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शनिवार, 4 जुलाई 2015

upsc परीक्षा में लड़कियों ने बाजी मारी। क्यों?

यह पोस्ट पूरीपढ़े बिना ओपिनियन न बनाइये कि मैं क्या कह रही हूँ।

सब जगह पढ़ रही हूँ आईएस में टॉप 4 लड़कियाँ/ पहले भी ऐसा पढ़ती सुनती रही कि यहाँ लड़कियां वहां लड़कियाँ।ऐसे कवरेज है जैसे कोई जश्न की बात हो। लेकिन मुझे यह कुछ ठीक नही लगता।क्यों? 

क्योंकि यदि यह कोई गर्व की बात नहीं कि माँ हमेशा इस बात पर खुश हो कि बेटे ने बेटी को मात दे दी ; तो उसी तरह हर बार इस पर खुश होना भी गलत है कि बेटी ने बेटे को। नारी बराबरी होनी चाहिए लेकिन इस का अर्थ बेटों को नीचा बना कर बेटियों पर फख्र करना नहीं है। 

फिर इस साल किसी बोर्ड रिज़ल्ट पर टीवी चैनलों पर मैदान मारने सा सेलिब्रेशन था कि "आखिर इस बार पछाड़ ही दिया लड़कों ने लड़कियों को" - यूँ लगा कि कोई "शत्रु" बरसों से "हमें" हराता रहा आखिर हम ने उसे मात दे ही दी। दुःख हुआ।

आपको कभी यह ख्याल नहीं आया कि क्यों? लड़कियां आगे क्यों निकलती हैं हर बार? और इस बार ऐसा क्यों?

नारीवाद और पुरुषवाद से इतर सोचिये। क्यों? क्यों आखिर??

इसलिए कि वे प्रेशर में हैं। वे अपने आप को प्रूव कर रही हैं।उनपर शायद sabconscious प्रेशर है कि उन्हें पढ़ने का "मौक़ा?" देकर उनके परिवार/ समाज/ समाज सुधारक/ आदि आदि ने जो "अहसान स्त्री जाति" पर किया है उसे उन्हें सिद्ध करना है। उन्हें प्रूव करना है कि वे इस लायक हैं। 

वे क्यों अव्वल आती हैं बार बार सोचिये? probability से तो ऐसा नहीं होना चाहिए न? क्यों नहीं वे पढाई को in my stride ले पातीं? क्यों उनपर अव्वल आने का इतना दबाव है कि बार बार बार बार बार यह पैटर्न रिपीट हो? 

लड़कियों - इस प्रेशर को परे करो। हाँ!!! ज़रूर आओ अव्वल। बहुत अच्छा है। हर बार आओ तो भी बहुत अच्छा है। लेकिन हर बार आना "जरूरी" नहीं। एन्जॉय यूर लाइफ। पढाई करो कि यह भली है। लेकिन अव्वल आने का प्रेशर न हो तो और अच्छी।

और मित्रों। मैं ईश्वर नहीं। मैं गलत हो सकती हूँ। मुझे बस ऐसा लगा तो मैंने लिखा। इस पोस्ट को नारीवाद या पुरुषवाद से न जोड़ें। दोनों बच्चे हमारे हैं। क्या लड़की क्या लड़का। मानती हूँ यह कोइन्सिडेंस हो सकता है किन्तु प्रोबेबिलिटी लॉज़ नहीं कहतीं कि कोइन्सिडेंस से हर बार एक ही सम्भावना पूर्ण होती रहे। कहीं कुछ गड़बड़ तो है ही।सोचियेगा? 

प्रोबेबिलिटी थियरि से दोनों आउटकम बराबर होने चाहिए।

When any "random" event is done in "fair" circumstances with "2" possible outcomes; the probability of occurrence of "any one of the two outcomes" is 1/2

90% occurrence of any one of two possible outcomes suggests that there is an unfairness built in somewhere. We need to analyse this. Instead of being almost proud of it.


Every year every exam - no. There is something definitely and seriously wrong here. Which we are trying to avoid looking at by convincing ourselves that it is normal.

3 टिप्‍पणियां:

  1. डिअर मैडम
    हर बार आपकी पोस्ट में कोई नया सब्जेक्ट होता है इस बार भी आपकी पोस्ट नवीनता से भरपूर रही आशा है आप हमेशा की तरह नया लिखेगी 1 ज्ञान से भरी आपकी पोस्ट के लिए धन्यवाद

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