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मंगलवार, 26 अगस्त 2014

श्रीमद भगवद गीता २.१६, २.१७

पिछले भाग में हमने यह श्लोक पढ़ा :

यं हि न व्यथ्यन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् |
सं दुःख सुखं धीरं सोSमृतत्वायकल्पते ||
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अब आगे :
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।
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(गुरु) कृष्ण (शिष्य) अर्जुन से कह रहे हैं कि असत् (इस सन्दर्भ में शरीर क्योंकि अर्जुन अपने शरीर के सम्बन्धियों के शरीर छूट जाने के भय से कम्पित हो रहा है) का स्थायित्व है ही नहीं और सत् का कभी परिवर्तन हो ही नहीं सकता। तत्व ज्ञानियों ने इन दोनों के विषय में यही निष्कर्ष दिया है। 

अर्जुन डावांडोल क्यों है ? क्योंकि वह भीष्म और द्रोण (के वृद्ध शरीर) से मोह रखता है और सोचता है कि इस युद्ध में मैं अवश्य इन दोनों से बिछड़ जाऊंगा।  कृष्ण कह रहे हैं कि (युद्ध हो या न हो) शरीर तो नष्ट होगा ही क्योंकि शरीर अस्थायी ही है। यह कुछ समय के लिए ही बना है - उस समय सीमा के परे रह ही नहीं सकता। लेकिन इन दोनों के भीतर जिस व्यक्ति को तुम जानते हो वह तो आत्मन है - और वह कभी बदल नहीं सकता।  क्योंकि वह तो बदलाव की सीमा में है ही नहीं - वह तो सत है , और सत अपनी प्रकृति से ही स्थायी होता है। 

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। 
विनाशमव्यवस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।

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अ-विनाशी तो वह है जो पूर्ण शरीर में व्याप्त है ( लेकिन शरीर से पृथक है) और जिससे यह शरीर जीवित है।  उस अविनाशि का विनाश (हो ही नहीं सकता परिभाषा से ही) करने में कोई भी (तू भी) समर्थ नहीं है। 

कृष्ण कह रहे हैं कि जिनके नष्ट होने के भय से तू युद्ध नहीं करना चाहता - वह तो अविनाशी है - वह शरीर है ही नहीं।  वह शरीर को व्याप्त अवश्य करता है लेकिन वह शरीर नहीं है।  उसको कोई भी (तू भी ) नष्ट कर ही नहीं सकता क्योंकि उसका नाश संभव है ही नहीं।   

इन दोनों पंक्तियों में कृष्ण कह रहे हैं की जिनसे अलगाव का भय तुझे भयभीत किये देता है वह वे लोग नहीं हैं - सिर्फ उनके शरीर हैं।  शरीर असत हैं और स्वभाव से ही उनका स्थायित्व नहीं है - वे तो आज नहीं तो कल अवश्य विनष्ट होंगे ही।  उधर शरीर के भीतर बसा हुआ आत्मन शरीर को व्याप्त अवश्य करता है परन्तु शरीर से पृथक वह सत और बदलाव से पर स्थायी है।  उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता (तू भी नहीं)