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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग चार (04)

ज़िंदगी अधूरी तेरे बिन - भाग चार (04)


अंशुमन


मैं घर पहुंचा तो घर में अंधेरा था। मैंने सोचा कि प्रियंका सो रही होगी। लेकिन वह तो हमेशा मेरे लिए कुछ लाइटें जलाकर छोड़ देती है! मैंने स्विच दबाया और मेरे अंदर एक ठंडी सी लहर दौड़ गई। कुछ गड़बड़ थी। मैंने इसे हवा में महसूस किया।

"प्रियंका, बेब," मैंने पुकारा। अभी नौ ही बजे थे। तनी जल्दी सो तो नहीं सकती थी! कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं? मैं उसे खोजते हुए हमारे बेडरूम, किचन और फिर डाइनिंग रूम में गया। खाली। मेज पर मेरा तोहफा अभी भी वहीं सुंदर कागज मेँ लपेटा हुआ रखा था। मैंने उसे खोलने की भी जहमत नहीं उठाई थी। लानत है! उपहार के बगल में एक लिफाफा था जिस पर मेरा नाम लिखा था।

जब हमने पहली बार डेटिंग शुरू की थी, तो उसके पास पैसे नहीं थे, तब वह मुझे हाथ से बने कार्ड देती थी, जिन पर मेरे लिए कविताएँ लिखी होती थीं। लिफाफा उठाते हुए मैं मुस्कराया। फिर कोई प्रेम कविता? लेकिन यह लिफाफा भारी था। मैंने उसे खोला, और धातु और प्लास्टिक हमारे खाने की मेज पर गिर पड़े। मेरा दिल रुक गया, फिर तेजी से धड़कने लगा। उसकी अंगूठियाँ पॉलिश किए हुए टेबल पर पड़ी थीं, उसके क्रेडिट कार्ड के साथ। मैंने झपटकर वह मुड़ा हुआ पन्ना उठाया जो उनके साथ गिर गया था। यह एक चिट्ठी थी।

मेरे प्रिय अंशुमन,

मैं जानती हूं कि इससे तुम परेशान हो जाओगे, (या शायद न होगे; शायद तुम इसका इंतजार कर रहे थे) मैं जा रही हूँ। हमारा घर, कर्नाटक, तुम, हम। सब कुछ छोड़े जा रही हूँ। स्थिति स्पष्ट होते ही, मैं वकील से संपर्क कर के तलाक के कागजात भेज दूंगी। या तुम भी तलाक की प्रक्रिया शुरू कर सकते हो।

मैं अपना फोन, क्रेडिट कार्ड, अंगूठियाँ, वो सब कुछ जो मैं सोच सकती हूँ, छोड़ रही हूँ। सारे गहने और डिजाइनर कपड़े अलमारी में हैं। मैंने सिर्फ़ अपने रोज़मर्रा के इस्तेमाल के कुछ कपड़े और चीज़ें ली हैं। मैंने घर के खाते से पाँच हज़ार रुपये निकाले हैं। मैं जानती हूँ हमारे विवाह-पूर्व के प्री-नेपुटल में क्या लिखा है, मैं जल्द से जल्द पैसे वापस कर दूँगी। मैं बच्चों से बात कर के जितना हो सके उतना समझाऊंगी। चिंता मत करो, मैं उन्हें कहूँगी कि यह मेरी गलती है, कि मैं तुम्हें यह बिना बताए, बिना हमें मौका दिए चली गई।

सच तो यह है कि मैं इतने सालों से तुमसे कहने की कोशिश कर रही हूँ, लेकिन तुम्हारे लिए मैं हमेशा अदृश्य बनी रही। तुम्हारा हमारी बीसवीं सालगिरह को भूल जाना आखिरी तिनका था, इसलिए नहीं कि सालगिरह थी, बल्कि इसलिए कि मेरे लिए यह स्पष्ट था कि तुम्हारे पास हमेशा कुछ और मुझसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा, मुझसे ज़्यादा वास्तविक होगा।

मैं लगभग चालीस के नजदीक पहुँच चुकी हूँ। अगर मैं भाग्यशाली रही तो मेरे पास जीवन के और तीस-चालीस साल बचे हों शायद। मैं उन सालों को “अदृश्य प्रियंका” के रूप में नहीं जीना चाहती जो परिचारिका, माँ और प्रेमिका की भूमिका निभाने के लिए बाहर आती है, और बाकी समय किसी कुर्सी-मेज की तरह पृष्ठभूमि मेँ अदृश्य हो जाती है। मैं भी एक संपूर्ण व्यक्ति बनना चाहती हूँ। एक ऐसी व्यक्ति जिसे उसके आस पास के लोग अपने ही जैसा हाड़-माँस का मनुष्य मानें, न कि एक कामकाजी रोबोट मानें जिसे कोई दर्द नहीं होता।

मुझे सचमुच खेद है, अंशुमन। अपना ख्याल रखना।

प्रियंका

नोट: मैंने अगले दो सप्ताह के लिए फ्रीजर में पर्याप्त खाना बना कर रख दिया है। आसान भोजन, जिसे तुम्हें बस ओवन में गर्म करना है। तब तक तुम्हारी सेक्रेटरी किसी अच्छे खानसामा का इंतजाम कर लेगी।

पत्र मेरे हाथों में काँप रहा था और मैं सदमे में था। मुझे अपने सीने में खोखलापन महसूस हुआ, जैसे मेरा एक हिस्सा शरीर से बाहर निकाल लिया गया हो। मेरी आँखें फिर से शब्दों पर धुंधली हो गईं, हर वाक्य हथौड़े के प्रहार जैसा था। मैं देखता और जानता रहा था कि वह उपेक्षित जी रही है, दुखी दिखती है। लेकिन मैं अपने काम मेँ जानते बूझते सब अनदेखा करता रहा। मैं इतना अंधा कैसे हो सकता था? नहीं। ऐसा नहीं था कि मैंने संकेत देखे न हों। मैंने जानबूझकर अनदेखा किया था। मैंने सोचा था कि वह हमेशा मेरे साथ रहेगी। मैंने अपना फ़ोन उठा कर प्रियंका को फोन किया, तो वह यहीं घनघनाने लगा। फिर शाश्वत को फ़ोन किया। जब उसने फ़ोन उठाया तो वह कहीं बाहर था। मुझे पीछे से संगीत बजता हुआ सुनाई दे रहा था। "बेटा, तुम कहाँ हो?"

"दोस्तों के साथ बाहर हूँ पापा। बताइए, क्या हाल है?"

"क्या तुम्हारी माँ ने आज तुम्हें फोन किया?"

मैंने उसे किसी से बात करते और हंसते हुए सुना और फिर मुझसे जवाब देते हुए कहा, "हाँ, मुझे लगता है कि माँ की मिस कॉल तो है। क्यों?"

"उसने तुम्हारे लिए कोई मेसेज छोड़ा है क्या?"

मैंने उसे फोन पर बात करते हुए सुना। "हाँ।"

"क्या तुमने इसे सुना?"

"नहीं, पापा। आप तो जानते ही हैं कि माँ कैसी है।" नहीं, मुझे नहीं पता था कि वह कैसी थी। वह झल्लाती नहीं थी। वह कोई मांग नहीं करती थी। और फिर भी, शाश्वत ऐसे बात कर रहा था जैसे वह जरूरतमंद और नियंत्रणकारी हो। “मेसेज की बात सुनो और इसे मुझे फॉरवर्ड करो।" मैंने फोन रख दिया और नीलिमा को फोन किया; जो सीधे वॉयस मेल पर चला गया। मैंने उसे मैसेज किया और कहा कि वह प्रियंका का वॉयस मेल सुने और मुझे भेजे। मुझे यकीन था कि उसने दोनों बच्चों के लिए संदेश छोड़ा होगा, और हमारी शादी की बर्बादी का दोष अपने ऊपर ले लिया होगा।

मैंने सगाई की अंगूठी उठाई और उसे अपनी उंगलियों में लपेट लिया। मेरी माँ ने अंगूठियाँ खरीदी थीं और सुनिश्चित किया था कि सगाई के बारे में कर्नाटक के सारे प्रमुख अखबारों मेँ में शादी की घोषणा हो। मुझे वह फोटो सेशन याद है जो मेरी माँ ने आयोजित किया था। प्रियंका उस दिन ‘मेरी प्रियंका’ जैसी बिल्कुल ही नहीं दिख रही थी। माँ ने उनके पार्लर से उसका मेकअप करवाया था और हमारे अमीर समाज की दूसरी लड़कियों की तरह दिख रही थी, इसलिए फोटो शूट के बाद मैं उस पर भड़क गया "ऐसा लग रहा है कि तुम ड्रेस अप खेल रही हो," मैंने चीखते हुए ही कहा था। "यह मेकअप हटाओ। या कम से कम ठीक से करना सीखो ताकि तुम एक वेश्या की तरह न दिखो।" उफ्फ़ मैंने ऐसा कैसे कह दिया था? इस बात को याद कर के मैंने अंगूठी को मुट्ठी में भींच लिया, उसके तीखे कोने चुभे। मैं अच्छी तरह जानता था कि उस दिन बेचारी प्रियंका ने अपना मेकअप थोड़े ही किया था! माँ की पार्लर वाली आई थी जो उसे लीप-पोत कर चली गई थी। उसने चुप-चाप मेकअप करवाया था क्योंकि वे मेरी माँ थीं। जानते हुए भी मैं उस पर भड़क गया था क्योंकि वह ‘मेरी प्रियंका’ लग ही नहीं रही थी, हमारे अमीर समाज की लड़कियों जैसी दिख रही थी। बाद मेँ मैंने उस से इस तरह चिल्लाने के लिए माफ़ी मांगी "तुम मेरी प्रियंका जैसी नहीं दिख रही थीं, इससे मुझे गुस्सा आया।" उसने मेरे गाल सहलाए। "उदास मत हो मेरे प्यारे अंशुमन। मैं मेकअप करना सीख लूँगी। मैं दुनिया की सबसे अच्छी पत्नी बनूंगी, ऐसी कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।" बाद मेँ बेचारी ने मेकअप करना सीख लिया था। सूक्ष्म और नाजुक मेकअप।

मेरी आँखों में आँसू भर आये। वह सच मेँ ही सबसे अच्छी पत्नी बनी थी जिसकी कोई भी पुरुष कल्पना कर सकता है या चाह सकता है। जब मेरे माता-पिता की मृत्यु हुई, तब भी वह मेरे साथ मेरा हाथ थामे रही, भले ही उन्होंने उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार किया हो। वह हमारे बच्चों के लिए हर कदम पर मौजूद रही। वह मेरे काम और मेरी समस्याओं के बारे में अंतहीन बातें सुनती थी, हमेशा मेरे साथ रहती थी। कभी मुझ पर संदेह नहीं किया। उसने मुझे हमेशा मजबूत, बेहतर महसूस कराया। कब से हमारी बातचीत नहीं हुई थी? "हमने एक हफ़्ते से साथ में खाना नहीं खाया है। मैंने होटल मेँ रिज़र्वेशन करवा लिया है ...."

"भगवान के लिए, प्रियंका, मेरे पास काम है। मैं तुम्हारा मनोरंजन नहीं करता रह सकता।"

यह कब हुआ था, कुछ साल पहले? हाँ, जब हमारी कंपनी ने अंतरराष्ट्रीय परियोजनाओं के साथ विस्तार किया, तो मेरा शेड्यूल वैश्विक हो गया था, अंतहीन बैठकें, लंबी यात्राएं और कठिन परिश्रम। मैंने अगले दिन उससे माफ़ी मांगी क्योंकि मैं उसके साथ नहीं सोया था, रात में काम करने और गेस्ट रूम में सोने का विकल्प चुना था। क्या यह पहली बार था जब मैंने ऐसा किया था? एक दरार जो मैंने खुद बनाई थी। "कोई बात नहीं अंशुमन," उसने बिना कोई गुस्सा दिखाए कहा। "तुम व्यस्त हो; मुझे थोड़ा और सोच-समझकर प्लान करना चाहिए था। क्यों न मैं कढ़ाई पनीर बनाऊं।" मुझे यह पता था कि मैंने उसे चोट पहुंचाई है। लेकिन उसे इससे कोई मतलब नहीं था, इसलिए मैंने अपने आप से दिखावा किया कि मेरा आधा-अधूरा कहना कि "मुझे खेद है कि मैं तनाव में हूं" काफी था।

तभी मेरा फ़ोन बजा और मैंने देखा कि ग्रुप कॉल था। "क्या बकवास है, पापा?" शाश्वत ने कहा। "क्या आपको पता था?" नीलिमा ने पूछा। हाँ, मुझे अंदर से पता था, भले ही मैं इसे देखना या इस पर विश्वास करना न चाहता होऊँ। "उसने मेरे लिए एक चिट्ठी छोड़ी है।"

"पत्र?" शाश्वत ने गुस्से से चिल्लाते हुए कहा। "आप जानते हैं कि मैं माँ से प्यार करता हूँ, लेकिन वह बहुत ही – बहुत ही चिड़चिड़ी और आक्रामक हो सकती है...." चिड़चिड़ी? आक्रामक? क्या मेरा बेटा मेरी पत्नी, अपनी माँ को यह कह रहा था? प्रियंका कभी भी ऐसी नहीं थी। वह कभी भी आक्रामक नहीं थी। वह प्यार करने वाली और विनम्र थी।

नीलिमा ने चिंता भरी आवाज़ में कहा। "मैंने फ़ोन करने की कोशिश की लेकिन---" "उसका फोन यहीं है, बंद है।" मैंने वह आईफोन उठाया जो उसने पत्र के पास छोड़ा था।

शाश्वत ने गुस्से में कहा, "ठीक है, जब माँ क्रेडिट कार्ड आदि इस्तेमाल करें तो आप क्रेडिट कार्ड कंपनियों को फोन कर देना।" मैंने उनसे कहा, "वह उन्हें भी यहीं छोड़ गई है।"

"क्या? क्यों?" नीलिमा हताश सी बोली। मुझे पता था क्यों। मैंने खाते से पाँच हज़ार रुपये निकाले हैं। मुझे पता है कि हमारे प्री-नेपुटल समझौते में क्या लिखा है, जल्द से जल्द वापस कर दूँगी। "क्या आपको कोई अंदाज है वह कहाँ जाएंगी?" नीलिमा ने पूछा।

"वह वापस आ जाएंगी" शाश्वत ने बड़बड़ाते हुए कहा। "यह सब ड्रामा क्वीन होना है।"

"शाश्वत, बेटा, बस। चुप रहो। मैं समझ सकता हूँ तुम नाराज़ हो, लेकिन वह तुम्हारी माँ है, है न? सम्मान से बात करो।"

"क्या आप नाराज़ नहीं हैं, पापा?" शाश्वत ने पूछा। "वह हम सब को छोड़कर चली गई हैं।"

क्या सच ही वह हमें छोड़ गई थी? या हम तीनों उसे सालों पहले छोड़ गए थे? उसे अपने बच्चों के लिए वॉयस मैसेज छोड़ना पड़ा था, क्योंकि वे उसकी कॉल का जवाब नहीं देते थे। लेकिन उन्होंने मेरी कॉल का जवाब दिया था। मुझे भी पत्र छोड़ा, क्योंकि मैं उसके बहुत से मेसेज मिस कर चुका था, इसलिए उसने मुझे संदेश भेजना बंद कर दिया था। वह शायद ही कभी फोन करती थी। कार्य दिवस के दौरान, मेरा फोन काव्या को फॉरवर्ड होता था, जो मुझे कॉल भेजती थी। मैंने उसे कभी नहीं कहा कि मेरी पत्नी के कॉल को प्राथमिकता दे; मुझे यह भी नहीं पता था कि प्रियंका काम के घंटों के दौरान कॉल करती है या नहीं।

"नहीं शाश्वत, तुम्हारी माँ हमें छोड़ कर नहीं गई बेटे। हम तीनों ही ने बहुत पहले उसे पीछे छोड़ दिया, यही सच है। वह अकेली ही इतने सालों से, हमारे बुरे बर्ताव के बावजूद, हमारे रिश्तों को अकेले उठाए जीती रही। आज आखिर उसने हार मान ही ली। न मैंने, न तुम दोनों ने कई वर्षों से उसकी सुध ली। पिछली बार कब हममें से किसी ने उसका फोन उठाया, उससे एक परिवार के सदस्य की तरह बात की, उसके मेसेज का जवाब दिया या उससे प्रेम के दो शब्द बोले? वह हमारी हर तकलीफ मेँ हमारा सहारा बनी लेकिन क्या हम तीनों मेँ से किसी ने कभी भी उसके सुख दुख की या उसकी बीमारी वगैरह की कोई खबर भी ली? नहीं शाश्वत, मैं बहुत दुखी हूँ बेटा, लेकिन नाराज़ नहीं हूँ।"

"माँ ने आपको क्या लिखा था?" नीलिमा की आवाज़ में आँसू थे। मैंने पत्र की तस्वीर उन्हें भेज दी। शाश्वत ने कहा, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि माँ ने हम पर यह बम फेंका।" वह अभी भी गुस्से मेँ था, जैसे उसने मेरी बात सुनी ही न हो।

"शाश्वत, बस।" मैंने विरोध किया। "मुझे इस बारे में सोचना होगा। मैं... शुभ रात्रि। मैं कल फ़ोन करूँगा।" मैं रसोई में गया और फ्रीजर खोला। बड़े करीने से रखे हुए, खाने के अलग-अलग हिस्से थे। उसने अपने सुंदर कर्सिव हाथ से लेबल पर लिखा था कि प्रत्येक व्यंजन क्या है, भोजन को कैसे कितने तापमान पर कितने मिनट गर्म करना है, और तारीख। उसने मेरे लिए स्वस्थ चीजें बना कर रख छोड़ी थीं। फ्रिज में सलाद को कांच के जार में भरकर रख दिया था, सभी पर बड़े करीने से लेबल और तारीख लिखी हुई थी।

"हम तुम्हारी माँ के झोंपड़ पट्टी में नहीं रहते, प्रियंका; हम ऐसा खाना नहीं खाते। क्या हम कुछ मछली, सलाद, हरी सब्जियाँ खा सकते हैं?" जब हमने पहली बार अपना अलग घर बसाया तो एक दिन मैंने उसके बनाए खाने पर चिल्लाते हुए कहा था। तब बच्चे डेढ़-दो साल के थे। पहले हम मेरे पारिवारिक घर मेँ ही रहे थे। वह शादी के बाद से ही अलग घर के लिए विनती कर रही थी, लेकिन मुझे सहमत होने में इतना समय लग गया। जबकि मैं जानता था कि मेरी माँ उससे दुर्व्यवहार करती है, वहाँ उसका दम घुट रहा है।

जब मैंने फ्रीजर में रखे खाने को देखा तो मेरे गालों पर आँसू बहने लगे। यह उस प्यार करने वाली पत्नी की देखभाल का अंतिम कार्य था जो अपने ही घर में खुद को अदृश्य महसूस कर रही थी। यह उस रोज़मर्रा के प्यार की मार्मिक याद दिलाता था जो उसने दिखाया था, ऐसा प्यार जिसे मैंने हल्के में लिया था। जाते हुए भी वह मेरे दो हफ्ते के भोजन का इंतजाम करना नहीं भूली, जिससे तब तक मैं खानसामा का इंतजाम कर सकूँ। उसे यह सब करने में घंटों लग गए होंगे। क्या उसने यह कल किया था? या परसों हमारी शादी की सालगिरह पर, जो मैं भूल गया था? मैं डाइनिंग रूम में गया और उसने मेरे लिए जो उपहार छोड़ा था, उसे देखा। जिसे मैंने खोलने की तक जहमत नहीं उठाई थी। मैं कम से कम उसे खोलकर उसका शुक्रिया अदा तो कर सकता था; इसके बजाय, मैंने उससे कहा कि मुझे काम पर जाना है और मैं गेस्ट रूम में सोता हूँ। फिर से सालगिरह भूल जाने के बाद भी! मेरा कोई दोस्त सालगिरह भूल गया होता तो पत्नी के आगे नाक रगड़ रहा होता, और मैंने कहा था मैं उस कमरे मेँ सोऊँगा। मैंने उपहार खोला, मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। यह एक घड़ी थी। एक रोलेक्स। लेकिन कोई भी रोलेक्स नहीं। यह उसी मॉडल की घड़ी थी जो मेरे पिता ने मुझे दी थी, जिसे मैंने सालों पहले खो दिया था जब हम न्यू-ऑरलियन्स में हमारी सालगिरह के लिए घूमने गए थे। मैं इसे खोने से बहुत दुखी था।

"मुझे बहुत खेद है, अंशुमन। आप एक नई घड़ी खरीद सकते हैं ---"

"तुम्हें नहीं पता कि तुम क्या बकवास बात कर रही हो। यह एक पारिवारिक विरासत है - 1935 का बेहतरीन ऐतिहासिक मॉडल - तुम नहीं समझ सकोगी यह सब।" मैंने खुद को बेहतर महसूस कराने के उसके प्रयासों को क्रूरता से बंद कर दिया। क्या मैं उसके साथ एक बिगड़ैल अमीर बच्चे की तरह व्यवहार नहीं करता रहा था? घड़ी उसने नहीं, मैंने गुमाई थी, और बच्चों की तरह मैं अपनी खीज उस पर उतार रहा था। हाँ, मुझे यह कहने में शर्म आ रही है लेकिन यही सच था। वह मुझ पर गुस्सा नहीं हुई, आवाज नहीं उठाई, कोई विरोध नहीं किया, लेकिन मैं जब रात मेँ बाथरूम जाने के लिए उठा तो उसके सोये चेहरे पर आंसुओं के निशान थे – जिसे मैंने अपने अहंकार मेँ अनदेखा कर दिया था। मैंने अगले दिन माफी भी नहीं मांगी थी, जैसे मैं उसे सजा दे रहा था कि उसने यह यात्रा आयोजित की, जिसके कारण मेरी घड़ी गुम हो गई। मेरे मन के विकृत तर्क के अनुसार उसे सजा मिलनी ही चाहिए थी, क्योंकि मेरा प्यारा खिलौना जो गुम हो गया था उसकी बनाई यात्रा मेँ।

मैंने घड़ी निकाली। उसे इसे खोजने में बहुत समय लगा होगा। वे ऐतिहासिक मॉडल दुर्लभ थे। यह उससे बेहतर थी जो मैंने खो दी थी। इसका सोने का केस एक नरम इतिहास की चमक से चमक रहा था। रोमन अंकों से चिह्नित हाथी दांत का डायल, फ़्लूटेड बेज़ल फ़्रेम! संयमित विलासिता की विरासत को दर्शाता हुआ। घड़ी के साथ लिखे नोट में लिखा था: ‘मेरे प्यारे अंशुमन, मैं जानती हूं कि जो घड़ी तुमने खो दी है, उसकी भरपाई मैं नहीं कर सकती, लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह घड़ी तुम्हारे दिल को सुकून देगी’ मैंने घड़ी पहन ली और मुझे दुःख की लहर महसूस हुई। मैंने खुद ही अपनी घड़ी खो दी और इसके लिए उसे दोषी ठहराया। जैसे कि मैं अपने जीवन में होने वाली लगभग हर गलती के लिए उसे जिम्मेदार ठहराता था। यह एक आदत बन चुकी थी। मैं उसे हमेशा से ही दोषी ठहराता रहा हूँ, है न?

ऐसा क्यों, जबकि उसने मुझे दो खूबसूरत बच्चे दिए थे, एक घर जो एक शान्त मंदिर जैसा था, एक प्यार जिस पर मैं हमेशा भरोसा कर सकता था? उसका शुक्रिया अदा करने के बजाय, मेरा एक हिस्सा उससे नाराज़ रहता था कि उसने मुझे मेरी माँ की पसंद की लड़की से शादी न कर के उसके साथ “फंसा” दिया! क्या यह मेरी माँ की ही बातें नहीं थीं, जो मेरे मन मेँ इतनी गहरी धंस गई थीं कि मैं उन जैसा ही बन गया था? मैं शुरू मेँ यह इसलिए करता था कि माँ को यह दिखा कर कि ‘देखो मैं इस पर गुस्सा कर रहा हूँ’ उन की नाराजगी दूर कर सकूँ, लेकिन धीरे-धीरे यह मेरी आदत हो गया, वह मेरे लिए एक गुस्सा उतारने की वस्तु हो गई। उसने कभी विरोध नहीं किया और मैंने यह अपना अधिकार समझ लिया।

उस रात मैं बिस्तर पर प्रियंका की तरफ सोया और उसकी खुशबू महसूस करता रहा। उसकी खुशबू प्रियंका जैसी थी, बिल्कुल उसके नाम की तरह। उसके साथ इस बिस्तर पर लेटने की यादें मुझ पर हमला करती रहीं - मेरी भावुक प्रियंका। हमारा समागम कभी उबाऊ नहीं हुआ। मेरे दोस्त नई लड़कियां पाने के बारे में बात करते थे, लेकिन मैंने कभी नहीं की, मुझे कभी ऐसी जरूरत नहीं लगी क्योंकि घर पर मेरी पत्नी मेरा इंतज़ार करती थी। चाहे मैं उसे कितना भी अनदेखा करूँ या उसके बारे में भूल जाऊँ, जब भी मुझे उसकी ज़रूरत होती, वह अपनी बाँहें फैला देती और मुझे अपने अंदर समाने देती, मुझे वह शांति महसूस होती जो सिर्फ़ वही मुझे दे सकती थी। जब मुझे उसका स्नेह और उदारता याद आई, तो मेरा दिल इतने टुकड़ों में टूटने लगा, कि मुझे लगा कि मैं उन्हें फिर से नहीं जोड़ पाऊँगा। मैंने अपने जीवन का प्यार खो दिया। उस एकमात्र संगिनी को खो दिया जिसने मेरे दिल को थामा था, जिसने मुझसे जितना लिया उससे कहीं ज़्यादा मुझे दिया था।




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