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रविवार, 24 फ़रवरी 2013

सभ्यता शासन क़ानून व्यवस्था दंड प्रक्रिया 5 : स्त्रियाँ - एक और वर्ग समूह

पुराने भाग 1    4   

इस भाग में "स्त्री - पुरुष" वर्ग विभिन्नता, और अगले भाग में इन असमानताओं के चलते बन गए , सही और गलत , सामाजिक नियमों, परम्पराओं और "शोषण" आदि पर बात करेंगे

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इस पोस्ट में माँ और पिता की पहचान आदि के सम्बन्ध में मैं जो कह रही हूँ, यह बात मैं सभ्य समाज के बन जाने के बाद की नहीं कर रही हूँ - समाज के स्थापन के पहले की कर रही हूँ । 

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स्त्री पुरुष वर्ग क्या सचमुच भिन्न हैं, या यह समाज का बनाया हुआ या थोपा हुआ वर्ग है ?

मुझे निजी तौर पर लगता है की समाज द्वारा कोई भी चीज़ तब तक थोपी ही नहीं जा सकती जब तक भीतर से फर्क न हो उन दोनों वर्ग समूहों के अधिकांश व्यक्तियों के स्वभाव और प्रवृत्तियों में । 

तो क्या इससे पहले के भाग में जो मैंने मानुषी स्वभाव की स्वाभाविक रुचियों की बातें कीं - क्या स्त्रियों में वे ही चार प्रकार नहीं होते ? जो स्त्रियाँ सब एक ही समूह में आ गयीं  ? क्या सभी स्त्रियों की एक सी प्रवृत्तियां होती हैं ???

नहीं - स्त्रियों में भी हर तरह की रुचियाँ होती हैं । संसार में सभ्य समाज की स्थापना के पहले के समय में , जब स्त्री और पुरुष दोनों ही अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे, तब तो निश्चित तौर पर किसी भी दूसरी प्रजाति ही की तरह स्त्री-पुरुष दोनों ही बराबर रहे होंगे । दोनों अपनी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए भोजन इकठ्ठा करते होंगे, फल, फूल, शिकार आदि । 

मैंने इस शृंखला के एक पुराने भाग में भी लिखा था - मानव स्तनधारी जीव हैं , जिनमे प्राकृतिक रूप से दूसरी प्रजातियों से कहीं अधिक संतान प्रेम दीखता है । मनुष्य में "साथ ढूँढने" और "परिवार जोड़ने" की प्रवृत्ति दुसरे स्तनधारियों से भी कहीं अधिक है, क्योंकि मानव बालक की संभावनाओं के पूर्ण विकास के लिए अन्य प्राणियों से कई गुना अधिक समय और लगन की आवश्यकता है । सिर्फ़ शारीरिक विकास का प्रश्न ही नहीं है, मानसिक और आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और कलात्मक, अनेकानेक संभावनाएं हैं । इन सब संभावनाओं के साथ ही स्मृति है, तो पुराने विकास को याद रख कर अगली पीढ़ी को देने का अवसर भी है । मानव संतान को , शारीरिक देख रेख की भी, और देख रेख के समय खंड की अवधि के सम्बन्ध में भी , देख रेख की दूसरी स्तनधारी प्रजातियों से अधिक आवश्यकता है।  

जैसा हम हर स्तनधारी जीव में देखते हैं - सन्तति के प्रति माँ का लगाव और माँ सन्तति को माँ की आवश्यकता - दोनों ही - हर स्तनधारी जीव में - पिता से कहीं अधिक है । माँ के गर्भ में पलने से, और उसके दूध पर जीवित रहने के लिए पूरी तरह निर्भर होने से - संतान का जीवन के आरंभिक चरणों में - स्वाभाविक रूप से संतान का माँ के प्रति (और माँ का संतान के प्रति) लगाव पिता से कहीं अधिक दिखता है । 

फिर ? क्या पिता की कोई भूमिका ही नहीं ? शुद्ध वैज्ञानिक रूप से बताइये - मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी प्रजातियों को देख कर बताइये - पिता का योगदान सिर्फ जीवन के निषेचन के बाद होता है क्या ? होता है तो कितना ? क्या माँ जितना ही ? यदि दुसरे जीवों में यह नहीं है , या न के बराबर है, लेकिन मनुष्य में इतना गहरा नाता है - तो यह फर्क क्यों है ?

यह फर्क इसलिए है कि मानव में अपनी सन्तति और फिर उसकी सन्तति से प्रेम होना शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि मानसिक, और अन्य क्षमताओं, की प्रगति के लिए,  स्वाभाविक तौर पर उपजा है । पीढ़ियों के अर्जित ज्ञान का हस्तांतरण तब ही हो सकता है, जब उसके "योग्य सामाजिक माहौल" हो  । और समाज की संकल्पना तो परिवार की इकाई के विकास के बाद ही हो सकती है । 

तो पिता और माता एक इकाई में कैसे बंधें ? संतान को दोनों ही की देख रेख मिले इसकी व्यवस्था कैसे की जाए ?

जाहिर तौर पर - माँ का होना, और माँ की पहचान तो संतान के जन्म और उससे भी पहले उसके गर्भवती होने भर से ही , और प्रसूति से भी , स्वयं सिद्ध है । जन्म के बाद भी सहज और निहित तौर पर ही माँ का सन्तति से जुड़ाव है ही, पहचान और ऐक्य है ही । किन्तु पिता के प्रति ऐसा बिलकुल नहीं है । 

आज नारीवाद चीख चीख कर कहते हैं कि प्रकृति ने नारी से अन्याय किया पहले ऋतुस्राव की परेशानी फिर गर्भ का बोझ और फिर संतान उत्पन्न करने का दर्द और उसकी देख रेख की ज़िम्मेदारी । यह बात सिरे से ही मूर्खता पूर्ण है  । मातृत्व सुख सिर्फ मानव स्त्री ही नहीं पाती, हर प्रजाति की मादा संतान सुख पाती है । और यह ऐसी भेंट है जिसके लिए कोई भी "कीमत" लग ही नहीं सकती, यह संभव ही नहीं है । माँ बन जाने का सुख संसार की किसी भी चीज़ से बड़ा है - माँ होना , जन्म देना स्वार्गिक अनुभूति है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता न ही परिभाषित किया जा सकता ही है । 

फिर पिता ? उसका प्रेम, उसकी स्थिति ? संतान का जुड़ाव उससे कैसे हो ? माँ से तो स्वाभाविक रूप से हो ही गया - किन्तु पिता से कैसे हो ? याद रहे -  और यह बात मैं सभ्य समाज के बन जाने के बाद की नहीं कर रही हूँ - समाज के स्थापन के पहले की कर रही हूँ । संतान की पहचान अपनी जननी "माँ" से तो अन्तर्निहित है, लेकिन पिता का नाम माँ से ही मिल सकता है । यह तब ही हो सकता है जब एक स्त्री का एक ही पुरुष से सम्बन्ध हो । समाज बाद में आये, परिवार और कुनबे पहले बने  । उससे पहले मानव झुण्ड में भले ही रहते हों परस्पर रक्षा और अस्तित्व के लिए, किन्तु समाज का अर्थ सिर्फ साथ रहना भर नहीं होता । 

तो - समाज की प्रस्थापना से पहले ही पारिवारिक इकाइयां और फिर कुनबे बनते गये होंगे । 

स्त्री के पास तो प्रकृतिदत्त सहज भेंट थी - माँ होने की । उस संतान पर प्रेम का दावा करने वाले पुरुष ( पिता ) के पास यह सुविधा नहीं थी । उसे अपनी पहचान के लिए माँ के कथन पर निर्भर होना था  ।उस्के बदले वह स्त्री को क्या दे कि स्त्री उसके साथ अपनी बाकी रुचियों को छोड़ कर सिर्फ उसकी बनी रहे ? 

ध्यान देने की बात है कि नव प्रसूता मादा (स्त्री नहीं हर प्रजाति की मादा) की रुचि सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान में होती है । नवजात शिशु की माँ होने का नशा ऐसा है जो हर दूसरी रूचि को कुछ समय के लिए पृष्ठभूमि में फेंक देता है । नवप्रसूता शेरनी हो या बिल्ली, वह अपनी संतान की सुरक्षा को लेकर अत्यधिक हिंसक और चिंतित होती है, और वह कदापि उस बच्चे को छोड़ कर इधर उधर नहीं जाना चाहती । इससे भी आगे, मानव प्रजाति की नवप्रसूता तो बाकी प्रजातियों से कहीं अधिक शारीरिक कष्ट से गुज़र कर माँ बनती है, और उस समय शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर होती है ।  ऐसे में यदि मानव "पुरुष" यह जिम्मा ले ले कि  वह उस माँ और उसकी सन्तति के भरण पोषण का पूरा इंतज़ाम करेगा, तो माँ निश्चिन्त हो कर सिर्फ संतान को अपना समय दे सकती थी, जिसमे उस सीमित समयावधि में उसकी रूचि बाकी सब रुचियों से अधिक होती । 

फिर से ध्यान दीजिये - मैं समाज आदि के पहले के जंगली समय की बात कर रही हूँ  । तब न TV  था, न पुस्तकें न मनोरंजन के अन्य साधन । शारीरिक ऊर्जा अत्यधिक थी, शक्ति भी , जबकि मानसिक चिंताएं सिर्फ  अस्तित्व बचाने तक सीमित थीं । तो ऐसी कोई रुचियाँ नहीं थी जो नवप्रसूता माँ को अपनी संतान से दूर खींच रही हों  । और पुरुष को भी सिर्फ अपनी स्त्री और सन्तति की प्राणरक्षा और भरण पोषण का इंतज़ाम करना था (जो अपने आप में काफी कठिन होता होगा उस समय खंड में ) । लेकिन मनोरंजन के कोई बहुत अधिक साधन न होने से यौनाकर्षण आज से कहीं अधिक रहा होगा, तो संतानें होती चली जाना बहुत स्वाभाविक होता होगा । तो स्त्री नवप्रसूता की स्थिति में ही होती अक्सर, और उसे रूचि संतान में होती, और पुरुष को परिवार के जीवन यापन का प्रबंध करना होता । 

जब परिवार है, तो घर भी चाहिए । घर है तो उस को सजाना सम्हालना भी होगा  । यदि पति शिकार पर गया है, जाता है, रोज जाता है , तो घर की देखभाल स्वतः ही नारी पर आ गयी होगी , क्योंकि वह संतान के साथ उसकी सुरक्षा के लिए घर पर रहती होगी । यह कोई ऊपर से थोपी हुई स्थिति न हो कर प्रकृतिजन्य स्थित थी, जिसमे "शोषण" जैसी कोई कल्पना नहीं थी । 

पुरुष को सन्तति पर अपना अभिज्ञान चाहिए, स्त्री को अपनी संतान की देख रेख में सहयोग चाहिए  । जो जोड़े एक दुसरे की इस आपसी आवश्यकता की पूर्ती कर रहे हों, वे स्वाभाविक रूप से साथ रहने लगे, रहते रहे - तो परिवार की इकाई बनी होगी । इसमें शोषण कहाँ है ? कार्य के बंटवारे को तात्कालिक रूचि के अनुरूप किया गया - और वह धीरे धीरे आदत में आ गया , "स्वाभाविक रूचि" से हट कर "अपेक्षित कर्त्तव्य" में परिवर्तित हो गया होगा ।  

जिन स्त्री और पुरुष दोनों की रुचियाँ एक सी हुईं वे एक दुसरे पर आकर्षित होते, और साथ जीवन यापन करते।धॆरे धीरे समाज का विकास हुआ होगा  ।और विभिन्न रुचियों के समूह बनते अगये होंगे जैसा मैंने पिछली पोस्ट में कहा था । स्वाभाविक तौर पर, पढने लिखने वाले परिवारों में जन्मी संतान (चाहे बच्ची या बच्चा) की रूचि उस ओर ही बढती । लेकिन सामाजिक समूह बन जाने से पहले ही, पाषाण काल से ही , परिवार में स्त्री और पुरुष के कार्यक्षेत्र का विभाजन हो आया था ।  

तो यह ऐसा था की - लड़कियों को पढने, शिकार सीखने धनुष्बाजी  सीखने, आदि आदि "बाहरी कार्य सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उसके पास  मातृत्व की पूँजी है" । जिसके "बदले में" उसे जीवन भर सम्हालने के लिए, उसका भरण पोषण करने के लिए "पुरुष"  स्वयं सामने आयेंगे । तो आवश्यक नहीं कि वह ज्ञान, शक्ति या धन अर्जित करने की प्रतियोगिता में पड़े । यह "न करने की सुविधा"  कब और कैसे "न कर सकने की मजबूरी" में बदल गयी होगी, कोई जान ही न पाया होगा।

जैसा मैंने पिछली पोस्ट में कहा था - ज्ञान, शक्ति और धन, ये तीनों शक्ति के तीन केंद्र हैं जिनसे समाज चलता है । समाज निर्माण के पहले के जंगली समय में तो स्त्रियाँ बाकी तीनों शक्तिकेंद्रों से बढ़ कर मातृत्व शक्ति केंद्र होने से परम धनिक थीं, तो उन्हें माँ के रूप में पूजा गया, अर्थात सिर्फ माँ बन पाने के कारण ही पुरुष ने उन्हें शीश पर लिया , पूजनीय माना, उनकी सेवा की । 

लेकिन समय बीतने के साथ स्थिति पूरी तरह पलट गयी । इस स्वाभाविक "सन्तति प्रेम" में उलझी रह गयी स्त्री पुरुष के समकक्ष अपनी प्रतिभाओं की प्रगति करने में पिछड़ गयी, और ज्ञान, दर्शन , शक्ति, धन हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी रूचि होते हुए भी इन रुचियों के "संतान प्रेम की रूचि" से कमतर होने के कारण उतनी प्रगति नहीं की जितनी वे स्वाभाविक तौर पर कर सकती थीं  । इस बीच बाकी हर क्षेत्र में हो रही प्रगति में न तो तत्कालीन स्त्रियाँ सहभागी ही हो सकीं , न जान ही सकीं कि हो क्या रहा है  । तो आरंभिक दर्शन बनाए पुरुषों ने , धर्मग्रन्थ लिखे पुरुषों ने, परिभाषाएं गाढ़ी पुरुषों ने । स्वाभाविक ही था कि उन दर्शनशास्त्रों में पुरुष का ही दर्जा स्त्री से ऊपर था  । 

परिवार की इकाई की संस्थापना ऐसे हुई होगी (जो पाषाण युग में पुरुष का स्त्री के स्वाभाविक मातृत्व से प्राप्त "संतान पर अधिकार" को अपना नाम देने और सहभागी होने की आवश्यकता से शुरू हुआ होगा) 

पुरुष की स्थिति :-
"अपनी संतान पर तुम्हारी पहचान और अधिकार तो स्वयं सिद्ध है । तुम मुझे अपनी स्वयंसिद्ध संतान पर पहचान और अधिकार दो - उसके बदले में मैं तुम्हे सब सुविधायें  दूंगा । यदि मैं राजा हूँ, तो तुम रानी । यदि मैं यज्ञकर्ता हूँ तो तुम उस यज्ञ में बराबरी की सहभागिनी होगी, यदि मैं धनार्जन करता हूँ तो तुम उस धन की बराबरी की स्वामिनी होगी । मेरी शक्ति, मेरे ज्ञान, मेरी संपत्ति आदि सब पर तुम्हारा मेरे ही जितना अधिकार होगा, तुम्हे सिर्फ इतना करना है कि तुम्हारे गर्भ से जन्मी हर संतान "मेरी संतान" होने की मुझे आश्वस्ति देनी है (जो तब ही हो सकता था जब स्त्री शारीरिक तौर पर सिर्फ एक पुरुष के साथ सम्बन्ध बनाए)"   

स्त्री की स्थिति :-
"मैं माँ हूँ । मैं तुम्हे यह आश्वासन देती हूँ कि मेरी हर संतान तुम्हारी होगी (जो तभी संभव था जब स्त्री "पतिव्रता" हो)  । इसके बदल तुम मेरी , और मेरी संतानों की , आवश्यकताओं की पूर्ती करोगे और तुम भी मेरे प्रति निष्ठावान रहोगे । तुम्हारी हर वस्तु पर मेरा बराबर अधिकार होगा । "

यह शायद विवाह संस्था की शुरुआत थी । फिर संतानों के साथ इकाई हो जाने से सन्तान और माता पिता का स्वाभाविक प्रेम होने से , उसकी भलाई आदि के चलते, उसके जीवन साथी का चुनाव भी "अनुभवी और समझदार" परिवार की ओर से होने लगा होगा ।  लडकी को माँ बनना है, उसी "मातृत्व" संपदा पर जीवनयापन करना है , तो उसके लिए परिवार खोजने में माता पिता अपने ही जैसे (या बेहतर) परिवार की तलाश करते - और यह सब धीरे धीरे हर एक वर्ग समूह में बैठता चला गया होगा । 

जीवन की राह पर चलने के तरीके का चुनाव "स्वरूचि" से बदल कर "दूसरों के अनुसार रहने/ करने की मजबूरी" हो जाने पर जीवन शैली स्वाधीन नहीं रहती , परतंत्र हो जाती है । "प्रेम और भला सोचना" धीरे धीरे "अधिकार ज़माना और शोषण" में बदल जाता है । संतान प्रेम/ मोह में अंधी हुई और उस "मातृत्व शक्तिकेंद्र" की स्वामिनी होने से "पूजित और सेवित" बनी स्त्रियों के साथ यही हुआ होगा । ठहरा पानी अक्सर सड़ने लगता है  । सन्तान और मातृत्व की शक्ति पर सीमित रह गयी स्त्री , पुरुष के समकक्ष प्रगति न कर सकी, और धीरे धीरे परिवार संस्था ने उसे जकड लिया होगा । वह स्वतंत्र से मजबूर , और सेवित से सेविका , बन गयी होगी । 

विभिन्न वर्गों द्वारा विभिन्न वर्गों के बारे में विचार, शोषण आदि पर आगे के भागों में बात होगी । 

पढने के लिए आभार ।  

जारी ..... 

23 टिप्‍पणियां:

  1. परिवार से समाज तक नारी की यात्रा को आपने बहुत बुद्धिगम्य तरीके से उकेरा है ......कई पहलुओं के विस्तार से समझाने से स्थिति बहुत स्पष्ट हुयी है -नारी की इस विकास यात्रा में निश्चय ही प्रकृति की परोक्ष भूमिका भी रही है ,जैवीय और जीनिक पहलू रहे हैं -कार्यक्षेत्र की बंटवारे की बात भी हमारे जीनों में समाई है,एकनिष्ठता के सारे फायदे नारी ने हमेशा पाए हैं।
    आज जरुरत इस बात कि है कि बदलते औद्योगिक समाज में हम दोनों जन सामंजस्य कैसे बिठायें? यह न भूलते हुए कि हमारे जीनिक व्यवहार प्रतिरूप अभी जल्दी नहीं बदलने वाले -जैवीय विकास एक बहुत ही धीमी प्रक्रिया है .
    आज की नारी का रोल और लक्ष्मण रेखायें क्या हो ? और पुरुष के लिए क्या आचार संहिता -कानूनी बंधन हो।
    आपकी समाज में सहज रूचि है -आईये हम इस पर एक सार्थक चर्चा करें और विषय के विद्वानों और समाज के कर्णधारों, नेताओं ,नीति नियोजकों,कानूनी विशेषज्ञों को भी इस मुहिम में आमंत्रित करें!

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    1. Respected mishra sir - i am trying my best. this whole series is an effort towards this goal.

      But as you know, I am hardly known at all in the blog world, and very few people read my posts. But as Krishna says - "Karmanyevaadhikaaraste...." hence i am doing my part.

      If the inputs do come in, it is fine. If they do not come in, well, i am doing my part ....

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    2. @ 1. परिवार से समाज तक नारी की यात्रा को आपने बहुत बुद्धिगम्य तरीके से उकेरा है
      ............ आभार सर । :)

      @ 2. कई पहलुओं के विस्तार से समझाने से स्थिति बहुत स्पष्ट हुयी है -नारी की इस विकास यात्रा में निश्चय ही प्रकृति की परोक्ष भूमिका भी रही है ,जैवीय और जीनिक पहलू रहे हैं ..................

      ............. प्रकृति के नियमों के अनुसार हमारी तात्कालिक और दीर्घकालिक रुचियाँ बनती हैं और उन रुचियों के अनुसार, साथ ही अस्तित्व बनाए रखने की मांगों के अनुसार , हमारी निजी व्यवहार पद्धातियाँ बनती हैं, जो एक जीव की आदत में आ जाती हैं । ...... लेकिन यदि अनेक पीढ़ियों तक यही आदतें बनी रहे तो यह सब फिर "निजी आदत" न रह कर "सामाजिक आदत" बन जाता है । जहाँ सामाजिक प्रतिबद्धता शुरू होती है, वहां व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छीन जाती है, जो मन मस्तिष्क में विद्रोह को जन्म देता है, और यह विद्रोह धीरे धीरे व्यवहार पद्धतियों को बदलता है ।

      @ 3. कार्यक्षेत्र की बंटवारे की बात भी हमारे जीनों में समाई है,

      .......... नहीं । इस बात से मैं निजी तौर पर ज़रा भी सहमत नहीं हूँ । इस पर समाज में दो विपरीत मत हैं ।

      एक समूह मानता है कि व्यवहार जीनिक श्रंखला से आता है । "अवारा" फिल्म (राजकपूर जी ) में जज ने कहा चोर का बेटा चोर ही होगा - क्योंकि वे यही मानते थे । और उन्होंने एक बेगुनाह को सजा दे दी, यही मानते हुए कि यह चोर का बेटा है तो अवश्य चोर है । बदले में उस बेगुनाह ने उन के घर को बर्बाद कर के बदला लिया । उनके अपने पुत्र को चोर बना कर । हमारी फिल्मों में अक्सर दिखाते थे पहले - कि "चालाक" दीवान ने "भले" राजा के नवजात बेटे से अपने बेटे को बदल दिया । अच्छे लोगों के बीच पलते हुए भी , भले माता पिता से भलाई के संस्कार पाते हुए भी , दीवान का बेटा हमेशा खलनायक ही निकलता दिखा, और बुरे से बुरे माहौल में पल कर भी राजा के पुत्र को हमेशा नायक दर्शाया गया अपने व्यवहार में ।

      मैं इस विचारधारा से कदापि कदापि सहमत नहीं हूँ ।

      मुझे लगता है कि व्यवहार बड़े होते हुए अपने परिवेश के सामाजिक और पारिवारिक माहौल से बनता है - यह जीनिक नहीं होता । यदि कुछ पुरुष स्त्रियों का सम्मान करते हैं, उन्हें अपने ही जैसा मानव मानते हैं - तो यह उनके पारिवारिक परिवेश से बनी धारणाएं हैं । यदि कुछ दूसरे पुरुष ( जिन्हें मैं निजी तौर पर बहुत ही नीच और गिरा हुआ मानती हूँ - मैं गलत हो सकी हूँ या सही हो सकती हूँ - लेकिन मैं निजी तौर पर यही मानती हूँ ) अपने परिवार की स्त्रियों को अपने अधीन, अपनी सेविका, और दुसरे परिवारों की स्त्रियों के "जीतने योग्य वस्तु" मानते हैं , तो यह भी उनके पारिवारिक परिवेश का ही प्रतिबिम्ब है - ऐसा मुझे लगता है ।

      फिर वे चाहे बलात्कार से परस्त्री को "जीतें", या शक्ति के भय से उसे मजबूर / ब्लैकमेल कर अपना बनने पर मजबूर करें (क्षत्रिय पतन ) / प्रेम न होते हुए भी प्रेम के झांसे में उसे मूर्ख बना कर "जीतने" के प्रयास करें / धन के लोभ से खरीदने के प्रयास करें (वैश्य पतन ) / ज्ञान से रिझा कर उसे वश में करें (पतन) - ये सभी विभिन्न जातिवर्गों की एक ही नीचता को दर्शाता है, जब वे स्त्री को मनुष्य न मान कर एक पारितोषिक मान कर उसे जीतना चाहते हैं ।

      पतन का अर्थ है जो आपका नहीं है उसे अपने अधीनस्थ शक्तिकेंद्र ( शक्ति / ज्ञान / धन) का दुरुपयोग कर छीन लेने के प्रयास ( प्रयास के सफल होने न होने से पतन का कोई सम्बन्ध नहीं ) - प्रयास ही चारित्रिक पतन है)

      परायी स्त्री को जीतने के प्रयास करने वाले नीच हैं मेरी दृष्टि में, इनके मानसिक स्तरों और प्रक्रियाओं में भी भेद हैं । इस पर अगले भाग में बात करूंगी ।

      continued..

      हटाएं
    3. continued....

      @ 4. एकनिष्ठता के सारे फायदे नारी ने हमेशा पाए हैं ।

      इस बात से भी पूरी तरह असहमत हूँ । मुझे निजी तौर पर लगता है कि इस के फायदे स्त्री ने नहीं , पुरुष ने पाए हैं । पारिवारिक संस्था बनी ही इसलिए कि पुरुष को सन्तति पर अधिकार और अभिज्ञान प्राप्त हो । स्त्री को तो यह भेंट प्रकृति दत्त थी । इस अभिज्ञान के अधिकार के एवज में पुरुष उस स्त्री का "सिर्फ एक अतिरिक्त व्यक्ति" (स्त्री) का भरण पोषण करता - जिसके बदले उसे सन्तति, परिवार, व्यवस्थित घर, अपनी अभिरुचियों का विकास करने का मौका और अनेकानेक लाभ मिले ।

      स्त्री ने सिर्फ अपने निजी भरण पोषण की चिंता से मुक्ति पायी और यह सब दिया (((जो उसके लिए स्वाभाविक रूप से उपलब्ध था क्योंकि वह तो माँ थी ही, उसे किसी बाहरी अभिज्ञान की आवश्यकता नहीं थी - वह अपने पुत्रों की और अपनी पुत्रियों की, फिर अगली पीढ़ी में उन पुत्रियों की सन्तति की अधिकारिणी तो जन्म देने भर से हो जाती - जो पुरुष को उपलब्ध न था - क्योंकि जन्म की पहचान माँ से सहज जुडी है ))) उसे सिर्फ और सिर्फ बाहरी रोटी की खोज से मुक्ति मिले , बालक बालिका की देख रेख के, घर सम्हालने , अपनी रुचियों के विकास के मौके अध्ययन के मौके , धनार्जन के मौके, .... को त्याग देने आदि आदि के एवज में ।

      @ 5. आज जरुरत इस बात कि है कि बदलते औद्योगिक समाज में हम दोनों जन सामंजस्य कैसे बिठायें?
      ........... 100 डॉलर प्रश्न है :) इसीके उत्तर तो खोजे जा रहे हैं :)

      @ 6. यह न भूलते हुए कि हमारे जीनिक व्यवहार प्रतिरूप अभी जल्दी नहीं बदलने वाले -जैवीय विकास एक बहुत ही धीमी प्रक्रिया है .

      ............ बता ही चुकी हूँ इस "जीनिक व्यवहार" की थियरी से ही मैं पूरी तरह असहमत हूँ । गीता में भी sri krishna अर्जुन से कहते हैं - तेरा कर्म तेरा निर्णय है - और तेरे कर्म की पूरी जिम्मेदारी तेरी अपनी है । तेरे कर्म का फ़ल , कर्मानुसार मैं निश्चित करूंगा । तू अपने निर्धारित कर्म करने का / सुकर्म करने का / अपकर्म करने का / कर्महीन रहने का ठीकरा अपने जन्म या परिस्थितियों आदि के सर नहीं फोड़ सकता । ............. और "पुरुष" या "स्त्री" होना भी एक जन्म से प्राप्त परिस्थिति भर है - उससे अधिक कुछ नहीं ।

      @ 7. आज की नारी का रोल और लक्ष्मण रेखायें क्या हो ? और पुरुष के लिए क्या आचार संहिता -कानूनी बंधन हो।
      ............ कोई भी रोल / कोई भी लक्ष्मण रेखा / कोई भी आचार संहिता - सिर्फ जेंडर के आधार पर निर्णीत करना ही गलत लगता है मुझे तो । चाहे वह स्त्री पर हो या पुरुष पर ।

      सही और गलत के बारे में एजुकेशन हर एक मनुष्य को मिलनी चाहिए ।

      फ़िर यदि कोई (चाहे वह स्त्री हो या पुरुष) मानवता के खिलाफ कार्य करता है और दुसरे मानव (चाहे वह दूसरा स्त्री हो या पुरुष) को अपने स्वार्थ के लिए मन/ वचन/ कर्म से ----शारीरिक/ मानसिक / या अध्यात्मिक -----हानि करता है - तो संहिताओं में उसे उचित रूप से दण्डित किये जाने के प्रावधान होने चाहिए ।

      यदि हम नहीं कर सके / सकते / चाहते / या कर सकते होने के बावजूद न निजी कम्फर्ट ज़ोन के चलते न करने के बहाने खोजते हैं ( परिस्थितियों आदि में) - तो फिर ऊपर कोई शक्ति है जो उस अपकर्म करता को बचने के बहाने उपलब्ध कराने वालों को भी उस अपकर्म के करता के साथ ही दण्डित अवश्य करेगी ।

      @ 8. आपकी समाज में सहज रूचि है -आईये हम इस पर एक सार्थक चर्चा करें और विषय के विद्वानों और समाज के कर्णधारों, नेताओं ,नीति नियोजकों,कानूनी विशेषज्ञों को भी इस मुहिम में आमंत्रित करें!

      ........... प्रयास कर सकती हूँ, कर रही हूँ । साधारण स्त्री हूँ, किसी भी ऐसे बड़े व्यक्ति को नहीं , जब नहीं जानती तो निमंत्रित भी नहीं कर सकती । :) वह सब आप सब "बड़े ब्लोगर्स" की सामाजिक जिम्मेदारी है कि यदि आपको कहीं भी कोई भी चर्चा सार्थक लगे तो उसे अधिकाधिक जनों तक पहुंचाएं :)

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    4. I read many of your blogs but this one I like due to the language and the clarity, Kudos to you shilpa di for doing what you really love to do :)
      Admire you more and more with time :)

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    5. hey jasdeep - lovely to see you here. love you dear.

      thanks for the compliment... :) .... i admire u too - there isn't much difference between us except a years gap - as we used to say quite oft in the good old gsits days....

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  2. स्त्री पुरुष एक इकाई से परिवार , घर ,समाज में बदलते , कारणों और परिस्थितियों की जबरदस्त विवेचना ! आपकी सुलझी दृष्टि प्रभावित करती है .
    सबसे बड़ी बात कि आपको लेख के साथ कोई अखरने वाली तस्वीर लगाने की जरुरत भी नहीं पड़ी , स्त्रियाँ इस मायने में भी श्रेष्ठ हैं :)

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  3. अच्छी सीरीज |
    शुभकामनायें आदरेया ||

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  4. बहुत ही सार्थक विवेचना,आभार.

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  5. अच्छा विश्लेषण किया है, शायद ऐसा ही हुआ होगा।
    By the way, best part of this post(and comments) is 'If the inputs do come in, it is fine. If they do not come in, well, i am doing my part .... ' :)

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  6. यथार्थ विवेचना सम्भव हुई है. प्राकृतिक स्वछंदता से पारिवारिक अनुशासन व प्रतिबद्धता का आगमन इन्ही कारणों से सम्भव हुआ होग.इन्ही आवश्यकताओँ के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था स्थापित हुई होगी.

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    1. @ ....का आगमन इन्ही कारणों से सम्भव हुआ होग

      haan - mujhe bhi aisa hi lagta hai sugya bhaiya :)

      kahaan the aap - bade dinon se blogjagat me kahin bhi nahi dikhe... :(

      acchaa laga aap laut aaye :) :)

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    2. पिछली 30 जनवरी को मेरे बडे भैया का आक्समिक निधन हो गया,शोकसंतप्त था. अब कुछ सामान्य हो पाया हूँ. ब्लॉगर मित्रोँ के सहयोग जल्द ही सहज हो सकुँगा.

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    3. हे भगवान ....

      निःशब्द हूँ भैया । ईश्वर आप सब को इस शोक से उबरने की शक्ति दें । वे (आपके बड़े भैया) जहां भी हों, खुश रहे ।

      Please accept my condolences ....

      हटाएं
    4. आपकी सांत्वना एवं सम्वेदनाओं के लिए आभार!!!

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  7. This is very intresting post, I like the language and the content so clear demarkation of Mother and Father, My Congrates,
    Admire you more and more over the time

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    1. thanks jasdeep - you are yourself such a perfect mother - so i suppose you can understand what i said about mothers in this post :)

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