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सोमवार, 30 जून 2014

श्रीमद भागवतम 4: ब्रह्मा सृष्टि ब्रह्मा के पुत्र पुत्रियाँ


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पहला भाग 
[
कथा स्ट्रिक्टली समय क्रम में नहीं होगी 
]

श्री महाविष्णु शेष शैया पर लेटे  थे और उनकी नाभि से विशाल डंठल वाला कमल खिला - जिस पर ब्रह्मा प्रकट हुए।  ब्रह्मा ने अपने आस पास देखना चाहा , तो उनके चार दिशाओं में चार चेहरे हुए। उन्होंने अपने आठ नेत्रों से सब ओर देखा।  सब तरफ शून्य ही दिखता था।  तब उन्होंने अपने आप को जानने के लिए कमल के डंठल के भीतर प्रवेश किया लेकिन कितना ही गहरा उतरने पर भी कुछ न मिला।  वे वापस कमल पर लौट आये।  उन्हें अपने भीतर शब्द सुनाई दिया "तपस तपस तपस"। तब उन्होंने सौ वर्षों तक तप किया।  तत्पश्चात उनके अंतर्मन में विष्णु जी की छवि  उभरी, सृष्टि का ज्ञान , और वेद प्राप्त हुए, और सृष्टि रचने की प्रेरणा हुई।

पहले स्थूल जगत कि रचना हुई।  काल परमात्मा की सूक्ष्म शक्तियों और और स्थूल सृष्टि को प्रथक करते है।  सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से सृष्टि चलती है। नौ स्तर पर सृष्टियाँ हैं - महत तत्व , अहंकार , इन्द्रियां , ज्ञान और कर्म ऊर्जा , मन , विभ्रांति करने वाली माया , अचल जगत (ग्रह नक्षत्र सितारे पृथ्वियां जल थल पेड़ पौधे …… ) , चल जीवन के निचले रूप (कीड़े, पशु पक्षी …… ).

इसके बाद मानव, फिर देव, पितर, असुर / दानव, गन्धर्व और अप्सराएँ , यक्ष और राक्षस , सिद्ध चरण और विद्याधर , भूत प्रेत पिशाच ; महामानव आदि हुए।  [तत्व और समय के माप कोई जानना चाहे तो यहाँ (लिंक क्लिक करें) उपलब्ध हैं।  ]

स्थूल जगत रचने के पश्चात ब्रह्मा ने अपनी शक्ति से चार "कुमारों" (सनक , सनन्दन , सनातन, सनत कुमार) को प्रकट किया - किन्तु कुमारों ने संतति बढाने से मना कर दिया यह कहते हुए कि हम बालक ही रहेंगे - क्योंकि हमें "बड़ों" के अवगुण नहीं चाहिए। इस पर ब्रह्मा जी को क्रोध तो आया किन्तु उन्होंने अपने क्रोध को तुरंत सम्हाल लिया।  तब उनका क्रोध उनके मस्तक से एक रोते हुए लालिमा युक्त नीलवर्ण बालक के रूप में प्रकट हुआ - जो "रूद्र" हुए।  रूद्र के अन्य नाम हैं - मन्यु , मनु ,  महिनाशा , महान, शिव , ऋतध्वज , उग्ररेता , भव , काल , धृतवृता।  रूद्र की पत्नी  रुद्राणी होंगी - धी , धृति , रसाला , उमा , नियुत, सर्पि , इला , अम्बिका , इरावती , स्वधा दीक्षा।  क्रोध से उत्पन्न हुए रूद्र और रुद्राणी की अगणित संतानें हुईं जो उन जैसी ही क्रोधित नेत्रों को लिए सृष्टि को समाप्त करने उद्धत हुईं।  ब्रह्मा ने रूद्र से कहा - हे पुत्र - ऐसी संतति तो सृष्टि का नाश कर देगी।  हे प्रिय पुत्र - तुम तपस में लीन होओ।  तब रूद्र तपस में लीन हुए।

तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने दस मानस पुत्र उतपन्न किये :-

मारीचि
अत्रि
अंगीरा
पुलह
पुलत्स्य
कृतु
वशिष्ठ
दक्ष
भृगु
नारद

नारद पूर्व सृष्टि के पूर्वजन्म के आशीर्वचन से अपना सत्य स्वरुप नहीं भूले थे - तो उन्होंने श्री नारायण जी कि भक्ति में ही जीवन जीने का निर्णय लिया।

ब्रह्मा जी के चार चेहरों से चार वेद प्रगट हुए। आयुर्विद्या , शास्त्र ज्ञान , संगीत , वास्तुशिल्प विद्या सब वेदों से प्रकट हुए।  क्रोध , काम , लोभ आदि  भी ब्रह्मा से प्रकट हुए। आयुर्विद्या , शास्त्र ज्ञान , संगीत , वास्तुशिल्प विद्या सब वेदों से प्रकट हुए। वेदों के बाद ब्रह्मा ने अपने चारों चेहरों से पुराण अभिव्यक्त किये। ब्रह्मा के ह्रदय से काम प्रकट हुए , उनकी छाया से कर्दम ऋषि।

उनके शरीर से एक पुरुष और एक स्त्री आकृति प्रकटे , जिनके नाम हुए - मनु और शतरूपा।संतति के रहने के लिए धरनी आवश्यक थीं - जो पिछली प्रलय से रसातल में ही थीं।  पृथ्वी को रसातल से निकाल्ने के लिए श्री विष्णु वराह रूप में प्रकट और रसातल से पृथ्वी को बाहर लाये ( इसी प्रक्रिया में उन्होंने हिरण्याक्ष का वध भी किया था - जो कथा आगे आएगी ) । मनु और शतरूपा जी ने ब्रह्मा जी के आदेश से संतति बढाने के लिए पांच संतानों को जन्म दिया। ये थे - प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र और आकूति , देवहुति , एवं प्रसूति नामक कन्याएं।

 ब्रह्मा की पुत्री हुईं "वाक" जिनके प्रति ब्रह्मा ही आकर्षित हो गए। किन्तु पुत्री उनकी ओर ऐसे कोई भाव न रखती थीं।  तब मारीचि और अन्य पुत्रों ने विनम्रता से अपने पिता से कहा कि  इससे पूर्व किसी ब्रह्मा ने यह नहीं किया।  आप सृष्टा हैं - आप अपनी ही पुत्री से कामभाव रखेंेगे तो सृष्टि किस दिशा में अग्रसर होगी ? अपने प्रजापति पुत्रों की बात से ब्रह्मा लज्जित हुए और तुरंत अपनी देह त्याग दी।  यह त्यागी हुई देह सब दिशाओं में भयंकर अंधकार रूप हुई।

आकूति का विवाह रूचि नामक प्रजापति  से हुआ , देवहूति का कर्दम ऋषि से और प्रसूति का दक्ष प्रजापति से हुआ।  इनसे संतति आगे बढ़ी।

सोमवार, 16 जून 2014

बस यूँ ही

कल क्वचिदन्यतोSपि पर यह कविता पढ़ी।  इस पर टिप्पणी यह लिखी - और सोचती हूँ यहां भी सहेज ही लूँ  :)

:)
जब इतना बड़का संसार 
तत्वों के कॉम्बिनेशन से 
एक्सिदेंटली बन सकता है, 
जीवन संवर बिगड़ सकता है, 
पीढियाँ बीत सकती हैं, 
नदियाँ रीत सकती हैं, 
आकाशगंगाएं उभर सकती हैं
धरतियां सँवर सकती हैं

बारिशों की छुवन से
बहारों के आगमन से
फूलों की कम्पन से
सूरज की तपन से 
भीगती धरा की सतहों पर
अन्न उग जाता मिटटी के कण से

तब क्यों नहीं यह हो 
जो आपकी कविता कह रही
संभावनाओं से सृजा संसार
संभावनाओं से मिले साथी
संभावनाओं की गलियों में
क्यों न खो सकते कहीं ?

:)

सोमवार, 2 जून 2014

श्रीमद भागवतम सुखसागर 3: परीक्षित, कलियुग, श्राप

भाग २ 
भाग १ 

परीक्षित ने कई वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य किया।  उनका विवाह उत्तरकुमार जी की पुत्री इरावती जी से हुआ और उनका जनमेजय नामक पुत्र हुआ।  वे एक बार सरस्वती नदी के किनारे जा रहे थे जब उन्होंने देखा कि एक बहुत कमज़ोर गाय और एक बैल बात कर रहे थे। बैल की तीन टाँगे टूटी हुई थीं और वह लंगड़ा कर चलता था।

बैल गाय से कह रहा था :
"हे माता पृथ्वी, आप इतनी दुखी और कमज़ोर लगती हैं।  आप इसीलिए उदास हैं न कि श्रीकृष्ण आपको छोड़ कर अपने धाम चले गए और धर्म क्षीण हो चला है ?"

गौमाता ने कहा:
"जी हाँ, धर्म देव।  जब कृष्ण यहां थे तब उन्होंने अापका उत्थान किया एवं अन्याय और अधर्म का नाश किया।  अब कलि प्रभाव से धर्म का ह्रास हो रहा है।  धर्म के चार पैर हैं - तपस, शौच, दया और सत्य। आपके तीन चरण कलि प्रभाव से बिगड़ गए हैं और अब कलियुग में सत्य ही बचा है।  मैं बहुत दुखी हूँ कि अब मुझ पर ऐसे लोग रहेंगे जो कहेंगे कि कोई ईश्वर है ही नहीं और यह चराचर जगत सिर्फ पदार्थों के प्रभाव से बना है और चल रहा है।  सिर्फ संयोग और सम्भोग से जीवन बनता और बहता है। ईश्वर है ही नहीं। "

इतने में वहां से एक भयावह दिखने वाला पुरुष आया और वह बैल के चौथे पैर (सत्य) को तोड़ने का प्रयास करने लगा। यह देख कर परीक्षित दौड़े  आए और उस पुरुष को मारने दौड़े।

उस कलि ने अपना भेष त्याग दिया और परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा।  परीक्षित बोले - मैं अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का पुत्र हूँ।  शरणागत की ह्त्या नहीं कर सकता।  तुम कौन हो ? उसने बताया कि वह कलियुग है तो परीक्षित कुपित हो कर बोले कि मेरे राज्य में प्रविष्ट होने का तुम्हारा साहस कैसे हुआ।  निकल जाओ यहां से।

कलि ने कहा - हे राजन , सारी पृथ्वी पर आप ही का तो राज्य है।  मैं कहाँ जाऊंगा ? मुझे भी प्रभु ने बनाया है ,  और समयानुसार ही मैं आया हूँ।  अब मैं कहाँ जाऊंगा ? आप राजा हैं तो मुझे रहने का स्थान देना भी आप का ही धर्म है। क्योंकि मैं प्रभु द्वारा रचित हूँ और आपकी प्रजा भी हूँ।

तब परीक्षित ने सोच समझ कर कहा - ठीक है।  शरणागत प्रजाजन का मैं वध नहीं करूंगा। तुम वहां रह सकते हो जहां ईश्वर का नाम भुलाया जा चुका हो, जहां जुआ, शराब, कामवासना , और ह्त्या की कामना हो। कलि ने कहा - मुझे एक ऐसा स्थान बताएं जहाँ ये सब साथ हों। मैं वहीं चला जाऊँगा।  तब परीक्षित ने कहा - स्वर्ण में यह सब है - तुम स्वर्ण में रह सकते हो।  तत्क्षण कलियुग ने स्वर्ण में अपना घर बना लिया।

परीक्षित का मुकुट भी स्वर्ण का ही था और कलियुग के प्रवेश पर उनका सर कलि प्रभाव से प्रभावित हुआ।
………………

एक बार परीक्षित आखेट पर थे और बहुत थके और क्लांत हो कर वे महर्षि शमिका के आश्रम पहुंचे। उन्होंने आदरपूर्वक ऋषि को प्रणाम किया और जल माँगा।  किन्तु ऋषि समाधिस्थ थे और उन्होंने राजा को कोई उत्तर न दिया।  बार बार पूछने पर भी उत्तर न आने से कलि प्रभावित थके हुए और प्यासे राजा को लगा कि ऋषि जानबूझ कर उनका अपमान कर  क्रोध में आकर उन्होंने वहां पड़े हुए मृत सर्प को ऋषि के गले में डाल दिया और लौट गए।  जब वे महल पहुंचे और मुकुट उतार तो कलि प्रभाव हटा और वे बहुत लज्जित हुए कि मैंने कितना गलत पाप कर्म कर दिया।  वे क्षमा मांगने जाने का सोचने लगे।

उधर ऋषि पुत्र श्रृंगी के मित्र आकर उसे छेड़ने लगे कि तुम्हारे पिता मृत शरीर उठाये हैं।  वह दौड़ा भागा आश्रम पहुंचा और यह दृश्य देख अत्यंत दुखी हुआ।  तत्क्षण उसने कमंडल का जल लेकर श्राप दिया कि जिसने मेरे पिता के साथ यह किया वह ठीक सात दिन में सांप के ही काटने से मर जाएगा।  फिर बालक बहुत रोने लगा।

पुत्र के रोने से ऋषिवर की समाधी टूटी और सब जानकर उन्होंने औने पुत्र को कहा कि तुम कैसे ब्राह्मण हो ? परीक्षित तो धर्मरक्षक राजा है  - प्यास की अधीरता से यदि उनका क्षत्रिय क्रोध उठ आया और उन्होंने यह कर भी दिया तो तुम्हे तो ब्राह्मण के गुणों - क्षमा और शान्ति - का त्याग नहीं करना चाहिए था ? लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता - क्योंकि सच्चे ब्राह्मण का श्राप झूठा नहीं हो सकता।

तभी ऋषि ने महल अपने शिष्यों को भेजा जिन्होंने परीक्षित को बताया कि आज से सात दिन बाद आपकी सांप काटने से मृत्यु हो जायेगी।  यह सुन परीक्षित बिलकुल दुखी नहीं हुए और बोले - मुझसे भयंकर पाप हुआ था , उसका दंड यहीं देकर ऋषिपुत्र ने मुझे मृत्यपरांत पाप का धारण किये रहने से बचा लिया है।

तुरंत परीक्षित ने अपने पुत्र का राज्याभिषेक कराया और सर्वस्व त्याग कर गंगातट पर चल पड़े।  वहां अनेक महान ऋषिगण पहुंचे और मोक्ष के तरीके पर उन्हें सलाह देने के आग्रह पर उन्हें बताने को उद्धत हुए। किसी ने योग, किसी ने तपस, किसी ने दान और किसी ने यज्ञ की सलाह दी।  तभी वहां व्यास पुत्र शुकदेव आये और सभी ने उनसे ही राह सुझाने को कहा। 

शुकदेव जी ने कहा - योग और यज्ञ के लिए एक सप्ताह का समय कम है।  दान आप नहीं कर सकते क्योंकि आप सर्वस्व पहले ही त्याग आये - तो आपके पास दान करने को कुछ नहीं है।  तपस भी एक सप्ताह में नहीं हो सकता।

भागवद कथा के श्रवण से आप शुद्ध हो जाएंगे और ईश्वर धाम को जाएंगे। एक सप्ताह का समय तो बहुत अधिक है - एक मुहूर्त भी भागवत कथा का श्रवण मन और भक्ति से हो तो काफी है किसी के भी लिए।

इसके पश्चात कथा प्रारम्भ हुई।

जारी ……