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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

उपनिषद् सन्देश 4 प्रस्तावना 4



पिछला भाग 

सत्य के चार रूप उभर कर प्रकट हो आते हैं : ब्राह्मण , इश्वर , हिरण्यगर्भ , और विराज (संसार) । इसलिए ब्राह्मण को चतुष्पात कहा गया । फिर संसार रचना कर्म , पालन कर्म , और विलयकर्म के अनुरूप इश्वर के भी तीन रूप कहे गए - ब्रह्मा, विष्णु , महेश ।

बुद्ध इस सत्य को "शून्यता" कहते हैं - जो न स्थूल है न सूक्ष्म , न प्रकाश है न अन्धकार, न चमक है न छाया, भीतर है न बाहर .... या यह कहें की किसी भी एक परिभाषा में बंधा नहीं है - या यूँ कहें कि यह सब कुछ है । किन्तु यह कहना कि ब्राह्मण के स्वभाव को , प्रकृति को परिभाषित नहीं किया जा सकता - इसका यह अर्थ नहीं  की ब्राह्मण का कोई निज स्वभाव है ही नहीं । वह सत चित और आनंद के रूप में परिभाषित होता है - किन्तु यह भी हमारी भाषा की लघुता है - इसमें भी वह पूर्ण रूप में नहीं उतरता , बस सिर्फ एक सन्निकटन है ।

सूत्रकार में अपुरुष विधा  (ब्राह्मण) और पुरुष विधा (इश्वर) को प्रथक प्रथक बताया गया है । ब्राह्मण श्रवण ,जागृति, और स्वप्न स्थितियों से परे हैं । कार्य ब्राह्मण और कारण ब्राहमण की प्रथक अवधारणायें हैं । वैदिक देवतागण इश्वर के अधीन हैं ।

फिर आत्मन क्या है ? आत्मन वह है जो "मैं" के अतिरिक्त सब कुछ निकालते जाने के पश्चात बचा रहता है । जो अजन्मा है, अमृत्य है । आत्म ज्ञान होने के पश्चात ही वह अनावृत्त होता है - तब तक वह अहंकार के परदे में छिपा रहता है । चांदोज्ञ उपनिषद् में देवगण और दानवगण प्रजापति के पास आते हैं - जो कहते हैं कि  आत्मन हर पाप और पुण्य से परे है । वे देव और दानवगण क्रमशः इंद्र और विरोचन जी को अपने अग्रणी बना कर प्रश्नकार के रूप में भेजते हैं । पहला संकेत होता है कि आत्मन वह है जो हमें जल पड़ती छाया में, या सामने वाले की आँख में , या फिर आईने में दिखे । किन्तु प्रजापति कहते हैं कि अब तुम अपने सबसे अच्छे परिधान पहन कर आईने में छवि देखो । तब इंद्र कहते हैं कि तब तो वह रूप बदल जाएगा जो हम देख रहे थे । तब तो यह अपरिवर्तनीय नहीं - और जो परिवर्तनशील हो वह आत्मन नहीं हो सकता ।

दूसरा सुझाव है - कि यदि यह शरीर जिसकी छाया जल में र्पतिबिम्बित होती है - वह आत्म नहीं तो क्या इसके भीतर बैठा स्वप्नदर्शी आत्मन है ? जो इस जीवन का "स्वप्न" देख रहा है ? इंद्र फिर से कहते हैं कि  यद्यपि यह भीतर बैठा दृष्टा इस शरीर रुपी वस्त्र के बदलाव से प्रभावित नहीं होता, तथापि, हम स्वप्न में भी जब हमें चोट लगती है तब हम दर्द भी महसूसते हैं और अश्रु भी बहाते हैं । स्वप्न में हम क्रोधित भी होते हैं, सुखी और दुखी भी । तब तो आत्मन "स्वप्न बोधिता" भी नहीं हो सकती ... आत्मन हमारी मानसिक स्थितियों का संयोग भर ही नहीं है - भले ही वे मानसिक परिस्थितियाँ कितनी ही अलग अलग प्रतीत होती हों । इंद्र फिर प्रजापति से प्रश्न करते हैं, जो अब तीसरी बार सुझाते हैं कि शायद गहरी निद्रा (जिसमे सपने नहीं आते) की स्थिति का भीतर से बोध कर्ता ही आत्मन हो ? इंद्र का विचार है कि इस स्थिति में न हम स्वयं को जानते हैं, न संसार को - सब कुछ विलय हो चुका होता है, किन्तु तब भी अस्तित्व तो है ही । विषय-वस्तु / परिलक्ष्य के न होने पर भी इस स्थिति में आत्मपरकता या विषय तो होता ही है । आखिर में इंद्र  कहते हैं कि आत्मन "सक्रिय सार्वभौमिक चेतना" है , जो न शारीरिक रूप में चेतना की सीमित अवस्था है, न स्वप्न का अशरीरी सोता हुआ स्व बोध, और न ही गहन निद्रा का सुशुप्त बोध है ।

यह आत्मन प्रकाशों का प्रकाशक है, यह सतत , स्थायी, आलोक है, जो न जीता है न जन्मता है न मरता है । न यह गतिशील है, न स्थावर है , न परिवर्तनशील है न अपरिवर्तनीय है । यह अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी है । यह द्रष्टा भी है और दृश्य भी । यह साक्षी है और साक्ष्य भी । 

जारी ....

5 टिप्‍पणियां:

  1. recieved by mail
    Arvind Mishra ने आपकी पोस्ट " उपनिषद् सन्देश 4 प्रस्तावना 4 " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    आत्मन का विश्लेषण भाया

    Arvind Mishra द्वारा रेत के महल के लिए 6 दिसम्बर 2012 6:19 pm को पोस्ट किया गया

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  2. received by mail
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) ने आपकी पोस्ट " उपनिषद् सन्देश 4 प्रस्तावना 4 " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    अच्छा आलेख!

    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) द्वारा रेत के महल के लिए 6 दिसम्बर 2012 7:28 pm को पोस्ट किया गया

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  3. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (8-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  4. आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रियं भवतु फिर भी हमारा असीम विस्तार मैं में ही जा कर क्यों टिक जाता है इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें बार-बार उपनिषदों की ओर जाना चाहिए। इस तरफ किया जा रहा आपका काम स्तुत्य है।

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