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रविवार, 18 जनवरी 2015

spiritual revelations scientific discoveries

धर्म का अर्थ "उपासना पद्धति" करने वालों के लिए इस पोस्ट का कोई ख़ास अर्थ नहीं है - फिर चाहे वे आस्तिक कन्फूज़न में हों या नास्तिक कन्फ्यूज़न में :) आप पढ़ने के लिए सादर आमंत्रित हैं, लेकिन यह पोस्ट उपासना पद्धति की बात नहीं कर रही इसलिए किसी उपासना पद्धति पर मुझसे प्रश्न न कीजियेगा प्लीज़ :)

ओशो को सुनते हुए :

महावीर , बुद्ध , कृष्ण , जीज़स आदि …जैसे धार्मिक खोजियों ; और न्यूटन , आइंस्टाइन , बोस आदि ....  जैसे वैज्ञानिक खोजियों की खोज पद्धति में मूल फर्क क्या और क्यों है ? विज्ञान कभी नहीं कहता कि आज खोज सम्पूर्ण हुई - इसके आगे / पीछे जानने को कुछ नहीं बचा।  लेकिन धर्म की खोज का स्कोप timeless कहा जाता है।  बुद्ध की बातें आज भी प्रासंगिक ही हैं जबकि विज्ञान अपने वर्जन को बदलता रहता है।  कुछ समय पहले यह माना जाता था आज वह माना जाता है। पहले कहते थे प्रकाश वेव है, फिर कहा पार्टिकल है, फिर कहा ड्युअल नेचर है फिर कहा द्रव्यमान शून्य है फिर नहीं है और पता नहीं क्या क्या।


ओशो इसपर बहुत ही उपयुक्त निरूपण देते हुए लगते हैं।  वे कहते हैं - विज्ञान की खोज ऎसी है जैसे व्यक्ति एक दिया या लालटेन लेकर अँधेरे में कुछ खोजता हो।  अपने आगे और अपने पीछे का सीमित दायरा ही उसे दिखेगा।  उस रौशनी के घेरे में वह खोजी सब तरफ, हर कोण पर देख तो पायेगा , लेकिन निश्चित सीमा तक ही।  जहां तक प्रकाश, उतने दायरे के सत्य सत्य होंगे।  प्रकाश के दायरे से पीछे जो छूट गया - वह सत्य है या नहीं इस पर स्मृति के अलावा कोई साक्ष्य नहीं।

रामायण महाभारत आदि - स्मृतियाँ ही हैं ? या लोककहानियाँ ? या कवियों की कल्पनाएं ? या सत्य ? या कैसे तय हो ? हाँ - गांधी हुए थे यह माना जा सकता है आज - क्योंकि गांधी तक हमारे साक्ष्यों का प्रकाश दायरा अभी तक पहुँच रहा है।  जीज़स हुए या नहीं इस पर बहसें अब होने लगी हैं, जबकि कुछ समय पहले तक यही जीज़स एक ऐतिहासिक सत्य थे।

इसी तरह आगे की तरफ भी वैज्ञानिक खोजी उतना ही देख सकता है जितना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि देख पाये।  उसके आगे सब कुछ असत्य ही है - आगे बढ़ने के बाद जब प्रकाश का दायरा आगे जाएगा - तब वहां नए सत्य उजागर होंगे।

इसके विपरीत - धार्मिक (उपासक नहीं , पंथ नहीं - धर्म ) खोजी जैसे महावीर और बुद्ध जो खोजते हैं वह दिए के प्रकाश को लेकर एक दायरे में खोजी गयी सीमित सच्चाई नहीं बल्कि revelation होता है।  जैसे व्यक्ति अँधेरे में खड़ा हो और पल भर में बिजली कौंधे, और जितनी दूर नज़र जाए सब कुछ प्रकाशित हो उठे।  व्यक्ति फिर वस्तुओं को दायरे में नहीं देखता बल्कि पूर्ण में सब कुछ उसे दिख जाता है।  वह फिर जान कर उन्हें बताता है जिन्होंने नहीं देखा - और यह संभव ही नहीं कि सदियों बाद उनकी देखि हुई विराट सच्चाई हम तक उसी रूप में पहुंचे।  हम अपने अपने चश्मों से सत्य के अलग अलग पहलुओं को देखते समझते और समझाते रहते हैं।  भूल होती ही चली जाती है।

इस तरह देखा जाये तो वैज्ञानिक खोज हर एक के निजी खोज के मार्ग में बेहतर है - क्योंकि कम से कम हर एक अपने दिए तो लेकर चल रहा है।  जबकि अधिकाँश पंथ अपने आप को "धर्म" मानते हुए अँधेरी रात में बिना दिए के सदियों पहले किसी और को हुए revelation  के समझाए मार्ग पर आँखों पर पट्टी बांधे चल रहे हैं ....


गुरुवार, 2 जनवरी 2014

yogi patanjali non-violence osho

पतंजलि सूत्र :

जब योगी पूर्णतः योग में डूब जाता है तब उसके पास की सम्पूर्ण सृष्टि अहिंसक हो जाती है :

-------

योगी भर ही तो योगी है -
आस पास की सृष्टि तो नहीं ?
फिर यह सूत्र क्या कह रहा है ?
यदि ऐसा है तो क्यों ,
जीज़स को सलीब और ,
सुकरात को जहर मिला ?
वे लोग जो इन योगियों के समीप थे ,
क्यों अहिंसक न हुए ?
क्या जीज़स या सोक्रेट्स ,
सनातन सत्य प्राप्त -
सच्चे योगी नहीं थे ?

क्यों लोगों ने महावीर और ,
बुद्ध पर लगाए लांछन ?
क्या उन्होंने आत्मबोध को नहीं पा लिया था ?

क्यों हुए कृष्ण और राम जैसे ,
ब्रह्मज्ञान युक्त योगियों के  ,
आस पास इतने भयंकर युद्ध ?
क्या यह सूत्र झूठा है ?

न - पतंजलि सिद्ध योगी हैं ,
उनका सूत्र झूठा कैसे हो सकता है ?
फिर ?

हाँ - सुना है यह भी हमने ,
कि जब मीरा को आया था,
विष का प्याला ,
तो विष ने अपना स्वभाव बदल ,
खुद को अमृत कर लिया था ,
और सांप ने स्वयं को बदल दिया
पुष्प माला में ।

सुना है मैंने कि ,
देवव्रत ने बुद्ध पर ,
बड़ा शिलाखंड गिरवाया था ,
लेकिन ठहर गया था शिलाखंड ,
बुद्ध को छूने से पहले ,
अपने स्वभाव के विपरीत ।

जब बुद्ध पर पागल हाथी लपकाया गया ,
तो वह शांत भाव से हुआ ,
चरणों की शरण।

सुना है बहुत कुछ जो ,
हुआ इन सिद्ध योगियों के निकट ,
जो सृष्टि के स्वाभाविक ,
नियमों के विरुद्ध हुआ ,
लेकिन ,
इन्हे चमत्कार मान लिया गया।

सुना मैंने यह भी है कि ,
एक व्यक्ति ने ,
लाखों लोगों के सामने ,
एक प्रयोग किया था ,
एक सांड के दिमाग में ,
बिठाया एक इलेक्ट्रोड ,
उसे बटन दबा कर क्रोधित किया गया ,
और वह लपका व्यक्ति को मारने ,
फिर कुछ फीट की दूरी पर ,
दूसरा बटन ,
और क्रोधित सांड एकदम शांत हुआ ,
आशंकायें मुस्कुराईं और ,
व्यक्ति को कुछ न हुआ।

तो क्या योगी के आस पास ,
निर्मित होता है कोई तेजमण्डल?
जो ऐसा ही कुछ प्रभाव करता है ,
आस पास की निर्जीव सजीव सृष्टि पर ?

जो पत्थर हैं और हैं पशु ,
उनके मस्तिष्क ,
स्वाभाविक हैं।
तो उनपर असर करता है ,
सतयोगी का प्रभा मंडल ,
वे आईने हो जाते हैं और ,
उनमे दिखती है योगी की ,
शांत छवि।
वे सम्पूर्ण अहिंसक हो जाते हैं।
उनका स्वभाव स्व न रह कर  ,
योगी स्वभाव का प्रतिरूप हो उठता है ,
योगी उन्हें नहीं बदलता ,
उनके आईने साफ़ होने से ,
वे स्वयं योगी का,
प्रतिबिम्बन करने लगते हैं।

लेकिन मानव ?
अनेकों आइनों पर धूल पड़ी है।

जो शांत और खुले मनुष्य हैं ,
वे ऐसे योगी के समीप ,
शांत हो जाते हैं ,
सम्बोधि भी प्राप्त कर लेते हैं।

लेकिन जिनके आईने धूलि धूसरित हैं ,
वे बिम्ब नहीं बनाते ,
वे स्वयं ही धूल में लिपटे ,
चुनाव करते हैं ,
हो वह हिन्दू आस्थाओं की धूल ,
या मुस्लिम ईमान की ,
धारणाओं में लिपटे मानव ,
प्रकाश को स्वयं तक आने ही नहीं देते।

यीशु का प्रेम सन्देश ,
तोते की तरह रट लेने वाले ,
नहीं मान सकते ,
युद्ध को उकसाते कृष्ण को ,
योगी।

और ,
धर्म के नाम पर
निरीह जीवों और जनों की ,
हत्या करना सीखे लोग ,
नहीं मान सकते महावीर के ,
अहिंसा के सन्देश को।
तो वे महावीर को,
योगी मान ही नहीं सकते।

अपने मानक योगी के ,
अपने विश्वासों के विरुद्ध हुई बातो के ,
तर्कसंगत औचित्य ढूंढ लेते हैं।
और दूसरे विश्वासों के योगियों के ,
वे नरक भेज देते हैं ,
अपने मानस मंडल में।

वे कृष्ण को मानें तो ,
रासलीला के अनेक तर्कसंगत कारण ,
गिना देते हैं क्योंकि ,
उनके आईने की धूल कहती है ,
कि योगी नहीं कर सकता रासलीला।
क्योंकि उनकी धूल के अनुसार तो ,
शारीरिक प्रेम सिर्फ पाप है।
फिर वे अपने मन में ही ,
अपने ईश्वर को - ढाल लेते हैं ,
और
उसके आस्था के विरुद्ध दीखते कर्मों के ,
कारण आरोपित करते हैं।

योगी यदि पूर्ण रूपेण ,
यॊगस्थित हो ,
तो अहिंसक हो जाती है उसके ,
उपवास करने वाली सम्पूर्ण सृष्टि।

कृष्ण की गोपिकाएं नाचने लगती हैं ,
सिंह और छौने संग आ जाते हैं।
अग्नियाँ शीतल हो जाती हैं ,
सीता के गुजरने के लिए।

राम के वनमार्ग के ,
कठोर कंटक कोमल पुष्प हो उठते है
तैरने लगते हैं सागर पर पत्थर।

मोज़ेस के संग जाते ,
ईजिप्शियनों से बच भागते ,
इज़राइलियों के लिए ,
सागर राह देता है ,
और उनके जाते ही ,
फिर पूर्ववत हो उठता है।

कृष्ण के स्पर्श से ,
कुब्जा सीधी हो उठती है ,
गुरुनानक जिधर पैर करें ,
उसी ओर ,
दीनवालों को काबा दीखता है।

लेकिन धूलभरे मानव आईने ,
अपने विश्वासों की धूल लिए ,
योगी के प्रकाश की ऊर्जा को ,
प्रतिबिंबित नहीं करते।
वे उसे ,
क्रोधाग्नि की ऊर्जा में ,
रूपांतरित कर लेते हैं ,
और करते हैं योगी पर हमले।

योग सूत्र सच ही है ,
किन्तु परन्तु  लेकिन ....

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ओशो रजनीश के वचनो से











गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

खूब पर्दा है


पुनः प्रस्तुति
ब्लॉग की शुरुआत में यह लिखा था, एक बार फिर से प्रस्तुत है ,

खूब पर्दा है - कि चिलमन से लगे बैठे हैं
              साफ़ छुपते भी नहीं - नज़र आते भी नहीं .......

कभी कहीं पढ़ा था - तो ठीक से तो याद नहीं है कि क्या शब्द थे - पर अर्थ कुछ कुछ ऐसा ही निकल कर आता था. आजकल हमारी दोस्तियाँ भी इसी तरह हो गयी हैं - इन्टरनेट पर ही बातें शातें हुआ करती हैं - वह भी कोई टाइप करने की ज़हमत कभी कभार ही उठता है - ज्यादा तर तो मेल फॉरवर्ड ही करी जाती हैं .

एक परसन  को एक ग्रुप से मेल मिलती हैं - और वोही दूसरे दोस्तों को फॉरवर्ड कर दी जाती है - हाँ , इन्बोक्स में एक दूसरे के नाम बराबर दिखाई पड़ते रहते हैं - तो दूरी का एहसास नहीं होता - नज़र से आते रहते हैं - पर वह पुरानी  दोस्ती कहीं गुम सी हो जाती है - मन की बातों कि शेअरिंग तो अब जैसे होती ही नहीं - ..

ज़िन्दगी इतनी तेज़ दौडती है - कि कोई किसीसे बैठ कर बातें नहीं करता - वैसे इन्टरनेट की मेल सिस्टम में ऐसा कोई रूल तो है नहीं - कि आप अपने दोस्त को चिट्ठी नहीं लिख सकते. बल्कि , उसमे तो घर बैठ कर चैटिंग की भी चोईस है हमें - लेकिन हम अपनी ज़िन्दगी में इतने मसरूफ रहते हैं - कि टाइम ही नहीं है किसीको लम्बी चिट्ठी लिखने का - न ही बैठ कर बातें करने का . वही दोस्त जो पहले घंटो साथ गुज़ार देते हैं - यदि इंटर नेट पर दिख भी जाएँ कभी ऑनलाइन - तो एक छोटी सी हाई आपस में एक्स्चंज  करने के बाद - दोनों ही इंविसिबल  हो जाते हैं .. ....पहले लोग एक लाइन कि चिट्ठी तब लिखते थे जब कोई बुरा समाचार सुनाना हो - या कि किसी चीज़ की बधाइयाँ देनी हो - पर अब तो बातें ऐसे होती हैं -

"हाई - हाई , हाउ आर यू? और सुना - जीजाजी कैसे हैं? - बेटा ठीक  से पढ़ रहा है?  - - हाँ यार, सच में , आजकल पहले जैसी पढाई कहाँ !! -------- ओके - सी यू लेटर यार - बाय ///

और एक दूसरे के घर जा कर बैठ के बातें करने का चलन तो तब ही रुक गया था - जब टीवी आया था - अब तो हम पड़ोस के घर की खुशियों और तकलीफों से ज्यादा - टीवी के सीरिअलों के परिवारों के किरदारों के करीब महसूस करते हैं!! पड़ोस में कोई बीमार है  - तो हमें एक दिन एक बार मिलने जाने का टाइम निकालना मुश्किल होता है  - पर हाँ - टीवी सीरियल की हेरोइन अगर बीमार है  - तो हम पूरे पूरे हफ्ते उसके साथ रोज़ आधा घंटा गुज़र सकते हैं.... यह कहाँ आ गए हैं हम?

एक कहानी  याद आती  है यहाँ - एक मेल में ही पढ़ी थी - एक बच्चा अपनी माँ से पूछता है माँ , आपकी एक घंटे  की आमदनी कितनी है ? माँ ऑफिस  से थक कर आई है - काम निबटाने हैं - खाना पकाना है - फिर उसी बेटे का होमवर्क करवाना है -आखिर बच्चे के फ्यूचर के लिए भी तो माँए वरीड रहती हैं न !!!! तो माँ  काम के टेंशन में बच्चे के कणटिनयस क़्योएस्चन्स से चिढ कर उसे जोर से डांटती है - क्यों परेशान कर रहा है - दिखता नहीं - काम कर रही हूँ.. पर बच्चा नहीं मानता  - पूछता ही रहता है . आखिर  माँ कहती है - २००   रुपये. तब बच्चा कुछ परेशान सा हो जाता है - और चला जाता है वहां से .. तीन चार हफ्ते गुज़र जाते हैं - बच्चा फिर माँ के पास आता है - माँ फिर बिजी है - हमेशा के ही तरह - फिर चिढ जाती है.. तब बच्चा माँ को १०० रुपये देता है - उसके पास एक १०० का नोट भी नहीं - कभी कही कभी कही से बचाए - २ रुपये - पांच रुपये, दस रुपये , बीस रुपये के नोट हैं - कुल ९७ ही हो पाए हैं  - पर यदि १०० पूरे करने हों - तो एक हफ्ते और रुकना होगा - ...... तो बच्चा माँ को १०० रुपये दे कर कहता है - माँ - क्या अब आप आधा घंटा मेरे साथ बिता सकती हैं? ( बाकि ३ रुपये उधार  हैं ) तब   माँ को रीअलैज़ होता है - कि मैं अपने बच्चे का फ्यूचर बनाने में इतनी बिजी हूँ - कि उसका प्रेजेंट ख़राब हो रहा है - और मुझे पता तक नहीं चला -

तो शायद हम सबको सोचने के ज़रुरत है - कही हम भी - अनजाने ही सही - चिलमन से लगे तो नहीं बैठे - कि अपने अपनों को - साफ़ छुपते भी नहीं हों - और नज़र आते भी नहीं हो??

खैर , आज बस इतना ही .. ये तो कुछ ज्यादा ही लम्बी बात खिच गयी .. शायद सीरियल का टाइम  हो गया होगा - तो आप भी सीरियल देखें - मैं भी टीवी ऑन  करूँ - पर शायद - यदि किसी नेबर को ज़रुरत हो - या किसी पुराने दोस्त को,- या कि हमारे  बेटे / बेटी को कुछ  बात करनी हो - तो शायद टीवी सीरियल को छोड़ कर - उसके लिए वक़्त निकलना अच्छा हो.....

फिर मिलेंगे ...

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

दो तिनके

( पिछली पोस्ट की ही तरह - यह भी "आनंद" कथा ही है । इस बार approach अलग है । पिछली पोस्ट में कर्म योग था - इस बार - नहीं मैं नहीं कहती - आप बताइये पढ़ कर :) यह कहानी भी मेरी नहीं है - ओशो की सुनाई अनेक कहानियों में से एक है )

तो कहानी यूँ है की दो तिनके एक नदी में पड़ गए (जान बूझ कर ही "गिर" गए नहीं कहा है )। दोनों एक ही हवा के झोंके से उड़ कर एक ही साथ यहाँ आ पहुंचे थे - एक ही साथ थे - दोनों की परिस्थतियाँ बिलकुल समान थी। परन्तु दोनों की मानसिक स्थिति एक न थी । एक पानी में बहता था - सुख पूर्वक, तैरने का आनंद लेते हुए, आनंदित ... तो दूसरा - उसे किनारे पर पहुंचना था । बड़े प्रयास करता - पूरी ताकत लगाता - परन्तु नदी के शक्तिशाली बहाव के आगे बेचारे तिनके की ताकत ही क्या ? उसके सारे प्रयास व्यर्थ होते रहे - बहता तो वह उसी दिशा में रहा जिसमे नदी बहती थी - परन्तु, पहले तिनके की तरह सुखपूर्वक नहीं, बल्कि दुखी मन से । 

फिर कुछ आगे जाने पर नदी की धारा कुछ धीमी हुई , तो पहला तिनका दूसरे से बोला - आओ मित्र - अब प्रयास करने के लिए समय अनुकूल है, मिल कर कोशिश करें, किनारे पर घास उगी है - जो नदी के बहाव को रोक भी रही है, और कई लम्बे घास के blades तो नदी में काफी दूर तक उग आये हैं । थोडा प्रयास करने से हम इन मित्रों के सहयोग से अपनी दुनिया में पहुँच जायेंग ।

परन्तु दूसरा तिनका इतनी मेहनत कर चुका था - कि थक गया था - उससे अब आगे प्रयास न किया गया । परन्तु पहला तिनका अपने मित्र को मुसीबत में छोड़ कर किनारे न गया - उसके साथ अपने आप को उलझा कर थोड़ी शक्ति बढ़ी, फिर जोर लगाया - और किनारे से जुड़े हुए एक लम्बे घास को किसी तरह पकड़ लिया । फिर कुछ देर सुस्ताने के बाद दोनों उस जुड़े वाले के सहारे धीरे धारे सूखे किनारे पर पहुँच ही गए ।

पहला तिनका पुराने साथियों की मीठी यादों से खुश था, किनारे नए मित्रों के बीच प्रसन्न था । दूसरा तिनका अब भी अपने पुराने स्थान के साथी तिनकों से बिछड़ने के कारण उदास , डूबने की याद से परेशान, और भीगेपन से दुखी था ।

रविवार, 29 जनवरी 2012

आनंद

कहीं मंदिर बन रहा था । तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ने का काम कर रहे थे । एक राहगीर ने पहले मजदूर से पूछा -

"क्या कर रहे हो ?"
वह बड़े दुखी स्वर में बोला - "पत्थर तोड़ रहा हूँ ।" सच ही था - वह पत्थर ही तोड़ रहा था ।

दूसरे से पूछा - वह दुखी न था - उसने कहा - "आजीविका कमा रहा हूँ ।" वह बिलकुल संतुलित था - न दुखी, न सुखी । और सच ही था - वह आजीविका कमाने को ही तो श्रम कर रहा था ।

फिर तीसरे से पूछा  - वह आनंदित था - गीत गाते हुए पत्थर तोड़ रहा था । उसने अपना गीत बीच में रोक कर कहा - "मैं मंदिर बना रहा हूँ ।" आँखों में चमक थी, ह्रदय में गीत थे, और वाणी में शान्ति । निश्चित ही मंदिर गढ़ना कितना सौभाग्यपूर्ण है !! सृजन से बड़ा कौनसा आनंद है ?

जीवन के प्रति भी क्या यही तीन उत्तर हैं ? कोई पत्थर तोड़ रहा है, कोई आजीविका कमा रहा है, तो कोई मंदिर गढ़ रहा है । ............. धूप तो तीनों पर बराबर पड़ रही है - परन्तु आनंद सबके हिस्से नहीं आता । 

जीवन का आनंद जीने वाले की दृष्टी में होता है । वह भीतर है, बाहर से नहीं आता ।

शनिवार, 28 जनवरी 2012

सीखे हुए उत्तर

सीखे हुए उत्तर कभी काफी नहीं होते- क्योंकि प्रश्न हमेशा बदलते रहते हैं । इस दुनिया में अगर कोई चीज़ नित्य है - तो वह है बदलाव । इस सिलसिले में एक कहानी याद आती है -

दो मंदिर थे - और एक दूसरे से कही भी सहमत न होते थे ( अक्सर ऐसा ही होता देखा जाता है - सभी कहते हैं की परम सत्य एक है - किन्तु उसे ढूँढने वाले / जानने के दावे करने वाले - कभी भी एक दूसरे से सहमत नहीं दीखते ) उनमे से किसी भी एक मंदिर वाले कभी भी दूसरे मंदिर वालों से हारना न चाहते, जहां तक हो - एक दुसरे को avoid करने का ही प्रयास करते । किन्तु बच्चे तो फिर बच्चे होते हैं न - बड़े उन्हें कितना ही बिगाड़ने के प्रयत्न करें, उन्हें बिगड़ने में समय लगता है । वे मन में प्रेम के सागर भरे आए होते हैं, जिस सागर को ये "सत्यखोजी" मार्गों वाले बड़े / समझदार जन सुखाने के प्रयास करते हैं - और यह सूखने तक जो समय चाहिए - तब तक वह बच्चा बड़ा हो गया होता है । 

तो दोनों मंदिरों के समूहों के दो बच्चे - अक्सर राह में मिलते, तो बातें कर लेते । दोनों कुछ कुछ बड़े हो चले थे, सागर सूखने लगा था - किन्तु अभी इतना भी न सूखा था की एक दूसरे से नज़र बचा कर निकल जाएँ । हाँ, एक दूसरे से जीतना है, यह भावना ज़रूर पनपने लगी थी । 

एक दिन ये दोनों बच्चे राह में मिले । एक ने दूसरे से पूछा - "कहाँ जा रहे हो ?" वह भी शायद कुछ Poetic Mood में रहा होगा - तो बोला - "जहां हवाएं ले जाएँ।" अब पहले वाले को कुछ समझ न आया, आगे क्या बात करूँ - चुप ही रह गया। (वैसे मेरी नज़र में यह पहले बच्चे की हार नहीं है - कम से कम उसने बात शुरू करने की कोशिश तो की  - दूसरे बच्चे ने - जो यहाँ जीता हुआ दीखता है - (के उसने इस को चुप करा दिया ) - उसीकी हार लगती है मुझे तो - उसने दोस्ती के राह बंद कर दी संवाद को ख़त्म कर के - पर खैर - यह एक कहानी है )

 अब यह पहला बच्चा बड़ा परेशान हुआ , वापस लौट कर मंदिर में गुरु से कहा "आज मैं उस मंदिर वाले से हार गया" - और पूरी बात बताई । अब यह कैसे स्वीकार हो  कि  हम हार गए ? गुरु को बड़ा बुरा लगा - उसने कहा - "यह तो बहुत बुरी बात है - हम हार कैसे सकते हैं ? कल फिर पूछना - वह ऐसा कहे तो कहना - अगर हवा न चलती हो - तो कहाँ जाओगे ?" 

अगले दिन फिर मुलाकात हुई - यह बच्चा तैयार था - फिर पूछा - "कहाँ जाते हो ?" लेकिन अब वह दूसरा बोला - "जहां पैर ले जाएँ " तो सीखा हुआ जवाब व्यर्थ हो गया - क्या कहे ? फिर चुप रह जाना पडा । आज तो गुरु जी को और बुरा लगा - वे बोले "कल पूछना - कभी ऐसा भी हो सकता है की पैर न रहे - तब कहीं नहीं जाओगे क्या ? और वह जवाब बदल कर जो भी और जवाब दे - उसमे इसी तरह का कुछ पूछना - की यह न हो तो क्या करोगे ? हार कर नहीं आना ।"

अगले दिन यह बच्चा पूरी तैयारी के साथ गया । alternative उत्तर भी सब सोचे हुए थे - की ऐसा घुमावदार जवाब मिला - तो ऐसा पूछूंगा । आज फिर दोनों मिले 

और इसने पूछा "कहाँ जा रहे हो ?"

दूसरा बच्चा बोला "सब्जी लेने "

....

:)

तो - सीखे हुए उत्तर अक्सर काम नहीं आते । जीतने के कोशिश अपने आप में ही हार होती है । जीतने / हारने के प्रयास ही यह कह रहे हैं की चुनी हुई राह ही गलत है - हमारी मंजिल यदि दूसरे से जीतना / उसे हराना है - तो वह प्रेम का / एकत्व का पथ है ही नहीं - हार तो हो ही चुकी । अब ऊपर से जीते या हारे - इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता ।

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

थाह है, या अथाह है ?

मेला भरा था समुद्र तट पर । विवाद था की समुद्र अथाह है, या उसकी थाह है ? है तो कितनी है ? भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, पंडित शास्त्र खोले बैठे थे । उत्तेजना थी - कौन हारेगा , कौन जीतेगा ?सागर में कौन उतरे - बस किनारे बैठे बाल की खाल खींची जा रही थी । 

कोई कहता - अथाह, कोई - थाह है । कितनी ? अब जब नापा ही न गया - कैसे कह सकते हो की अथाह है ? जिसका नाप नहीं ही हुआ - उसे अथाह कैसे कहें ? न ही थाह बता सकते हैं ।

नमक के दो पुतले भी थे वहां - उन्हें जोश आ गया। "हम पता कर के आते हैं "- कहते दोनों सागर में कूद पड़े । वे जैसे जैसे नीचे जाते - हैरान होते । जैसे नीचे जा रहे हैं - सागर का अंत तो आता नहीं - खुद ज़रूर घुलते जा रहे हैं । नमक के थे न !! कहते हैं - वे दोनों पहुँच भी गए बहुत गहरे में, पर लौटने का क्या हो ? वे तो अब समुद्र ही हो गए थे - वे तो अब थे ही नहीं । 

कई दिनों तक लोग किनारे प्रतीक्षा करते रहे - फिर वाद विवाद शुरू हो गया - थाह है या अथाह ? जो भीतर गए खोजने - वे तो खो गए । अब भी विवाद चल रहा है किनारे पर - थाह है ? या अथाह ?

रविवार, 27 नवंबर 2011

जो तुम न लो, वह तुम्हारा नहीं होता



एक बार एक महात्मा को कोई बड़ी गालियाँ और अपशब्द बोल गया | पर वे परेशान न हुए - अपने काम में लगे रहे |
उस व्यक्ति के जाने के बाद महात्मा के क्रोधित शिष्य कहने लगे - वह आप पर इतना कह गया - और आपने न खुद कुछ किया न हमें कुछ कहने दिया | तब वे बोले - कोई तुम्हे कुछ उपहार दे, तुम उसे न लो - तो वह तुम्हारा नहीं होता, उसी के पास रह जाता है - चाहे वह रख ले , या फेंक दे - या किसी और को दे दे |

शाम को उसे उसके दोस्तोंने समझाया - और वह पछताने लगा | अगले दिन बड़ा लज्जित हो कर उनके पास पहुंचा - और माफ़ी मांगी | महात्मा बोले - माफ़ी किस बात की ? यह जो नदी बह रही है - यह कल यह नहीं थी जो आज है - पूरा पानी जा चुका है, नया पानी है - जो लगातार जाता जा रहा है | वैसे ही - तुम जो आज माफ़ी मांगने आये हो - वह व्यक्ति नहीं ही हो जो कल अपशब्द कह रहे थे - वह व्यक्ति अब नहीं है यहाँ | तुम अब एक दूसरे व्यक्ति हो | अब जो कर रहे हो - वही तुम हो |

यही है जीवन - बह जाने दो जो कल हुआ | आज में जियो |

रेशम का एक सूत



मैं ओशो को बहुत पढ़ती हूँ - सब कुछ तो समझ में नहीं आता - पर अच्छा लगता है पढ़ कर ... वैसे समझ में न आने जैसा तो वे कुछ कहते नहीं - बहुत ही सरल सीढ़ी बातें होती हैं -- इतनी सरल , कि हमारे घुमावदार विचारों में घुस पाना मुश्किल हो जाता है कभी कभी... कहीं पढ़ा कुछ .. अच्छा लगा - तो कही बैठा रह गया दिमाग में ..... और न लगा -तो कुछ बिगड़ा तो नहीं ही !! यूँ ही कुछ याद आ रही है - धुंधली सी एक कहानी याद - उसमे कहाँ कहाँ मूल कहानी है ... और कहाँ मेरे कुछ  विचार  गड्ड मड्ड हुए हैं - ये तो मैं नहीं कह सकती  - पर सब हैं उसी में समाविष्ट .....

उन्होंने कहा था - अन्धकार से भरी रात्रि में - प्रकाश कि एक किरण का होना भी सौभाग्य है - क्योंकि जो उस का अनुसरण करे - वह उसके स्रोत तक पहुँच ही जाएगा.....( पता नहीं ऐसा क्यों कहते हैं लोग कि - धर्मं का प्रकाश हो - अन्धकार का नाश हो ... किसका नाश करोगे? अन्धकार तो वह है - जो है ही नहीं - और जो नहीं ही हो - उसका नाश कैसे हो? अन्धकार तो प्रकाश का अभाव भर है न - यदि प्रकाश हो - एल छोटी सी दिए कि लौ भी जला दी जाए - तो अन्धकार तो होगा ही नहीं - तो नाश किसका करोगे? और यदि नहीं जलाई - तो अन्धकार घिर आना ही है - उसका फिर भी नाश हो ही नहीं सकता !!! )प्रकाश की एक किरण के सहारे - उसका स्त्रोत्र निश्चित रूप से तलाशा भी जा सकता है - और पाया भी...

अब आखिर जब हम किसीको ढूँढते हैं - तो दिख जाने पर - पाया हुआ मानते हैं .. पा  लेने कि परिभाषा क्या है हमारे लिए? देख ही लेना न? और देखना क्या है - कि उस स्त्रोत्र से चली प्रकाश के किरणें हमारी आँख में पड़ीं - यही है "दिखना" ......किसी और प्रकार से अनुभूति पा लेना .. कि किसीको सुन लिया - कि दुर्योधन ने तेरहवे वर्ष के अज्ञात वास के अंत में - अर्जुन के शंख को सुना - और कहा - कि मैंने पांडवों को पा लिया!!!! या की हम किसी खोजी कुत्ते को लेकर किसी को तलाशना चाहें - और उसे उसकी गंध मिल जाए - तो हम कहते हैं की पा लिया समझो अब तो !! तो निष्कर्ष ये - की अनुभूति - किसी भी प्रकार के ही हो सही - ही हमारे "पा लेने " कि व्याख्या है! पांच ज्ञानेंद्रियें हैं - द सेन्सेज  ऑफ़ साईट, हीअरिंग, स्मेल, टच, टेस्ट .. (देखना, सुनना सूंघना, छूना , आस्वादन कर लेना ) इनमे से किसी भी एक प्रकार की अनुभूति ही हमारी "पा लिया" कि परिभाषा है!!  किसीसे आप बरसों से न मिले - और उसकी आवाज़ सुन ली फ़ोन पर - तो पा लिया, या कि उसका पत्र मिला - पढ़ लिया - तो पा लिया .. या कि कंप्यूटर ऑन किया - इन्टरनेट लगाया .. मेल या चैट  पर पढ़ लिया - तो भी पा लिया ही लगता है.... मेरे निकट तम  मित्र - जिनसे मैं मिलती ही नहीं कभी - मेल पर ही लगता है कि बस - मिले ही हुए हैं!!!! अब समझ आती है ओशो कि वह बात - जो कि उनके किसी प्रकाशित पत्र में पढ़ी थी..... कि प्रकाश की एक किरण का भी होना सौभाग्य है - एक अन्धकार भरी रात्रि के लिए...

एक कहानी है - एक राजा ने किसी बात पर नाराज़ हो कर अपने मंत्री को एक ऊंची मीनार पर कैद करवा दिया - कैद क्या - धीमी मौत कि ही सज़ा थी .. कि उस गगन चुम्बी ईमारत पर न तो कोई उसे खाना ही पहुंचा सकता था - न ही भाग निकलने का कोई रास्ता था... जब उसे कैद करके मीनार के ओर ले जाया जा रहा था - तो वह परेशान नहीं था - मुस्कुरा रहा था .. पत्नी ने बहुत रोते हुए पुछा कि वह इतना खुश क्यों है? तो उसने कहा - यदि रेशम का एक अत्यंत ही पतला सूत भी मुझ तक पहुँचाया जा सके - तो मैं बाहर आ जाऊं - और इतना तो तुम कर ही सकोगी...

तो वह भी तो आखिर उस ही के पत्नी थी - इतने साल साथ गुज़ारे थे - समझदारी के कोई कमी न थी -- सोचने लगी .. सोचती रही - पर हल न मिला ... पर कहते हैं न - सफलता के लिए सिर्फ अपने दिमाग का भरोसा लिया जाए - यह ज़रूरी नहीं .. आजकल तो हम - बच्चों के होमेवर्क के लिए भी - गूगल से विकिपीडिया से या किसी और वेबसाइट से हेल्प ढूँढते हैं .. ज़रूरी यह है - कि हम जानें - कि हेल्प ढूँढनी   कहाँ है.... तो वो कुछ देर सोचती रही - नहीं सूझा - तो एक बुद्धिमान फ़कीर से पुछा - आखिर सोचने ही में समय ख़राब किया - तो पति वहां भूखा प्यासा उतने समय तक...... तो फ़कीर ने कहा - एक भृंग (कीड़ा, इन्सेक्ट) को लो - और उसकी मूछों पर शहद लगा कर , पाँव में रेशम का धागा बांध, ऊपर के ओर मुंह कर के - मीनार पर छोड़ दो.. ऐसा ही किया भी गया .... अब शहद के लोभ में वह भृंग रात भर चढ़ता रहा - और ऊपर पहुँच गया.. फिर क्या - रेशम के धागे से सूत का धागा पहुंचा -- उस से डोरी , डोरी से रस्सी - फिर उस से मोटा रस्सा ऊपर पहुँचाया गया .. और वह कैद से बाहर हो गया ...

इसीलिए ... सूर्य को पाना हो - तो प्रकाश के एक किरण ही बहुत है - कि वह उसी का एक विस्तार है -- कि जिसने किरण को पाया - उसने सूर्य को पाने का उपाय पा लिया ... सूर्य को पाने के लिए सूर्य को पकड़ना थोड़े ही ज़रूरी है!!!! हमारे भीतर जो जीवन है - वह इश्वर की किरण है - और जो बोध है - बुद्धत्व की बूँद है - जो आनंद है - वह सच्चिदानंद की झलक है ....

तो - अगली बार मिलने तक ... सायोनारा , दसविदानिया ....

शनिवार, 26 नवंबर 2011

आग और धुंआ


यह कहानी भी मेरी नहीं है - कही पढ़ी है ....

एक जहाज  समुद्र में डूब गया - उसमे से एक आदमी किसी तरह तैर कर एक छोटे से द्वीप पर पहुँच गया | वह इश्वर से प्रार्थने करता रहा की कोई उसे बचाने आये पर कुछ हुआ नहीं ...

बेचारे ने किसी तरह लकड़ियाँ जोड़ कर धूप और बारिश से बचने के लिए एक छोटी सी झोपडी बना ली | लेकिन एक दिन वह जब खाने के लिए कुछ कुछ ढूंढ कर लौटा - तो उसकी झोपडी जल रही थी .... वह रो पड़ा और उसने इश्वर से कहा की तू मेरे साथ ऐसा कैसे कर सका?

जब अगले दिन की सुबह उसकी नींद खुली - तो एक जहाज की आवाज़ से - जो उसे बचाने आया था - 

उसने पूछा - तुम्हे कैसे पता चला की मैं यहाँ हूँ?
जवाब मिला - तुम्हारे धुंए के संकेत से .....

इसलिए - विश्वास रखो - कैसी भी परीक्षा की घडी क्यों न हो - उसे भगवान् का कोई संकेत समझो ....

टूटा घड़ा


यह कहानी कहीं पढ़ी थी कभी - शायद किसी ई मेल में .... यह एक चाइनीज़ प्रोवेर्ब (चीनी लोक कहावत ) पर आधारित है |


एक आदमी रोज़ नदी से पानी भर कर साहेब के घर तक ले जाया करता था. कन्धों पर एक लम्बी लकड़ी होती, जिसके दोनों सिरों पर एक एक घड़ा बंधा होता | उनमे से एक घड़ा थोडा सा क्रैक्ड था, तो सारे रास्ते उसमे से पानी रिसता रहता | तो मंजिल तक आते आते - एक घड़ा पूरा भरा होता, तो दूसरा सिर्फ आधा रह जाता | पहला घड़ा तो अपने पर्फोमेंस से काफी खुश था लेकिन यह घड़ा हमेशा हीन भावना में घिरा रहता |

एक दिन इस घड़े ने आदमी से कहा - तुम मुझे फेंक दो - और दूसरा घड़ा ले आओ - क्योंकि मैं अपना काम ठीक से नहीं कर पाता हूँ | तुम इतना भार उठा कर शुरू करते हो लेकिन पहुँचने तक मैं आधा खाली होता हूँ ....| 

इस पर आदमी ने उसे कहा - की आज जाते हुए तुम नीचे पगडण्डी को देखते चलना | घड़े ने ऐसा ही किया - रस्ते भर रंग बिरंगे फूलों से भरे पौधे थे | लेकिन मंजिल आते आते वह फिर आधा खाली हो जाने से दुखी था - उसने बोलना शुरू ही किया था की आदमी ने कहा - अभी कुछ मत कहो - लौटने के समय रास्ते की दूसरी तरफ भी देखते जाना | और लौटते हुए घड़े ने यह भी किया - लेकिन इस तरफ कोई फूल न थे....

नदी के किनारे अपने घर लौट कर उस आदमी ने घड़े को समझाया - मैं पहले से जानता हूँ की तुमसे पानी नहीं संभल पाता - पर यह बुरा ही हो ऐसा ज़रूरी तो नहीं !!! मैंने तुम्हारी और फूलों के पौधे रोप दिए थे - जिनमे तुम्हारे द्वारा रोज़ पानी पड़ता रहा - और वे खिलते रहे .... |

इसीलिए - हमें समझना है की जीवन में हर चीज़ परफेक्ट हो ऐसा कोई आवश्यक तो नहीं - ज़रुरत इस बात की है की हम हर कमी को पोजिटिव बना पाते हैं - या नहीं ..... | तो अब से हम - किसी को क्रैक्ड पोट कहने या- कोई हमें कहे तो हर्ट होने - से पहले यह कहानी याद करें .... 

रेत के महल


रेत के महल = Sand Castles .... 
बहती लहरें हैं, ठहरी भी...... रेत बिखरी है, बंधी भी..... | कुछ महल रेत के बनाए ..... लहरें आती रहीं, महल बनते बिखरते रहे ..... |रेत शाश्वत है, तब भी थी, अब भी है, अगली लहर के बाद भी रहेगी .....| महल धुलते जायेंगे - नित नए बनते जायेंगे .........| हर विसर्जन नए सर्जन के लिए होता है । ध्रुवनित्य है , सर्जन क्षणिक ....... |
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हम सब इस दुनिया में एक ही ज़िन्दगी जी रहे हैं  सिर्फ रंग अलग हैं --

एक बार एक समुद्र के किनारे कुछ बच्चे रेत में खेल रहे थे | कोई गेंद से , कोई कुछ, तो कोई कुछ ... और ज्यादातर बच्चे अपने अपने रेत के महल बना रहे थे | बाल्टी में ठसा ठस रेट भर कर - उसे रेतीले तट पर  उलट देते - और अपनी उँगलियों से महल के दरवाज़े खिड़कियाँ तराशने लगते| हर साइज़ के महल देखे जा सकते थे - और तरह तरह के नक़्शे - किसी महल में तरह तरह की कंगूरेदार खिड़कियाँ - तो किसीके महल में साधारण सी ....

बच्चों के एक ग्रुप ने आपस में शर्त लगाई थी - कि किसका महल सबसे शानदार बनता है - और बाकायदा घडी की सुइयों से उनका महल बनाने का टाइम पहले से ही बांधा गया था| समय पूरा होने से कुछ दस मिनट पूर्व वोर्निंग  बेल बजी - और फिर दस मिनट बाद समय समाप्ति की घंटी!! अब जज साहब (उनके माता पिताओं की ही एक टोली ) घूम घूम के सबके महल देखने लगे - पर जहां कुछ महल साधारण थे  (जिस बच्चे में ज्यादा रेत  उढेलने की या तो ताक़त न थी - या फिर इंटरेस्ट न था ) वहीँ बहुत से महल इतने शानदार थे कि किसीको भी दूसरे नम्बर पर रखना उसके रचनाकार का अपमान सा लगता| तो यह तय हुआ कि प्रथम पुरस्कार एक को न दे कर तीन बच्चों में बाँट दिया जाय - और द्वितीय पुरस्कार के तो खैर पांच विजेता थे!!! माता पिता तो यह निर्णय कर के अलग हो गए - परन्तु बच्चे तो फिर बच्चे हैं न - सामान रैंक वाले बच्चों में जंग छिड गयी - हर एक यही कहता ... मेरा महल तुझसे अच्छा है -|

यही चलते शाम हो चली -- और माता पिता के बुलाने पर बच्चे घर की ओर चले .....  महल वहीँ पड़े रह गए -- अपनी सारी शानो शौकत को लिए - और जो बच्चे उन पर इतना लड़ झगड़ रहे थे- वे भूल ही गए उनके बारे में अपने असली घर पहुँच कर कौन रेत के पीछे छूटे घरों को याद करता -? कोई कॉमिक्स पढने लगा नहा धो कर - कोई टीवी देखने में मसरूफ हो गया - तो कोई कुछ देर पहले के दुश्मन के साथ कैरम खेलता नज़र आया ....
ओर यहाँ तट पर - जैसे ही  शाम हुई - लहरों की ऊंचाई बढ़ने लगी - ओर आखिर लहरें महलों को बहा ले गयीं !!!

यह तो बच्चों की बात हुई - पर हमारे बारे में क्या? क्या हम सब ही यहाँ अपने असली घर को छोड़ कर रेत के महलों में नहीं उलझे? मेरा महल उससे बड़ा हो - इसी कोशिश में परेशान? असली घर को लौट कर इन महलों को भूल ही जाना है - जो आज परम शत्रु है - वही असली घर में कैरम खेलने वाला भाई - यह जान लें - तो जीवन की अधिकाधिक परेशानियां सुलझ जाएँ.....

यह एक कहानी है - यहाँ क्यों कही? मेरे इंग्लिश ब्लॉग के एक पाठक ने पूछा था - what is meant by the term "ret ke mahal" ? - (यहाँ ज्यादातर लोग हिंदी नहीं समझते ) - पर अभी इस पोस्ट को इंग्लिश में ट्रांसलेट करना है - और यहाँ के पाठकों के लिए फिर से पोस्ट करना है ....

फिर मिलेंगे .......

निष्काम कर्म


कई बार लोग पूछते हैं - यह गीता में बार बार "निष्काम कर्म" की बात क्यों होती है ? अर्जुन भी कई बार पूछता रहा कृष्ण से - यदि फल की इच्छा न हो, तो कोई कर्म करेगा ही क्यों? तो इस सन्दर्भ में यह कहानी बहुत सुन्दर है ....


एक नाई किसी के बाल बना रहा था | तभी फकीर जुन्नैद वहां आ गए और कहा " खुदा की खातिर मेरी भी हजामत कर दे " | तो नाई ने अपने गृहस्थ ग्राहक से कहा - "माफ़ कीजिये - मैं कुछ देर बाद आपकी सेवा फिर करता हूँ, खुदा की खातिर मुझे इस फकीर की सेवा पहले करनी चाहिए ..." फिर उस ने पहले जुन्नैद को बड़ी इज्ज़त के साथ बैठकर उनका काम किया, और उन्हें प्रेम से विदा किया, तब अपने ग्राहक की सेवा की| 
कुछ दिन बाद जुन्नैद को कही से कुछ पैसे मिले - तो वे नाई को पैसे देने गए | उसने कहा - "आपको शर्म नहीं आती ? आपने खुदा की खातिर कहा था - पैसों की खातिर नहीं "

जुन्नैद हमेशा अपने शागिर्दों से कहते रहे - निष्काम ईश्वर भक्ति मैंने उस नाई से सीखी है ...

रोज़ एक टोकरी अँधेरा फेंक आओ, अँधेरा ख़त्म हो जाएगा


बहुत पुरानी बात है - एक गाँव था | वहां के लोग आग को नहीं जानते थे ... पर अँधेरा तो तब भी था न ...| और अँधेरे की वजह से रात के वक्त सब काम रुक जाते , और कभी किसी ज़रूरी काम से किसी को बाहर जाना ही पड़ता, तो स्वाभाविक है की कोई न कोई दुर्घटना कभी कभी घट ही जाती |

तो एक दिन गाँव वालों ने सभा बुलाई | एक समझदार व्यक्ति ने सुझाया की कल से सब एक एक टोकरी अँधेरा फेंक आयेंगे - धीरे धीरे अँधेरा ख़त्म हो जाएगा | तो यह प्रथा ही बन गयी - अँधेरा तो खैर क्या ख़त्म होता - यह अंधी प्रथा ज़रूर बन गयी |

कई बरस गुज़र गए | गाँव का एक लड़का कहीं बाहर गया - और एक युवती से प्रेम विवाह कर के लौटा | युवती की ससुराल में जो पहली रात हुई - घर की बड़ी औरतें उसे रिवाज़ समझाने लगीं - और उसे अँधेरा फेंकने को कहा | लड़की को बड़ी हंसी आई - उसने रुई मांगी, बत्ती बनाई, एक कटोरी में तेल डाला , और कोई दो पत्थर टकरा कर दिया जला दिया |......... 
अँधेरा भी गया और प्रथा भी ..... :)

तो हम यह न सोचें की बुरे को गालियाँ देते रहने से, बुरा कहने से ठोकर मारने से या भला बनने से अँधेरा जाने वाला है | यदि अँधेरे को जीतना है - तो दिया जलाओ - किसी रामदेव की तरह - किसी विवेकानंद की तरह ---|
दिया परफेक्ट है या नहीं - यह मायने नहीं रखता - मायने रखता है - रौशनी को जलाना - यदि पहला दिया परिपूर्ण न हो - तो कोई बात नहीं - एक से दूसरा दिया जल जायेगा | लेकिन अगर हम दिया ही न जलाएं, या फिर  पहले ही दिए से यह मांग हो की वह खामीराहित हो - तो अँधेरा कभी दूर नहीं हो पायेगा .........