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बुधवार, 30 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.९, २.१०

संजय उवाच 
एवमुक्त्वा हृषीकेशं , गुडाकेशः परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ||

निद्रा को जीतने वाला अर्जुन ,  हृषीकेश (कृष्ण ) से , "हे गोविन्द, बस, मैं युद्ध नहीं करूंगा " ऐसा कह कर चुप हो गया |      

इतने सारे तर्क (या वितर्क ?){कि उसे युद्ध करना उचित क्यों नहीं है } देकर अर्जुन अपने आप को convince कर चुका है कि यह युद्ध नहीं करना ही उसके लिए उचित है | 

ध्यान दें कि 
(१) वह सुशिक्षित है, अपना कर्त्तव्य जानता है | यह भी जानता है कि धर्मयुद्ध से पलायन धर्म विरुद्ध है 
(२) यह भी कि वह "अहिंसा" के लिए नहीं, बल्कि प्रियजनों की मृत्यु के डर से यह कर रहा है | 
(३) यदि प्रिय पितामह और गुरुदेव (और कौरवों में से कुछ गिने चुने प्रिय भाई ) बच सकें, तो उसे युद्ध में होने वाली हिंसा / खो जाने वाली जानों ) से कोई आपत्ति नहीं है - वह कोई अहिंसावादी नहीं है - पहले भी कई सारे युद्ध कर चुका है, और आगे भी करेगा | 
(४) यह भी जानता है कि मैं प्रियजनों के मोह में पड़ कर अपने कर्त्तव्य से भाग रहा हूँ | अभी पीछे ही कृष्ण को गुरु कह कर उनकी शरण स्वीकारी है, अभी ही उन्ही गुरु को अपना निर्णय दे रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा - कि यह उचित नहीं है | 
(५) अभी दो श्लोक पहले उसने कृष्ण को गुरु स्वीकारा और उनकी शरण में आया , यह कह कर कि "शिष्यस्ते अहम् , शाधिमाम त्वाम प्रपन्नम"

अब, जब तुम जानते ही हो कि क्या करना उचित है और तुम्हे क्या करना है, और तुम स्थिर हो कि तुम वही करोगे,  तो कैसी शरणागति ? यह ऐसा है कि बच्चा teacher से कहे कि मुझे maths नहीं आता, सिखाइए, फिर जब teacher कहे कि २+२=४ तो बच्चा बोले कि नहीं यह तो ३ होना चाहिए, ४ नहीं | :)

पर कृष्ण तो सद्गुरु हैं न? वे कैसे अपनी शरण में आये अर्जुन को गलत राह पर जाने देंगे ? तो वे उसे समझाते हैं अब |
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तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||

उसकी इन बातों को सुन कर, हँसते हुए से, श्री कृष्ण ने , दोनों सेनाओं के मध्य खड़े हुए ,उस दुखी (अर्जुन) से ,ये वचन कहे  |


कृष्ण हंस रहे हैं | किन्तु यह हंसी शिष्य की हंसी उड़ने वाली हंसी नहीं, बल्कि उसे encouragement देने के लिए, उसका tension कम करने के लिए है | उन्हें अर्जुन के सारे विरोधाभास दिख रहे हैं, जो उसे स्वयं को नहीं दिख रहे |


युद्ध से पहले जब कृष्ण युद्ध टालने के प्रयास कर रहे थे - तब यही अर्जुन युद्ध के लिए लालायित था | उस पर तब प्रतिशोध का भूत सवार था | तब भी यह विदित था कि युद्ध होगा तो किनसे लड़ना होगा, कौन प्रिय जन जान हथेली पर ले कर युद्ध करेंगे | किन्तु तब उसने युद्ध चुना | इसलिए नहीं कि यह न्यायोचित या धर्मोचित था, बल्कि इसलिए कि उसे द्रौपदी के अपमान का बदला लेना था |


कृष्ण और युधिष्ठिर युद्ध टालना चाहते थे, किन्तु चारों छोटे पांडव भाई युद्ध चाहते थे | अब युद्ध छिड़ गया है, भेरियां बज गयी हैं | अब युद्ध छोड़ देने का अर्थ है, अन्याय को धर्म पर जीत जाने देना | 


यहाँ से असल गीता का ज्ञान दिया जाता है | यह सब सिर्फ भूमिका थी | अब कृष्ण का गीत है - जिसे श्रीमद (श्री)- भगवद (भगवान की) गीता (गीत) कहते हैं | यह दिव्य गीत अगले श्लोक से शुरू होगा |


इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 
जारी 

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disclaimer:
कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  
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मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं - कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के "सही" होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है "ज्ञानी" - और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

श्रीमद्भगवद्गीता २.८

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्यात
यच्छ्होकमुच्छोषणमिन्द्रियाणां |
अवाप्यभूमावसपत्नंरिद्धं
राज्यं सुराणामपिचाधिपत्यं ||

अर्जुन ने कहा : मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देख पा रहा जो मेरे इस इन्द्रियों को सुखा डालने वाले शोक को दूर कर सके (जो शोक प्रिय जनों की आसन्न हत्याओं के भय से उत्पन्न हुआ है ) | चाहे मुझे इस विजय से धरती का समृद्ध शत्रुविहीन साम्राज्य मिल जाये , या स्वर्ग का अधिपति ही बन जाऊं, तब भी यह गहन शोक न जाएगा |
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अर्जुन पिछले श्लोक (जिसमे उसने कार्पण्य से उपहत हो कर विवेक खो बैठा हूँ - यह स्वीकार कर के अपने को कृष्ण के शिष्य रूप में समर्पित कर दिया है ) आगे कह रहा है अब | वह अभी कह आया है (पिछले श्लोक में ) कि वह कृष्ण की शरण में है - जो वे कहेंगे वह करेगा | और अभी ही कह रहा है कि मुझे कोई उपाय नहीं दीखता | यह ऐसा नहीं की अर्जुन धोखा दे रहा है कृष्ण को, या विरोधाभास हो उसकी बातों में | वह इतना दुखी है - हाथ पाँव ठन्डे हुए जा रहे हैं, दिमाग काम नहीं कर रहा , खड़े नहीं हो पा रहा , हाथ से गांडीव गिर रहा है |

वह बेचारा (कृपया "बेचारा" शब्द पर विवाद न हो - बेचारा का अर्थ दया का पात्र नहीं होता - इसका अर्थ होता है - वह जिसे कोई चारा / उपाय न सूझ रहा हो ) समझ ही नहीं पा रहा कि मैं अब क्या करूँ, क्या कहूँ, कहाँ जाऊं ....... | सोचिये- उसे किसे मारना है - अपने प्रिय दादा, अपने प्रिय भाइयों, अपने प्रिय भतीजों आदि को - अपने आप को अपने सगे सम्बन्धियों के साथ सोचये - अर्जुन पर क्या गुज़र रही होगी, समझ में आएगा थोडा थोडा |

परन्तु - यह कर्म - यह परीक्षा - आवश्यक है | उसके अपने लिए नहीं - वरन धर्म की जीत के लिए आवश्यक है | यह विषाद ही उसे प्रभु के प्रति समर्पण के लिए तपा कर कुंदन कर रहा है | और जब ऐसा संपूर्ण समर्पण होगा - तब ही गीता ज्ञान आत्मसात हो पायेगा | नहीं तो तर्क कुतर्क के सिलसिले का क्या है - वह तो अनंत है |

आज की स्थिति में तो आये दिन लोग सिर्फ एक मकान भर के लिए सगे भाई की हत्या कर देते हैं | कोई लोग अपने अहंकार के पोषण के लिए पिता तुल्य व्यक्ति को व्यंग्य बाण मार मार कर इतनी मानसिक प्रतारणा देते हैं की वे खून के आंसू रोयें | पुत्र और पुत्रियाँ ( और पुत्रवधुएँ और दामाद) अपने जीते जागते बुजुर्गों को मानसिक आघात कर कर के इतना दुखित कर देते हैं की वह बुज़ुर्ग ईश्वर से मृत्यु मांगने लगे | इसी मानसिकता के कारण आज हमारी भारत भूमि पर old age homes स्थापित हैं :( |

लेकिन यहाँ अर्जुन कह रहा है कि (इन सब प्रिय जनों के बिना जीवन की कल्पना से भी ) जो मुझे कलेजे को चीर देने वाला दुःख हो रहा है- यह संताप तो स्वर्ग प्राप्त भी हो जाए - पर फिर भी नहीं जा सकता | वह धर्म अधर्म सब भूल गया है अभी इस मार्मिक दुःख से | यह भी भूल गया है कि इस युद्ध से वह ये सारे साम्राज्य जीतने को प्रयत्नरत भी नहीं है | उसे सिर्फ और सिर्फ अँधेरा नज़र आ रहा है |

इसके विपरीत दुर्योधन है - जिसकी और से पितामह लड़ रहे हैं | पर दुर्योधनी मानसिकता उन्हें सिर्फ एक योद्धा के रूप में देखती है | यदि उनकी मृत्यु हो गयी इसमें - तो जो नुक्सान होगा - वह सैनिक दृष्टी से तो उसे चोट देगा, किन्तु भावनात्मक कोई चोट न लगेगी | उसके लिए अपने बुज़ुर्ग सिर्फ शतरंज की बिसात की गोटियाँ हैं (या कहें कि द्यूत की ?) - जिन्हें वह सिर्फ अपनी जीत के उद्देश्य से उपयोग में ला रहा है | उसे उनकी भयंकर मानसिक पीड़ा से ( जो उसके कर्मों से उत्पन्न हो रही है ) या उनकी संभावित मृत्यु से भी - कोई तकलीफ नहीं होती है |

ध्यान देने की बात है कि - सिर्फ गीता के गायन से और उसके श्रवण भर से ही इस पीडादायी मनोस्थिति में पड़ा यह अर्जुन इस विषाद से निकल सका | यह इसलिए संभव हुआ कि उसने पूरी श्रद्धा से सुना, समझा और मनन किया |

ऐसा नहीं है कि उसने प्रति प्रश्न पूछे न हों - पूछे - अवश्य पूछे - बार बार पूछे | परन्तु उन प्रश्नों का उद्देश्य कृष्ण की बात काटना नहीं था, बल्कि उनकी बात समझना था |

मैं बार बार यही कहती रहती हूँ कि - हम क्या कर रहे हैं - इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम वह क्यों कर रहे हैं, किस भावना से प्रेरित हो कर कर रहे हैं |

यह सिर्फ अर्जुन पर उस वक़्त नहीं - बल्कि हम में से हर एक पर - हर वक़्त, हर स्थति में लागू होता है | कई बार हमारा कर्त्तव्य ऐसा कुछ होता है - जो हमें कड़वा भी लगता है | तब - उस कर्त्तव्य को सामने देख कर ही हम मोहवश पस्त पड़ जाते हैं | कुतर्क भी करते हैं - ज्ञानियों जैसी बातें भी बनाते हैं | परन्तु यह ज्ञान नहीं होता, ज्ञान का छलावा भर होता है | परन्तु यदि कृष्ण जैसा सदगुरु मिले - और अर्जुन सा समर्पित शिष्य - तो संशय दूर होते समय नहीं लगता |

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कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं - पर डर सा लगता है - शुरू करते हुए भी - कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों - आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ - यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो - तो you are welcome to comment - फिर डिस्कशन करेंगे .... यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही
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एको राम इक ओंकार

यह कहानी निरामिष ब्लॉग पर comment में लिखी है - सोचा - यहाँ भी शेयर करूँ :) | राम एक ही हैं - दो नहीं | इस सिलसिले में श्री तुलसी रचित रामचरितमानस से ही कथा कहती हूँ | यह कथा शिवपुराण में भी है | 

तुलसी रामायण - बालकाण्ड में यह प्रसंग आता है ->

शिव जी राम जी के भक्त थे - तब श्री सती माँ उनकी संगिनी थीं | उनके मन में भी यही सवाल उठा की "क्या यह सीता सीता कह कर जंगलों में बिलखता भटकता हुआ साधारण मानव वे राम हो सकते हैं जो मेरे शंकर जी के पूज्य हैं ?"

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥

वे कुछ बोल नहीं रही थीं, किन्तु सर्वज्ञ शिव शम्भू उनके मन की बात समझ गए थे - की नहे शंका है | उनकी यह शंका शिव जी को अच्छी न लगी - और उन्होंने सती माँ को समझाया भी | किन्तु सती माई का मन न माना | उन्होंने परीक्षा लेने के लिए सीता का रूप धरा और वन में "हे सीते" कहते रोते भटकते राम के सामने गयीं, की यदि यह मानव भ्रमित हुआ तो जान जाऊंगी की ये "सृष्टिकर्ता राम" नहीं हैं |

पुनि पुनि हृदयं बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥

उन्हें देखते ही श्री राम (जो सब कुछ जानते हैं ) बोले "आप यहाँ अकेली क्या कर रही हैं माते ? शिव शम्भू कहाँ हैं ?"

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू। 
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिनि अकेलि फिरहु केहि हेतू॥ 

वे अपनी भूल जान कर सहम गयीं, की पति के समझाने के बावजूद मैं समझ न पायी और सत्य की परीक्षा ली | शिव जी के बार बार समझाने से भी मेरे मन को भ्रम बना रहा की जिस मानव को यह नहीं मालूम की उसकी पत्नी कहाँ है - वह सर्वज्ञ राम ? पति ने समझाया भी था कि जो प्रभु इस संसार का सृजन कर सकते हैं - क्या वे मानव रूप नहीं धर सकते - किन्तु मेरा मन न माना | 


इधर अब शिव जी कशमकश में पड़े - सती पत्नी को त्याग भी नहीं सकते, और जब यव मेरे प्रभु की पत्नी का रूप ले कर उनके सामने गयीं - तो मेरी माता हो गयीं - तो पत्नी रूप में स्वीकार भी नहीं सकते | क्या करें ?


तो शिवभोले करोडो वर्षों की तपस्या में ध्यानरत हुए | सती भी जान गयीं कि पति क्यों ताप में बैठ गए हैं | तो उन्हें अपना शरीर त्यागना ही था - जो दक्ष के यज्ञ में उन्होंने अग्निसमाधि लेकर किया | 

फिर पार्वती बन कर फिर से जन्मीं - तपस्या कर शिव को पाया - और उनसे कहा कि "परभो - पिछली बार हमने दशरथ नंदन राम जी को सृष्टिकर्ता राम न मानने की जो भूल की -उससे इतना कुछ हुआ | तो फिर से हम माया से भ्रमित न हों - इसके लिए हमें रामकथा सुनाइए |"

तब शिव जी ने उन्हें रामकथा सुनाई - जो रामायण नाम से हम सुनते और पढ़ते हैं |

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यह टिप्पणी भी निरामिष पर ही है - दूसरी पोस्ट पर


देखती हूँ कि वेदों की बातें घुमा फिर कर यह साबित करने के प्रयास किये जाते हैं कि (१) वेद मांसाहार सिखाते हैं, (२) राम और कृष्ण सिर्फ महापुरुष मात्र हैं आदि | ................ दिखावा ये - कि हम वेदों का सम्मान करते हैं - और यह कह कर उन्ही वेदों के अर्थों के अनर्थ करने का निरंतर प्रयास चलता रहता है | 


२. फिर - एक बात और भी है | कई बातें वेदों में नहीं भी हैं - बाद में "भाष्य" में जोड़ी गयी हैं, उन बातों को highlight कर कर के उन्हें वेदों की मूल भावना से भी अधिक महत्व देने का प्रयास |

३. श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -"पत्रं पुष्पं फलं तोयम " अर्थात ये चार चीज़ें ही स्वीकार्य हैं प्रभु को चढाने के लिए | यह नहीं कहते की "अंडम मीटम मटनम " :)

४. यज्ञ के बारे में श्री कृष्ण गीता के श्लोक २.१४ में कहते हैं - जीव अन्न से होते हैं, अन्न वर्षा से और वर्षा यज्ञ से - इसलिए यज्ञ करो | 

५. एक बहुत महत्वपूर्ण बात है - गीता ३.३४
वेदवाणी {या किसी भी बताये हुए कर्मकांड} को समझने के लिए सद्गुरु (अर्थात जो गुरु परम्परा से हों और सत्य जानते हों, जो सिर्फ भाषाई खेल न खेल रहे हों, बल्कि सच ही वेदों में क्या है यह जानते हों } के आश्रय में जाओ, उनकी कृपा मांगो, उनकी सेवा करो, और फिर विनम्र प्रश्न कर के, और अपनी लगातार जिज्ञासाएं पूछ कर कही बात का अर्थ समझने का प्रयास करो | ..... प्रश्न का उद्देश्य अपनी बात स्थापित कर के गुरु को हराना नहीं , बल्कि गुरु की बात समझ कर ज्ञान पाना हो | 

६. किन्तु यह जो अभी वेद वाणी को घुमा फिर कर बलि को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है - यह सब सिर्फ भाषानुवाद के आधार पर है | इसके लिए गीता में श्लोक है २.४२ से २.४६ तक
२.४२ - यामिमां पुष्पितां ....
२.४३ - कामात्मानः स्वर्गपरा ...
२.४४ - भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम ....
२.४५ - त्रैगुन्य विषया वेदा ....
इस का अर्थ है , जिन कम बुद्धि वाले लोगों की बुद्धि वेदों की flowery (घुमावदार ) भाषा में ही फंस कर रह गयी है - वे वेदों के सन्दर्भ दे कर 
" 'न अन्यत अस्ति इति ' ....वादिनः " 
अर्थात -
वे कहते हैं कि 'बस इतना ही है - और कुछ नहीं' " | 

तो बेहतर हो कि हम गीता के सन्दर्भ में समझने का प्रयास हो कि वेद असलियत में कह क्या रहे हैं | जो यह कहें कि राम एक महापुरुष हैं सृष्टिकर्ता नहीं, कृष्ण एक महापुरुष हैं - क्या उनके कहे अनुसार वेदों को समझने का प्रयास किया जाए - तो वह प्रयास कभी भी सफल हो सकता है ?? क्या ये स्वयंभू ज्ञानी जन वेदों को कृष्ण से भी बेहतर समझते हैं और समझा सकते हैं ?

राम, हनुमान केले का पत्ता - अद्वैतवाद एवं द्वैतवाद



आजकल "अद्वैतवाद" और "द्वैतवाद" पर बड़ा वाद विवाद होता रहता है | [[[कोई लोग तो कहते हैं कि ईश्वर हैं ही नहीं, तो वे इस वाद विवाद का हिस्सा नहीं हैं | ]]]  तो दूसरी ओर, जो मानते भी हैं कि ईश्वर हैं - वे भी दो तरह के हैं | एक वे जो मानते हैं कि ईश्वर एक अलग एंटिटी " परमात्मा " हैं और हम "जीवात्माएं" अलग जो उन्हें पूजें आदि ; और दूसरे वे जो मानते हैं कि "अहम् ब्रह्मास्मि" अर्थात - जब मैं अपने ज्ञान पर पड़े परदे से मुक्त हो जाऊंगा - तो मैं ही "ब्रह्म" हो जाऊंगा | मैं कोई व्यक्तिगत राय नहीं दे रही इस बारे में - दोनों ही दर्शन अपनी जगह सही हो सकते हैं | पर यहाँ इस जगह यह कहानी इस सिलसिले में सुनने में आती है | भूमिका यह है कि जहाँ हम रहते हैं, यह वह जगह है जहाँ किष्किन्धा थी - तो यह हनुमान जी की भूमि है - यहाँ वे "आंजनेय " नाम से अधिक जाने जाते हैं - उनकी माँ अंजना के नाम से ... तो कहानी कुछ यूँ है ....

जब रावण की सेना को हरा कर और सीता जी को लेकर श्री राम चन्द्र जी वापस अयोध्या पहुंचे - तो वहां उन सब के लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ | वानर सेना के सभी लोग भी आमंत्रित थे - और बेचारे सब ठहरे वानर ही न ? तो सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया - देखो - यहाँ हम मेहमान हैं और प्रभु के गाँव के लोग हमारे मेजबान | तुम सब यहाँ खूब अच्छे से पेश आना - हम वानर जाती वालों को लोग शिष्टाचार विहीन न समझें, इस बात का ध्यान रखना | 

वानर भी अपनी जाती का मान रखने के लिए तत्पर थे, किन्तु एक वानर आगे आया और हाथ जोड़ कर श्री सुग्रीव से कहने लगा " प्रभो - हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर | कहीं भूल चूक भी हो सकती है - तो अयोध्या वासियों के आगे हमारी अच्छी छवि रहे - इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें, जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे, बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये, कि कही इसी चीज़ के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल होगी |"

अब वानरों में सबसे ज्ञानी, व श्री राम के सर्वप्रिय तो हनुमान ही माने जाते थे - तो यह जिम्मेदारी भी उन पर आई |

भोज के दिन श्री हनुमान सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे , और सब को ठीक से बैठने के बाद श्री राम के समीप पहुंचे, तो श्री राम के उन्हें बड़े प्रेम से कहा कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो  | अब हनुमान पशोपेश में आ गए | उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं - वे तो अपने प्रभु के जीमने के बाद ही प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे | न तो उनके लिए बैठने की जगह ही थी ना ही केले का पत्ता (अपने हिंदी भाषी साथियों को बताना चाहूंगी - जैसे उत्तर भारत में पत्तलों में भोज परोसे जाने का रिवाज़ है - उसी तरह यहाँ केले के पत्तों में भोजन परोसा जाता है उत्सवों में और भोजों में |)

तो हनुमान बेचारे पशोपेश में थे - ना प्रभु की आज्ञा ताली जाए, ना उनके साथ खाया जाए | प्रभु तो भक्त के मन की बात जानते हैं ना ? तो वे जान गए कि मेरे हनुमान के लिए केले का पत्ता नहीं है , ना स्थान है | उन्होंने अपनी कृपा से अपने से लगता हनुमान के बैठने जितना स्थान बढ़ा दिया (जिन्होंने इतने बड़े संसार की रचना की हो - वे कर सकते हैं ज़रा से और स्थान की रचना ) | लेकिन प्रभु ने एक और केले का पत्ता नहीं बनाया |

उन्होंने कहा " हे मेरे प्रिय अति प्रिय छोटे भाई या पुत्र की तरह प्रिय हनुमान | यूं मेरे साथ मेरी ही थाली (केले का पत्ता) में भोजन करो | क्योंकि भक्त और भगवान एक हैं - तो कोई हनुमान को भी पूजे तो मुझे ही प्राप्त करेगा (यह ऐक्वाद का शब्द है) |"

इस पर श्री हनुमान जी बोले - "हे प्रभु - आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं, मैं कभी आप नहीं होऊँगा, ना तो कभी हो सकता हूँ - ना ही होने की अभिलाषा है | (यह है द्वैतवाद) - मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ, और रहूँगा - आपके चरणों में ही मेरा स्थान था - और रहेगा | तो मैं आपकी थाल में से खा ही नहीं सकता | "

तब श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से ( मिडल फिंगेर ऑफ़ द राईट हैंड ) केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी - जिससे वह पत्ता एक भी रहा और दो भी हो गया | एक भाग में प्रभु ने भोजन किया -और दूसरे अर्ध में हनुमान को कराया | तो जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य और द्वैत दोनों के चिन्ह के रूप में केले के पत्ते आज भी एक होते हुए भी दो हैं - और दो होते हुए भी एक है |
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राम कथा - गिलहरी, राम सेतु के डूबते पत्थर


(1) गिलहरी की पीठ पर धारियां देखीं आपने?

इनके बारे में एक बड़ी ही प्यारी कहानी सुनी है मैंने - आप में से कुछ लोगों ने शायद सुनी होगी - पर यहाँ शेयर करने को जी चाहा मेरा ... तो कहानी पेश है -

जब श्री राम अपनी पत्नी व अनुज के साथ वन वास पर थे - तो रास्ते चलते हर तरह के धरातल पर पैर पड़ते रहे - कहीं नर्म घास भी होती, कहीं कठोर धरती भी, कही कांटे भी | ऐसे ही चलते हुए श्री राम का पैर एक नन्ही सी गिलहरी पर पडा - और वे ना जान पाए कि ऐसा हुआ है (यह सिर्फ एक कहानी है - हकीकत में तो प्रभु को कोई बात पता ना चले - यह संभव ही नहीं है | ) श्री राम के चरणों को कठोर धरती की अपेक्षा मखमली सी अनुभूति हुई - तो उन्होने एक पल को अपना चरण टेके रखा - फिर नीचे की ओर देखा तो चौंक पड़े | 

उन्हें दुःख हुआ कि इस छोटी सी गिलहरी को मेरे वजन से कितना दर्द महसूस हुआ होगा | उन्होंने उस नन्ही गिलहरी को उठा कर प्यार किया और बोले - अरे - मेरा पाँव तुझ पर पड़ा - तुझे कितना दर्द हुआ होगा ना?

गिलहरी ने कहा - प्रभु - आपके चरण कमलों के दर्शन कितने दुर्लभ हैं - संत महात्मा इन चरणों की पूजा करते नहीं थकते - मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन चरणों की सेवा का एक पल मिला - इन्हें इस कठोर राह से एक पल का आराम मैं दे सकी |  [**********इस से याद आया -- अगली कहानी प्रभु चरणकमल , कछुए, केवट और सुदामा की होगी ****************]

प्रभु ने कहा - फिर भी - दर्द तो हुआ होगा ना ? तू चिल्लाई क्यों नहीं ?

गिलहरी बोली - प्रभु , कोई और मुझ पर पाँव रखता, तो मैं चीखती "हे राम!! राम राम !!! " , किन्तु , जब आप का ही पैर मुझ पर पडा - तो मैं किसे पुकारती

श्री राम ने गिलहरी की पीठ पर बड़े प्यार से उंगलिया फेरीं - जिससे उसे दर्द में आराम मिले | अब वह इतनी नन्ही है कि तीन ही उंगलियाँ फिर सकीं | तब से गिलहरियों के शरीर पर श्री राम की उँगलियों के निशान होते हैं | {{ अब यह मुझसे न पूछियेगा अद्वैतवाद वाली पोस्ट की तरह , कि क्या इससे पहले गिलहरियों की पीठ पर धारियां न थीं :) , क्योंकि यह एक कहानी है, और राम जी ने यह रेखाएं सृष्टि के आरम्भ में खींची या अब, इससे कोई फर्क पड़ता भी नहीं | उसी तरह वहां भी फर्क नहीं पड़ता कि केले के पत्ते के बीच की धारी सृष्टि के आरम्भ में बनाई गयी, या उस वक़्त :)  वैसे सुना है कि भारत के अलावा दूसरे देशों की गिलहरियों में यह धारियां नहीं मिलतीं ?}}
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श्री राम सेतु और डूबते पत्थर .........

जब श्री राम की वानर सेना लंका जाने के लिए सेतु बना रही थी, तब का एक वाकया है ...

श्री राम का नाम लिख कर वानर भारी भारी पत्थरों को समुद्र में डालते - और वे पत्थर डूबते नहीं - तैरने लगते | श्री राम ने सोचा कि मैं भी मदद करूँ - ये लोग मेरे लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं | तो प्रभु ने भी एक पत्थर को पानी में छोड़ा | लेकिन वह तैरा नहीं , डूब गया | फिर से उन्होंने एक और पत्थर छोड़ा - यह भी डूब गया | यही हाल अगले कई पत्थरों का भी हुआ | प्रभु ने हैरान हो कर किसी से पूछा (मुझे याद नहीं किससे - यदि आपमें से किसी को पता हो तो बताएं ) - तो सेवक ने जवाब दिया :

" हे प्रभु | आप इस जगत रुपी भवसागर के तारणहार हैं | आपके "नाम" के सहारे कोई कितना भी बड़ा और (पाप के बोझ से) भारी पत्थर हो, वह भी इस भवसागर पर तैर कर तर जाएगा | किन्तु प्रभु - जिसे आप ही छोड़ दें - वह तो डूब ही जाएगा ना?"

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राम चरण और कछुआ, केवट, सुदामा


यह कहानी है एक कछुए की |

सुना है की बेचारे ने प्रभु चरणों की महिमा सुनी और उन चरणों मे जाना चाहा | तो पूछने लगा सबसे - कहाँ जाऊं कहाँ जाऊं ? ( मुझसे कहानी को रेश्नलाइज़ नहीं किया जाएगा - यह कहानी है भक्ति और विश्वास की   - हर बार इसे सोच कर आँखें और दिल दोनों भर आते हैं - सोचा - इस बार आपको भी रुलाऊँ ? )

तो पूछने लगा सबसे - परन्तु किसी को कुछ पता ही न था की जाना कहाँ है प्रभु चरण ढूँढने ?

वह खोजता रहा, खोजता रहा -आखिर एक दिन उसे कोई भक्त मिला - जिसने उस नन्हे को अनन्त क्षीर सागर में जाने को कहा - और वहाँ की राह भी सुझाई | एक तो बेचारा ठहरा कछुआ - कछुए की चाल से ही चल पड़ा | चलते  चलते - चलते चलते .... सागर तट तक भी पहुँच ही गया - फिर तैरने लगा | बढ़ता गया - बढ़ता गया ....

और 
आखिर
पहुँच गया वहां 
जहां प्रभु शेष शैया पर थे - शेष जी उन को अपने तन पर सुलाए आनन्द रत थे और लक्ष्मी मैया भक्ति स्वरूप हो प्रभु के चरण दबा रही थीं |

कछुए ने प्रभु चरण छूने चाहे - पर शेष जी और लक्ष्मी जी ने उसे ऐसा करने न दिया - बेचारा तुच्छ अशुद्ध प्राणी  जो ठहरा (कहानी है - असलियत में प्रभु इतने करुणावान हैं - तो उनके चिर संगी ऐसा कैसे कर सकते हैं? )

बेचारा - उसकी सारी तपस्या - अधूरी ही रह गयी |

प्रभु सिर्फ मुस्कुराते रहे - और यह सब देखते नारद सोचते रहे किप्रभु ने अपने भक्त के साथ ऐसा क्यों होने दिया?

फिर समय गुज़रता रहा, एक जन्म में वह कछुआ केवट बना - प्रभु श्री राम रूप में प्रकटे, मैया सीता रूप में और शेष जी लखन रूप में प्रकट हुए | ................. प्रभु आये और नदी पार करने को कहा - पर केवट बोला ........... पैर धुलवाओगे हमसे , तो ही पार ले जायेंगे हम , कही हमारी नाव ही नारी बन गयी अहिल्या की तरह , तो हम गरीबों के परिवार की रोटी ही छिन जायेगी | ............ और फिर शेष जी और लक्ष्मी जी के सामने ही केवट ने प्रभु के चरण कमलों को धोने, पखारने का सुख प्राप्त किया ... |

और समय गुज़रा ...

कछुआ अब सुदामा हुआ - प्रभु कान्हा बने , मैया बनी रुक्मिणी और शेष जी बल दाऊ रूप धर आये |
  दिन गुज़रते रहे - और एक दिन सुदामा बना वह नन्हा कछुआ - प्रभु से मिलने आया |
      धूल धूसरित पैर, कांटे लगे, बहता खून , कीचड सने ..............और क्या हुआ ? 

प्रभु ने अपने हाथों अपने सुदामा के पैर धोये , रुक्मिणी जल ले आयीं, और बलदाऊ भी वहीँ बालसखाओं के प्रेम को देख आँखों से प्रेम अश्रु बरसाते खड़े रहे .... |

हरि अनन्त , हरि कथा अनन्ता ........
हरि बोल ....

क्रोध और पश्चाताप


इस पोस्ट से मैं पश्चात्ताप की महिमा को कम नहीं बता रही, बल्कि यह कह रही हूँ की बाद में पश्चात्ताप करने से बहुत बेहतर है पहले ही गुस्से पर काबू रखना | that prevention is better than cure ...

तो हुआ यूँ की एक बच्चे को बहुत गुस्सा आता था -वह खुद पर काबू न रख पाता था | बाद में शांत भी हो जाता - किन्तु गुस्सा करते वक्त सब भला बुरा भूल जाता |

एक दिन उसके पिता ने उसे कहा की बाहर की fencing (लकड़ी की होती हैं ) वह पेंट करे इस बार - तो उसे इनाम मिलेगा - बच्चे ने ख़ुशी ख़ुशी कर दी |

अब यह fence  बहुत सुन्दर लग रही थी |

पिता ने कहा - बेटे - यह मैं तुन्हें कीलों का एक डब्बा और एक हथौड़ी देता हूँ - जब जब तुम्हे बहुत गुस्सा आये - तब इस दीवार को ही अपना शत्रु समझना और इस पर एक कील ठोंक देना - एक महीने तक यही करते रहना |

बच्चे ने यही किया - और कहने की ज़रुरत नहीं की महीने भर बाद वह दीवार बहुत बुरी स्थिति में थी :(

अब बच्चा समझने लगा की क्रोध से खूबसूरत चीज़ें भी कुरूप दिखने लगती हैं - और क्रोध जब उन चीज़ों पर हम बरसाते हैं, तो वे आहत होती हैं, और धीरे धीरे वाकई बदसूरत होने लगती हैं |

उसने पिता से कहा की अब मैं समझ रहा हूँ - अब क्या करूँ - यह दीवार तो बहुत ही खराब लगने लगी है ?

पिता बोले - ठीक है बेटा - यदि तुम पछता रहे हो - तो अब से क्रोध में आकर कीले न ठोकना |

बेटा बोला -परन्तु दीवार तो फिर भी ऐसे ही रहेगी न ?

पिता बोले - तो ठीक है - जब तुम किसी पर क्रोध करो - और समझने के बाद पछताओ - माफ़ी मांगो - तब एक कील उखड लेना |

बच्चा यह भी करने लगा - और करते हुए उसे समझ में आया की क्रोध में कील ठोंक देना तो बहुत आसान है - पर उस गाड़ी हुई कील को पछतावे के कारण बाद में उखाड़ फेंकना (अर्थात माफ़ी माँगना, और फिर माफ़ी मिल पाना ) उससे कई गुना अधिक कठिन है |

फिर भी ५-६ महीनों में (क्योंकि अब उसमे अपने क्रोध पर अधिक काबू था - तो क्रोध की पुनरावृत्ति घट गयी थी - जितनी कीलें उसने सिर्फ एक महीने में ही ठोंक दी थीं, उतने बार क्रोध और माफ़ी होते हुए अब ज्यादा समय लगा) धीरे धीरे - पछतावे और कील निकलने की मेहनत के चलते - उस दीवार से सब कीलें निकल गयी थीं |

जब दीवार पूरी साफ़ हो गयी - तब बच्चा फिर से पिता को बुला कर बोला - यह दीवार कीलें निकलने से बेहतर तो हो गयी है - परन्तु यह पहले जैसी नहीं है |

पिता बोले - हाँ बेटा - the nails you hammer in in a fit of anger go in very deep without effort ... but repenting and taking them out (asking for and receiving forgiveness ) is much more difficult. Even when they do come out, they leave behind scars, which remain as ugly reminders of the incident life long ...

यह दोहा सुना होगा आपने - 

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय,
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ परि जाय।

फिर मिलेंगे ....

आलू और गुस्सा


एक किंडरगार्टन स्कूल में टीचर बच्चों को भावनाओं को सही दिशा देना सिखाना चाहती थी |

जैसा कि होता है -कुछ बच्चे शांत स्वभाव के थे, कुछ चंचल, कोई हँसते खिलखिलाते, तो कोई गुस्से वाले आदि | और बच्चों को गुस्सा आता है - तो हम जानते ही हैं कि कैसे होता है :)

तो टीचर जी ने बच्चों से कहा कि "अब से जब जब हमें किसी पर गुस्सा आये - हम अपनी कापी में अंकित करेंगे - और इस हफ्ते के अंत तक कापी में जो गिनती हो - उतने आलू सोमवार को एक थैले में रख कर कक्षा को लाने हैं | सब बच्चे मान गए [अक्सर टीचर की बात मानना काफी सरल होता है बच्चों के लिए - माता पिता की मानना भले ही कुछ कठिन हो :) ]  

तो जो खुशमिजाज स्वाभाव के बच्चे थे - उन्हें तो कुछ लाना ही न पड़ा - या अधिक से अधिक एक या दो आलू | पर जो गुस्से वाले बच्चे थे - उन्हें कई आलू लाने पड़े | 

टीचर ने कहा - अब सब बच्चे अपने अपने आलुओं को दिन भर उठा कर घूमेंगे | इन्हें बिलकुल नीचे नहीं रखना है | बच्चों के लिए तो यह खेल ही था - ख़ुशी ख़ुशी मान गए | जो गुस्से वाले बच्चे थे - वे खुश भी थे - कि अब मेरे पास एक "भारी हथियार" है | जो सताए - उसे डराने के लिए "क्रोध का भारी थैला" | पर आखिर बच्चे तो ठहरे छोटे (किंडरगार्टन ) और आलू भारी होते हैं काफी | जिसके पास आलू नहीं थे - वे शुरू में कुछ डरे हुए थे - कि कोई गुस्से वाला हमें आलू भरी थैली मार दे तो ? पर कोई दो घंटे गुज़रते गुज़रते आलुओं का भार उन बच्चों को महसूस होने लगा - जो कई लोगों से नाराज़ थे | पर जो एक दो लोगों से ही नाराज़ थे - उन्हें यह भार महसूस होने तक शाम हो चली थी | ये बच्चे घर गए तो खुश थे कि चलो - बोझ से पीछा छूटा ( अगले दिन फिर स्कूल में अपने अपने थैले सम्हालने हैं ) | थैलियाँ स्कूल में ही छूट गयीं |

अगले दिन फिर अपने अपने थैले उठाने थे | अब बच्चे पहले ही परेशान थे , क्योंकि पिछले दिन के अनुभव से जान चुके थे कि क्या परेशानी होगी |

तीसरे दिन भी ऐसा ही चला | चौथे दिन दोपहर होते होते कुछ आलुओं के ख़राब होने से कक्षा में दुर्गन्ध फैलने लगी | अब तो जो बच्चे गुस्सा न भी होते थे - वे भी परेशान - कि आलू उठाये भले ही किसी और ने हों - दुर्गन्ध तो सबको आती थी न ? किन्तु जिसकी थैली में जितने आलू - उसकी परेशानी उतनी अधिक - कि तीव्रता दुर्गन्ध की उसके पास ज्यादा होनी ही है न ?

अब बच्चे टीचर से पूछने लगे - इन आलुओं से कैसे पीछा छुड़ाया जाये ? टीचर ने कहा - जिससे तुम गुस्सा हो - उस पर से गुस्सा हटाओं - यदि उससे झगडा किया था गुस्से में - तो माफ़ी मांग कर दोस्ती करो - तब एक आलू निकाल कर फेंक सकते हो |

अब - पहली मुसीबत तो यह कि माफ़ करो - और ऊपर से उससे माफ़ी मांगो जिससे आप नाराज़ थे | Adjust होने में कुछ समय गया  और माफ़ी मांगने में कुछ और समय गया - पर आख़िरकार प्रोब्लम सोल्व हो ही गयी |

तो दोस्तों - जब क्रोध आये - तो ध्यान दे - कि हमारा क्रोध उसे तो पल भर को तकलीफ देता है जिसपर क्रोध है - पर वह वजन उठाये हमें हर वक़्त घूमना पड़ता है | जितना गुस्सा - उतना वजन | शुरुआत में लगता है - कि यह क्रोध एक "भारी हथियार" है - जिससे मैं दूसरों को डरा कर काबू कर सकूं - और दूसरों को भी कुछ डर लगता है शुरुआत में ( जिसके पास जितना भारी हथियार हो , उससे उतना ज्यादा डर ) ...... यह क्रोध अधिक समय तक लाद कर घूमे - तो सड़ने लगता है - सडांध उठती है - जो सिर्फ क्रोध करने वाले को ही नही - उसके आसपास चुप रहने वालों को भी महसूस होती है | ( उस दुर्गन्ध की शिद्दत भले ही अलग हो )|  तो - शायद बेहतर हो कि हम अपने क्रोध को समझें और उसे handle करना सीखें - उसे justify कर के सही साबित करने से वह सही हो जाएगा क्या ?

रविवार, 27 नवंबर 2011

सोचा है ये कभी??


सोचा है ये कभी??

१. डॉक्टर अपने काम को "प्रैक्टिस " क्यों कहते हैं?
२. धूप हमारे रंग को कला करती है तो बालों को सफ़ेद क्यों करती है?
३. नीबू के ड्रिंक्स (जैसे लिम्का वगैरह) तो नीबू के फ्लेवर से बनते हैं - लेकिन बर्तन धोने के लिक्विड और शैम्पू में असली नीबू क्यों होता है?
४. मिश्रित भावनाओं का एक उदहारण दें : "एक आदमी की सास कार चलाते हुए पहाड़ से गिर गयी ------- कार उस आदमी की ब्रैंड न्यू स्पोर्ट्स कार थी........"
५.  हर औरत रानी लक्ष्मी बाई है - कैसे? शादी के पहले रानी, शादी के बाद लक्ष्मी, और बच्चों के बाद बाई!!!!!

जो तुम न लो, वह तुम्हारा नहीं होता



एक बार एक महात्मा को कोई बड़ी गालियाँ और अपशब्द बोल गया | पर वे परेशान न हुए - अपने काम में लगे रहे |
उस व्यक्ति के जाने के बाद महात्मा के क्रोधित शिष्य कहने लगे - वह आप पर इतना कह गया - और आपने न खुद कुछ किया न हमें कुछ कहने दिया | तब वे बोले - कोई तुम्हे कुछ उपहार दे, तुम उसे न लो - तो वह तुम्हारा नहीं होता, उसी के पास रह जाता है - चाहे वह रख ले , या फेंक दे - या किसी और को दे दे |

शाम को उसे उसके दोस्तोंने समझाया - और वह पछताने लगा | अगले दिन बड़ा लज्जित हो कर उनके पास पहुंचा - और माफ़ी मांगी | महात्मा बोले - माफ़ी किस बात की ? यह जो नदी बह रही है - यह कल यह नहीं थी जो आज है - पूरा पानी जा चुका है, नया पानी है - जो लगातार जाता जा रहा है | वैसे ही - तुम जो आज माफ़ी मांगने आये हो - वह व्यक्ति नहीं ही हो जो कल अपशब्द कह रहे थे - वह व्यक्ति अब नहीं है यहाँ | तुम अब एक दूसरे व्यक्ति हो | अब जो कर रहे हो - वही तुम हो |

यही है जीवन - बह जाने दो जो कल हुआ | आज में जियो |

रेशम का एक सूत



मैं ओशो को बहुत पढ़ती हूँ - सब कुछ तो समझ में नहीं आता - पर अच्छा लगता है पढ़ कर ... वैसे समझ में न आने जैसा तो वे कुछ कहते नहीं - बहुत ही सरल सीढ़ी बातें होती हैं -- इतनी सरल , कि हमारे घुमावदार विचारों में घुस पाना मुश्किल हो जाता है कभी कभी... कहीं पढ़ा कुछ .. अच्छा लगा - तो कही बैठा रह गया दिमाग में ..... और न लगा -तो कुछ बिगड़ा तो नहीं ही !! यूँ ही कुछ याद आ रही है - धुंधली सी एक कहानी याद - उसमे कहाँ कहाँ मूल कहानी है ... और कहाँ मेरे कुछ  विचार  गड्ड मड्ड हुए हैं - ये तो मैं नहीं कह सकती  - पर सब हैं उसी में समाविष्ट .....

उन्होंने कहा था - अन्धकार से भरी रात्रि में - प्रकाश कि एक किरण का होना भी सौभाग्य है - क्योंकि जो उस का अनुसरण करे - वह उसके स्रोत तक पहुँच ही जाएगा.....( पता नहीं ऐसा क्यों कहते हैं लोग कि - धर्मं का प्रकाश हो - अन्धकार का नाश हो ... किसका नाश करोगे? अन्धकार तो वह है - जो है ही नहीं - और जो नहीं ही हो - उसका नाश कैसे हो? अन्धकार तो प्रकाश का अभाव भर है न - यदि प्रकाश हो - एल छोटी सी दिए कि लौ भी जला दी जाए - तो अन्धकार तो होगा ही नहीं - तो नाश किसका करोगे? और यदि नहीं जलाई - तो अन्धकार घिर आना ही है - उसका फिर भी नाश हो ही नहीं सकता !!! )प्रकाश की एक किरण के सहारे - उसका स्त्रोत्र निश्चित रूप से तलाशा भी जा सकता है - और पाया भी...

अब आखिर जब हम किसीको ढूँढते हैं - तो दिख जाने पर - पाया हुआ मानते हैं .. पा  लेने कि परिभाषा क्या है हमारे लिए? देख ही लेना न? और देखना क्या है - कि उस स्त्रोत्र से चली प्रकाश के किरणें हमारी आँख में पड़ीं - यही है "दिखना" ......किसी और प्रकार से अनुभूति पा लेना .. कि किसीको सुन लिया - कि दुर्योधन ने तेरहवे वर्ष के अज्ञात वास के अंत में - अर्जुन के शंख को सुना - और कहा - कि मैंने पांडवों को पा लिया!!!! या की हम किसी खोजी कुत्ते को लेकर किसी को तलाशना चाहें - और उसे उसकी गंध मिल जाए - तो हम कहते हैं की पा लिया समझो अब तो !! तो निष्कर्ष ये - की अनुभूति - किसी भी प्रकार के ही हो सही - ही हमारे "पा लेने " कि व्याख्या है! पांच ज्ञानेंद्रियें हैं - द सेन्सेज  ऑफ़ साईट, हीअरिंग, स्मेल, टच, टेस्ट .. (देखना, सुनना सूंघना, छूना , आस्वादन कर लेना ) इनमे से किसी भी एक प्रकार की अनुभूति ही हमारी "पा लिया" कि परिभाषा है!!  किसीसे आप बरसों से न मिले - और उसकी आवाज़ सुन ली फ़ोन पर - तो पा लिया, या कि उसका पत्र मिला - पढ़ लिया - तो पा लिया .. या कि कंप्यूटर ऑन किया - इन्टरनेट लगाया .. मेल या चैट  पर पढ़ लिया - तो भी पा लिया ही लगता है.... मेरे निकट तम  मित्र - जिनसे मैं मिलती ही नहीं कभी - मेल पर ही लगता है कि बस - मिले ही हुए हैं!!!! अब समझ आती है ओशो कि वह बात - जो कि उनके किसी प्रकाशित पत्र में पढ़ी थी..... कि प्रकाश की एक किरण का भी होना सौभाग्य है - एक अन्धकार भरी रात्रि के लिए...

एक कहानी है - एक राजा ने किसी बात पर नाराज़ हो कर अपने मंत्री को एक ऊंची मीनार पर कैद करवा दिया - कैद क्या - धीमी मौत कि ही सज़ा थी .. कि उस गगन चुम्बी ईमारत पर न तो कोई उसे खाना ही पहुंचा सकता था - न ही भाग निकलने का कोई रास्ता था... जब उसे कैद करके मीनार के ओर ले जाया जा रहा था - तो वह परेशान नहीं था - मुस्कुरा रहा था .. पत्नी ने बहुत रोते हुए पुछा कि वह इतना खुश क्यों है? तो उसने कहा - यदि रेशम का एक अत्यंत ही पतला सूत भी मुझ तक पहुँचाया जा सके - तो मैं बाहर आ जाऊं - और इतना तो तुम कर ही सकोगी...

तो वह भी तो आखिर उस ही के पत्नी थी - इतने साल साथ गुज़ारे थे - समझदारी के कोई कमी न थी -- सोचने लगी .. सोचती रही - पर हल न मिला ... पर कहते हैं न - सफलता के लिए सिर्फ अपने दिमाग का भरोसा लिया जाए - यह ज़रूरी नहीं .. आजकल तो हम - बच्चों के होमेवर्क के लिए भी - गूगल से विकिपीडिया से या किसी और वेबसाइट से हेल्प ढूँढते हैं .. ज़रूरी यह है - कि हम जानें - कि हेल्प ढूँढनी   कहाँ है.... तो वो कुछ देर सोचती रही - नहीं सूझा - तो एक बुद्धिमान फ़कीर से पुछा - आखिर सोचने ही में समय ख़राब किया - तो पति वहां भूखा प्यासा उतने समय तक...... तो फ़कीर ने कहा - एक भृंग (कीड़ा, इन्सेक्ट) को लो - और उसकी मूछों पर शहद लगा कर , पाँव में रेशम का धागा बांध, ऊपर के ओर मुंह कर के - मीनार पर छोड़ दो.. ऐसा ही किया भी गया .... अब शहद के लोभ में वह भृंग रात भर चढ़ता रहा - और ऊपर पहुँच गया.. फिर क्या - रेशम के धागे से सूत का धागा पहुंचा -- उस से डोरी , डोरी से रस्सी - फिर उस से मोटा रस्सा ऊपर पहुँचाया गया .. और वह कैद से बाहर हो गया ...

इसीलिए ... सूर्य को पाना हो - तो प्रकाश के एक किरण ही बहुत है - कि वह उसी का एक विस्तार है -- कि जिसने किरण को पाया - उसने सूर्य को पाने का उपाय पा लिया ... सूर्य को पाने के लिए सूर्य को पकड़ना थोड़े ही ज़रूरी है!!!! हमारे भीतर जो जीवन है - वह इश्वर की किरण है - और जो बोध है - बुद्धत्व की बूँद है - जो आनंद है - वह सच्चिदानंद की झलक है ....

तो - अगली बार मिलने तक ... सायोनारा , दसविदानिया ....

आरती और पूजा

Quote - osho
"
     जिसके चरणों में चढ़ने को -- शत शत सागर उमड़े आते -- उसको नीर चढ़ाऊं कैसे--
          जिसकी पूजा में जलने को -- कितने सूर्य सितारे जलते -- उसको दिया दिखाऊँ कैसे --
     जिसकी आरती की थाली बन कर -- गृह नक्षत्र भी घूम रहे हैं -- उसको थाल घुमाऊँ कैसे --
          मन का गीत सुनाऊँ कैसे ......
"
मुझे ईश्वर में बहुत विश्वास है - वैसे इस ब्लॉग का लिंक जिन्हें भी भेजा है, वे सभी बहुत विश्वास रखते हैं , एक्सेप्ट उम दीदी और जीजाजी ... जो स्टऔंच नॉन बिलीवर्स हैं .... |  पर मैं आरती पूजा ज्यादा नहीं करती - कोई खास ऐसी अनास्था भी नहीं है, पर ना जाने क्यों, बहुत कोशिश करने पर भी मन में रिचुअल्स को फोलो करने कि इच्छा ही नहीं जागती | ऐसा नहीं कि बिलकुल ही नहीं करती - पर सिर्फ तीज त्यौहारों पर ही करती हूँ - हर रोज़ नहीं |  ... वैसे मेरे कई ऐसे दोस्त हैं - जो पूरे रिचुअल्स के साथ बड़ी आस्था से पूजा करते हैं - पर पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि उनके लिए  वह पूजा का तरीका ठीक है - मेरे लिए नहीं  (और इस वक़्त मैं बहुत निकट के दोस्तियों कि बात कर रही हूँ, ऐसी ही हेलो हाई वाली दोस्तियों की बात नहीं ...)

मेरे लिए प्रार्थना एक बहुत ही वैयक्तिक मसला है - जो किसी और के बताने से नहीं, बल्कि अपने मन के बताये तरीके से ही सही हो सकता है | हमारे धर्म में पूजा ज्यादातर आरती को ही कहा जाता है - धूप और दिए को जलाकर, भगवन कि मूरत को पानी का अर्ध्य देकर, उनके आगे आरती कि थाली घुमाते हुए घंटियों कि मधुर धुन के साथ घर घर में आरती हुआ करती थी ... अब कम हो गया है ये प्रचलन, पर होता अब भी है | मैं यह बात बिलकुल नहीं कर रही कि यह सही तरीका है, या नहीं है | क्योंकि मेरे लिए पूजा है मेरे कृष्ण के साथ बातें करना - जस्ट स्पेंडिंग सम टाइम विद हिम, ना कुछ मांगना, ना शिकायतें, ना जिद, ना उसे बताना कि वो अपनी समझ से जो मेरे लिए कर रहा है - वो किस किस कारण से गलत है - और वो कैसे अपने प्लान्स को सुधारे, जिससे मैं खुश रहूँ .....

अब आप ये ना सोचे कि मैं उससे कभी कुछ मांगती नहीं हूँ - ज़रूर मांगती हूँ, जिद भी कर लेती हूँ - और कभी कभी रूठ भी जाती हूँ - पर इस सारे खेल को मैं पूजा नहीं मानती  ....... ये तो एक बच्चे की जिद है जो वो अपने पम्पेरिंग एल्डर्स से कैसे भी रो पीट कर मनवा ही लेता है | फिर जिस चीज़ की जिद वह पूरी करवा रहा है - वह उसके लिए अच्छी है या नहीं - ये तो वो जानता नहीं .... और पेरेंट्स जानते भी हैं तो बच्चे के लाड प्यार में कभी कभी उसे जो ना मिलना हो, वह भी उसे दिलवा देते हैं| पर इसे माता पिता का लाड प्यार और पम्पेरिंग कहा जाता है, बच्चे की पूजा नहीं!!!

टु मी - प्रेयर इज़ एन अनकंडिशनल एंड जोय्फुल एक्सेप्टेंस - ऑफ़ व्हाटेवर वन हेज़ बीन ग्रैंटेड  ...... विद नो डीमान्ड्स, नो ओब्जेकशंस | और , आरती के बारे में ..... कुछ धुंधले से शब्द याद आ रहे हैं - ओशो के प्रवचनों में ही सुने थे कभी .... कुछ इस तरह की बात थी,  कि, आरती की किस तरह जाए ?

जिसके चरणों में चढ़ने को -- शत शत सागर उमड़े आते -- उसको नीर चढ़ाऊं कैसे-- 
          जिसकी पूजा में जलने को -- कितने सूर्य सितारे जलते -- उसको दिया दिखाऊँ कैसे --
जिसकी आरती की थाली बन कर -- गृह नक्षत्र भी घूम रहे हैं -- उसको थाल घुमाऊँ कैसे --  
         मन का गीत सुनाऊँ कैसे ......

काम वाली बाई

हमारे घर में झाड़ू पोछा और बर्तन करने एक काम वाली बाई आती है... अमूमन ज्यादातर भारतीय मध्यम वर्गीय परिवारों में ऐसी कोई न कोई मालती, चंपा, कस्तूरी , लक्ष्मी होती ही है... ज्यादातर की कहानी भी एक सी ही होती है ... वही गरीबी, वही मजबूरी, वही सपने... तो मैं आज उसकी कहानी कहती हूँ... नाम नहीं लूंगी ....वैसे नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता ... ये कहानी थोड़े से फेर बदल के साथ कई ऐसी लड़कियों पर ठीक ही बैठती है!! पर बिना नाम के कहानी आगे कैसे बढे ? तो - इस कथानक के लिए हम उसे लक्ष्मी कह लें ......


तो लक्ष्मी मेरे यहाँ करीब करीब तीन साल से काम कर रही है... बहुत अच्छी है , दिखने में भी अच्छी ही है, और बातचीत तो बहुत ही हंस हंस कर करती है .... उसे देख कर या उससे मिल कर कोई नहीं कह सकता कि उसे दुःख या दर्द का कोई अनुभव होगा भी .... मेरी ज्यादातर सहेलियों के घर काम करने वाली बाइयों से अलग, वो छुट्टी तो बहुत ही कम करती है.... होली दिवाली भी काम पर एक वक़्त तो आ ही जाती है, शाम को नहीं आती.... उम्र होगी कुछ २४ - २५ साल , पर चेहरे पर मासूमियत है - हंसमुख है न!! हाँ, रंग ज़रूर कुछ दबा हुआ है - तो कभी कुछ कभी कुछ प्रयोग चलते ही रहते हैं.... हमारे मोहल्ले में कुछ ६-७ घरों में काम करती है - सुबह करीब ७:३० बजे जो यहाँ आती है - तो दोपहर के करीब १ बज जाते हैं उसे वापस जाते हुए....साथ ही उसकी माँ भी आती है - वह भी ४-५ घरों काम करती है - फिर दोनों साथ घर जाती हैं ....

लक्ष्मी का एक बेटा भी है - होगा कुछ ६-७ साल का .... पहले किसी ट्यूशन जाता था, पिछले साल से स्कूल जाने लगा है .... उसे मुन्ना कहूँगी मैं यहाँ - कहने कि ज़रुरत नहीं कि ये उसका असली नाम नहीं है..... तो लक्ष्मी चाहती है कि बेटा खूब पढ़े, उसके लिए वह कितनी भी मेहनत करने को तैयार है!!! स्कूल से आने के बाद बेटा फिर ट्यूशन जाता है - क्योंकि बेचारी माँ और नानी तो खुद ही नहीं पढ़ी हैं कुछ - उसे कैसे पढाएं? शाम को ५:३०  बजे के बाद वह उसे ट्यूशन छोडती है - फिर यहाँ आकर कुछ घरों में शाम के काम .... ७ बजे उसे ले जाने के वक़्त यहाँ से हो कर गुज़रती है - जब कभी सड़क से गुज़रती दिखे - हंस देती है.... कभी कभी बच्चा थक कर उनींदा सा हो जाता है - तो माँ की गोद में चढ़ जाता है - है तो बेचारा पतला दुबला सींक सा ही , पर आखिर ट्यूशन से घर का रास्ता कुछ डेढ़ किलोमीटर का तो होगा - इतनी दूर बच्चे को गोद में ले जाना - कोई हंसी खेल तो  नहीं है न !!! हम लोग तो अपने बच्चों को गोद में उठा कर बहुत कम चलते हैं.... पहले तो प्रैम्स, फिर स्कूटर या कार तो ज्यादातर लोगों के पास होती ही है ..... पर इन लक्ष्मी और माल्तियों के पास तो अपने पैरों कि ही गाड़ी है.... पिछले साल मेरे बेटे ने नयी साइकिल खरीदी - तो उसने पुरानी वाली ले ली - वह भी हज़ार रुपये देकर, मुफ्त में लेने में उसका स्वाभिमान सामने आता था!! पर शाम को लौटने तक अँधेरा अपना पर्दा फैला देता है - तो शाम को साइकिल ला नहीं पाती, पैदल ही आती जाती है ....

मैं सोच रही थी एक दिन - हम लोगों से तो अपने एक घर का काम अपने हाथ से नहीं होता, बाई रख लेते हैं - ये कैसे इतने घरों का काम कर लेती हैं!! सुबह ७ बजे घर छोडती होगी, उससे पहले घर में पानी भरना आदि काम तो होते ही होंगे न? फिर १:३० - २ बजे घर लौट कर खाना वगैरह पकाना, फिर बच्चे के साथ दुबारा लौटना आदि.... और कमाई कितनी होती होगी - ६-७  हज़ार रूपया महीना - माँ बेटी कि मिली जुली कमाई.... और जिन घरों में ये बेचारियाँ काम करती हैं - क्या वे कभी ख़ुशी से इनकी पगार बढ़ाएंगे? एक दिन मैंने पूछा - मुन्ना के पापा क्या करते हैं - तब वह नयी नयी आई थी - मैं कुछ जानती नहीं थी उसके बारे में - तो बोली - "ಎಲ್ಲಿ ಅಕ್ಕ - ಅವರು ನಮ್ಮ ಜೋಡಿ ಇಲ್ಲ - ಹಳ್ಳಿ ಊರ ಅಲ್ಲಿ ಇದಾರೆ - ನಮ್ಮಿಗೆ ಬಿಟ್ಟ ಬಿಟ್ಟರೆ - ನಾನ್ ಇಲ್ಲಿ ನಮ್ಮ ಅಮ್ಮ ಮನೆ ಗೆ ಇರ್ತೀನಿ " (कहाँ दीदी , वह मेरे साथ नहीं हैं - गाँव में रहते हैं - मुझे छोड़ दिया है - मैं यहाँ अपनी अम्मा के घर में रहती हूँ ) तब पता चला कि जिस हँसते चेहरे को मैं रोज़ देखती हूँ - वह अपने अन्दर क्या छुपाये है.....

अब तो उसके पति ने दूसरी शादी भी कर ली है - फिर भी बेचारी की आशा गयी नहीं है - अभी भी वह समय समय पर यहाँ आता है - तो लक्ष्मी के चेहरे पर बहार खिल उठती है - हर बार बेचारी नए प्रयोग करती है - कभी हल्दी रगडती है चेहरे पर - तो कभी मुझसे फेएर एंड लवली की ट्यूब मंगवाती है - वह आकर दो चार मीठी मीठी बातें करता है - फिर छोड़ जाता है -और इसका चेहरा फिर हो जाता है पहले की तरह - उस ही समय ये २-१  दिन की छुट्टी भी करती है - वैसे तो कहो भी कि अभी तुझे बुखार है - दो दिन घर में आराम कर ले - तो कहती है - घर काटने आता है - यहाँ काम करते वक़्त गुज़र जाता है - घर में तो टाइम जाता ही नहीं .... वह न कभी इसके लिए, न ही अपने बच्चे के लिए कुछ लाता है - बस मेहमान कि तरह खातिर करा कर चला जाता है .... कभी निशानी भी छोड़ जाता है - तो फिर लक्ष्मी डोक्टर के चक्कर लगाती रहती है पीछा छुड़ाने के लिए

... कहती है - एक ही बच्चा मैं किसी तरह पाल रही हूँ - एक और आ गया तो कैसे काम होगा - हम सब समझाते हैं कि उससे न मिला कर - या कुछ समझ से काम ले .... पर वह हर बार आने से पहले इसे बातों से मना लेता है - और ये फिर से साथ घर बसाने के सपने देखने लगती है .... "ಅಕ್ಕಾ , ಇವರು ಅಕ್ಕಿ ಜೊತಿಗೆ ಖುಷಿ ಇಲ್ಲ - ಅಕ್ಕಿ ಗೆ ಬಿಟ್ಟ ಈಗ ಇಲ್ಲಿ ಇರ್ತಾರೆ - ಇಲ್ಲೇ ಮನೆ ಮಾಡ್ತಾರೆ - ಕೆಲಸ ನು ಹುದುಕಾರೆ - ಈಗ ನಾವು ಜೊತಿಗೆ ಇರ್ತಿವಿ" (दीदी , ये उसके साथ खुश नहीं हैं - अब उसे छोड़ कर ये मेरे साथ यही रहेंगे , यहाँ काम भी ढूंढ लिया है - यही घर बना कर हम सब साथ रहेंगे )  और दो दिन बाद ही उसका सपना फिर टूट जाता है - वह शहर जिस काम से आया हो - वो पूरा होते ही गाँव लौट जाता है  ......... तो पतिदेव को यहाँ लोज का खर्चा बच जाता है - पत्नी सुख भी मिल जाता है - और घर का पका हुआ खाना भी - फिर लौट जाता है अपनी दूसरी पत्नी के पास (वहां भी वह बेचारी इसी धोखे में खुश रहती होगी कि पति मेरे साथ है - उसे क्या पता कि शहर में पति ये गुल खिला रहा है!!! )  ... और लक्ष्मी फिर काम पर आने लगती है..... दो तीन दिन बहुत उदास रहती है - फिर हंसने बोलने लगती है ... और सब पहले की ही तरह चलता रहता है....

PARENTS ARE PRECIOUS!!



This was narrated by an IAF pilot at
a Seminar recently on Human Relations 

Venkatesh Balasubramaniam (who works for IIT) describes how his gesture ofbooking an air ticket for his father, his maiden flight, brought forth a rush of emotions and made him (Venkatesh) realize that how much we all take for granted when it comes to our parents. 


My parents left for our native place on Thursday and we went to the airport to see them off. In fact, my father had never traveled by air before, so I just took this opportunity to make him experience the same. Inspite of being asked to book tickets by train, I got them tickets on Jet Airways. The moment I handed over the tickets to him, he was surprised to see that I had booked them by air. The excitement was very apparent on his face, waiting for the time of
travel. Just like a school boy, he was preparing himself on that day and we all went to the airport, right from using the trolley for his luggage, the baggage check-in and asking for a window seat and waiting restlessly for the security check-in to happen. He was thoroughly enjoying himself and I, too, was overcome with joy watching him experience all these things. 


As they were about to go in for the security check-in, he walked up to me with tears in his eyes and thanked me. He became very emotional and it was not as if I had done something great but the fact that this meant a great deal to him. When he said thanks, I told him there was no need to thank me. But later, thinking about the entire incident, I looked back at my life. As a child, how many of our dreams our parents have made come true. Without understanding the financial situation, we ask for cricket bats, dresses, toys, outings, etc. irrespective of their affordability, they have catered to all our needs. Did we ever think about the sacrifices they had to make to accommodate many of our wishes? Did we ever say thanks for all that they have done for us? Same way, today when it comes to our children, we always think that we should put them in a good school. Regardless of the amount of donation, we will ensure that we will have to give the child the best, theme parks, toys, etc. But we tend to forget that our parents have sacrificed a lot for our sake to see us happy, so it is our responsibility to ensure that their dreams are realized and what they failed to see when they were young. It is our responsibility to ensure that they experience all those and their life is complete. 


Many times, when my parents had asked me some questions, I had actually answered back without patience. When my daughter asked me something, I was very polite in answering. Now I realize how they would have felt at those moments. Let us realize that old age is a second childhood and just as we take care of our children, the same attention and same care needs to be given to our parents and elders. Rather than my dad saying thank you to me,I would want to say sorry for making him wait so long for this small dream. I do realize how much he has sacrificed for my sake and I will do my best to give the best possible attention to all their wishes. 


Just because they are old does not mean that they will have to give up everything and keep sacrificing for their grandchildren also. They have wishes,too. 




Take care of your parents. THEY ARE PRECIOUS. 

Soorya Vansh - Lord Rama family tree - from Brahma onwards




Rama's family history as narrated by Guru Shri Vashishtha at the time of the wedding with Seetadevi

1. Brahma,
2. Mariichi
3. Kaashyapa is the son of Mariichi,
4. The Sun
5. Manu
6. Ikshvaaku is the son of Manu,
7. Kukshi,
8. Vikukshi is the son of Kukshi...
9. Baana
10. Anaranya is the son of Baana.
11. Pruthu is the son of Anaranya
12. Trishanku is Pruthu's son
13. Dhundumaara happened to be the son of Trishanku
14. Dhundumaara begot Yuvanaashva as son
15. Mandhaata emerged as the son of Yuvanaashvas
16. Susandhi
17. Susandhi engendered two sons, namely Dhruvasandhi and Prasenajit
18. From Dhruvasandhi Bharata is begotten.
19. Bharata begot a highly effulgent son named as Asita
20. Asita, waged war with kings like Haihaya-s, Taalajanghaa-s, and the valiant Shashabindu-s. While counterattacking those kings, Asita is dethroned in war and then he reached Himalayas along with his two wives. At the time of his demise two of his wives were pregnant. Kalindi gave birth to a son. He took birth along with the poison administered to his mother, he became Sagara, the emperor

21. From Sagara it is Asamanja
22. From Asamanja it is Amshuman
23. Amshuman's son is Diliipa
24. The son of Diliipa is Bhageeratha
25. Bhageeratha son is Kakutstha
26. Kakutstha's son is Raghu.
27. Raghu's son is the great resplendent Pravriddha also known as Kalmashapaada
28. Pravriddha, Shankana
29. Shankana's son is Sudarshana
30. Sudarshana it is Agnivarsna
31. Shiigraga is the son of Agnivarsna
32. Shiighraga's son is Maru
33. Prashushruka
34. Ambariisha is the son of Prashushruka
35. Ambariisha's son was Nahusha
36. Yayaati is the son of Nahusha
37. Naabhaaga is born to Yayaati
38. Aja was Naabhaaga's son
39. From Aja,  Dasharatha is manifest
40. From this Dasharatha, these brothers, Rama and Lakshmana
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Another source is here - http://en.wikipedia.org/wiki/Genealogy_of_Rama

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Another description (tabular)is in the Bhagwatam.
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Another description is here (Slightly more elaborate and detailed) :

  1. Brahma created 10 Prajapatis , one of whom was Marichi.
  2. Kashyapa is the son of Marichi and Kala. Kashyapa is regarded as the father of humanity. His sons from Aditi, the sky goddess, and the daughter of Daksha Prajapati are called Adityas - 
  3. one of whom is 
  4.  Vivasvat or Vivasvan .
  5. Vivasvan or Vaivasvata - the Sun God
  6. Manu or Vaivasvata Manu – the King of all mankind and the first human being. (According to Hindu belief there are 14 Manvantaras; in each, Manu rules. Vaivasvata Manu was the seventh Manu . Manu had nine sons, Vena, Dhrishnu, Narishyan, Nabhaga, Ikshvaku, Karusha, Saryati, Prishadhru, Nabhagarishta and one daughter, Ila. He left the kingdom to the eldest male of the next generation, Ikshvaku, who was actually the son of Manu’s brother Shraaddev.
  7. Ikshvaku – the first prominent monarch of this dynasty, giving the dynasty its another name the Ikshvaku dynasty.
  8. Vikukshi – He is said to have eaten the meat of a rabbit at the time ofShraddha and was known as Shasad. (Some records claim him to be grandson of Ikshvaku.) His son was Kakuthsa or Puranjay.
  9. Kakutstha or Puranjaya – He was a brave king and fought in the Devasur Sangram. His original name was Puranjaya. He was also known as Kakuthstha, which means seated on the hump. His dynasty was also known as Kakuthstha after him.
  10. Anena or Anaranya
  11. Prithu
  12. Vishvagashva
  13. Ardra or Chandra
  14. Yuvanashva I
  15. Shravast – He founded the town of Shravasti near Kosala.
  16. Vrihadashva
  17. Kuvalashva – He killed a Rakshasa named Dhundh. It is said that Dhundhar region and the Dhund river are named after Dhund and  was called “Dhundhumara”.
  18. Dridhashva
  19. Pramod
  20. Haryashva I
  21. Nikumbh
  22. Santashva
  23. Krishasva
  24. Prasenjit I – His daughter Renuka was married to sage Jamdgni. She was mother of Parashurama.
  25. Yuvanashva II – He was married to Gori, daughter of the Chandravanshi king Matinaar.
  26. Mandhata – He became a famous and Chakravarti (ideal universal ruler) king. He defeated most of the other kings of his time. He married Bindumati, a daughter of the Chandravanshi king.
  27. Ambarisha – Great devotee of Vishnu.
  28. Purukutsa & Harita – Purukutsa performed the Ashwamedha Yajna (horse sacrifice). He married Nagkanya “Narmada”. He helped Nagas in their war against the Gandharvas. Harithasa gotra linage starts from here.
  29. Traddasyu
  30. Sambhoot
  31. Anaranya II
  32. Trashdashva
  33. Haryashva II
  34. Vasuman
  35. Tridhanva
  36. Tryyaruna
  37. Satyavrata or Trishanku – His original name was Satyavrata, but he committed three (tri) sins, and hence got the name Trishanku. Trishanku also had a desire to ascend to heaven in his mortal body. Vashistha refused him this boon, since it is against nature to ascend into heaven as a mortal, the sage Vishwamitra, Vashistha’s rival, created another heaven for him, called “Trishanku’s Heaven”, and located in mid-air. 
  38. Harishchandra – He is known for his honesty, truth and devotion to duty or Dharma.
  39. Rohitashva – He was the son of Harishchandra. He founded town of Rohtas Garh in Rohtas district, Bihar and Rohtak, originally Rohitakaul, meaning from the Kul (family) of Rohit
  40. Harit
  41. Chanchu
  42. Vijay
  43. Ruruk
  44. Vrika
  45. Bahu or Asit – He was attacked and defeated by another clan of Kshatriyas. After this, he left Ayodhya and went to the Himalaya mountains to live as an ascetic with his queens. At that time Yadavi queen was pregnant with Sagara.
  46. Sagara – He recaptured Ayodhya from the “Haihaya” and “Taljanghi” Kshtriyas. He then attempted to perform the horse sacrifice, Ashwamedha Yajna, but the sacrificial horse was stolen by the god Indra on the south eastern shores of the ocean, which was at that time an empty bed with no water in it. At least sixty of Sagara’s sons died attempting to recover the horse, also causing great destruction by their reckless search. Puranic legends say the number of his sons was 60 thousand.
  47. Asmanja – Sagara’s surviving son was not made king due to his bad conduct.
  48. Anshuman – He was the grandson of Sagara, and his successor as king. He did penance in an attempt to bring the holy river Ganges to earth, that she might wash away the sins of his ancestors.
  49. Dileepa I – He also tried to bring Ganges to earth, but also failed.
  50. Bhagiratha – Sagara’s great-grandson, after strenuous penances, at last succeeded in bringing Ganga down from heaven. When she flowed over the remains of his ancestors, their souls were redeemed, and the ocean was refilled. Ganga also bears the name “Bhagirathi”, in honour of his deed.
  51. Shrut
  52. Nabhag
  53. Ambarish – According to Buddhist legends, he went to Tapovana to be a renunciant but after a public outcry returned and ruled for some time.
  54. Sindhu Dweep
  55. Pratayu
  56. Shrutuparna
  57. Sarvakama
  58. Sudaas
  59. Saudas or Mitrasah – He performed the Ashwamedha Yajna, but as the rituals were concluding a Rakshasa tricked him into serving human meat to Brahmin,s including Rishi Vashishta. He was then cursed by the Brahmins. He wanted to curse them back, but his wife prevented him. He spent twelve years in exile in the forest.
  60. Sarvakama II
  61. Ananaranya III
  62. Nighna
  63. Raghu I
  64. Duliduh
  65. Khatwang Dileepa
  66. Raghu II or Dirghbahu – He was a famous king, who conquered most of India. The great epic Raghuvamsa describes his victories. After him the Sun dynasty was also known as the dynasty of Raghu as Raghav (Raghuvanshi).
  67. Aja
  68. Dasaratha
  69. Rama – He is considered the seventh Avatar of the god Vishnu. He is worshiped by every Hindu. Many Hindus include his name in either their first or last name. Rama’s story before he became king of Ayodhya is recounted in the Ramayana. After he ascended the throne, he performed the Ashwamedha Yajna. Bharata, his younger brother, won the country of Gandhara and settled there.
  70. Lava and Kusha – They were the twin sons of Rama and his wife Sita. Lava ruled south Kosala while Kusha ruled north Kosala, including Ayodhya. 
  71. Kusha married “Nagkanya” “Kumuddhati”, sister of Kumuda. After Kusha the following kings of the solar dynasty ruled Ayodhya:
  72. Atithi
  73. Nishadh
  74. Nal
  75. Nabha
  76. Pundarika
  77. Kshemandhava
  78. Dewaneek
  79. Ahinagu, Roop and Rooru
  80. Paripatra
  81. –(unknown name)
  82. Bala
  83. Ukta
  84. Vajranabh
  85. Shankh
  86. Vishvashaha
  87. Hiranyanabha
  88. Pusya
  89. Dhruvsandhi
  90. Sudarshan
  91. Agnivarna
  92. Shighraga
  93. Maru
  94. Prasut
  95. Susandhi
  96. Amarsha
  97. Vishrutwan
  98. Vishravbahu
  99. Prasenjit I
  100. Takshaka – Laid the foundation of Nagavansh
  101. Brihadbal – He fought in Battle of Kurukshetra on the Kaurava side and was killed in battle.
  102. Brahatkshtra
  103. Arukshay
  104. Vatsavyuha
  105. Prativyom
  106. Diwakar
  107. Sahdeva
  108. Vrihadashwa
  109. Bhanuratha
  110. Pratitashwa
  111. Supratika
  112. Marudeva
  113. Sunakshtra
  114. Antariksha
  115. Sushena
  116. Anibhajit
  117. Vrihadbhanu
  118. Rawats
  119. Dharmi
  120. Kritanjaya
  121. Rananjaya
  122. Sanjay
  123. Prasenjit II – He was a contemporary of Gautama Buddha and King Bimbisara of Magadha. His sister, Koushala Devi, was married to Bimbisara. The city of Kashi (Varanasi) was given as a dowry to her. After Bimbisara was murdered by his own son Ajatshatru, Prasenjit undertook a long series of wars with Ajatshatru. He also respected Buddha, who was also a Kshatriya from solar dynasty. In Buddhist literature he is addressed as “Pasenadi”.
  124. Kshudrak
  125. Kulak
  126. Surath
  127. Sumitra – He was the last king of Ayodhya from solar dynasty. In the fourth century BC, emperor Mahapadma Nanda of the Nanda Dynasty forced Sumitra to leave Ayodhya. He went to Rohtas with his sons. His son Kurma established his rule over Rohtas.

The magical sandy shore



It was beautiful at the beach - the shifting silky sands. She sat at the edge of the waves - enjoying the gentle lapping of the cool waters on her feet, almost as if her loving pet puppy was playing at her feet .... but no - this was the sea playing with her - she reminded herself , not darling timmy!! Wave after wave curled at her feet,barely reaching them as it spent itself.....

She waded in deeper - the hard wet sands giving way to a cool shifting silkiness. Wriggling her toes happily, she giggled to herself .... unaware of the world ..... celebrating life. The sand sparked, and the waves danced ..... the magical diamonds in the sands flashing and glinting in the dancing sun rays. It was wonderful, wondrous!! She knew perfectly well  that there was only sand there, and these stones wouldn't be half as beautiful if she carried them home. But no diamonds could ever flash brighter than these stones mixed with the sand particles, no pearls could glitter more enticingly!!!!! This was heaven , her own personal heaven.... no one to call her, no waiting world....She dug into the treasure with her fingers under the wave, and brought out a handful of the sparkling diamonds .....

The sand oozed out of her unresisting fingers .... that was all it was .... this magical world - this treasure of precious diamonds and pearls ..... just a MAGICAL MESS OF MUD!!!!!