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गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

wrong interpretations to ancient books

यह कविता निरामिष ब्लॉग की एक पोस्ट पर टिप्पणी में लिखी थी - सोचा यहाँ शेयर कर लूँ  :

शब्द आइना भर ही तो होते हैं
विचारों का जिनमे बिम्ब दीखता है |
जैसे शांत झील के ठहरे जल में
सूर्योदय का प्रतिबिम्ब दीखता है |

पानी झील का छेड़ दे कोई तो
सूरज खम्बा दिखने लगता है |
शब्दों की परिभाषाओं मोड़ वैसे ही
पाठक मूल विचार बदल देता है

आईने को तोड़ देने भर से
नायक बदल नहीं जाता है |
पत्र के शब्द मोड़ देने से लेकिन
मजमून बदल दिया जाता है |

शब्द को सौंप दिए ख्याल जो अपने,
शब्द अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं |
पढने सुनने वाले पर उन्हें मरोड़े तो
शब्द कुछ भी कर नहीं पाते हैं|

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

श्रीमद भगवद गीता २.१८, २.१९

[ अन्य भाग पढ़ने के लिए ऊपर गीता तब पर क्लिक करिये ]

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अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। 
अनाशिनोSप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।

अर्जुन (या कोई भी) अपने प्रियजनों के शरीर से मोहग्रस्त होते है और उनकी मृत्यु के भय सेअपना कर्म नहीं करना चाहता (और यह हम भी करते हैं) . वह बार बार यह  कहता है कि , यह युद्ध अपने प्रिया गुरुजनों और परिवारजनों की मृत्यु का कारण होगा , तो मैं युद्ध नहीं करूंगा।

किन्तु कृष्ण उसे कह रहे हैं कि  जो तू शरीर से मोह करता है - तो उस शरीर को तो ख़त्म होना ही है - उसे तू कैसे बचा सकता है ?
और यदि  शरीरधारी से तू मोह रखता है - तो वह तो नष्ट हो सकता ही नहीं - तू उसके मरने की बात कैसे करता है ? यह जान और समझ लो कि शरीरधारी अविनाशी है - उसके मरने या विनष्ट होने को असंभव जान ले - और इस सब (कचरे) को मन से निकाल कर युद्ध कर।

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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

कृष्ण कह रहे हैं कि जो भी व्यक्ति इस शरीरधारी आत्मन को मारने वाला / या मर जाने वाला समझता है - वे दोनों ही सही यथार्थ नहीं जानते - क्योंकि शरीरधारी आत्मा न तो कभी मारता है न ही कभी मर सकता है (मारा जा सकता है)

कृष्ण यह नहीं कह रहे कि क्योंकि शरीर मारा नहीं जा सकता तो शरीरों की हत्याएं करने लगो - वे कह रहे हैं कि आत्मा को मारना या आत्मा का मर जाना  संभव नहीं - तो शरीर मर ही जाएगा और आत्मा स्थायी ही रहेगा - इसलिए तुम मोहग्रस्त मत हो जाओ।  तुम अपना स्वधर्म (जो अर्जुन के लिए उस समयकाल में युद्ध था) करो - शरीर या शरीरधारी के मरने के मोह में पड़े बिना।  

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

श्रीमद भगवद गीता २.१६, २.१७

पिछले भाग में हमने यह श्लोक पढ़ा :

यं हि न व्यथ्यन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् |
सं दुःख सुखं धीरं सोSमृतत्वायकल्पते ||
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अब आगे :
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।
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(गुरु) कृष्ण (शिष्य) अर्जुन से कह रहे हैं कि असत् (इस सन्दर्भ में शरीर क्योंकि अर्जुन अपने शरीर के सम्बन्धियों के शरीर छूट जाने के भय से कम्पित हो रहा है) का स्थायित्व है ही नहीं और सत् का कभी परिवर्तन हो ही नहीं सकता। तत्व ज्ञानियों ने इन दोनों के विषय में यही निष्कर्ष दिया है। 

अर्जुन डावांडोल क्यों है ? क्योंकि वह भीष्म और द्रोण (के वृद्ध शरीर) से मोह रखता है और सोचता है कि इस युद्ध में मैं अवश्य इन दोनों से बिछड़ जाऊंगा।  कृष्ण कह रहे हैं कि (युद्ध हो या न हो) शरीर तो नष्ट होगा ही क्योंकि शरीर अस्थायी ही है। यह कुछ समय के लिए ही बना है - उस समय सीमा के परे रह ही नहीं सकता। लेकिन इन दोनों के भीतर जिस व्यक्ति को तुम जानते हो वह तो आत्मन है - और वह कभी बदल नहीं सकता।  क्योंकि वह तो बदलाव की सीमा में है ही नहीं - वह तो सत है , और सत अपनी प्रकृति से ही स्थायी होता है। 

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। 
विनाशमव्यवस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।

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अ-विनाशी तो वह है जो पूर्ण शरीर में व्याप्त है ( लेकिन शरीर से पृथक है) और जिससे यह शरीर जीवित है।  उस अविनाशि का विनाश (हो ही नहीं सकता परिभाषा से ही) करने में कोई भी (तू भी) समर्थ नहीं है। 

कृष्ण कह रहे हैं कि जिनके नष्ट होने के भय से तू युद्ध नहीं करना चाहता - वह तो अविनाशी है - वह शरीर है ही नहीं।  वह शरीर को व्याप्त अवश्य करता है लेकिन वह शरीर नहीं है।  उसको कोई भी (तू भी ) नष्ट कर ही नहीं सकता क्योंकि उसका नाश संभव है ही नहीं।   

इन दोनों पंक्तियों में कृष्ण कह रहे हैं की जिनसे अलगाव का भय तुझे भयभीत किये देता है वह वे लोग नहीं हैं - सिर्फ उनके शरीर हैं।  शरीर असत हैं और स्वभाव से ही उनका स्थायित्व नहीं है - वे तो आज नहीं तो कल अवश्य विनष्ट होंगे ही।  उधर शरीर के भीतर बसा हुआ आत्मन शरीर को व्याप्त अवश्य करता है परन्तु शरीर से पृथक वह सत और बदलाव से पर स्थायी है।  उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता (तू भी नहीं)

सोमवार, 18 अगस्त 2014

सभी को जन्माष्टमी की बधाईयाँ और शुभकामनाएं - होने वाले आठवें पुत्र से गीतोपदेशक तक का सफर

२०१२ में श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर यह  थी (लिंक)

आज यह लिख रही हूँ

जन्माष्टमी का पर्व है आज
तो मन में आता है बस 
नन्हा माखन चुराता कान्हा 
यशोमती माई के डंडे के डर से  
भागता - सहमता - छिप जाता कान्हा।

याद आता है - गोपियों की धमकियों से 
चिढ़चिड़ाता नाचता नचाता कान्हा 
याद आता है राधा और नंदिनी के 
बुलावण को मुरली बजाता कान्हा। 

कभी गैया चराता तो 
कभी गोपों संग खिलखिलाता कान्हा 
कभी सेब वाली के फल ले 
मासूमियत से धन के बदल
(हीरों सम) चावल पोटली में भर लाता कान्हा। 

भूल जाता है तुम्हारा वह रूप 
कि जिसमे तुम सुनाते हो 
सर्वोपरि उपदेश - 
साकाम से निष्काम कर्म का सफर 
कर्म से कर्म योग 
अधर्म के नाश से 
धर्म के पुनर्स्थापन का सफर। 

भूल जाते है अर्जुन के वह 
विश्वरूप देख हुए भयभीत स्वर 
हे प्रभु - मुझे माफ़ करो 
मैंने तो आपको - 
हे सखा हे गोविन्द पुकारा। 
अपना सम सखा ही मान आपको 
बहुत निरादर व्यवहार किया। 

याद बस रहता है वह 
हँसता नन्हा निश्छल बालक 
जो बांसुरी की धुन पर 
सारे संसार को नचाता 
इंद्र की अतिवृष्टि से गोकुल को 
गोवर्धन उठा शरण देता बालक। 

तुम कौन हो कृष्ण ? कौन हो ? 
बोलो ? क्या वह बालक हो जो गैया चराता है ? 
या वो जो मुरली बजाता है ?
वो जो गोवर्धन उठाता है या वो जो रास रचाता है ?
वह फिर कौन है जो रुक्मिणी को हर ले जाता है 
या भामा की तुला में तुल जाता है ?

कौन हो तुम बोलो ? 
जो जरासंध का वध कराता है 
या अर्जुन को कर्म पथ बताता है ? 
कौन हो तुम कहो तो  कान्हा ?


बुधवार, 6 अगस्त 2014

दोहरे मापदंड: सेकुलर मापदंड?

घन अचरज भया भाया। 

तुलसी की पंक्ति पर कितना
तुमने बवाल मचाया।

मनुस्मृति की शब्दावली ले
संस्कृति को गरियाया।

राम किशन सबके अपकर्मों का
तुमने हिसाब लगाया।

लेकिन अपने गिरेहबान में तुमको
काला कुछ नजर न आया!! 
घन घन घन अचरज है भाया!!

गाज़ा के बच्चों के लिए
मन मन भर दुआएं भाया
लेकिन उत्तराखंड की आपदा
धर्मान्धों की मूरखता कहलाया :(

आईसिस ने यज़ीदी मारे 
बोकोहारम ने उठवायी बच्चियां 
लेकिन सेकुलर उफ़ न कह पाया  
मोहन भागवद के शब्द साम्प्रदायिक 
कांगी युवराजा मंदिर वालों को 
लड़कियां छेड़ने वाले गुंडे कह
साफ़ सफ़ेद निकल आया .... 
घन घन अचरज भया भाया। 


मेरठ की लड़की दिखी न तुमको 
रोजा रोटी रटते पाया
घन घन घन अचरज है भाया !!! :( :(

सोमवार, 21 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १८ : वृटासुर चित्रकेतु

अन्य भागों के लिए ऊपर भागवतम् टैब क्लिक करें
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डिस्क्लेमर :
यह कथा मेरा एक निजी प्रयास है भागवतम जी की कहानियों को साधारण भाषा में अपने मित्रों (और अनजान लोगों से भी) शेयर करने का।  जो मेरी समझ है उससे मैं लिख रही हूँ।  यदि कहीं कोई बात अनुचित है या गलतियां हैं या समाज के किसी वर्ग के प्रति शोषण/ या किसी पर शोषक का गलत लेबल लगता है या किसी की भावनाओं को ठेस लगती है या कोई बात गलत लिखाई गयी है - तो कृपया पोस्ट दर पोस्ट जहां आपको आपत्ति हो वहां कॉमेंट में बताएं।  यदि मेरा और आपका दृष्टिकोण मेल नहीं खाता तो चर्चा करेंगे। यदि गलत प्रेजेंटेशन आदि है तो मैं सुधार भी करूंगी। 

यह श्रृंखला कोई धार्मिक पुस्तक या शास्त्र आदि नहीं - सिर्फ एक निजी प्रयास है।  इससे या इसमें हुई गलतियों से कृपया किसी धर्म / वर्ग / समाज / .... पर कोई आक्षेप न लगाएं।  ऐसी टिप्पणियां प्रकाशित नहीं की जाएंगी। 

इन दिनों सेमिस्टर ब्रेक की छुट्टियां थीं तो यह प्रोजेक्ट चल रहा था।  छुट्टियां ख़त्म हो कर कॉलेज खुलने को हैं। अभी के लिए इस श्रंखला की शायद यह आखरी पोस्ट हो या एक दो पोस्ट शायद और लिख पाऊँ।  उसके बाद एक सेमिस्टर का ब्रेक - फिर , यदि ईश्वर की मर्जी और कृपा हुई , तो अगली छुट्टियों में यह कार्य पुनः आरम्भ करूंगी जहाँ इस बार सिरा छूटेगा।  आशा करती हूँ यह प्रयास पूर्ण कर सकूँ । 
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पिछले भाग में वृटासुर के धर्मोपदेश से चकित हुए परीक्षित जी ने गोस्वामी शुकदेव जी से पूछा था कि ऐसे भयंकर इन्द्रशत्रु के मुंह से इतनी उच्च ज्ञान और धर्म की बातें कैसे निकलीं ? ऐसी निर्मल भक्ति तो उन देवताओं में भी नहीं दिखाई देती जो प्रभु के चरणकमलों तक भी पहुँच सकते हैं - वे भी भौतिक सुखों की मांग में प्रभु मिलन के दिव्य सुख को भूले जाते हैं, तब यह तो एक असुर था ?तब  शुकदेव जी ने कहना शुरू किया:

हे राजन!! इससे पहले मैं आपको एक अन्य कथा सुनाता हूँ।  सूरसेन नामक प्रदेश में चित्रकेतु नामक राजा थे।  वे धर्मानुसार राज्य काज करते थे और उनकी प्रजा सुखी रहती थी।  उनकी अनेक रानियां थीं , किन्तु संतानसुख न था, जिसके कारण वे उदास रहते। थे  एक बार श्री संत अंगिरा जी नारद जी सहित उनके यहाँ पधारे। राजा ने पूरी विनम्रता से उनका स्वागत किया और वे प्रसन्न हुए।  उनके चरणों में बैठे राजा से उन्होंने पूछे - हे राजन।  आपके राज्य में प्रजा सुखी है , किन्तु जो राजा अपने मन को न बाँध सके वह राज्य को कैसे सम्हालेगा ? आपका मन अशांत लगता है - इसका क्या कारण है ?

तब राजा ने अपनी कामना बताई।  ऋषिवर ने राजा को एक दिव्य पेय दिया जिसे राजा ने अपनी प्रियतमा पत्नी कृतद्युति को दिया।  ऋषिवर लौट गए।  राजा के सौभाग्य और ऋषिवर के आशीर्वाद से शीघ्र ही वे एक पुत्र की माता बनीं।

राजा चित्रकेतु की प्रसन्नता का ठिकाना न था।  वे अपने पुत्र में ऐसे खो गए कि अपने अन्य कर्तव्य भूलने लगे। वे सदा अपने पुत्र के साथ उसकी माता के कक्ष में समय बिताना पसंद करते, जिससे अन्य रानियों को उनका एक रानी के साथ अधिक प्रेम देख कर ईर्ष्या होने लगी।  ईर्ष्या से उनकी बुद्धि का नाश हुआ और एक दिन सब रानियों ने मिल कर बालक राजकुमार को जहर दे दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। जब सोता हुआ राजकुमार बहुत देर तक न जाएगा तो माँ को चिंता हुई और उसने सेविका को बालक को लाने भेजा।  यह जान कर कि बालक मृत है, माँ सुधबुध खो बैठी।  राजा रानी और पूरा राज्य शोक विषाद में डूब गया। जिन रानियों ने यह किया था वे भी खूब रोतीं और दुखी होने का आभास करातीं, जबकि वे भली प्रकार जानती थीं कि सच क्या है।

कुछ समय बाद महर्षि अंगिरा जी ने जान लिया कि राजा शोक से मृत्यु के निकट हैं तो वे अपनी कृपा के कारण श्री देवर्षि नारद जी सहित फिर से वहां आये। वे आये और यह सब देख कर उन्होंने राजा को उपदेश दिया।

महर्षि जी बोले - हे राजन - जिस बालक से दूर हो जाने पर आप इतने संतप्त हैं - वह आपका कौन था ? इस जन्म में उसका शरीर आपके इस जन्म के शरीर के अंश से बना था, किन्तु आप दो अलग अलग जीवात्माएं हैं जो अपनी अपनी राह पर कुछ समय के लिए पास आई थीं और अब फिर से पृथक राहों पर चलने लगी हैं।  जैसे नदी में पड़े पत्ते और तिनके कुछ दूर साथ होते हैं किन्तु समय के साथ अलग हो जाते हैं, वैसे ही हम भी इस संसार में ऐसे ही साथ आते और अलग होते हैं।  आप यह शरीर नहीं , अपितु इसके भीतर वास करने वाले "देही" हैं। "पिता" कहलाने वाले एक देही के वस्त्र रुपी देह में दूसरा देही प्रवेश करता है।  वहां से वह "माता" कहलाने वाले तीसरे देही के वस्त्र में जाता है।  फिर वहाँ से "संतान" नामक उस देहि के वस्त्र रुपी देह का प्राकट्य होता है और कुछ समय के लिए वह देहि यह वस्त्र धारण करता है।  फिर पहले देही को दुसरे देही को पुत्र मान लेना क्या उचित है ? देही अजन्मा है, अमर है, अनादि अनंत है।  यह किसी का पुत्र नहीं, किसी का पिता नहीं।  

यह सब सुन कर भी राजा के मन को शान्ति न होती थी।  तब उन्होंने आंसू पोछते हुए ऋषिवर से पूछा आप कौन हैं ? आप जो ज्ञान की बातें कहते हैं वे मुझे समझ नहीं आतीं। तब अंगिरस जी बोले - मैं वही हूँ जिसने तुम्हे वह पेय दिया था।  तबसे अब के बदलाव से तुम मुझे नहीं पहचान पाते।

मनुष्य जब आकाश को देखता है तो जानता है कि यह शून्य है।  फिर वहां मेघ आ जाते हैं तो मेघों में कभी महल कभी नगर कभी किसी के चेहरे दिखने की अनुभूति होती है और हम वहां एक काल्पनिक संसार देखने लगते हैं। ये बादलों पर दीखते नगर "गन्धर्वनगरी" कहलाते हैं। कुछ समय बाद पवन उन मेघों को बिखेर देता है तब आकाश फिर से खाली हो जाता है।  हम जानते हैं कि आकाश का निज स्वरूप शून्यता ही है फिर भी मेघों के आवरण से हमे कितने भ्रम होते हैं।  ऐसे ही, देही  जब देह में होता है , तब उसे माया प्रभावित करती है।  माया के आवरण से पुत्र पत्नी आदि के आभास ओते हैं, जबकि सत्य यह है कि हर देही अपनी यात्रा अकेले कर रहा है, किसी का किसी से कोई संबंध नहीं।

जब हम एक स्वप्न देखते हैं तो एक पृथक देह में होते हैं, दूसरे स्वप्न में एक और पृथक देह में।  इन दोनों ही का हमारी असल देह से कोई संबंध नहीं।  जब हम जागते हैं तो जानते हैं कि वह देह झूठ थी, किन्तु स्वप्न में होते हेु हम नहीं जान पाते की यह देह असल नहीं।  इसी प्रकार यह भौतिक देह भी है। हे राजन, इस मोह को तोड़ कर बाहर आइये।

राजा को तब नारद जी ने समझाया।  नारद जी ने अपनी शक्ति से उस जीवात्मा का आह्वान किया जो पुत्र बन कर आया था।  नारद जी बोले - हे शुभ जीव-आत्मन, आपकी जय हो।  जरा अपने माता और पिता को देखिये,  जो आपके बिना कितने शोकसंतप्त हैं।आप अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, आपका जीवन काल अभी शेष है।  आप इस देह में पुनः प्रवेश करें और उस जीवन काल तक इन्हे सुख दें।

तब नारद जी की योगशक्ति से उस जीवात्मा ने कुछ समय के लिए फिर इस देह में प्रवेश किया। वे गंभीर वाणी में बोले : मैं इस संसार में आता जाता रहता हूँ।  जन्म द्वार से एक भवन (देह) में प्रवेश कर मृत्यु द्वार से उसे त्याग देता हूँ।  जब तक मैं उस देह में हूँ तब तक वे द्वार जिनसे मैंने प्रवेश पाया उन्हें माता पिता कहता हूँ।  तत्पश्चात देहत्याग के बाद मेरे सारे पूर्वजन्म एक स्वप्न हो जाते हैं।

आप कहते हैं ये मेरे माता पिता हैं जो विलाप करते हैं।  किन्तु मेरे तो अनेक जन्मों में अनेक माता पिता रहे हैं - मैं इन दोनों को कैसे अपने माता पिता मान लूँ? जो देह त्याग दी उसके सम्बन्ध उसके साथ ही समाप्त हुए। जैसे स्वर्णाभूषण पहले सुनार के डब्बे में होता है।  फिर खरीदार धन देकर उसे दुसरे डब्बे में घर ले जाता है।  फिर उसके घर में कोई स्त्री उसे अपनी तिजोरी में रखती है।  फिर पुत्रवधु आने पर वह डब्बी उसके पास चली जाती है।  इनमे से प्रत्येक व्यक्ति हर बार उस डब्बी को अपने अधिकार में रखते हुए सोचता है कि उसके भीतर का स्वर्ण मेरा है।  किन्तु सच यह है कि वह स्वर्ण बस स्वर्ण है।  वहां वास तो कर रहा है , किन्तु है किसीका भी नहीं।  ऐसे ही मैं किसी का पुत्र नहीं, कोई मेरे माता पिता नहीं।  अब मैं इस मिटटी के शरीर में और नहीं रह सकता।  आप लोग धीरज धरिये, मैं आपका कोई नहीं और आप मेरे कोई नहीं - यह माया के परदे हैं।  यह कह कर जीवात्मा फिर से वह देह त्याग कर चला गया।

पुत्र कहलाने वाले के मुंह से यह सब सुन कर सबका मोहभंग हुआ और वे शोक त्याग कर अपने कर्तव्य करने लगे।  जिन रानियों ने यह कुकृत्य किया था अब वे पछताने लगीं।  वे नदी पर जाकर स्नान आदि कर प्रायश्चित करने लगीं। पुत्र के अंतिम संस्कार के बाद भी राजा का मन अब अशांत न था।  तब वे यमुना में स्नान कर के आये और उन्होंने अंगिरस जी और नारद जी को प्रणाम किया।


नारद जी ने राजा को मन्त्र की दीक्षा दी।  जैसे लोहा ज्वलनशील नहीं है फिर भी भट्टी में गर्म करने पर दहक उठता है, उसी तरह हमारी इन्द्रियां भी आसानी से नहीं जलतीं किन्तु ज्ञानी गुरु के दिए मन्त्र से जल उठती हैं।  राजा चित्रकेतु की आंखॉ से सब परदे हट गए और वे अब प्रसन्न थे।  नारद जी के शिष्य बने राजा ने एक सप्ताह तक बिना कुछ भी अन्न जल लिए यह मन्त्र लगातार कहना जारी रखा। तब वह विद्याधर हुआ। कुछ और काल तक तपस्या करने से राजा को अनंत शेष जी के दर्शन हुए। श्री शेष जी के साथ सनत्कुमार जी और उन जैसे पहुंचे हुए ऋषि थे। दर्शन  चित्रकेतु का मन संसार से पूर्णतयः छूट गया। उन्हें भक्तिविभोर हो कर शेष जी की स्तुतियाँ गायीं।

श्री शेष जी ने चित्रकेतु को ज्ञान का उपदेश दिया और अंतर्ध्यान हो गए।  जी के जाने के बाद उस दिशा को प्रणाम कर के चित्रकेतु विद्याधरों के लोक में यात्रा पर चल पड़े। वे सिद्धलोक आदि में भी विचरण करते रहते।
एक बार वे विष्णु जी द्वारा प्रदत्त दिव्य रथ में भ्रमण कर रहे थे कि उनकी नज़र शिव जी पर पड़ी, जो सिद्धों आदि के संग बैठे उपदेश दे रहे थे।  पार्वती जी उनकी जांघ पर गोद में बैठ थीं और शिव जी उन्हें आलिंगन किये हुए ही बोल रहे थे।  यह देख कर चित्रकेतु जोर से हँसे और श्री शिव शिवा को सुना कर कहा कि, यह कैसा धर्म है जिसके अनुसार शिव इतने सिद्धों, जिनमे नारद, भृगु कुमार आदि भी हैं, की सभा में अपनी स्त्री का आलिंगन किये बैठे हैं? अचरज है कि इन ज्ञानियों ने भी इन्हे ऐसा करने से नहीं रोका !!

यह सुन कर श्री पार्वती जी को क्रोध हो आया।  वे बोलीं - रे मूर्ख!! तू नहीं जानता कि मेरे स्वामी कौन हैं ? उनकी निंदा की योग्यता किसी में नहीं है - तुझ जैसे मूर्ख में तो बिलकुल नहीं।  जा मैं तुझे श्राप देती हूँ कि तू एक अधम जन्म लेगा जिसमे तू कभी ऐसे लोगों के संपर्क में नहीं आएगा न उनसे ऐसी अपमानजनक बातें कहेगा।

तब चित्रकेतु अपने विमान से उतर कर पार्वती जी के पास आया और उन्हें प्रणाम कर कहा - हे माते , मुझे आपका श्राप मंज़ूर है।  हमें जो भी जन्म मिले वह हमारे पूर्व कर्मों पर निर्भर है।  इसलिए वरदान और श्राप में मुझे कोई फर्क नहीं दिखता।  ईश्वर एक ही हैं, और वे कृपानिधान हैं।  वे मेरे जन्म या मेरे शरीर की निकृष्टता को नहीं देखेंगे - बल्कि जैसे माता पिता अपनी कुरूप से कुरूप  संतान से भी प्रेम करती हैं, वैसे हो मैं भी उस रूप से भी प्रभु को स्वाईकार्य ही रहूंगा, यह मेरा विश्वास है।  हे मातेश्वरी, मैंने कुछ अधर्मपूर्ण किया तो नहीं था, किन्तु आप की आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।  

यह कह कर चित्रकेतु प्रणाम कर वहां से चले गए।  

तब श्री शिव जी ने माता पार्वती से कहा - आपने इनकी महानता देखी ? ये वैष्णव हैं। वैष्णवों की अनंत शक्ति होती है।  वे हरिभक्त हैं और किसी भी जीवन से उन्हें भय नहीं होता।  हम में से कोई भी श्री नारायण को नहीं समझ सकते, किन्तु उनके भक्तों के तो वे हृदय में वास करते हैं।  शुकदेव जी परीक्षित से बोले - हे राजन।  चित्रकेतु में इतनी शक्ति थी कि वह इस श्राप पर माता को श्रापित कर सकते थे - किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।  

यही राजा चित्रकेतु माँ भवानी के शब्द के कारण अब वृटासुर हुए।


जारी ..........  

शनिवार, 19 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १७ : इंद्र , त्वष्ठा जी के पुत्र विश्वरूप और वृटासुर

अन्य भाग पढ़ने के लिए ऊपर भागवतम टैब पर क्लिक करें
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कश्यप जी की एक पत्नी , दक्ष पुत्री दिति के दो पुत्रों के बारे में हमने पिछले दो भागों में पढ़ा। अब अदिति जी के पुत्रों की ओर देखते हैं। दक्ष की एक और पुत्री थीं अदिति जो कश्यप जी की ही संगिनी हैं। जहां दिति जी महाशक्तिवान असुरों की माता बनीं, वाही अदिति जी ने देवमाता होने का गौरव प्राप्त किया। अदिति जी के देवता पुत्रों ( सूर्य के बारे में देखने के लिए भाग आठ देखिये ) में दो प्रसिद्ध नाम हैं - उपेन्द्र (आगे इनकी कथा आएगी, ये वामन नाम से भी प्रसिद्ध हैं ) और इंद्र। इस भाग में इंद्र और वृटासुर का वर्णन है।

इंद्र देवताओं के राजा हो गये थे और स्वर्ग के सिंहासन पर आरूढ़ थे। उनका अहंकार बहुत बढ़ गया था और सिंहासन से मोह भी उन्हें बहुत था। यह मोह और अभिमान उन्हें अनेकों बार कई पापों में डुबाता रहा है।

स्वर्गाधिपति होने के मद में चूर इंद्रदेव एक बार अपनी सभा में बैठे थे। अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और गन्धर्व, किन्नर, सभी देवता, ११ रूद्र, ७ मारुत, १२ आदित्य आदि उपस्थित थे। तभी देवगुरु बृहस्पति जी वहां आये। उनके सम्मान में सभी उठ खड़े हुए किन्तु दंभ में डूबे इंद्र बैठे रहे। इस अपमान पर बृहस्पति जी ने कुछ क्षण इंद्र की तरफ देखा, फिर भी इंद्र को अपनी गलती का बोध न हुआ - तब बृहस्पति जी बिना कुछ बोले या कोई श्राप दिए वहां से मुड़ कर चले गए। उनके जाने के बाद इंद्र की समझ में आया कि कुलगुरु को अपमानित कर उन्होने कितना बड़ा अपराध कर दिया है। तब वे भागे भागे बृहस्पति जी से माफ़ी मांगने उनके घर पहुंचे, किन्तु गुरुदेव अंतर्धान हो चुके थे।

आग की तरह सब तरफ खबर फ़ैल गयी कि देवता अपने महान गुरु एवं सरक्षक को खो चुके हैं। यह जान कर असुरों ने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्य की मदद से स्वर्ग पर धावा बोल दिया और देवताओं को खदेड़ दिया। हमेशा की तरह देवता ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे उपाय माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा - गुरुविहीन होकर आप कोई आस नहीं रख सकते। अपनेअभिमान में आपने बृहस्पति जी को खो दिया है।  अब आपके गुरु होने योग्य त्वष्ठा जी के पुत्र विश्वरूप जी ही हैं - आप उनकी ही शरण में जाइए। वे योग्य तो हैं किन्तु एक असुर होने के नाते उनका झुकाव असुरों के प्रति ही रहेगा, और यह आप लोगों को सहन करना होगा। तब इंद्र के नेतृत्व में देवगण विश्वरूप जी के पास गए और उनकी स्तुतियाँ गायीं। उन्हें अपना गुरु बनने के लिए सादर निमंत्रण दिया। इंद्र ने कहा कि उम्र में हमसे कम होते हुए भी आप ज्ञान में हमसे बहुत आगे हैं, इसलिए हम आपके चरणों को स्पर्श करते हुए आपसे अपने गुरु बनने की विनती करते हैं। तब विश्वरूप जी ने इंद्र की विनती स्वीकार कर ली और उनके गुरु बने।

विश्वरूप जी ने ही इंद्र को "नारायण कवच" के लिए "ॐ नमो नारायणाय" मन्त्र दिया।  नारायण कवच की वजह से इंद्र युद्ध में सुरक्षित रहते और देवता फिर से विजयी हो स्वर्ग लौट आये।

एक यज्ञ के दौरान इंद्र ने देखा कि उनके गुरु विश्वदेव, जब "इन्द्राय इदं" या "वरुणाय इदं" कह कर हवि चढ़ानी हो , वहां वे असुरों का नाम लेकर हवि देवताओं के बजाय , असुरों को पहुंचा रहे हैं। इंद्र क्रोधित हुए और भूल ही गए कि ब्रह्मा जी ने उन्हें इस बारे में संयम रखने को कहा था। क्रोध में इंद्र ने तुरंत तलवार उठाई और अपने गुरु विश्वरूप जी के तीनों सर काट दिए।

१. एक सर - जिससे वे सोमरस पीते थे - वह "सोमपीतम"कहलाता था - वह सर सबसे पहले कटा और कपिंजला नामक पक्षी बना (चकोर जैसा एक तीतर partridge )

२. दूसरा सर जिससे वे सुरा पीते थे - वह "सुरापीतम" कहलाता था - वह कलविंगा नामक पक्षी (sparrow) और

३. तीसरा जिससे वे भोजन करते - वह "अन्नदम" कहलाता था और टिट्टिरी नामक पक्षी बना (आम तीतर)

लेकिन विश्वरूप जी की ह्त्या से इंद्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इंद्र ने एक वर्ष इस पाप को उठाया फिर इसे धरती, वृक्षों, स्त्रियों, और जल को बांटने के बदले में इन सभी को एक एक वरदान दिया।

[
1. धरती ने जो पाप ग्रहण किया उससे धरा पर रेगिस्तान आये। वरदान पाया कि उसके गड्ढे अपने आप भर जाएंगे।
२. वृक्षों ने पाप का जो हिस्सा लिया उससे यह हुआ कि उन को काटने से उनमे से रस टपकेगा। वरदान पाया कि कटी हुई टहनियां आदि दोबारा उग जाएंगी
३. स्त्रियां पाप दोष से रजस्वला होने के समय अशुद्ध हुईं। उसके बदले वे गर्भावस्था में भी गृहस्थ सम्बन्ध बनाने में समर्थ हुईं।
४. जल ने जो पाप का हिस्सा लिया उससे जल पर अशुद्धि रूपक झाग जमा होता है। वरदान हुआ कि जल जिसमे मिलाया जाए उसे बढा देगा(जैसे दूध))

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अपने पुत्र विश्वरूप की इंद्र द्वारा की गयी पापपूर्ण हत्या से क्रोधित हो कर त्वष्ठा जी ने एक यज्ञ किया और "इन्द्रशत्रु प्रकट हो" के शब्द के साथ एक विशालकाय असुर प्रकट हुआ। यही त्वष्ठा जी का पुत्र वृट कहलाया, और वृटासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। देवता भयभीत हुए और नारायण की शरण में गए। स्तुति करते हुए देवताओं ने मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार , नरसिंहावतार, और वामनावतार की प्रार्थनाएं गायीं। तब पहले उनके हृदय में, और फिर उनके सम्मुख श्री हरि प्रकट हुए। प्रभु सोलह कलाओं, शंख , चक्र, स्फटिक मणि और श्रीवत्स सहित अति शोभायमान होते थे। देवता उनके चरणों में गिरे और उपासना की। उनसे उपाय माँगा। श्री मधुसूदन बोले :

हे देवताओं ! भक्ति सिर्फ हमारे प्रति प्रेम से की जानी चाहिए, कुछ पाने के लोभ से प्रार्थना करना कृपणता कहलाता है। हमें प्रसन्न करने से सब कुछ सुलभ होता है किन्तु हमारी आराधना सांसारिक लाभ के लिए करना मूर्खता है, और ऐसी मूर्खतापूर्ण भक्ति वाले भक्त नहीं , पाखंडी होते हैं, और ऐसे मूर्खों की सांसारिक इच्छाएँ पूरी करना उनके आराध्य को भी मूर्ख ही दिखायेगा। जैसे चिकित्सक बीमार को उस बीमार की इच्छा के कारण वह भोजन नहीं दे देता जो वह खाना चाहता है, बल्कि वही जो उसके लिये अच्छा है, इसी तरह आराधना करने वाले उसकी सांसारिक कामनाओं की अपेक्षा उसके लिए जो अच्छा हो वह देना ही आराध्य को शोभा देता है। हे माघवन (इंद्र) आप हमसे सहायता न मांगें। आप अथर्व जी के पुत्र दधीचि जी के पास जाएँ। उन्होंने तप आदि से अपने शरीर को वज्र सा बनाया है। आप उनसे उनकी अस्थियां मांगें और उन अस्थियों से विश्वकर्मा जी वज्र बनाएं। सिर्फ उसी वज्र से वृटासुर का वध होगा।

तब देवतागण दधीचि जी की शरण में गए और उनसे (बहुत शर्मिन्दा होते हुए) उनकी अस्थियां मांगी। दधीचि जी बोले - हे देवेन्द्र, हर जीव अपने जीवन से प्रेम करता है और मैं भी जीने की कामना रखता हूँ। आप मुझसे मेरा जीवन मांगते हैं ? क्या यह देवेन्द्र को शोभा देता है ? तब इंद्र ने अत्यंत विनम्रता से कहा कि हे ब्राह्मण ! आप जैसे महात्मा परसुख के लिए अपने प्राण तक देने में नहीं झिझकते।  हमारे पास इसके अलावा कोई राह नहीं।  तब दधीचि जी ने कहा कि यदि व्यक्ति को संसार के भले के लिए अपना सर्वस्व भी देना पड़े, तो देना चाहिए। आप लोग मेरी अस्थियां लेना चाहते हैं तो मैं समाधि ले लेता हूँ। तब दधीचि जी ने समाधि ले ली और अपना शरीर त्याग दिया। इनके अस्थियों से बना वज्र लेकर इंद्र सेना सहित ऐरावत पर सवार हो कर चले।

सतयुग के अंत और त्रेता के प्रारम्भ में नर्मदा नदी के किनारे भयंकर देवासुर संग्राम हुआ जिसमे एक ओर इंद्र थे तो दूसरी ओर वृटासुर।  इंद्र के साथ सभी देवता,अनेक रूद्र, मारुत, आदित्यपिटर, विश्वदेव, ऋभु, आदि थे तो उधर असुरों की सेना में दैत्य, यक्ष, राक्षस, आदि थे जिनका नेतृत्व माली , सुमाली, नामची, ऋषभासुर , हयग्रीव (यह हयग्रीव विष्णु जी के अवतार हयग्रीव से अलग है) आदि कर रहे थे। युद्ध में असुर भागने लगे तब वृटासुर ने उन्हें वापस बुलाया और ज्ञान का पाठ समझाया:

मुझे सुनो, हे असुरों!! जो एक बार जन्म लेता है, वह अवश्य ही मृत्यु को भी प्राप्त होता है !! जब यह अटल सत्य है, जब तुम सब यह जानते ही हो किएक न एक दिन मृत्यु का सामना करना ही है, तो तुम लोग कभी भी रुक कर मृत्यु के विषय में क्यों नहीं विचार करते? अपरिहार्य मृत्यु यदि ऐसे सम्मानजनक तरीके से आये और उच्च लोकों में स्थान दिलाये, तो क्या वह अवांछनीय से वांछनीय नहीं हो जायेगी ? योगस्थित हो कर शरीर त्यागना और युद्धभूमि में प्राणों की आहुति देना, ये दोनों ही दुर्लभ हैं।  यह सौभाग्य बहुत काम लोगों को प्राप्त होता है, इससे डरो मत।  इसका स्वागत करो। 

लेकिन असुरों ने उनकी बात न सुनी और भागते रहे। 

तब वृटासुर देवताओं की  और क्रोध से बोले - इन भयाक्रांत हो कर भागते हुए सैनिकों को परेशान करना आप लोगों के लिए अशोभनीय है।  आप यदि वीर हैं तो मुझसे युद्ध कीजिये। उसकी भयंकर दहाड़ ने देवताओं में भय पैदा कर दिया।  वह अकेला ही देवताओं पर चढ़ दौड़ा और उनकी सेना को नष्ट करने लगा।  तब इंद्र ऐरावत पर बैठे उसकी तरफ लपके और वृट ने ऐरावत को गदा मारी जिससे वह लड़खड़ा गया।  वृट इंद्र को सम्बोधित कर बोले : हे पापी इंद्र - तुम ने अधर्मपूर्वक मेरे भ्राता की ह्त्या की , जब वे गुरु स्थान पर यज्ञ कर रहे थे।  इस पाप का बदला मैं लूँगा।  मैं मृत्यु से नहीं डरता क्योंकि मर कर मैं श्री प्रभु के पास पहुंचूंगा जो मेरे हृदय में बसते हैं। अपने वज्र का प्रयोग कर मुझ पर हमला करो।  इस वज्र के ही लिए तो तुमने दधीचि जी से पापपूर्वक उनके प्राण मांग लिए।  यह भय त्याग दो कि तुम्हारी गदा की तरह यह भी बेकार जायेगा क्योंकि इसमें दधीचि जी के तप की और स्वयं श्री नारायण के आशीर्वचन की शक्ति है।  भय त्याग कर युद्ध करो। 

इंद्र ने एक असुर से ऐसे शब्दों की अपेक्षा न की थी।  वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर सुन रहे थे।  वृटासुर ने बोलना जारी रखा मैंने अपने हृदय को नारायण के चरणों में स्थापित किया हुआ है।  मृत्यु मेरे लिए इस भौतिक शरीर से मुक्ति भर होगी।  जब प्रभु अपने भक्त से प्रेम करते हैं तो उसे सांसारिक सुख के सागर में नहीं डुबाते , धनसम्पन्न नहीं बनाते। क्योंकि वे कि  धन समृद्धि व्यक्ति को संसार से और बाँध देती है।  व्यक्ति समाज में उच्च स्थान, सम्मान और धन के ही कारण नफरत, भय, मानसिक तनाव , मद, विवाद, और दुःख का शिकार होता है. अहो इंद्र - मेरी बात सुनो।  प्रभु इन सब से अपने प्रिय भक्त को मुक्ति देते हैं।  

सहसा वृटासुर युद्धभूमि को भूल कर नारायण से प्रार्थना में खो गया।  : हे प्रभु - मुझे अपने दास का दास स्वीकार कर लीजिये।  मेरा तन सिर्फ वह कर्म करे जो आपको प्रिय  हों।  मेरी वाणी सिर्फ आपके गीत गाये।  मुझे ध्रुव महाराज की तरह स्थापित नहीं होना, न ब्रह्मा की  तरह होना है।  मुझे धरती का राज्य नहीं चाहिए न स्वर्ग का।  मुझे माया से निकालिये और अपने सेवकों का सेवक बना लीजिये।  मेरी आँखों पर पड़ा माया का पर्दा हटा कर मुझे भवसागर से निकालिये।  

इसके बाद वे फिर से युद्ध करने लगे।  वृटासुर ने इंद्र और उसके ऐरावत पर प्रहार किया जिससे इंद्र के हाथों से वज्र गिर पड़ा।  शत्रु के आगे झुक कर उठाने में इंद्र को शर्मिंदगी लगी और वे नहीं झुके।  तब वृट ने कहा - यह सब सोचने का यह समय नहीं। क्या तुमने कभी कठपुतलियों का खेल नहीं देखा ? काठ की बनी मानव आकृतियां आपस में वैसे ही आचरण करती हैं जैसे उन्हें धागों से कराया जाता है।  हम भी उसी तरह विधाता की कठपुतलियां हैं।  हमें अपनी अपनी भूमिका निभानी है। आत्मज्ञानी जानते हैं की सतो, रजो और तमोगुणों की रस्सियों से बंधे हम आचरण करते हैं।  द्वैत में मत पदो और अपना कर्म करो।  वज्र  लेकर मुझ पर प्रहार करो। तब इंद्र ने कहा कि आप तो सिद्ध हैं, आप असुर होते हुए भी रजोगुण या तमोगुण से प्रभावित नहीं।  आप सात्विक हैं और आपका मन प्रभु में विलीन हो चूका है।  मैं आपको प्रणाम करता हूँ। 

तब दोनों ने अपना युद्ध पुनः आरम्भ किया।  दोनों में भयंकर युद्ध हुआ , जिसमे इंद्र ने वज्र से असुर की दोनों भुजाएं काट दीं।  तब वृटासुर ने मुख बहुत बड़ा खोल कर इंद्र को निगल लिया था।  किन्तु विश्वरूप जी के दिए नारायण कवच की वजह से इंद्र को कुछ नहीं हुआ और वे असुर का पेट को चीर कर बाहर आ गए।  तदोपरांत इंद्र ने असुर का सर काट दिया।  असुर के शरीर से लौ निकली और नारायण चरणों में विलीन हो गयी। 

किन्तु ब्रह्महत्या का पाप इंद्र का पीछा करने लगा।  पिछली बार अपना पाप धरती , जल, स्त्रियों और वृक्षों में बाँट चुके इंद्र के पास अब कोई उपाय न था।  ऋषियों ने उन्हें कहा था कि यज्ञ करा कर वे इस पाप का प्रायश्चित कराएंगे किन्तु इंद्र के पीछे लगी ब्रह्महत्या भयावह वेग और जलन से उनका पीछा कर रही थी और इंद्र को कहीं शरण न मिल रही थी।  इंद्र जहां जाते ब्रह्महत्या उनका पीछा करती।  वे जान गए कि तपस के अलावा कोई उपाय अब काम न आएगा।  तब इंद्र मानसरोवर में एक कमल की डंठल में छिपे , मानसरोवर लक्ष्मी जी द्वारा रक्षित होने से ब्रह्महत्या वहां प्रवेश न कर सकी और इंद्र ने एक हज़ार वर्षों तक वहीं तप किया और इस पाप का प्रायश्चित किया। इस एक वर्ष तक इंद्र अपने लिए यज्ञों में अर्पित हवि को स्वीकार नहीं कर सकते थे।  इस अवधि में (पुरुरवा और प्रभा जी के पुत्र) राजा नहुष इंद्र के स्थान पर स्वर्गाधिपति बने। किन्तु नहुष शचीदेवी को पत्नी रूप में पाने के लिए लालायित हुए जिसके परिणामस्वरूप उन्हें ब्राह्मणों के श्राप से अजगर बनना पड़ा।बाद में लौट कर इंद्र ने अश्वमेध यज्ञ करवाया।  

परीक्षित जी बोले -  मुझे एक दुविधा है।  वृट तो एक भयंकर असुर था जो जन्मा ही इंद्र का शत्रु हो कर था।  फिर उसके मुंह से ऐसी ब्रह्मज्ञान की बातें कैसे निकलीं ? तब शुकदेव जी ने वह कथा कही। 

जारी ……

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १६ : प्रह्लाद नरसिंहदेव हिरण्यकश्यप

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पिछले भाग में हमने हिरण्याक्ष नामक दिति पुत्र की कथा पढ़ी।  इस भाग में दिति के दूसरे पुत्र हिरण्यकशिपु के बारे में पढ़ते हैं। जैसा हम पहले की कथा में पढ़ चुके हैं, ये दोनों भाई नारायण के द्वारपाल जय और विजय हैं जो श्रापित हुए थे कि तीन जन्मों तक प्रभु के घोर शत्रु के रूप में जन्म लेंगे और स्वयं नारायण के हाथों मारे जाएंगे।

जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल वध किया तो शिशुपाल की जीवात्मा निकल कर श्री कृष्ण में समा गयी।  यह देख युधिष्ठिर महाराज आश्चर्यचकित रहा गए और पूछा कि यह इतना घोर कृष्ण विरोधी था - यह चमत्कार कैसे हुआ।  तब नारद जी ने कहा कि यह जय विजय की कथा से संबंधित है, और युधिष्ठिर और उनके अनुजों को यह कथा सुनाई।
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हिरण्यकशिपु महाशक्तिशाली असुर था।  उसने तीनों लोकों को जीत लिया और सब तरफ नारायण का नाम लेना और पूजा आदि बंद करवा दिया।  उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि जहाँ भी साधू, गौ, यज्ञ आदि देखों, सब नष्ट कर दो , पूजा करने वालों को मार दो। शास्त्र कहते हैं कि  नारायण भक्तों के मन में रहते हैं  , यज्ञ में रहते हैं, जहाँ गौ की सेवा हो वहां रहते हैं।  तो ऐसा कोई स्थान ही न छोडो जहां मेरा (विष्णु) शत्रु रह पाये।

उसके सैनिकों ने सब ओर उत्पात मचाना आरम्भ कर दिया।  लोग डर कर छिप छिप कर प्रार्थना करते कि प्रभु उन्हें बचा लें।  खुल कर ईश्वर का नाम लेने की किसी की हिम्मत न थी।  इधर दिति पुत्र ने स्वर्ग पर हमला कर स्वर्ग जीत लिया था और इंद्र और अन्य देवतागण दर दर भटकते थे।  उनके प्रति जो हवी हवनों में अर्पित होती, उस सब पर दिति पुत्र ने कब्जा कर लिया था।

जब हिरण्यकश्यप को यह पता चला कि वराह रुपी नारायण ने उसके भाई हिरण्याक्ष का वध कर दिया है तो उसकी नफरत और बढ़ गयी।  वह नारायण को कैसे ख़त्म करे यही विचार उसे हमेशा घेरे रहते।  उसने फैसला लिया कि मैं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की आराधना और तप करूंगा और उनसे अमरत्व लूँगा।  ब्रह्मा ने भी तप बल से सृष्टि रची और मैं भी यही करूंगा।  यह सोच कर वह हिमालय को चला गया और कई वर्षों तक तपरत रहा।  उसके जाने के काफी समय गुज़र जाने पर डरे छिपे देवता बाहर निकल आये।  उन्होंने हमला किया और स्वर्ग वापस  छीन लिया।  असुर राज की पत्नी तब माँ बनने वाली थीं और इंद्र उसके कक्षमे घुस गए।  वे रोते हुए बहुत अनुनय विनय करने लगीं , किन्तु इंद्र न माने और उन्हें खींचते हुए ले जाने लगे।

तब नारद जी वहां आये और उन्होंने इंद्र को डांटा कि यह आप दैवीय नहीं आसुरी व्यवहार कर रहे हैं !! क्या ऐसे स्त्री पर क्रूरता करना आपको शोभा देता है ? इन्हे तुरंत छोड़ दीजिये - यह मेरी आज्ञा है !!इस पर इंद्र ने कहा कि हे देवर्षि, हम इन्हे स्त्री होने से नहीं ले जा रहे।  हमें इनसे नहीं, इनके गर्भ में पल रहे असुर से भय है।  हम इन्हे अपने पास रखेंगे और जब बालक का जन्म होगा तो उस असुर को हम समाप्त कर देंगे, और इन्हे जाने देंगे। क्योंकि वह भी अपने पिता जैसा ही क्रूर ही होगा। इस पर नारद जी ने कहा कि यह अनुचित है।  हम इन्हे अपने आश्रम ले जायेगे , आप ऐसा पाप करने का सोचें भी मत।

तब नारद जी उन्हें सादर अपने आश्रम ले गए और उन्हें वहां आराम से रहने को कहा।  नारद जी बोले कि  तप से लौट आने तक आप निर्भय होकर यहां रहें, यहां कोई कुछ अनुचित नहीं कर सकता।  वे वहां रहने लगीं , और नारद जी नारायण भक्त होने से सदा नारायण कथाएं गाते रहते।  ये कथाएँ कोख में पल रहा बालक सुनता रहा और वह गर्भ में ही नारायण का परम भक्त हो गया और ब्राह्मी स्थिति को पहुँच गया।
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इधर हिरण्यकश्यप की भयंकर तपस्या से भयंकर ताप उठने लगा और तीनो लोक डोलने लगे।  हमेशा की तरह देवता ब्रह्मा जी के पास गए और उन्हें तपस्या रोकने के लिए असुर को वरदान देने का अनुरोध किया।  किन्तु देवता जानते थे कि असुर वरदान का दुरुपयोग कर उन्हें ही परेशान करेगा, सो उन्होंने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि वर दान देते हुए इस बात को वे भूल न जाएँ।

ब्रह्मा जी तपस्वी के सम्मुख प्रकट हुए, और देखा कि , इतने वर्षो से तप कर रहे हिरण्यकश्यप का पूरा शरीर झाड़ झंखाड़ों से छिप गया है। ब्रह्मा जी ने स्पर्श दिया जिससे पल भर में ही उनका भक्त अपने निज रूप में आ गया, और उसे वरदान मांगने को कहा।  हिरण्यकश्यप उन्हें देख कर भाव विभोर हो गए।  उनकी आँखों में प्रसन्नता के अश्रु आ गए और सारा तन कांपने लगा।  उन्होंने गद्गद स्वरों मेंब्रह्मा जी की सादर स्तुतियाँ गयीं।  वरदान स्वरुप हिरण्यकश्यप ने अमरत्व माँगा।

ब्रह्मा जी ने कहा, अमर तो मैं भी नहीं हूँ , इसके अलावा तुम जो मांगोगे वह मैं दे दूंगा।  तब असुर राज ने कहा:

हे ब्रह्म देव, मैं आपके द्वारा रचे किसी जीव द्वारा न मारा जाऊँ। न मैं घर के भीतर मरूँ , न बाहर।    न दिन में न रात में; न धरती पर न आकाश में ; न अस्त्र से न शस्त्र से ; न मनुष्य से न पशु से ; न जीवित वास्तु द्वारा न ही निर्जीव द्वारा ; न देव न दानव न नाग द्वारा ; न अंड से जन्मा हो न माँ के गर्भ से ; युद्धस्थली में मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी न हो।  मैं तीनों लोकों का स्वामी होऊँ और अष्टांग योग से प्राप्त होने वाली सारी दिव्य शक्तियां मेरी हों।

ब्रह्मदेव से ये सब वरदान पा कर असुर राज वापस लौट आया। अब तो उसने अपनी क्रूरता की सारी बातें और बढ़ा दीं ।  प्रजा को अब विष्णु की नहीं बल्कि अपने राजा की ही आराधना करनी होती।  सब यज्ञ असुर राज के ही प्रति होते और शिक्षा भी बच्चो को यही दी जाती कि वही भगवान है।

ब्रह्मा विष्णु और महेश को छोड़ कर सभी देवता अब इसीके अधीन थे।  हिरण्यकशिपु देवताओं , वेदों को मानने वालों, गौओं, साधुओं, ब्राह्मणों और सब तरह के धार्मिक लोगों का आततायी उत्पीड़क बन गया था।  हमेशा की तरह देवता नारायण की शरण में गए।  श्री नारायण ने कहा किआप लोग धीरज धरें, इसी असुरराज का पुत्र मेरा परम भक्त होगा और उसीकी वजह से उसके पिता को मेरे ही हाथों मुक्ति मिलेगी, यह कश्यप जी ने माता दिति को वचन दिया है।  सो ऐसा ही होगा। देवगण यह सुन कर थोड़े प्रसन्न मन से लौट गए और इंतज़ार करने लगे।

हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे - संहृदा , अनुहृदा, हृदा और प्रह्लाद , जिनमे सबसे छोटे थे प्रह्लाद।  ये जब गर्भ में थे तब इनकी माता नारद जी के आश्रम में वास करती थीं जिसकी वजह से ये नारायण नाम और कथाएं सुन पाते थे।  तो प्रह्लाद गर्भ से ही नारायण के परम भक्त हो गए थे। जब प्रह्लाद पांच बरस के हुए तो उन्हें गुरुकुल भेजा गया।  यहाँ प्रमुख गुरु थे शुक्राचार्य जी के दो पुत्र - संद और अमरक।  गुरुकुल में सभी बच्चों को पढ़ाया जाता कि महाराज ही ईश्वर हैं और उनकी ही स्तुतियाँ हों, किन्तु प्रह्लाद सिर्फ नारायण की स्तुतियाँ गाते।  वे कुछ भी न सीखते जो उन्हें सिखाया जाता।  गुरु उन्हें राजनीती, अर्थशास्त्र, और अन्य लोकविज्ञान सिखाने के प्रयास करते, किन्तु प्रह्लाद सिर्फ नारायण की भक्ति में लगे रहते।  वे समदृष्टा थे और सबसे प्रेम से बोलते थे।  एक बार मिलने पर पिता ने प्रह्लाद से पूछा कि उन्होंने क्या सीखा है - तो प्रह्लाद ने कहा कि मनुष्य द्वैत में उलझा है - उसे सब त्याग कर श्रीनारायण की शरण लेनी चाहिए।  हिरण्यकशिपु को लगा कि नन्हा बालक किसी बुरी संगती के असर से गलत बातें सीख गया है और उन्होंने गुरुओं को आज्ञा दी कि इसे अपने घर में रख कर पढ़ाएं।  दोनों ने प्रह्लाद को सुधारने के बहुत प्रयास किये, मार पीट कर, डरा धमका कर, समझा बुझा कर - किन्तु कोई लाभ न हुआ।

अगली बार जब प्रह्लाद पिता के सामने आये तो पिता ने सस्नेह पुत्र को गोद में बिठाया, और पूछा कि तुमने क्या सीखा है ? तब प्रह्लाद ने कहा - मैंने नौ तरीके सीखे हैं :
श्रवण (सुनना),
कीर्तन(गाना),
स्मरण(याद / ध्यान करना),
पादसेवन(सेवा),
अर्चना(स्तुतिगान),
वंदना(पूजन) ,
दास्य(दास भाव),
सख्यम(मित्र भाव),
आत्मनिवेदन(स्वयं को सौंप देना)।

यह सुन हिरण्यकशिपु को पहले लगाकी प्रिय पुत्र मेरी पूजा की बात कर रहा है और उन्होंने प्रसन्न भाव से गुरुओं को देखा, जो खुद भी हैरानी और प्रसन्नता से प्रह्लाद को देख रहे थे।  किन्तु प्रह्लाद ने आगे कहना जारी रखा -

हे पिताजी - ये नौ तरीके यहीं जिनसे हम प्रभु नारायण की सेवा कर सकते हैं। यह सुन राजा आगबबूला हो उठे और गुरुओं की तरफ क्रोधित होकर देखा।  किन्तु उन्होंने कहा - हमने यह सब नहीं सिखाया।  राजकुमार हमारी पढ़ाई कोई बात नहीं सीखते। यह सुन कर पिता ने कहा कि ऐसा पुत्र तो शत्रुवत है।  यह मेरे भाई के हत्यारे नारायण की स्तुति जाता है, इसे मार दिया जाए।

प्रह्लाद को मारने के अनेक प्रयास हुए किन्तु सब असफल हुए।  सैनिकों ने अनेक प्रयास किये - तलवारों, भालों, त्रिशूलों का कोई असर न हुआ।  उन्हें धरती पर लिटा कर उनके ऊपर से हाथी चलाये गए,  फेंका गया, विषैले नागों से भरे गड्ढे में फेंका गया, अपनी में डुबाया गया, आग में जलाया गया, जहर पिलाया गया , और भी अनेक प्रयास हुए, किन्तु कोई असर न हुआ।

तब हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बंदी बनाया और फिर से गुरुओं ने उन्हें  पढ़ाने के प्रयास किये।  उन्हें दोबारा गुरुकुल ले जाया गया। लेकिन उन्हें कुछ और सीखना ही न था।   एक दिन दोनों गुरुजन बाहर गए थे। दूसरे बच्चों को प्रह्लाद  प्रेम था क्योंकि वे सबसे मीठा बोलते थे, और सहानुभूति भी थी क्योंकि उनके साथ सब बड़े बुरा बर्ताव करते थे जो दूसरे भोले भाले बच्चों को समझ  नहीं आता था।  

बच्चों ने प्रह्लाद से पूछा कि यह सब उन्होंने कहाँ से सीखा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने नारद जी से यह सब सुना। तब बच्चो ने पुछा कि तुम तो हमेशा हमारे साथ रहते हो, नारद जी से तुम कब मिले? तब प्रह्लाद ने बताया कि माता के गर्भ में रहते हुए ही कैसे उन्होंने यह सब जाना। प्रह्लाद ने बालकों को नारायण कथाएं सुनाईं और सब बच्चे नारायण की स्तुतियाँ गाने लगे। जब गुरु लौटे तो यह देख कर बहुत चिंतित हुए और तुरंत जाकर महाराज से स्थिति कही।  अब राजा का क्रोध असह्य था।  उन्होंने कहा पहले तो मैं बालक समझा था - किन्तु अब तो यह दूसरे बच्चों को भी मेरे भाई के हत्यारे का गुणगान सिखा रहा है।  अब मैं खुद ही इसे मारूंगा।  प्रह्लाद को महाराज के सम्मुख लाया गया जहाँ उस बालक ने हमेशा की ही तरह पूरे प्रेम और सम्मान से पिता के चरणस्पर्श किये।  राजा ने कहा - ये सब पाखंड न करो - तुम मेरे शत्रु के भक्त हो - आज मैं स्वयं ही तुम्हे मार दूंगा।

प्रह्लाद तनिक भी भयभीत हुए बिना बोले - मैं यह शरीर नहीं हूँ, आत्मन हूँ, आप मुझे नहीं मार सकते। आप भी नारायण के प्रति समर्पित हो जाइए - वे सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञाता हैं,  ,परमात्मा हैं , सब जगह मौजूद हैं।  क्रोध से पागल हुए राजा ने पूछ - बोल कहाँ है तेरा भगवान ? प्रह्लाद ने कहा सब जगह।  हिरण्यकशिपु ने एक खम्बे की ओर दिखा कर पूछा - क्या यहां भी है ? प्रह्लाद ने कहा हाँ हैं।  तब असुरराज ने अपनी गदा से खम्बे पर प्रहार किया और कहा अब यहां से निकल कर दिखाए तेरा भगवान!!!

तभी भयंकर शब्द हुआ और खम्बा फट गया।  उसमे से एक भयंकर आकृति निकली जो सर से कमर तक सिंह रूप और कमर के नीचे मानव रूप थी।  उस आकृति को देखते ही हिरण्यकशिपु को वर्षों पहले ब्रह्मा जी से लिया वरदान याद आया - अहो !! यह न मानव है न पशु। न यह जन्मा है न अजन्मा, न कोखजना है न अंडे से जन्मा है। कहीं यही तो मेरा काल नहीं ?

हिरण्यकशिपु को पल भर में सब याद आ गया, और उसने काल को सामने देखा।  किन्तु उसके अंतर्मन में भय न था, एक अजीब सी शान्ति थी। उसने लड़ने का बेमन से प्रयास किया। बुरी तरह दहाड़ते हुए क्रोधावतार श्री नरसिम्हा ने असुरराज को उठाया और द्वार पर ले जाकर अपनी जांघो पर रखा। वह न घर के भीतर था न बाहर, दहलीज़ पर था; न धरती पर था न आसमान में प्रभु की जाँघों पर था ; संध्याकाल था, न दिन था न रात।  क्रोध से लाल नेत्रों वाले नरसिम्हा ने अपने नाखूनों/पंजो और दांतों से उसका पेट चीर कर उसे मार दिया - न अस्त्र से न शस्त्र से ; न जीवित वस्तु होते हैं नख और दांत न निर्जीव ही।

दहाड़ते हुए नरसिम्हा अपने मृत शिकार के अनेक सैनिकों को भी मार दिया। उनके क्रोध के वेग से धरती कांपने लगी, पहाड़ टूट गए, सागर उफ़न पड़े, आसमान के विमान अंतरिक्ष में फिंक गए। उनके तेज़ से सभी सितारे धूमिल पड़ गए, देवता भयभीत हुए लक्ष्मी जी से बोले आप ही प्रभु के पास जाकर उनका क्रोध शांत करिये, किन्तु वे भी भयभीत थीं।  तब प्रह्लाद उनके पास गए और अपनी निश्छल प्रेम से, भक्तिविभोर स्तुतियों से, उन्हें शांत किया।  भगवान ने उन्हें वार मांगने को कहा तो प्रह्लाद ने सदा सर्वदा के लिए उनके प्रति भक्ति मांगी।  श्री नरसिंहदेव के पास आकर लक्ष्मी जी विराजीं और वे श्रीलक्ष्मीनरसिम्हा कहलाये। देवताओं. गन्धर्वों, किन्नरों, नागों, और सभी ने स्तुतिगान गाये।

नारद जी बोले - ये ही जय और विजय एक जन्म में हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष हुए; अगले जन्म में रावण और कुम्भकर्ण हुए और इस बार शिशुपाल और दन्तवक्र हैं।  इसलिए शिशुपाल की जीवात्मा श्री कृष्ण में मिल गयी है।

युधिष्ठिर बोले - प्रह्लाद कितने सौभाग्यवान थे कि उन्होंने प्रभु के दर्शन किये।  नारद जी बोले उनसे अधिक तो आप सौभाग्यशाली हैं।  जिन प्रभु के लिए लोग कितनी तपस्या करते हैं वे श्रीकृष्ण रूप में आपको यूँ ही मिले हुए हैं , आपको बड़े भैया कहते हैं और आपके चरण स्पर्श करते हैं।  श्रीकृष्ण स्वयं आपके छोटे बड़े कार्य करते हैं, आपको परामर्श देते हैं, आपके हर कदम के साथी हैं।  हे महाराज - आप जैसा सौभाग्यशाली दूसरा कौन होगा ?

जारी ..........

धर्म रिलिजन संप्रदाय आस्तिकता


ये कुछ विचार हैं जो धर्म के विषय पर फेसबुक पर हुई चर्चाओं में आये। यहां सहेज रही हूँ।

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धर्म को आज हमने faith मान लिया है - कि आप किस किताब के ईश्वर को ईश्वर मानते हैं या कैसे प्रार्थना करते हैं । जबकि धर्म का विश्वास या ईश्वर से अर्थ था ही नहीं । धर्म न तो पंथ है न समुदाय न ही रिलिजन । धर्म व्यक्ति को सही गलत राहें बताता और उसे जानकारी प्रोवाइड कराता कि किन परिस्थितियों में उसके क्या कर्तव्य हैं और "सही" पथ क्या होगा।

सब धर्म एक ही है यह भी सच नहीं । धर्म व्यक्ति और समय और माहौल के अनुसार पृथक होते हैं । महाभारत धर्मयुद्ध इसीलिए कहलाया कि वहां कोई किसी एक धर्म के लिए नहीं खड़ा था। हर एक नायक के अपने धर्म थे।अर्जुन भी अपने धर्म की राह पर था तो कर्ण भी ।

श्रीकृष्ण ने भी कहा - क्षत्रिय होने से अपने विशिष्ट धर्म का पालन करते हुए - अर्थात उसका एक स्पेसिफिक धर्म।

फेसबुक पर अक्सर ये बहस देखती हूँ कि धर्म क्या है और कौनसा सही है या कि सब धर्म एक हैं । इसका क्या अर्थ है? जब मैं कोलेज में लैब में हूँ तो मेरा धर्म है हर एक छात्र को उस प्रयोग की थ्योरी को प्रैक्टिकल में कन्वर्ट करना सिखाना और लैब असिस्टंट का धर्म है उन्हें वह करने के लिए प्रोपर इक्विपमेंट देना और सर्किट सही लगवाना ।हम दोनों का धर्म अलग है ।

और हम दोनों में किसी का भी धर्म यह नहीं कि छात्र को समझाएं कि हे पुत्र , यह लैब यह इक्विपमेंट सब इस इस ने बनाए और इस इस ने तुम तक पहुंचाए और तुम्हारा धर्म है उनकी अर्चानाएं गाना !!!

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व्यक्ति के सब के प्रति धर्म हैं - औरअपने प्रति भी ।अब जैसे हर बच्चा एक क्लास में पढ़ते हुए टेस्ट आदि लिखता है तो सोमवार को उसका धर्म मैथ्स टेस्ट की तैयारी है, अगले दिन दूसरा विषय । उस सप्ताह उस यूनिट टेस्ट का पर्फोर्मांस । उस वर्ष उस क्लास का । छात्र जीवन में अपने आप को समाज की सेवा और जीवकोपार्जन के योग्य बनाने का । जीवन में समाज को समाज का ऋण लौटने का और परिवार सेवा का धर्म।

अलग लेवल के अलग धर्म होते हैं - माता पिता के प्रति पत्नी के प्रति आदि ।लेकिन एक धर्म अपने प्रति भी होता है।

समाज के प्रति या कमजोरो के प्रति अन्यायी न होने की सीख देने के लिए समय समय पर उस समयखंड की मान्यताओं के अनुसार अलग अलग सीखें अलग अलग महात्माओं ने दीं। हर प्रकार के मानसिक लेवल और रुचियों के अनुसार अलग प्रकार की सीखें दी गयीं । कई लोग समझ से सही गलत का निर्णय लेते हैं कई लोग भय की लाठी से ही हांके जा सकते हैं । तो तरह तरह के प्रोत्साहन (और भय भी) किताबें बताती हैं ।

दुखद है कि समय कर्म में धर्म का असल मकसद भुला कर उसे ईश्वर केनाम पर समुदाय भर बना दिया गया । अपने अपने ग्रुप के संख्याबल पर लाभ लेने के लिए अपने सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ बता कर उसकी संख्या बढाने की और दुसरे की कमियां बता कर उसका संख्याबल कम करने की होड़ सी लग गयी ।धर्म अन्यायपूर्ण न होने के लिए था और हम और तथाकथित धर्मगुरु उसी के नाम पर दुकानें चलाने लगे और इतना शोषण किया कि धर्म ही बदनाम हो गया और अच्छे लोग "मैं धर्म को नहीं मानता/ धर्म होना ही नहीं चाहिए" की दिशा में चल पड़े। उनके कारण सही हैं किन्तु वे वही कर रहे हैं जो हमारे समाज की परिपाटी है । विक्टिम को गुनहगार कहने की पुरानी आदत है हमारी। हम वह समाज हैं जो बलात्कार पीड़िता को ही कहते हैं - ज़रूर तूने ही कोई इशारे किये होंगे नहीं तो बिना तेरी मर्जी के कोई कैसे हाथ लगा सकता था ? हम ऐसे ही सोचने के लिए मेंटली कंडिशन्ड हैं।इसीलिए , इन ठेकेदारों ने धर्म को बदनाम किया और इन ठेकेदारों की हरकतों से चिढ कर अच्छे लोग धर्म के ही विरोधी हो गये ।

आज लोग "मैं नास्तिक हूँ" का पर्यायवाची मानते हैं कि "मैं धर्म को नहीं मानता"

नास्तिक आस्तिक क्या होता है? लोगों को लगता है नास्तिक आस्तिक का सम्बन्ध ईश्वर को मानने न मानने से था । अरे बुद्ध से बड़ा ईश्वर में अविश्वास करने वाला कौन है? और उनसे बड़ा सद-धर्मी भी कौन है?

ईश्वर में विश्वास होना व्यक्ति के लिए सही राह पर चलना और गलत राह को अवॉयड करना थोडा सा आसान कर सकता है - बस !!! इससे अधिक कुछ नहीं । आप ईश्वर को न मान कर भी धार्मिक हो सकते हैं और ईश्वर को मानने वाले भी अधर्मी हो सकते हैं ।

और "आस्तिक" का अर्थ ईश्वर में विश्वास है भी नहीं । आस्तिक अर्थात यदि आस्थावान है , तो भी आवश्यक नहीं कि वह आस्था ईश्वर में ही हो । आस्था आपको अपने constitution में भी हो सकती है, अपने पिता के सर्वशक्तिमान होने का विश्वास भी आस्था ही है । आस्था आवश्यक नहीं कि ईश्वर को स्वीकार करना ही हो।

ईश्वर में विश्वास होना व्यक्ति के  लिए सही राह पर चलना और गलत राह को अवॉयड करना थोडा सा आसान कर सकता है - बस !!! इससे अधिक कुछ नहीं । आप ईश्वर को न मान कर भी धार्मिक हो सकते हैं और ईश्वर को मानने वाले भी अधर्मी हो सकते हैं ।

और "आस्तिक" का अर्थ ईश्वर में विश्वास है भी नहीं । आस्तिक अर्थात यदि आस्था वांन है , तो भी आवश्यक नहीं कि वह आस्था ईश्वर में ही हो । आस्था आपको अपने constitution में भी हो सकती है, अपने पिता के सर्वशक्तिमान होने का विश्वास भी आस्था ही है । आस्था आवश्यक नहीं कि ईश्वर को स्वीकार करना ही हो।

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@@ राजन सिँह हाँ तो फिर ठीक है.लेकिन फिर मंदिर या मस्जिद पर से माईक आदि हटाना धर्म पर हमला कैसे बन जाता है?इनका धर्म से क्या लेना देना ?

@@राजन सिँह - इनका धर्म से कोई लेना देना है ही नहीं। इनका समुदाय की संख्याबल के डीएम पर अपनी बात मनवाने और अपने हिसाब से औरों को हांकने की प्रवृत्ति से लेना देना है और कुछ नहीं ।
यदि ये माइक वाले यह समझते हैं कि माइक आदि के बिना उनका ईश्वर उनकी बात या अर्चना नहीं सुन सकता तो फिर तो वे खुद हिकः रहे हैं कि वह ईश्वर इतना निःशक्त है कि मन की आवाज़ सुनने के लिए उसे ऊंचे शब्द की जरूरत है ।
न - यह ईश्वर की आराधना नहीं। यह कर्मकांड है।

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अपने स्वयं के प्रति धर्म यह है कि यदि उस व्यक्ति को सच्ची जिज्ञासा है यह जान्ने की कि वह कौन है कहाँ से आया है कहाँ जाएगा - तो उसे खोजने की आज़ादी है ।

जो लोग इससे पहले इस जिज्ञासा पर चल कर खोज कर चुके हैं उनकी खोजें (सही या गलत) तथाकथित "धर्म" पुस्तकों" में वर्णित हैं ।

जो चाहे पढ़े जो न चाहे न पढ़े जो चाहे खोजे जो न चाहे न खोजे । किसी पर कोई जबरदस्ती नहीं है "धर्म" के अनुसार । हाँ संख्याबल पर राज करने के लियेजो समुदाय बन गये हैं - वे अवश्य जरुरी है के कानून थोपते हैं इस डर से कि उनका गुट छोटा न हो जाय या दुसरे का उनसे अधिक शक्तिवंत न हो जाय ।

धर्म संख्याबल से सम्बन्धित है ही नहीं । न समुदाय से । धर्म तो व्यक्ति का होता है ।अधर्म समुदाय और संख्याबल के कारण होते हैं अक्सर। जितना बल उतना गुरूर- जितना गुरूर उतनी जिद अपनी बात मनवाने की - उतना क्रोध क्रूरता और अन्याय ।

तथाकथित "नास्तिकता" भी एक समुदाय है । इस समुदाय के लोग मानते हैं कि धर्म का अर्थ "faith" रखने वाले समुदाय हैं जो उनके "टारगेट" हैं । जिन्हें हरा देना और खुद जीत जाना , उन्हें "नास्तिक" बनाना ही उनका धर्म है और वे इस धर्म पर चलते हैं ।

उन्हें लगता है कि जिस दिन सब "नास्तिक" हो गये तो कोइ जादुई छड़ी घूमेगी और संसार की सब समस्याएँ पल भर में सुलझ जायेंगी । वे अपने इस धर्मं का पालन तथाकथित आस्तिकों से भी अधिक devotion से करते हैं ।ठीक उसी तरह तथाकथित आस्तिक भी यही कहते हैं कि "हमारे संप्रदाय" की सीखें सब मानने लगें तो ऐसी ही जादुई छड़ी घूमेगी। दोनों ही मूर्खतापूर्ण बातें हैं। 

कम्युनिस्ट्स ने जितनी क्रूरता इस संसार में की है शायद ही किसी "आस्तिक" समुदाय ने की होगी।

मैं हमेशा से कहती आई हूँ कि न मुझे आस्तिकता से कोई दिक्क्त है न नास्तिकता से।  मुझे दिक्क्त है एक दुसरे को चोट पहुंचा कर जीतने की प्रवृत्ति से।  मुझे दिक्कत है कि हम (हर एक गुट - चाहे आस्तिक या नास्तिक के नाम पर  ; चाहे इस समुदाय या उस समुदाय के लोग ; चाहे सामिष और निरामिष भोजन लेने वाले ; चाहे मोदी समर्थक और विरोधी ; चाहे केजरीवाल समर्थक और विरोधी ; चाहे कोई भी इस्शु हो - हम अपना संख्याबल बढ़ाने और जीतने के लिए अपनी पूरी शक्ति से प्रहार करते हैं। 

पहले पुराने समय में समुदाय एक दुसरे को शारीरिक चोट पहुंचाते थे, अब हम सोशल साइट्स पर एक दुसरे को मानसिक चोट पहुँचाना चाहते हैं।  हम गहरी से गहरी चोट करना चाहते हैं अपनी बात रखवाने की ज़िद में।  
एक कहावत है न - शब्द का घाव तलवार से गहरा होता है - यही हम कर रहे हैं आज। … 

बुधवार, 16 जुलाई 2014

भागवतम १५: हिरण्याक्ष और वराहावतार

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जब ब्रह्मा ने संतति चलाने की आज्ञा दी तब उनके पुत्रों ने पूछा कि हमारी प्रजा रहेगी कहाँ ? क्योंकि पिछली प्रलय में जो जलप्रलय हुई थी, उससे धरती अब तक जलमग्न थी और जनसंख्या के रहने को कोई स्थल नहीं था। तब ब्रह्मा की नाक के छिद्र से एक नन्हे से वराह प्रकट हुए जो सिर्फ एक अंगूठे के ऊपरी भाग जितने बड़े थे। देखते ही देखते ये बहुत बृहत्काय हो गए।

ब्रह्मा और मारीचि आदि ऋषि चर्चा करने लगे कि ये कौन हो सकते हैं ? कहीं ये श्री विष्णु तो नहीं ? जब ब्रह्मा अपने पुत्रों से चर्चा कर रहे थे, तभी वराह भयंकर पहाड़ जैसे शब्द से दहाड़ने लगे।   यह दहाड़ सुन कर मौजूद देवगण समझ गए कि ये सर्वशक्तिशाली विष्णु ही हैं और उनकी आरतियां गाने लगे।  उन अर्चनाओं को सुन वराहदेव फिर से दहाड़े और आकाश में उड़ते हुए सूंघ सूंघ कर धरती को खोजने लगे।  सुराग पा कर उन्होंने जल में प्रवेश किया।  उन्होंने धरती को अपने दांतों पर उठाया और जल से बाहर ले चले।  तब हिरण्याक्ष नामक असुर उन पर हमला करने आया, जिसे उन्होंने लम्बी लड़ाई के बाद मार दिया और धरती को बाहर लाकर स्थापित किया। तब ऋषिगणों ने उनकी ऋचाएं गायीं। सतलोक, जनलोक, और तपस लोक के महात्माओं ने अर्चना आराधना की।  

शुकदेव जी बोले, इस प्रकार संक्षेप में मैत्रेय जी ने विदुर जी को वराह जी की कथा सुनाई किन्तु यह सुन कर विदुर जी को संतोष न हुआ।  उन्होंने मैत्रेय जी से प्रार्थना की कि उन्हें पूरी कथा सुनाएँ।  तब मैत्रेय जी ने कथा कही। 
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दक्षपुत्री दिति जी का विवाह कश्यप जी से हुआ था।  एक शाम उन्हें पति से संगम की तीव्र इच्छा होने लगी और वे कश्यप जी के पास काम निवेदन लेकर गयीं। कश्यप जी उस समय संध्या पूजा कर ध्यान कर रहे थे। दिति ने कहा - हे स्वामी, कामदेव के वाण  से मैं आहत हूँ , और जैसे एक उन्मत्त पागल हाथी केले के पेड़ की ओर भागता है उसी तरह मैं भी कामोन्मत्त हुई हूँ।  हे स्वामी, मेरी बहनें (आपकी दूसरी पत्नियां) सुखपूर्वक मातृत्व का आनंद ले रही हैं, और यह काम कर के आप मुझे वही सुख देंगे और आप भी सुखी होंगे। वर्षों पहले हमारे मन की इच्छा जान कर पिता दक्ष ने हम तेरह दक्षायिनियों को आपको सौंपा था।  प्रति पतिव्रता रही हैं और आपका भी धर्म है हमारी इच्छाओं को पूर्ण करना।  

मारीचि पुत्र श्री कश्यप जी बोले - हे प्रिय पत्नी दिति, मैं निश्चित ही तुम्हानी कामना पूर्ण करूँगा, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो और मोक्ष की संगिनी भी हो। पत्नी के संग से ही मनुष्य इस भवसागर से मोक्ष प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। हे गृहलक्ष्मी, हम सारे जीवन भी प्रयास करें तो भी हे देवी,हम आपका ऋण नहीं चुका सकते।जीवन संगिनी के साथ से ही मनुष्य इन्द्रियों से जीत सकता है।  आपका ऋण चुकाना तो सम्भव नहीं है किन्तु हम आपकी यह कामना अवश्य अभी पूर्ण करेंगे।  किन्तु कुछ समय के लिए रुक जाइए, क्योंकि यह समय अच्छा नहीं। संध्या के इस समय भूतादि विचरण करते हैं तो इस समय संगम करना ठीक नहीं।  इस समय भूतपति शिव भी भ्रमण करते हैं जो आपकी बहन सती के पति हैं।  उन्हें कोई नहीं देखता लेकिन वे सबको देखते हैं।  इसलिए भी इस समय यह क्रिया धर्मोचित नहीं। 

किन्तु कामपाश से पीड़ित दिति न मानीं और पति के अंगवस्त्र को खींचने लगीं । स्त्री हाथ से हार कर कश्यप जी उन्हें एकांत स्थल पर ले गए और उनकी कामना शांत की।  इसके बाद कश्यप जी ने स्नान किया और मौन व्रत में चले गए। दिति भी बहुत पछ्तायीं कि , अहो! मुझसे बड़ी भूल हुई। वे कश्यप जी के पास गयीं और उनसे प्रार्थना की कि मुझसे भूल हुई और शिव जी के कोप से मेरी होने वाली संतान को कैसे बचाऊँ यह बताइये।  शिव जी मेरी सती दीदी के पति हैं, वे मुझे अवश्य क्षमा करेंगे।  

कश्यप जी गंभीर वाणी में बोले - हे प्रिय दिति, यह समय अनुचित था, और हमने देवताओं और शिव का अपमान किया।  इसका फल तो अशुभ ही होगा।  तुम्हारी कोख से हमारी जो संतानें जन्म लेंगी वे महान असुर होंगी और तीनों लोकों को दुखदायी होंगी।  वे असुर सबको दुःख पहुंचाएंगे - निरीह लोगों, स्त्रियों और साधुओं को भी। किन्तु तुम पश्चात्ताप कर रही हो इसलिए वे श्री नारायण के ही हाथों से मृत्यु प्राप्त करेंगे। 

दिति बोलीं : हे स्वामी, यही मेरे लिए सुखद समाचार है कि मेरे पुत्र ब्राह्मण श्राप से नहीं बल्कि मोक्षदाता के हाथों मृत्यु प्राप्त कर मोक्ष पाएंगे। कश्यप जी बोले - हे प्रिय दिति, तुम्हारे मुझ पर, शिव जी और नारायण जी में अटूट विश्वास का यह शुभ फल होगा कि तुम्हारे एक पुत्र के घर महान नारायण भक्त प्रह्लाद जन्म लेंगे और तुम उनके नाम से याद रखी जाओगी। 
 यह सब सुन कर दिति अति प्रसन्न हुईं , किन्तु वे मन में दुखी भी थीं कि उनके पुत्र दुराचारी और नारायण शत्रु होंगे।  उन्होंने १०० वर्षों तक गर्भ को भीतर ही धारा और बाहर न आने दिया , किन्तु आखिर उनके पुत्रों ने जन्म ले ही लिया।  वे दोनों हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष कहलाये, और वे जन्म से ही विशालकाय और भयंकर थे। 
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जब दिति जी ने गर्भ को अपने भीतर बांधे रखा था तो उनके गर्भ की शक्ति से सब ओर भयंकर अन्धकार होने लगा।  सब देवगण ब्रह्मा जी की शरण गए और उनसे इसका कारण पूछा। ब्रह्मा जी बोले - दिति के गर्भ में जो दो बालक हैं वे और कोई नहीं बल्कि , नारायण के सेवक जय और विजय हैं , और उनके ही बल से यह हो रहा है।  देवताओं ने प्रश्न किया कि हमने तो सुना है कि कश्यप जी की ये संतानें भयंकर असुर होंगी और आप यह कह रहे हैं? कृपया हमें समझाएं। 

ब्रह्मा जी बोले - हे देवताओं।  एक समय मेरे चारों पुत्र - सनक सनातन सनन्दन और सनतकुमार, श्री विष्णु के दर्शनों को गए। वे छः द्वारों के पार पहुंचे और वैकुण्ठ के सातवें द्वार पर भी वे पिछले द्वारों की ही तरह द्वार खोल कर भीतर जाने लगे। चारों कुमार सृष्टि के प्रथम ब्रह्म पुत्र होते हुए भी पांच बरस के बालक दिखते थे और वस्त्र भी न पहनते थे।  श्री विष्णु जी के द्वारपालों ने उन्हें रोका। उन्होंने कहा कि श्री विष्णु जी माता लक्ष्मी जी के साथ एकांत में हैं।  अभी आपका भीतर जाना उचित न होगा। 

सनत्कुमारों ने कहा कि हे द्वारपालों , आप यहां रहने योग्य नहीं लगते।  आप श्री नारायण के द्वारपाल हैं किन्तु यह नहीं जानते कि किसे भीतर जाने देना है किसे नहीं ? आपको हम सजा देना नहीं चाहते किन्तु आपके लिए यह पाठ बहुत आवश्यक है।  इसलिए आप तीन बार मृत्युलोक में जन्म लेंगे और आपके हृदय नारायण के प्रति शत्रुभावना से भरे होंगे।  ब्राह्मण श्राप सोच कर नारायण भक्त जय और विजय दुखी हुए।  कुमारों को नमन करते हुए उन्होंने क्षमा मांगी और कहा कि ब्रह्म श्राप की कोई काट नहीं है, कृपया हमें श्री नारायण से ह्रदय से दूर न करें। 

तभी श्री नारायण  लक्ष्मी देवी सहित वहां आये और मुस्कुराते हुए बोले कि हे कुमारों, आपने मेरे प्रिय सेवकों को श्राप दिया है, जो पूरा होगा अवश्य। किन्तु मेरे भक्तों पर जो श्राप है उसे मैं भी स्वीकार करता हूँ। इनके तीन जन्मों के लिए मैं भी तीन बार अवतार लूँगा और तीनों जीवनों में मैं ही इन्हे मारूंगा जिससे ये मृत्यु के उपरान्त फिर से मेरे पास लौट आएंगे। 

कुमार कुछ शर्मिंदा हुए क्योंकि अपना कर्तव्य कर रहे उनके परम भक्त द्वारपालों को श्राप देने का कोई औचित्य नहीं था। और वे जान गए थे कि उनके इस निर्णय से नारायण को अच्छा नहीं लगा है, जबकि वे कुछ कह नहीं रहे। किन्तु अब कुछ नहीं हो सकता था। उन्होंने श्री नारायण की स्तुतियाँ गयीं और लौट गए। 

ब्रह्मा जी बोले - हे देवों , ये वही द्वारपाल जय और विजय हैं जो दिति के गर्भ में हैं।  ये  भयंकर विष्णुद्रोही होंगे और उत्पात करेंगे, किन्तु इन्हे मारने स्वयं श्री नारायण आएंगे। मैत्रेय जी बोले, हे विदुर इस तरह हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का जन्म हुआ। शुकदेव जी बोले ऐसे मैत्रेय जी ने विदुर जी को इन असुरों के जन्म की कथा कही।  

जारी …… 



श्रीमद भागवतम १४ : अजामील

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नारायण के नाम में जो शक्ति है उसका प्रभाव बताने के लिए अजामील की कथा कही गयी।

कान्यकुब्ज नामक गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था।  पिता श्रेष्ठ ब्राह्मण थे और पुत्र आज्ञाकारी थे। एक पुत्र था अजामील। वह पिता की पूजा अर्चना के लिए वन से सामग्री लाता था। एक दिन अजामील वन में कुश नामक घास, पुष्प और फल एकत्रित कर रहा था कि उसकी नज़र एक मानव जोड़े पर पड़ी जो रतिक्रिया में रत थे। कामक्रीड़ा में खोया पुरुष नशे में धुत्त था और अति आनंदित प्रतीत होता था। स्त्री वेश्या थी और अपने हुनर की माहिर थी, और कामोन्मत्तत होकर कंठ से मदहोशी पूर्ण मैथुनिक स्वर निकाल रही थी । उन दोनों को इस तरह कामोद्दीपक स्थिति में देख कर अजामील कामवासना से भर उठा।  अपनी पत्नी को इस स्त्री से कमतर मान वह उसी स्त्री से कामक्रीड़ा करने को उद्धत हुआ।  उसके बचपन के संस्कारों ने उसे रोकने का प्रयास किया किन्तु उसने अपनी अंतरात्मा का गला घोंट दिया।

अजामील ने अपनी पत्नी, बच्चों और माता पिता को त्याग दिया और वेश्या से विवाह कर लिया।  उसकी संगति में वह ऐसा लिप्त हुआ कि सब धर्म कर्म भूल कर सिफ संसार में मग्न हो गया।  वह भूल ही गया कि अपनी धर्मानुसार ब्याही पत्नी बच्चों और माता पिता के प्रति उसके कुछ कर्तव्य हैं। वह स्त्री ऐशो आराम से रहने, शराब पीने, गहने पहनने आदि की अभ्यस्त थी - और उसके साथ अजामिल भी वैसा ही होता चला गया। इन सब वासनाओं और कामवासना के ज्वर में वह अपने आप को भूल ही गया।  इस सब के लिए धन चाहिए होता है - जिसके लिए वह चोरी और जुआ जैसे काम करता। इस स्त्री के साथ उसके दस पुत्र हुए।

सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण था।  वह बहुत प्यारा था और माता पिता का सबसे लाडला था।  हर वक़्त अजामिल उसी के बारे में सोचता।  खाने बैठता तो बुलाता - नारायण यह खाओ , नारायण यह पियो, नारायण मेरे पास आओ, नारायण मुझसे दूर न जाओ ……

समय बीतता रहा और अजामील को पता भी न चला कि उस का अंतिम समय आ गया है । समय आने पर उसके पापों की सजा देने ले जाने के लिए यमदूत आये और उस पर यम पाश फेंका।  इन भयंकर चेहरों को देख भयभीत हुए अजामिल को सिर्फ अपने प्रिय पुत्र नारायण का ध्यान आया और वह भयाक्रांत हुआ चिल्लाया - "नारायण , नारायण, मेरे पास आओ नारायण" .

उसका यह कहना भर था , कि नारायण दूत तुरंत वहां पहुँच गए और यमपाश को काट दिया।  यमदूत क्रोधित हो कर उनसे कहने लगे - आप लोग कौन हैं जो हमें अपने धर्म (कर्त्तव्य) से रोक रहे हैं ? इस पापी को यमराज के पास ले जाना हमारा धर्म है, और वे ही इसकी सजा तय करेंगे।  आप सब देखने में तो धर्मात्मा दिखते हैं किन्तु हमें अपने धर्म का पालन करने से रोक कर अधर्म कर रहे हैं।

इस पर मुस्कुराते हुए विष्णुदूतों ने उनसे कहा कि यह कैसा भी रहा हो,यमपाश में बंधते समय में नारायण का नाम लेकर इसने अपने सभी पाप नष्ट कर दिए हैं।  क्रोधित यमदूत बोले - यह नारायण भगवान को नहीं अपने पुत्र नारायण को बुला रहा था , और यह जानता तक नहीं कि अनजाने ही इसने प्रभु का नाम ले लिया है ।

नारायण दूत बोले - यह हम भली प्रकार जानते हैं कि इसने नाम अनजाने में लिया है । किन्तु नारायण का नाम इतना दिव्य है कि अनजाने में बोलने से भी उसका दिव्य प्रभाव होता ही है।  जैसे अग्नि की एक चिंगारी लकड़ी पर अनजाने ही पड़े तो भी उसे पूरी तरह जला कर भस्म कर देती है, जैसे सही औषधि बीमार व्यक्ति को दूध आदि में मिला कर अनजाने भी खिलाई जाए तो सकारात्मक असर कर बीमारी को जड़ से मिटा सकती है , ऐसे ही नारायण नाम की शक्ति भी सब पापों को भस्म कर देती है, मिटा देती है।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसने नाम अनजाने में लिया - बस इसने नाम लिया तो इसके पाप नष्ट हुए। इस नाम के उच्चारण से तो ब्रह्महत्या, गौहत्या, गुरुपत्नीगमन कुकर्म, राजहत्या जैसे भयंकर पाप भी धुल जाते हैं। आप लोगों को भरोसा न हो तो आप अपने स्वामी यमराज के पास जाकर उन्हें पूछ लीजिये।

यह सुन कर यमदूत यमराज के पास गए और उन्हें सब हाल कह सुनाया कि कैसे उन तेजस्वी विष्णुदूतों ने यमपाश काट दिया जो हमने पहले कभी होता हुआ नहीं देखा था। हम सोचते थे यमपाश को कोई नहीं काट सकता। उन्होंने हमे अपना कर्तव्य नहीं करने दिया।  इस पर यमराज बोले - इस जगत की रचना ईश्वर ने की है और सबके कर्मक्षेत्र निश्चित किये हैं।  मेरा और आपका भी , और विष्णुदूतों और अजामिल जैसों का भी। उनका नाम तक भी मुझसे अधिक शक्तिशाली है।  उनका नाम लेने वालों को मैं नहीं छू सकता।  आगे से आप लोग सिर्फ उन लोगों पर पाश डाल सकते हैं जो नारायण का नाम भूले से भी न लेते हों। नारायण ने यह संसार अपने ही धागों से बुना है - और हर जीव में वे द्रष्टा बने भीतर व्याप्त हैं।  माया जीव की बुद्धि को ढांक देती है और अविद्यावश वह अपने आत्मन को नहीं पहचानते और पांच विकारों (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) का शिकार होता है।  किन्तु प्रभु का नाम हर पाप को काट देता है।

इधर यमदूतों के जाते ही विष्णुदूत भी अन्तर्धान हो गए।  यमपाश से निकला अजामिल यह सब सुन चुका था।  अब उसकी आँखें खुलीं और वह पछताने लगा। अहो - मैं शुभ कुल में जन्मा, शुभ शिक्षा पायी और सदाचारिणी स्त्री से मेरा ब्याह हुआ। लेकिन कामवासना में पड़ कर अपना धर्म कर्तव्य सब भुला बैठा।  वृद्ध माता पिता की सेवा तो दूर रही , मैंने तो वेश्या के मोह में पड़ कर उन्हें घर से ही निकाल दिया।  नवयौवना सुसंस्कारी धर्मिणी पत्नी को प्रेम और सहारा देने के बजाय मैंने उसे दर दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया। मेरे नन्हे बालकों को पिता के स्नेह और छत की आवश्यकता थी , मैंने उन्हें छतरहित कर दिया।  शराबी बना , जुआरी बना, वेश्या के साथ रहा , और घोर पापाचार किया।  इतना कुछ होने पर भी अनजाने ही नारायण नाम लेने के सौभाग्य से मुझे दोबारा अवसर मिला है।  इस अवसर का लाभ उठा कर मुझे अब पश्चात्ताप करना चाहिए।

अजामील ने संन्यास लिया और गंगा के किनारे प्रभु भक्ति में जीने लगा।  अब उसके कोई मोहबंधन नहीं बचे थे।  शीघ्र ही उसकी मुक्ति का समय आ गया और विष्णुदूत आकर उसे ले गए और वह मोक्ष को प्राप्त हुआ।

जारी ....... 

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम १३ : भरत

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ऋषभ देव जी के वन गमन के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत जी ने लम्बे समय तक जम्बूद्वीप पर राज किया।  इनके नाम "भरत" पर ही भूमि का नाम "भारत" हुआ (कई लोग यह समझते हैं कि इससे बहुत बाद में आये शकुन्तला पुत्र भरत पर यह नाम हुआ किन्तु वे बहुत बाद में आये थे) . समय आने पर भरत जी ने अपने राज्य को अपने पुत्रों में बांटा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को सम्राट बना कर संन्यास ले लिया।  वे संसार के मोहबंधन तोड़ कर हरिद्वार में ऋषि पुलह जी के आश्रम को गए।  आश्रम के आस पास चक्र नामक नदी बहती थी जो आज भी विष्णु जी के शालीग्रामों से भरी है जिनकी पूजा होती है।

भरत जी आश्रम में अकेले रहते और स्वयं पुष्प पत्र आदि एकत्र कर के उपासना करते।  नारायण से प्रेम के कारण नारायण का नाम लेने से भी उनके अश्रु बह निकलते और हृदय भर आता।  वे वनवासियों के ही वेश में रहते और नारायण भक्ति में डूबे रहते। नारायण की आराधना करते और उनकी ऋचाएं गाते रहते।  नारायण के अतिरिक्त उनके मन में कोई विचार न रहता था।

 एक दिन वे महानदी के किनारे बैठे थे कि उनकी आँखों ने एक दुखद घटना देखी।  एक गर्भिणी हिरणी नदी पर पानी पीने आई थी और पानी पीने के लिए झुकी ही थी कि कहीं से शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी।  अचानक आई इस घनघोर दहाड़ से भयभीत हुई हिरणी जल पी भी न पायी थी कि भयातिरेक से अपने प्राण बचाने के लिए उसने नदी के उस पार जाने को छलांग लगाईं।  उसकी इस आतंकित छलांग के कारण उसका मृगछौना गर्भ से बाहर नदी में ही गिर पड़ा और डूबने को हुआ।  इधर माता हिरणी ने उस पार दम तोड़ दिया।

भरत जी यह सब देख रहे थे और उनका हृदय इस नन्हे छौने के लिए द्रवित हो उठा।  उन्होंने उसे डूबने से बचाया और अपने आश्रम ले आये जहां उसे दूध दिया और एक माँ की तरह उसे सहला पुचकार कर दिलासा दिया। दिन गुज़रते गए और मृगछौना बड़ा होने लगा।  भरत उससे बहुत प्रेम करने लगे।  जो भरत अपना परिवार और राजपाट त्याग कर निर्मोही हो वन आये थे वे ही भरत इस मृग के मोह जाल में डूबते चले गए।  वे सदा उसीके विषय में सोचते और उसका ध्यान रखते।  पूजा के लिए एकत्र किये कुश वे उसे खिला देते।  आँखे बंद करने पर उन्हें अब नारायण नज़र न आते बल्कि मृग की अठखेलियां दिखतीं और वे मुस्कुराते।  यदि कभी वन में चरने गए मृग समय से न लौटता तो वे चिंतित होने लगते कि उसे कोई शेर आदि खा तो नहीं गया ? एक दिन ऐसे ही मोहपाश में बंधे भरत का अंतिम समय आ गया, और मरते  सारा ध्यान उसी मृग पर होने से वे अगले जन्म में मृग बन कर जन्मे।

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पूर्व जन्म के पुण्यप्रभाव से भरत मृग रूप में भी अपने आप को भूले नहीं थे।  वे पश्चात्ताप करते कि अहो मैंने नारायण के पुत्र रूप में जन्म लिया और सब ज्ञान शिक्षा उनसे पायी।  सर्वस्व त्याग मोहबंधन काट मैं वन को गया और एक मृग से हुए मोह के कारण पुनः जन्म मरण के बंधन में बंध गया। इस बार मैं ध्यान रखूँ कि ऎसी गलती न हो।  तब मृगरूपी भरत शालग्राम को गए जहां वे आश्रम के निकट घास फूस खाते जिए और ऋषियों की वाणी के अमृत को सुनते रहे।  समय आने पर पशु देह को त्याग उन्होंने पुनः मानव जन्म लिया।

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इस बार वे अंगिरस गोत्र के एक ब्राह्मण के घर उनकी दूसरी पत्नी के पुत्र के रूप में जन्मे। पहली पत्नी के नौ पुत्र थे।  भरत अपना पूर्व जन्म न भूले थे और इस बार वे मोहबंधन में बंधना न चाहते थे।  इसलिए वे मूर्ख होने का दिखावा करते और कुछ भी न सीखते।  उनके पिता ने बहुत प्रयास किये कि उन्हें गायत्री आदि की शिक्षा दें किन्तु विक्षिप्त का अभिनय करते उन्होंने कुछ भी न सीखा। वे "जड़ भरत" कहलाने लगे।

पिता की मृत्यु के बाद भाइयों को सौतेला भाई भारी लगता और सब उनके साथ रूखा व्यवहार करते।  किन्तु भरत तनिक भी दुखी न होते क्योंकि वे "मैं" से अलिप्त थे।  वे खेतिहर मजदूरों की तरह भाइयों के खेतों में काम करते और जो रूखा सूखा भाभियाँ खाने को दे देतीं वह खा लेते या कभी भूखे भी सो जाते।  किन्तु वे स्वयं को भूले न थे इसलिए वे कभी इन बातों से दुखी न होते।

एक रात वे खेत पर पहरा दे रहे थे कि एक डाकू के आदमी उन्हें नरबलि के लिए उठा ले गए।  उन डाकुओं ने उन्हें खिला पिला कर सजाया और बलि की तैयारी की।  सब देखते समझते हुए भी भरत दुखी न थे क्योंकि वे तो वैसे भी मुक्ति ही चाहते थे।  जब पुजारी ने इस मानव शिकार की बलि के लिए तलवार उठायी तो देवी (जो सब जानती थीं) यह देख न सकीं और उमके तेज से तड़प कर मूर्ति से बाहर आ गयीं।  उनके साथ उनके लोक के सेवक भी आये जिन्होंने सब डाकुओं को मार डाला और ये सब भरत को प्रणाम कर लौट गए।  भरत वहां से निकल कर फिर यहां वहां भटकने लगे।

एक दिन वे कहीं भटक रहे थे कि राजा की सवारी निकली।  पालकी उठाने वालों ने देखा कि यह हट्टा कट्टा पागल घूम रहा है, और उन्हें भी अपने में जोड़ लिया।  भरत पालकी उठाये चलने लगे और हर कदम पर रुक कर देखते कि कोई जंतु उनके पैर से न दबे।  इससे पालकी टेढ़ी मेढ़ी होने लगी और राजा को क्रोध आया।  क्रुद्ध राजा ने व्यंग्य करते हुए उन्हें अपशब्द कहे जिनका उन पर कोई असर न हुआ।  कुछ दूर आगे फिर यही हुआ तो इस बार राजा को बहुत क्रोध आया और उन्होंने फिर भरत को डांटा और मन भर अपशब्द कहे, और उन्हें दण्डित करने चले ।

भरत जानते थे कि सही ज्ञान न होने से राजा ऐसा ज्ञान प्रदर्शन कर रहा है किन्तु यह भले राजा ऐसे पाप का भागी होने योग्य नहीं।  (जो पाप ब्रह्मज्ञानी भरत से अन्याय करने से उस राजा को लगता ) दयाभाव के कारण , यह सुन कर , राजा को भयंकर कर्म से बचाने के लिए, भरत ने कहा कि हे राजन आप राजा होने से दम्भ में हैं, अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठ समझ रहे हैं , और स्वयं को उन्हें दण्डित करने का अधिकारी मान रहे हैं।  किन्तु मैं तो यह शरीर हूँ ही नहीं - आप किसे दण्डित करेंगे ? इस शरीर के कष्टों से मेरा संग नहीं और जो मैं हूँ वह न तो दिख सकता है , न ही दण्डित हो सकता है। यह सुन कर राजा की आँखे खुल गयीं और वे भरत के चरणों में गिर पड़े।

राजा ने कहा मैं तो कपिल जी के पास ब्रह्म विद्या को जानने के लिए जा रहा था किन्तु सौभाग्य से आप मिल गए।  अब आप ही मुझे यह शिक्षा दें।  शरण में आये राजा पर कृपा कर भरत जी ने उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया।  वे बोले :

मन ही जीवात्मा को संसार में गिराता है या इससे निकालता है।  मन "सतो  रजो और तमोगुणों" के प्रभाव से घूमता रहता है।  जैसे दिए में कपास की बत्ती होती है लेकिन जब वह जलती है तो वह नहीं जलती बल्कि उसमे वह घी जलता है जो दिए में है।  उस अग्नि में उस घी का रंग होता है, बत्ती का नहीं।  जब घी न रहे तब कपास ही जलता है और रंग बदल जाता है।  ऐसे ही जब मन - त्रिगुणों में लिप्त हो - तो उसके विषय उन गुणों से ही प्रभावित हुए उन्हीं में रँगे रहते हैं। जब वे त्रिगुणों से निकल जाते हैं तब मन ही खुद को जला कर ख़त्म हो जाता है और जीव छः शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) से मुक्त हो जाता है।  जैसे सारे आकाश में वायु व्याप्त हैं, उसी तरह प्रभु सारे संसार में व्याप्त हैं।  जब जीव कर्म, पुण्य, पाप, संसार, गृहस्थाश्रम आदि के बंधनों को तोड़ देता है तब वह इस सर्वव्यापी परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है।

गृहस्थाश्रम एक डिब्बी में बंद कपूर की तरह है।  यह दिखना बंद भी हो जाए तो डिब्बे में उसकी महक बस जाती है - उसी तरह जीव गृहस्थाश्रम से छूट भी जाए तो उसके मन में वासनाएं बनी रहती हैं।  यह तभी छूट सकता है जब "मैं" और "मेरा" समाप्त हो जाए। हे राजन - अपने नेत्र खोलो और देखो कि न तुम पुरुष हो न राजा।  तुम अपने लक्ष्य को खोजो।

राजा ने भरत जी को साष्टांग प्रणाम किया और आभार प्रकट किया।  ऋषभदेव जी के पुत्र भरत जी ने अपने पिता नारायण की शिक्षा इस तरह आगेबढ़ायी , और अपने रास्ते चल पड़े।

जारी .......


श्रीमद भागवतम १२ : प्रियव्रत, अग्नित्र, नाभि, ऋषभदेव


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मनु और शतरूपा जी ने ब्रह्मा जी के आदेश से संतति बढाने के लिए पांच संतानों को जन्म दिया। ये थे - प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र और आकूति , देवहुति , एवं प्रसूति नामक कन्याएं। इससे पहले हमने तीनों बहनों और उत्तानपाद के वंश के बारे में पढ़ा।  अब इस भाग में प्रियव्रत जी के बारे में पढ़ते हैं।

मनु के बड़े पुत्र थे प्रियव्रत और छोटे थे उत्तानपाद।  लेकिन प्रियव्रत को राजा बनने में रूचि नहीं थी और वे उत्तानपाद को यह बोझ सौंप कर वन को चले गए थे।  उत्तानपाद और उनके वंशजों ने बहुत समय तक राज किया किन्तु जब प्रचेता भ्राताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष अपना राज्य त्याग कर वन को गए तब मनु ने देखा कि धरती पर कोई नृप न होने से हानि हो रही है।  तब वे (मन न होते हुए भी) वहां गए जहां उनके बड़े पुत्र प्रियव्रत तप कर रहे थे। उन्होंने प्रियव्रत को बहुत समझाया कि वे लौट आएं और राज्य को सम्हालें, किन्तु प्रियव्रत न माने।  हार कर दुखी मन से मनु लौट आये।  उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे ही प्रियव्रत को समझाएं।

एक गुहा में प्रियव्रत नारद जी से कोई चर्चा कर रहे थे कि उनके पितामह ब्रह्मा जी वहां आये। पौत्र प्रियव्रत और पुत्र नारद जी ने उठ कर उन्हें प्रणाम किया और आशीर्वाद देने के पश्चात ब्रह्मा जी ने उन्हें समझाया।  ब्रह्मा जी बोले - प्रिय पौत्र, हमारी बात ध्यानपूर्वक सुनो।  जब प्रभु ने हम सब को जीवन दिया है तो उन्होंने हम सब का कर्मक्षेत्र भी निश्चित किया है , और हमें उस कर्म में रूचि न भी हो तो भी अपना कर्त्तव्य होने से हमारे लिए अपना नियत कर्म करना आवश्यक है।  हम जानते हैं कि आपको राजकाज में अरुचि है, किन्तु यह आपका कर्तव्य (धर्म) है।

जब बैल खेत को जोतने के लिए हल खींचता है, तो कृषक उसकी नाक में नकेल डाल देता है।  तब बैल उस दिशा में जाता है जिस दिशा में उसका स्वामी उसे ले जाना चाहे, न कि अपनी रूचि के अनुसार।  इसी प्रकार हम सब का भी नियत पथ उस रचयिता ने निश्चित किया है।  हमें उस कर्म पथ मे रूचि न भी हो तो भी कर्त्तव्य भाव से हमें उसे करना चाहिए।

यदि जीवात्मा अपना नियत कर्म करे, और अपने कर्म से निःसंग रहे, तो वह कर्मफल से नहीं बंधता।  इन्द्रियों के विषयों में रहते हुए भी उनसे जुड़ाव न रखना ही मुक्ति का द्वार है।  वन में रह कर नहीं, बल्कि साधारण मानव की ही तरह गृहस्थ बन कर इन्द्रियों के विषयों से अलिप्त बने रहना हो इन्द्रियों पर विजय पाने का एकमात्र उपाय है।  जैसे  राज्य पर शत्रु हमला करे तो राजा किले में सुरक्षित रहता है, वैसे ही इन्द्रिय विषयों के आक्रमण से भी ईश्वर के चरणों में स्थिर मन रख कर व्यक्ति उनसे सुरक्षित रह सकता है।  आप भी ऐसे वन को न भागें, बल्कि लौट कर अपना नियत कर्तव्य करें।  कर्त्तव्य निभाने के पश्चात आप फिर से वन जाकर अपना तप जारी रख सकते हैं।

प्रियव्रत  हाथ जोड़ कर ब्रह्मा जी की आज्ञा शिरोधार्य की और ब्रह्मा जी लौट गए।  फिर मनु जी आकर प्रियव्रत जी को वापस ले गए और उनका राज्याभिषेक करवाया।

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प्रियव्रत ने कई वर्षों तक राज किया और साधारण राजा का जीवन जिया, किन्तु वे सब कुछ करते हुए भी अलिप्त ही रहे।  उनके अति उत्तम कौशल के कारण उनका राज्य सुखी और सुरक्षित था और उनके कोई शत्रु नहीं थे।  उनका विवाह विश्वकर्मा जी की पुत्री बर्हिष्मती जी से हुआ और उनके दस पुत्र और एक पुत्री हुए, जिनमे सबसे ज्येष्ठ थे अग्नित्र।

एक दिन राजा ने सोचा कि सूर्यदेव आधी पृथा को प्रकाशित करते हैं और बाकी आधी धरती पर अंधकार रहता है, मैं सूर्यदेव की राह जानना चाहता हूँ।  तब उन्होंने अपने रथ को लेकर धरती की सात परिक्रमाएं की।  उनके रथ की तेज़ गति के कारण धरती पर धब्बे पद गए और धरती सात द्वीपों में बँट गयी।  सात द्वीपों के नाम हुए जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शक, पुष्कर।  सात समुद्र हुए - लवण, इक्षु, सुरा, सर्पि, दधि, क्षीर, मधु। राजा ने अग्नित्र और उनके छः छोटे भाइयों को सात द्ववीपों का राज्य कार्य सौंप दिया।  उनकी पुत्री ओजस्वती का विवाह शुक्र जी से संपन्न हुआ और उन दोनों की पुत्री हुईं देवयानी।

अपने नियत कर्त्तव्य पूरे होने के बाद राजा प्रियव्रत ने संन्यास ले लिया और अपना तप (जो ब्रह्मा जी की आज्ञा से बीच में छूट गया था) पुनः आरम्भ किया।
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प्रियव्रत जी के बड़े पुत्र अग्नित्र जी थे जो जम्बूद्वीप के भूपति थे।  उनके पुत्र थे नाभि।

नाभि जी के कोई संतान न थी, और नारायण को अपने पुत्र के रूप में पाना चाहते थे।  इस मनोरथ से उन्होंने एक पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। ब्राह्मणों के द्वारा कराये जा रहे इस यज्ञ में श्री नारायण स्वयं यज्ञ पुरुष रूप में पूजित थे।  वे नाभि की भक्ति से प्रसन्न होकर वहां प्रकट हुए।  ब्राह्मणों ने उन्हें देख कर भावविभोर होते हुए उन्हें प्रणाम किया और कहा कि आपके दर्शनों के बाद भी कोई सांसारिक अभिलाषा रखना या ऐसा फल मांगना धर्मानुसार तो अनुचित है, किन्तु हम शर्मिंदा हैं कि, यह यज्ञ हमने राजन के पुत्र प्राप्ति के लिए किया है। इसलिए हमें आपसे यह मांगना ही होगा।

श्री नारायण ने कहा कि मुझे ज्ञानी ब्राह्मण और भक्त से प्रिय और क्या है ? आप लोग ऐसे खुद को छोटा न करें - राजा की मुझमे अटूट प्रेमभक्ति है, और मैं जानता हूँ कि वे मुझ जैसा पुत्र चाहते हैं। किन्तु मुझ जैसा कोई है ही नहीं, सो मैं स्वायं ही उनके पुत्र रूप में आऊंगा।  यह कह कर प्रभु अन्तर्धान हो गए।  समयक्रम में नाभि जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जो नारायण ही थे - इनका नाम हुआ ऋषभ देव। (कहीं पढ़ा है कि ये ही जैनों के ऋषभदेव हैं, पक्के तौर पर नहीं पता)

समय आने पर ऋषभ देव का विवाह इंद्र की सुपुत्री जयंती से हुआ और इनके सौ पुत्र हुए, जिनमे सबसे बड़े भरत जी थे। ये सभी पुत्र स्वयं श्री नारायण के पुत्र थे और बहुत संत स्वभाव वाले थे।  एक दिन ऋषभ देव जी ने अपने पुत्रों को बुलाया और उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया।

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ऋषभ जी बोले - हे पुत्रों, मानव देह हमें पशुओं की ही तरह संसार का सुख भोगने भर के लिए नहीं मिली है, बल्कि उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिली है ।  मन की शुद्धि आवश्यक है।  दो महाद्वार हैं- एक मोक्ष का और दूसरा संसार का ।  लोकसेवा का धर्म (कर्तव्य), साक्षी भाव से अलिप्त होकर करना, मनुष्य  को मोक्ष की ओर ले जाता है।  कर्मों में संग होना , और इन्द्रियविषयों में लिप्त होना संसार में डुबा देता है।

संसार को भोगने की इच्छा ही जीवात्मा को परमात्मा से दूर देह के संग लाती है (पिछले भाग में पुरंजन की कथा पढ़ें) . फिर देह और मन का संग होने से मनुष्य अपने ही कर्म और मोहबंधनों में बांध जाता है और "आत्मन" कर्मों के जाल में फंसता चला जाता है और जन्म मरण के चक्र में बार बार घूमता रहता है।  अपने मोह में वह अपनी बुद्धि को मन और इन्द्रियों के विषयों के जाल में बाँध देता है और  कष्ट भोगता रहता है।

"मैं (अहंकार)" और "मेरा(ममकार)" - यह मनुष्य के प्रमुख शत्रु हैं।  

यह "अहंकार" और "ममकार" ( यहां कथा से अलग यह एक बात मैं कहना चाहूंगी -- "ममता" को हम बहुत + मानते हैं - किन्तु ममता ममकार से जन्म लेती है - और "माँ की ममता" का जाल स्त्री से जुड़ सा गया था - जिसके कारण स्त्री मोक्ष मार्ग पर जा न पाती) मनुष्य को जकड़ लेते हैं।

हे पुत्रों, मोह को त्याग दो।  गर्मी सर्दी सुख दुःख भ्रान्ति भूख प्यास इन सब का तुम पर कोई असर न हो।  तुम्हारा एक ही लक्ष्य हो -ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान । अपने आप को प्रभु को सौंप दो।  तुम्हारे सब कर्म उसके (कर्तव्य के / धर्म के) प्रति हों , उन कर्मों में तुम्हारा संग न हो।  हर एक में उसे देखो - इससे तुम किसी से नफरत नहीं करोगे।  सदा भक्तों के संग रहो जिससे प्रभु की कथाएं सुन सुन कर तुम्हारा मन प्रभु में रमा रहे।  एकांत में रहने का भी प्रयास करो (अधिकाँश लोग एकांत से डरते हैं) , अपने नियत कर्म करो, कम बोलो और अधिक विचारवान होओ।

"गुरु" का कर्त्तव्य है कि  "शिष्य" को सही राह दिखाए, क्योंकि वह जिस राह पर से चल कर आया है उस राह के संकट वह पहले से जानता है।  यदि उसके अनुभव से उसका शिष्य उन राह के रोड़ों से न बच सके तो उस गुरु का अनुभव बेकार ही है।  यदि कोई डूब रहा हो तो पहले से तैरना सीखे हुए व्यक्ति का कर्तव्य है कि उसे सम्हाले , न कि अपने अनुभव को अपने पास रख कर तमाशा देखे।

हे प्रिय पुत्रों - अपने बड़े भ्राता भारत को अपना पिता समान मानना और उनकी आज्ञा मानना।  इस संसार में वैसे रहना जैसे मैंने अभी तुम्हे समझाया है।  भक्ति द्वारा मोह बंधन को काटते रहना, और स्वयं को इस जन्म मरण के चक्र से निकाल लेना।

तब ऋषभ देव जी ने भरत को राजा बनाया और राज्य और परिवार से मुक्त ऋषभ देव जी वन को चले गए।  वे अवधूत हो गए और संसार त्यागने के समय के इंतज़ार में भ्रमण करते रहे। समय आने पर वे कूर्ग के वनों में थे - जहां भीषण आग लगी जिसमे वे स्व धाम को लौट गए।


सोमवार, 14 जुलाई 2014

श्रीमद भागवतम ११ - पुरञ्जन

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पिछले भाग में हमने पढ़ा कि नारद जी ने राजा को कर्मकांड में उलझे न रह कर ईश्वर की खोज करने के बारे में समझाया और पुरञ्जन की कथा कही।  इस भाग में यही कथा कहूँगी।
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एक राजा था - पुरञ्जन।  पुरञ्जन के अभिन्न मित्र थे अविज्ञाता।  अविज्ञाता का यह नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि उनके बारे में कोई भी नहीं जानता था कि वे कौन हैं और क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं । पुरञ्जन और अविज्ञाता हमेशा साथ रहते थे।  बहुत लम्बे काल तक ऐसा ही चलता रहा।  फिर पुरञ्जन अधीर होने लगे और उनका मन दुनिया देखने, जीतने और अपनी तरह से आनंदित रहने के लिए मचलने लगा।  अविज्ञाता ने उन्हें बहुत रोकने का प्रयास किया , लेकिन वे अपनी राह पर चल ही पड़े।

हिमालय की दक्षिणी ढलानों पर उन्हें एक बहुत सुंदर नगर मिला।  इस नगर में नौ द्वार थे।  इसका नाम था - भोगवती नगर।  नगर के समीप बाग़ में विश्राम करते पुरंजन ने देखा कि एक अनुपम अद्वितीय सुंदरी शहर से आ रही हैं, जिनके साथ दस मुख्य सेवक हैं।  हर एक सेवक के साथ सौ सौ सेविकाएं भी थीं। इनके आगे एक पांच सिरों वाला नाग था जो हर संकट पर नज़र रखे था - और उसका नाम प्रजगर था। पुरञ्जन एकटक इस सुंदर षोडशी (सोलह वर्षीय युवती) को देखे जा रहे थे कि युवती ने उनकी तरफ देखा।  पुरंजन शर्मिंदा हुए और नज़रें घुमा लीं।  किन्तु वह युवती नाराज़ नहीं थी।  वह उनकी तरफ आई और और नज़रें झुका  पहल का इंतज़ार करने लगीं ।

पुरंजन ने कहा - हे ब्रह्माण्ड सुंदरी - आप कौन हैं ? आप इतनी सुन्दर हैं - आप कोई साधारण स्त्री नहीं हो सकतीं।  क्या आप ब्रह्माणी हैं, या धर्म की पत्नी ह्री हैं ? नहीं तो आप अवश्य ही भवानी या नारायणी लक्ष्मी होंगी। तब वे बोलीं - बोली - हे तेजस्वी पुरुष, मेरा नाम पुरंजनी है ।  मैं जान गयी हूँ कि आप मुझ पर मोहित हैं , और मुझे भी आपकी ओर आकर्षण का अनुभव हो रहा है।  मैं भी आप जैसे ही पुरुष को खोज रही थी जो मुझसे विवाह कर इस नगर का राजा बने , जो भय और चिंता से मुक्त होकर मुझसे प्रेम करे और मेरे राज्य को संभाले।  पुरंजन अति प्रसन्न हुए और जल्द ही उन दोनों का विवाह हो गया।

सुंदरी पत्नी के प्रेम में डूबे हुए पुरंजन राज्य पर सुखपूर्वक राज करते गृहस्थ जीवन जीने लगे और अति प्रसन्न रहते।  उनकी पत्नी उन्हें अत्यंत सुखदायिनी थीं और उन्हें पता ही नहीं चला कि कब वे अनेक सुन्दर संतानों के पिता बन गए।  उनकी संतानें और पत्नी उनसे बहुत प्रेम करते थे। पुरंजन अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और उनसे अलग कुछ न देख पाते न सुन पाते थे। वे दिन कहतीं तो दिन, रत कहती तो रात, सुख कहती तो सुख क्रोधित होती तो पुरंजन भी क्रोधित हो उठते।

इधर "चण्डवेग" नामक एक दूसरा राजा था जिसने भोगवती पर आक्रमण कर दिया।  उसके पास ३६० सेवक थे और हर सेवक के साथ उस सेवक की सेविका भी थी।  प्रजगर उनसे युद्ध करता रहा और नगर पर कोई आंच न आने देता था। इधर काल की पुत्री थीं ज़रा - जो बहुत अनाकर्षक थीं।  उनसे कोई विवाह करने को राजी न था।  उन्होंने नारद को देखा और आकर्षित हो उठीं - लेकिन नारद ने विवाह न करने का अपना निर्णय उन्हें बता दिया। इससे दुखी हो कर वे काल के पास गयीं - तो मृत्यु ने उन्हें समझाया कि ऐसे नहीं करते।  मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।  कोई तुम्हे ख़ुशी से स्वीकार नहीं करता तो तुम चुपके से लोगो को जकड़ लेना।  हम दोनों के साथी होंगे मेरे दो भाई प्रज्वर और भय।  ये चारों शिकार की तलाश में घूमने लगे।

इधर चण्डवेग का आक्रमण सौ वर्ष तक चलता रहा और प्रजगर आक्रमण को झेलते झेलते थक गया था।  शत्रु सेना से हारने वाला प्रजगर अब भोगवती नगर की और रक्षा नहीं कर सका और हारने लगा। तब शत्रु नगर में घुस आये और इधर ज़रा और उसके साथी भी भीतर आ गए।  ज़रा के आने से पुरंजन को प्रज्वर और भय ने जकड़ लिया।  न उसकी प्रिय पत्नी न उसकी संतानें अब कुछ कर सके, और न ही उनका वह पहले जैसा प्रेम उसे अब मिला । वह शीघ्र ही काल के गाल में समा गया। मृत्यु के समय उसे सिर्फ और सिर्फ अपनी पत्नी का ध्यान था सो स्त्री बन कर उसने पुनर्जन्म लिया।

इस बार वह विदर्भ राज की पुत्री हुआ।  बड़ी होने पर वैदर्भी का विवाह मलयध्वज पंड्या से हुआ जो बहुत सदाचारी और धर्मयुक्त थे।  उनके वृद्ध होने पर उन्होंने संन्यास लिया और वैदर्भी भी उनके साथ वन को गयीं ।  जब उन्होंने अष्टांगयोग द्वारा अपना शरीर त्याग किया तो वैदर्भी उनके साथ सती होने चलीं।

तभी अविज्ञाता वहां आ गए और वैदर्भी को समझाया कि, याद करो तुम कौन हो ? तुम न स्त्री (वैदर्भी) हो न पुरुष (पुरंजन)। तुम जीवात्मा हो। माया में पड़कर तुमने पुरंजनी (मन) के साथी नौ द्वारों वाले नगर भोगवती(नौ छिद्रों वाला शरीर) को अपना घर बनाया और अपने आप को भूल गए। उसके दस सेवकों को तुमने अपना सेवक माना। ( पांच कर्मेन्द्रिया और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ) , और वह मन (पत्नी) जो भी अच्छा बुरा मानती वही तुम भी मानते और अपने आप को मन से अलग जान ही नहीं पाये।

पांच सिरों वाला नाग प्रजगर (पांच इन्द्रिय विषय ) तुम्हारे शरीर (नगर) की रक्षा करता रहा और प्रचण्डवेग (गतिशील समय ) के ३६० सेवक सेविकाओं (दिन और रात) से वर्षों तक लड़ते हुए जब इन्द्रियां हार गयीं तो जरा (बुढ़ापा) और प्रज्वर (सभी तरह की बीमारियां, ज्वर) ने तुम्हे जकड़ा।  तब तुम भयभीत हुए और काल के शिकार हुए।  शरीर और मन के जाल में फंसे तुम दुबारा मन के ही रूप में जन्मे और अपने आप को आज भी मन ही मान रहे हो।

चलो अब इस मन से मोह तोड़ो और फिर से मेरे (अविज्ञाता - ईश्वर - जिसे कोई नहीं जानता लेकिन जो जीवात्मा का परम मित्र है और हमेशा संग होता है) संग चलो। अब अपने घर लौट आओ।

तब नारद ने राजा को इस कथा का सार समझाया और राजा को बोध हुआ।  राजा ने कर्मकांड त्याग कर ईश्वर की खोज को अपना ध्येय बनाया।

जारी .......