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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

श्रद्धांजलि

शब्द नही हैं, कहने के लिए जो महसूस कर रही हूँ ।

प्रिय अजेया कन्या, लोग तुम्हे जाने कौन कौन से नाम देंगे, अजेया, निर्भया, दामिनी .... ।

मेरे लिए - तुम अभिमन्यु थीं - जिसने अनेक दुष्टों से घिर कर भी हार नहीं मानी और संघर्ष किया - सांस रहने तक । तुम द्रौपदी भी हो, तुम अभिमन्यु भी । मुझे तुम पर गर्व है ।

तुम द्रौपदी हो जिसके मान पर हमला किया गया, तुम अभिमन्यु हो , जो सत्य के लिए लडती हुई शहीद हुईं । गर्वित हूँ मैं तुम पर , और शर्मिन्दा हूँ इन कापुरुषों पर ।

** जहां के अंधे सत्तालोलुप राज्य अधिकारी "धृतराष्ट्र" अपनी बेटियों के चीरहरण को मौन समर्थन देते रहेंगे,
** जहां के राजपुत्र बहू बेटियों को वेश्या कह कर संबोधित करेंगे और उनके चीरहरण को अपना अधिकार बताएंगे , चीरहरण की कीमत तय करेंगे
** जहां के पितामह अपने बेटे की बेहूदगी को अपने वचन की ढाल के पीछे छुप कर मौन समर्थन दें,

वहां हमेशा अभिमन्यु शहीद होते हैं ।

तुम अभिमन्यु थीं, मैं तुम्हारे शौर्य को प्रणाम करती हूँ ।

उस बेटी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि जिसने सिर्फ "लड़की शरीर" ले कर जन्म लेने की इतनी क्रूर सजा भुगती ...

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क़ानून में बदलाव सम्बन्धी सुझाव भेजने का पता :

ई मेल: justice.verma@nic.in
फैक्स: 011- 23092675
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सभी मित्रों से प्रार्थना है --- कृपया एक जनवरी की तारीख को, नव वर्ष के अर्थहीन सुखमय गीतों के बजाय , बलात्कार सम्बंधित केसों की सुनवाई के लिए
*** अखिल भारतीय स्तर पर (सिर्फ फेमस हुए केस नहीं हर केस के लिए)
*** स्थायी तौर से 
*** "फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट्स"
की मांग को लेकर पोस्ट लिखें ।
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जो हैवानियत एक बच्ची के साथ हुई वह किसी और के साथ न हो, इसके लिए प्रयत्न करें ।

बहुत से स्त्री / पुरुष यह भी कह रहे हैं कि "वह रात में बाहर क्यों थी लड़की हो कर" वे यह बात ध्यान में रखें कि, बलात्कार तो  3 साल की बच्चियों के साथ भी हो रहा है - अपने ही घर में । उन  साथियों से अनुरोध है, कृपया यह याद रखिये - जो बरबरता उस बच्ची के साथ हुई - वह किसी पुरुष के शरीर के साथ भी हो सकती थी । इसलिए इसे "स्त्री मामला" मान कर नज़र अंदाज़ न करें, न ही सुपीरियर स्माइल्स के साथ चुप्पी रखें ।

कृपया जागें - कुछ करें ।
स्त्री सिर्फ शरीर भर नहीं है, सिर्फ माँ भर नहीं है, कोख भर नहीं है, वह मनुष्य है ।

और उसे शरीर के रूप में देखना, यह सोच रखने वाले मन को नीचा साबित करता है, स्त्री को नहीं । लेकिन इसकी सजा स्त्री भुगतती है ।
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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

स्त्रियाँ, स्त्री अधिकार, अपशब्द और कांग्रेस पार्टी

अपने सुझाव भेजें :
ई मेल: justice.verma@nic.in
फैक्स: 011- 23092675
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कांग्रेस 1 : 
दिग्विजय सिंह : राखी सावंत "एक्सपोज़" करती हैं लेकिन उस में कुछ ....

कांग्रेस 2 : 
आंध्र प्रदेश के कोंग्रेस चीफ, (साथ ही एक मिनिस्टर / मंत्री होते हुए भी) :  देश को आधी रात को आज़ादी मिली का मतलब यह नहीं कि लड़कियां आधी रात को बाहर घूमें, ....... दिल्ली की एक "छोटी सी घटना" पर इतना बवाल किया गया ।

कांग्रेस 3 : 
कांग्रेस स्पोक्स पर्सन - टीवी वार्ता में स्मृति इरानी से (4-5 बार दोहराते हुए) : तू तो टीवी पर ठुमके लगाती है .... तेरा क्या चरित्र है ? ...... शटअप ..................

कांग्रेस 4 : 
केंद्रीय मंत्री : पत्नी/ औरत पुरानी हो जाती है तो  मजा नहीं ............. :( :(

कांग्रेस 5 : 
संसद सदस्य अभिजित मुखर्जी, (जो राष्ट्रपति के पुत्र भी हैं ) : 
* dented and painted women, ...........
* who go for candle marches for fashion, ..............
* older women with kids can't be students .................
(truth of the matter is, many many many women i know have been full time MTech students after having two kids, and, I myself Shilpa Mehta, at 43, with a kid, am a student, and i do not stay away from either makeup, or discotheques or candle marches. i have the right as a citizen, and mr abhijit cannot intimidate me to stay away from ANY of these things or to chose between them)...........
* these youth from college - we have been to college and we "know:" what is the "character" of students........
* these protests have "little connection" with ground realities..........
* they go for discotheques at night and come for protests in the day ............
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after all these shocking displays of what is the position of women in their leaders minds, what is their mindset about women, still,

NOT A SINGLE DISCIPLINARY ACTION AS YET FROM THE RULING PARTY ON THESE PEOPLE _ AND THEY CLAIM TO CARE FOR WOMEN"S RIGHTS
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

send in your suggestions

send in your suggestion for reforms in the laws for crimes on abuse of women, women's rights

fax :  011 23092675
email :  justice.verma@nic.in

I have sent in a few . my suggestions are also here : link 

just hope this  "once upon a time this was a great nation" will again become "a great one" some day......

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please write a post on this on 1st jan 2013

stop playing petty politics and slandering your opponents, and come together for this cause.

don't dilute it by talking of other personal disagreements and hatreds,

this time will not come back,

this is a chance when the youth sitting drenched with cold water cannons on delhi streets in the cold foggy nights have provided us a chance to DO SOMETHING -

don't let it slip by
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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

सभी ब्लोगर बंधुओं से अनुरोध



सभी ब्लोगर्स से अनुरोध : अपने निजी ब्लॉग उद्देश्यों से परे , इस बात पर समवेत हों , एक हों ।


हो सकता है निजी तौर पर हम एक दुसरे के आज साथ हों या विरोध में हों - लेकिन यह विषय हमारी निजी पसंद और नापसंद से बड़ा है ।

हम सब ने देखा जो हुआ दिल्ली में, और यह भी देखा है कि क्या होता आया है हमारी न्याय व्यवस्था में, सामाजिक व्यवस्था में । कृपया दस दिन के उबाल के बाद बात को ख़त्म न हो जाने दें ।


इस बार """" एक जनवरी """" को :

बिना प्रतिहिंसा के, बिना प्रतिक्रियावाद के और बिना वायवीय बातों के बहुत ही फोकस्ड तरीके से ऐसे जघन्य बलात्कार पीड़िताओं के हित में, उनके परिवार के हित में और समस्त स्त्री जाति के हित में पूरे देश में फास्ट ट्रैक न्यायपीठों की स्थापना के बारे में माँग करते हुये लिखें जहाँ अपराध स्वयं सिद्ध है।

पढ़ें गिरजेश जी की पोस्ट "सभी ब्लॉगरों से एक अपील"

मैं लिखूंगी उस दिन इस एक ही विषय पर । कोई निरर्थक नव वर्ष शुभाशाओन के गीत नहीं - कि शुभाकांक्षाएं सम्पूर्ण नहीं हो सकतीं जब तक आधी आबादी निरंतर भय में जीती है । 

जो बच्ची दिल के अस्पताल में पडी है, वह हम में से कोई भी ,या हमारी बहन , बेटी , माँ , - हो सकती थी - बल्कि है । 

कृपया एक दिन सब मिल कर पूरी एकता से प्रयास करें - मैं लिखूंगी एक जनवरी को । क्या आप मेरे साथ हैं ?

रविवार, 9 दिसंबर 2012

भक्ति और ज्ञान

पोथी पढ़ कर जग मुवा
पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय ....

कितना सच है यह।

दो मार्ग हैं :-
वृहद् प्रेम (भक्ति) , और ज्ञान । 

ओशो हमेशा कहते हैं कि भक्ति प्रेम का ही शीर्षासन से सीधा खडा हो जाना होता है । प्रेम जब एक "व्यक्ति" पर केन्द्रित हो, तब वह बीज रूप है, और जब समस्त अस्तित्व से हो जाए - तब वही भक्ति का वृक्ष हो जाता है।

लेकिन अस्तित्व से प्रेम करना बड़ा कठिन है, क्योंकि वह अकेंद्रित है । भक्ति संसार के केन्द्रित रूप से करना आसान होता है - इसीलिए "राम", "कृष्ण","जीज़स", "GOD", "मातारानी", "गणपति बप्पा", "ईश्वर" या "शिव" ......ये "व्यक्ति" रूप में समूचे अस्तित्व का समन्वय प्रकट होते हैं, और भक्ति केन्द्रित हो जाती है , संभव हो जाती है ।

जब हम व्यक्ति से प्रेम में होते है (शीरी का फरहाद से , या मजनू का लैला से प्रेम) तो उस प्रेम के केंद्र के अलावा कोई वस्तु हमें नहीं खींच पाती - खींच ही नहीं सकती । पथ भ्रष्ट होने का प्रश्न होता ही नहीं , क्योंकि वह प्रेम इतना गहन है, इतना आकर्षक है, कि कोई और आकर्षण उससे अलग कर ही नहीं पाए । सोनी को चहुँ दिश महिवाल ही भासता है, और राधा को कृष्ण के अलावा कुछ नहीं दीखता । जब उद्धव गोपियों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं , तो वे हंसती हैं - कहती हैं कि आप तो पंडित हैं - हमारे "तुच्छ" प्रेम को आप क्या जानेंगे ? वह आते तो हैं उनके "तुच्छ" प्रेम को हटा कर उन्हें ज्ञान मार्ग दिखाने - किन्तु होता उल्टा यह है कि वे खुद ही भक्ति मार्ग पर चल पड़ते हैं ।

किन्तु ज्ञान मार्ग पर हम पोथियाँ पढ़ते हैं - जो हमें सिखाती हैं कि ज्ञानवान व्यक्ति को छोटी छोटी बातों से विचलित नहीं होना चाहिए , और यह सच भी है । तो हम वह सीख लेते हैं । परेशानी यह हो जाती है - कि यह बात ज्ञान मार्ग के यात्री को सिखाई जा रही थी - किन्तु वह यात्री इसे सभी पर लागू  कर देने लगता है । वह भूल जाता है कि उन पोथियों में लिखी बातें उसने (और संभवतः उसके परिवार जनों ने) तो जानी और पढ़ी हैं, किन्तु "सभी" ने नहीं पढ़ीं । वह सभी मनुष्यों से अपेक्षा रखने लगता है कि वे ज्ञानी हों, और उनके दर्दों को भावनाओं को नज़रंदाज़ करने लगता है , छोटा मानने लगता है (और ज्ञान का प्रकाश जहां हो वहां वे छोटे दुःख और दर्द तुच्छ हैं भी - किन्तु भूल यहाँ हो जाती है कि वह यात्री यह भूल ही जाता है कि ज्ञान का प्रकाश सबके पास है नहीं )। वह बड़े बड़े गूढ़ शब्द उपयोग करता है अपनी बातें कहने के लिए - यह भूलते हुए कि "सब" जो उतने ज्ञानी नहीं हैं - वे तो उन शब्दों को उक्तियाँ या मुहावरे भर नहीं समझेंगे - उन्हें वे शब्द शूल की तरह चुभ सकते हैं ।

गीता में कृष्ण- अर्जुन संवाद में भी यह बात आती हैं की ज्ञान मार्ग श्रेष्ट तो है - किन्तु इस मार्ग पर अहंकार के चलते च्युत हो जाने का भय बहुत है । वेदों की घुमावदार बातों में उलझना बहुत सामान्य है । अहंकार इतना दबे पाँव आता है कि मनुष्य जान ही नहीं पाता कि वह कब आ गया ।

अच्छा हो यदि व्यक्ति अपने दस साल पुराने और आज के चित्र देख कर मिलान करे और देखे कि दोनों चित्रों में उम्र के फर्क के अलावा कहीं आँखों में विनय की जगह अहंकार तो नहीं दिखने लगा है ?

एक कविता (यदि इसे कविता कहा जा सके तो ) प्रस्तुत है

आओ चले हम
ज्ञान से प्रेम की ओर
अहंकार से समत्व की ओर
मैं से हम की ओर

ज्ञान की गाडी में चलते
मार्ग चलते दूसरे पैदल राही
हमें मार्ग के कीड़े न दिखें

नेक रस्ते पर जब हम चलें
भूल से भी भूल न करें
दूसरों को जय नहीं ,
मन पर हम जय करें

आईने में जिस देख कर
खोज स्वयं की करें
पडी धूल उस आईने पर
उसे रोज़ साफ़ करें,
अपने बिम्ब की शुभ्रता पर
मन को मिहित न करें,
परिदृश्य में धूमिल पड़े,
श्याम बिम्ब भी हमें दिखें ..

गाय को हम पूजते
गाय सरीखे मन बनें
शांतता गौ के नेत्रों की
निज नेत्रों में उतार लें
गौ माता के प्रेम को
निज मनस में हम उतार लें ...

हम ज्ञान के मार्ग को
बस मार्ग भर ही रहने दें
उस ज्ञान को निज मस्तक पर
नहीं सवार हम करें

हे प्रभु हमें तुम प्रेम दो
हे प्रभु हमें तुम दे दो ज्ञान
असत से सत को
तमस से ज्योति को
बढ़ पाएं हम हो ज्ञानवान ...
  ...

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

उपनिषद् सन्देश 4 प्रस्तावना 4



पिछला भाग 

सत्य के चार रूप उभर कर प्रकट हो आते हैं : ब्राह्मण , इश्वर , हिरण्यगर्भ , और विराज (संसार) । इसलिए ब्राह्मण को चतुष्पात कहा गया । फिर संसार रचना कर्म , पालन कर्म , और विलयकर्म के अनुरूप इश्वर के भी तीन रूप कहे गए - ब्रह्मा, विष्णु , महेश ।

बुद्ध इस सत्य को "शून्यता" कहते हैं - जो न स्थूल है न सूक्ष्म , न प्रकाश है न अन्धकार, न चमक है न छाया, भीतर है न बाहर .... या यह कहें की किसी भी एक परिभाषा में बंधा नहीं है - या यूँ कहें कि यह सब कुछ है । किन्तु यह कहना कि ब्राह्मण के स्वभाव को , प्रकृति को परिभाषित नहीं किया जा सकता - इसका यह अर्थ नहीं  की ब्राह्मण का कोई निज स्वभाव है ही नहीं । वह सत चित और आनंद के रूप में परिभाषित होता है - किन्तु यह भी हमारी भाषा की लघुता है - इसमें भी वह पूर्ण रूप में नहीं उतरता , बस सिर्फ एक सन्निकटन है ।

सूत्रकार में अपुरुष विधा  (ब्राह्मण) और पुरुष विधा (इश्वर) को प्रथक प्रथक बताया गया है । ब्राह्मण श्रवण ,जागृति, और स्वप्न स्थितियों से परे हैं । कार्य ब्राह्मण और कारण ब्राहमण की प्रथक अवधारणायें हैं । वैदिक देवतागण इश्वर के अधीन हैं ।

फिर आत्मन क्या है ? आत्मन वह है जो "मैं" के अतिरिक्त सब कुछ निकालते जाने के पश्चात बचा रहता है । जो अजन्मा है, अमृत्य है । आत्म ज्ञान होने के पश्चात ही वह अनावृत्त होता है - तब तक वह अहंकार के परदे में छिपा रहता है । चांदोज्ञ उपनिषद् में देवगण और दानवगण प्रजापति के पास आते हैं - जो कहते हैं कि  आत्मन हर पाप और पुण्य से परे है । वे देव और दानवगण क्रमशः इंद्र और विरोचन जी को अपने अग्रणी बना कर प्रश्नकार के रूप में भेजते हैं । पहला संकेत होता है कि आत्मन वह है जो हमें जल पड़ती छाया में, या सामने वाले की आँख में , या फिर आईने में दिखे । किन्तु प्रजापति कहते हैं कि अब तुम अपने सबसे अच्छे परिधान पहन कर आईने में छवि देखो । तब इंद्र कहते हैं कि तब तो वह रूप बदल जाएगा जो हम देख रहे थे । तब तो यह अपरिवर्तनीय नहीं - और जो परिवर्तनशील हो वह आत्मन नहीं हो सकता ।

दूसरा सुझाव है - कि यदि यह शरीर जिसकी छाया जल में र्पतिबिम्बित होती है - वह आत्म नहीं तो क्या इसके भीतर बैठा स्वप्नदर्शी आत्मन है ? जो इस जीवन का "स्वप्न" देख रहा है ? इंद्र फिर से कहते हैं कि  यद्यपि यह भीतर बैठा दृष्टा इस शरीर रुपी वस्त्र के बदलाव से प्रभावित नहीं होता, तथापि, हम स्वप्न में भी जब हमें चोट लगती है तब हम दर्द भी महसूसते हैं और अश्रु भी बहाते हैं । स्वप्न में हम क्रोधित भी होते हैं, सुखी और दुखी भी । तब तो आत्मन "स्वप्न बोधिता" भी नहीं हो सकती ... आत्मन हमारी मानसिक स्थितियों का संयोग भर ही नहीं है - भले ही वे मानसिक परिस्थितियाँ कितनी ही अलग अलग प्रतीत होती हों । इंद्र फिर प्रजापति से प्रश्न करते हैं, जो अब तीसरी बार सुझाते हैं कि शायद गहरी निद्रा (जिसमे सपने नहीं आते) की स्थिति का भीतर से बोध कर्ता ही आत्मन हो ? इंद्र का विचार है कि इस स्थिति में न हम स्वयं को जानते हैं, न संसार को - सब कुछ विलय हो चुका होता है, किन्तु तब भी अस्तित्व तो है ही । विषय-वस्तु / परिलक्ष्य के न होने पर भी इस स्थिति में आत्मपरकता या विषय तो होता ही है । आखिर में इंद्र  कहते हैं कि आत्मन "सक्रिय सार्वभौमिक चेतना" है , जो न शारीरिक रूप में चेतना की सीमित अवस्था है, न स्वप्न का अशरीरी सोता हुआ स्व बोध, और न ही गहन निद्रा का सुशुप्त बोध है ।

यह आत्मन प्रकाशों का प्रकाशक है, यह सतत , स्थायी, आलोक है, जो न जीता है न जन्मता है न मरता है । न यह गतिशील है, न स्थावर है , न परिवर्तनशील है न अपरिवर्तनीय है । यह अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी है । यह द्रष्टा भी है और दृश्य भी । यह साक्षी है और साक्ष्य भी । 

जारी ....