिखा था , लिंक क्लिक कर आप फिर से पढ़ सकते हैं ।
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-त्रुटी सुधार 
पूरे लेख में "आलोचना" शब्द से अर्थ "निंदा की मंशा से की गयी आलोचना " पढ़ा जाए । यह सुधार आदरणीय सुज्ञ जी के दिए कमेन्ट और "आलोचना" और "निंदा" में फर्क के सन्दर्भ में है ।   
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यह हिन्दू धर्म की "खासियत" या "तारीफ़" की बात नहीं है की हम अपने आराध्यों की आलोचना करते हैं, बल्कि यह हमारी कमी है, कि हमने इसे इतना common बना लिया कि अब यह हमें normal लगने लगा है । एक रेपिस्ट के लिए रेप करना "normal" है, एक चोर के लिए चोरी करना "normal" है, एक डाकू के लिए डाका डालना भी normal है । इसका अर्थ यह नहीं है कि यह सब सच ही में नोर्मल है । .............. और इसी तरह से आराध्यों की आलोचना भी normal नहीं है, और "हिन्दू" या कोई भी समाज / धर्म इसे सही नहीं ही मानते हैं / ठहरा रहे हैं ।

हम ऐसा इसलिए समझने लगे हैं, कि हमें अपने धर्म के बारे में सही जानकारी ही नहीं है । 

जानकारी कैसे हो ? एक तरीका था कि हम धर्मग्रन्थ पढ़ कर जानते - लेकिन हमने तो अपने ग्रन्थ भी नहीं पढ़े (जिससे हम जान पाते) कि हमारा धर्म क्या कहता है (समय कहाँ है हमारे पास यह सब पोथियाँ पढने  के लिए ???) । और दूसरा तरीका था धर्म गुरुओं से आम इंसान धर्म के बारे में जान पाता । वह भी नहीं हुआ , क्योंकि गुरुओं से सीखना तो खैर आज के modern ज़माने में हमें अपनी तौहीन ही लगती है, और सच्चे गुरु भी इस कलियुग में मिलना बड़ा कठिन है :(  :(  ....... तो उस दिशा से भी हम कभी नहीं जान पाए कि "क्या हमें अधिकार है भी या नहीं यह "आलोचना" करने का ।"

अवतारों की आलोचना करने का अधिकार हमें "हिन्दू धर्म" नहीं देता - यह हमारा धर्म के बारे में अज्ञान है जो हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा धर्म हमें इन अवतारों के बारे में "क्रिटिकल" होने का अधिकार देता है । तीन उद्धरण दे रही हूँ अपनी बात रखने के लिए ।

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१. रामायण में बाली राम से प्रश्न करता है कि आपने मुझ पर छुप कर वार क्यों किया - अर्थात आलोचना । राम उत्तर देते हैं कि मेरे निर्णय के कारण मैं जानता हूँ - तुम्हे प्रश्न करने का अधिकार ही नहीं है । अर्थात - जिसे मारा गया - उसे तक भी आलोचना का अधिकार नहीं है , हमारी और आपकी तो खैर बात ही छोड़ दीजिये ।
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२. गीता में कृष्ण कहते हैं कि

(४.६ से ४.९ 4.6 to 4.9 )
"सब जीवों का प्राणदाता, अजन्मा, ईश्वर हो कर भी , मैं , अपनी प्रकृति को अपने अधीन कर (धर्मरक्षा के लिए और अधर्म के नाश के लिए ) प्रकट होता हूं । जो मुझे और मेरे अवतरण को दिव्य जानते हैं, वे मुझे प्राप्त करते हैं"

( ४.१४ 4.14)
"मैं अपने कर्म में लिप्त नहीं होता - इसलिए कर्मफल में नहीं बंधता । और जो ज्ञानीजन इस बात को समझते हैं वे भी कर्म से नहीं बंधते "
****(आपके शब्दों में "कर्मों की आलोचना" - यह भी कर्म फल ही होता है , और यह ज्ञानीजन नहीं करते)****

(९ .९ से ९ . ११ 9.9 to 9.11 )
" मैं सब कर्मों को करते हुए भी उनमे आसक्ति नहीं रखता, तो कर्म मुझे नहीं बाँध सकते । जो "मूर्ख" इस बात को नहीं समझते, वे मूर्ख , मानव रूप में विचरण करते हुए मुझ "दिव्य" को नहीं पहचानते और मेरी आलोचना करते हैं । वे मोहित हुए (माया से, अपने अज्ञान को ज्ञान समझ कर के मोह में विमूढ़ / बेसुध हुए ) इन "राक्षसी" और "नास्तिकता की" बातों की ओर आकर्षित होते हैं, और मुक्ति की संभावनाओं से दूर होते जाते हैं ।
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३. रामचरित मानस में जब शिव जी सती जी को राम जी की लीलाएं सुनाते हैं तो सती जी इस "मानव अवतार" के "परमेश्वर" होने पर अविश्वास करती हैं, राम जी की मानवी लीलाओं की "आलोचना" करते हुए प्रश्न करती हैं , कि "ऐसे मूर्ख मानव संवेदनाओं में बहने वाले को आप परमेश्वर कहते हैं ?" तब शिव जी उन्हें बहुत समझाते हैं, कि यह सब लीला है और प्रभु की "आलोचना" करना महापाप है । 

किन्तु सती जी को समाधान नहीं होता और वे अपनी "आलोचना" पर मन ही मन अडिग रहती हैं । इस पर एक बहुत लंबा वर्णन है जिसके अंत में शिव द्वारा मानस रूप से सती जी का त्याग होता है, और आखिर सती जी भी मानव संवेदनाओं की ही लीला रचते हुए (जिन संवेदनाओं की उन्होंने राम जी में आलोचना की थी) अपने पिता की यज्ञशाला में आत्मदाह कर लेती हैं ।

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यह तीनों वर्णन कहने का मतलब है कि "धर्म" आपको , या मुझे , या किसीको भी , ईश्वर की / अवतारों की , "आलोचना" करने आ अधिकार नहीं देता । यह तो पिछले ६-७ शताब्दियों में विदेशी धर्मों के विदेशी प्रचारकों (और बाद में विदेशी प्रचारकों और देशी धर्मान्तरित अव्लम्बियो, जो भूल चुके थे कि उनके पुरखों को कैसे धर्मान्तरित  किया गया था ) की फैलाई हुई सीख है जो हिन्दुओं को इस भ्रान्ति में डाल रही है कि "तुम अपने आराध्यों की "आलोचना" करने को स्वतंत्र हो ।"

क्योंकि उस पराधीन कालखंड में (पहले मुग़ल और फिर ब्रिटिश राज्य के कालखंड ) यह "आलोचना" राज करने वालों "शक्तिवंतों" की ओर से आती थी , विरोध करने का अर्थ मृत्युदंड था ।  इसलिए यह सदियों तक सुनते सुनते जनमानस के मन में "acceptable" हो गयी । 

माता पिता भी सत्य बताते हुए डरते , कि आखिर बच्चे तो बच्चे होते हैं, उन्हें सत्य कहा , तो वे बाहर कह देंगे, और मारे जायेंगे । तो वे बच्चों को "बड़ा" होने पर बताने के लिए बात को टाले रखते । लेकिन विडम्बना यह है कि , बच्चे बड़े होने तक उनकी विचारधाराएं पक जाती है, उनके मन में "आलोचना" पक्की बैठ जाती है । यही हमारे धर्म के साथ हुआ ।

फिर देश में सरकार बनी जो हमें "secularism" की पट्टी पढ़ाती रही, इतिहास की पुस्तकों से वह सब क्रूरताएं छिपाई रखी गयीं कि किस तरह "हिन्दू" को जबरन धर्म के बारे में भ्रमित किया गया । इसलिए हम यही समझ रहे हैं कि यह "आलोचना" सही है, बल्कि इससे भी आगे बढ़ कर यह समझ रहे हैं कि हिन्दू धर्म की सीख ही है कि आराध्यों की आलोचना करो । जबकि यह अर्धसत्य है, जो झूठ से भी अधिक खतरनाक होता है ।

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"साम" "दाम" "दंड" "भेद" ये चार तरीके होते हैं मनुष्य को उसके विश्वासों से डिगाने के लिए । इस "धर्म निंदा और धर्मांतरण" के सिलसिले में, जब हिन्दू "गुलाम" थे और "दुसरे धर्मों वाले" हमारे राजा थे, इन चारों नीतियों को ऐसे इस्तेमाल किया गया । 

साम का अर्थ है समझाइश : हमें समझाया गया कि हमारे आराध्य "imperfect" हैं, उन्होंने तो बहुत सी "मानवीय भूलें" की हैं, वे आराधना के योग्य हैं ही नहीं ।

दाम का अर्थ है : जो गरीब / दरिद्र थे - उन्हें धन के बल पर / पैसे दे कर / जमीन दे कर आदि धर्मान्तरित किया गया ।

दंड अर्थ है - सजा के डर से (टार्चर) 
( गूगल इमेजेस में "gurudwara mahtiana sahab" डाल कर सर्च कीजिये । कुछ अंदाज़ होगा की धर्म परिवर्तन स्वीकार न करने पर किस तरह माओं के आगे उनके दुधमुंहे बच्चों को काटा गया - पहले एक हाथ , फिर दूसरा हाथ , फिर एक पैर ..... :( ।  देखिएगा , कैसे साधू को लकड़ियों में बाँध कर उनके शरीर को आरी से दो भागों में काटा गया, पानी / तेल के बड़े बर्तन में खडा कर के आग पर उबाला गया , कैसे सर की चमड़ी बालों सहित खींच कर उखाड़ ली गयी , आदि…। इसी सब से हिन्दू धर्म और समाज की रक्षा के लिए सिख गुरुओं ने "सिख" बनाए ।

पंजाब के हर "हिन्दू" परिवार का एक बेटा मोना (हिन्दू) होता तो दूजा बेटा सिख । लेकिन आगे औरंगजेब ने दसवें सिख गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी, के सभी सुपुत्रों को मरवा दिया , तो गुरु परम्परा आगे न बढ़ सकी और हमें यह सिखा दिया गया कि "सरदार" के "मूर्ख" होने पर चुटकुले बनाए , सुनाएं, और उनकी हंसी उडाये - जिससे उनका मनोबल भी टूटे और हमसे "भेद:" भी हो ।:(

भेद का अर्थ है जनसँख्या के एक समूह को यह समझाना कि दूसरा समूह तुम्हारा शत्रु है, तुम्हारा शोषण कर रहा है । या इसके -उलट  की वह समूह मूर्ख है, तुमसे नीचा है । नफरत की ऐसी बेल बोई गयी कि "हिन्दू" भूल ही गया कि वह क्या था । वह स्त्री और पुरुष, उच्च वर्ग और निम्न वर्ग, सिख और हिन्दू , मद्रासी और हिंदी, जाति आदि में विभाजित हो कर "धर्म आलोचक" बन गया ।
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मैं यह सब कह कर सिर्फ इतना समझाने का प्रयास कर रही हूँ कि हिन्दू धर्म हमें कदापि अपने आराध्यों की आलोचना करने की स्वतन्त्रता नहीं देता, यह हमें झूठी पट्टी पढ़ाई गयी है , समय आ गया है की अपनी आँखों पर बंधी पट्टी को हम उतार फेंकें ।